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साहित्य-संस्कृति

हेमंत कुमार की नयी कहानी ‘वारिस’

(हेमंत की कहानियां अपने समय के यथार्थ को बेहद संवेदनशील तरीके से चित्रित करती हैं और पाठक को सोचने को विवश करती हैं। पढ़िए हेमंत कुमार की नयी कहानी ‘वारिस’।: सं)


वह माघ की पूर्णिमा थी। रात के अभी नौ बज रहे थे लेकिन वातावरण इतना शांत था कि आधी रात का आभास हो रहा था। वातावरण में हल्के कोहरे की धुंध होने की वजह से चांद की रोशनी फीकी नज़र आ रही थी । उसी फीकी रोशनी में पूरी हवेली किसी कब्रिस्तान सी लग रही थी । करीब ढाई बीघे में फैली यह हवेली जमींदारी के जमाने में काफ़ी मशहूर थी। हवेली का आगे का हिस्सा तो अभी साबुत है लेकिन पीछे का हिस्सा पूरी तरह से ढह चुका है । जिसपर जंगली झाड़ियां और कुछेक बिना किसी काम के बड़े बड़े पेड़ उग आए हैं । झाड़ीयों मे सियारों और पेड़ों पर चमगादड़ो का बसेरा है। जो कभी कभी रात में ऐसा शोर मचाते कि हवेली डरावनी लगने लगती। हवेली लगभग खाली हो चुकी थी।
हवेली के एक किनारे खंडहर को समतल करके एक लम्बा टीन सेड पड़ा हुआ था। जिसमें एक अच्छी नस्ल का सांड और एक भैंसा खुटे से बंधे हुए थे। जो ठंडक से धीरे धीरे कांप रहे थे । उन्ही के बगल में चारपाई पर चन्दन लेटकर अपने छोटे भाई कुंदन का इंतजार कर रहा था । जब चन्दन और कुंदन खेत बेंच कर दारू पीने लगे। उसी दौरान चन्दन पत्नी हमेशा के लिए मायके चली गईं। टीन शेड के बगल में एक बेमरम्मत कमरा था जिसमें भूसा चारा रखा हुआ था । शेष दो कमरों में एक में अपाहिज मां थी जिसे दो साल पहले शरीर के पूरे दाहिने अंग में लकवा मार दिया है। उनका क्रिया कर्म बिस्तर पर ही होता है। कुंदन की पत्नी सरिता उनकी खूब देख भाल करती है जबकी रोज सुबह कुंदन इस आशा में देखने जाता है कि आज वह जरूर मर गई होगी और उसके हिस्से की जमीन की बरासत हो जायेगी लेकिन हमेशा वह कमरे से निराश होकर लौटता।
दूसरा वाला कमरा सरिता का था। कमरे मे जले डीजल की मद्धिम ढिबरी जल रही थी। उसके मटमैले उजाले में अपने मायके वाले बेड पर प्रसव पीड़ा स वह कराह रही थीं। कभी कभी पीड़ा इतनी तेज उभरती कि वह चीखने लगती । उसकी चीख इतनी तेज़ होती कि पेड़ के चमगादड़ फड़फड़ा उठते और झाड़ियों में सियार रोने लगते। पूरी हवेली खाली थी और गांव हवेली से थोड़ी दूरी पर था। गांव के लोगो की पहली नींद थी। अधिकांश लोगो को तो पता ही नहीं चला। जिसको थोड़ी आहट भी हुई, वह कुंदन के व्यवहार को देखकर रजाई में दुबक गया। सरिता चीखती रही, चिल्लाती रही। कभी वह पेट पकड़ कर बैठ जाती। जब एकदम बर्दास्त नहीं होता तो वह पेट पकड़ कर मां के कमरे में आ जाती और उनके पैर पर लोटन लगती। मां के गले से सिर्फ ऊ ऊ की आवाज आती और लगातार अपनी छाती पिटती। इसका चन्दन पर कोई असर नहीं पड़ता। वह सिर्फ कुंदन का इंतजार कर रहा था।
कुछ ही देर में कुंदन आ गया । उसके आते ही चंदन बिफर पड़ा,”तेरी पत्नी को बच्चा पैदा होने वाला है और तुम बेपरवाह होकर इतनी रात तक आवारागर्दी कर रहा है। तुझे जरा भी शर्म नहीं है।”
“बच्चा उसको जनना है तो मैं अपना पैर क्यों पटकू ?” कुंदन दूसरी चारपाई पर लेटते हुए लापरवाही से बोला । तबतक सरिता की तेज चीख निकली , ” मैं मर जाऊंगी। मुझे अस्पताल ले चलो।”
वे दोनों चुपचाप एक दूसरे का मुंह निहारते रहे।
“जल्दी से एंबुलेंस बुलाओ, नहीं तो बेचारी मर जायेगी।”चंदन की आवाज डरी हुई थी।
“एंबुलेंस उसके लिए आती हैं जिसका नाम अस्पताल मे पहले से दर्ज होता हैं। फिर अस्पताल ले जाने से फायदा ही क्या, वह किसी प्राइवेट अस्पताल में भेज देगे। वहां इतना पैसा लगेगा कि हमे वही इसे लावारिस छोड़कर भागना पड़ेगा।”
“तब क्या होगा। यह ऐसे ही मरेगी?”
“डरो मत यह मरेगी नहीं। मां बताती थीं कि जब तेरा जन्म होने वाला था तो मां चीखते चीखते बेहोश हो गई थी। उसी बेहोसी में तुम पैदा हो गए थे। अभी यह भी बेहोश हो जायेगी तो सब कुछ ठीक हो जायेगा।”
“कहीं बेहोशी में ही वह मर न जाए। हमे बहुत पाप लगेगा कुंदन। तुम कुछ करो।”
“मर जाए तो मर जाय। जब इसके बाप को इसकी कोई चिंता नही हुई तो मुझे क्यों हो। अभी पिछले महीने ही मैंने उससे कहा था कि इसे वह अपने घर ले जाय लेकिन वह कुछ नही बोला। वह तो हमसे भी गया गुजरा हैं।”
उस समय सरिता पैर पटक पटक कर चीख रही थी। मां के रोने की आवाज भी आने लगी थी।
“तू एक काम कर। बस्ती मे जाकर सुरसतिया को बुला ला। अभी भी वह किसी किसी का बच्चा जनाती है।”
“तू क्यों नहीं चला जाता। मुझे काफी ठंड लग रही हैं।”
“मैं तो चला जाता लेकिन गांव इतना खराब है कि कल को तरह तरह की बातें उड़ाने लगेगा।”
“मै तो साफ कहे देता हूं कि इतनी रात गए बस्ती में मैं नहीं जाऊंगा। आखिर मेरी भी कोई हैसियत हैं।”
चंदन चुपचाप उठा। वह भूसे वाले घर मे गया। भूसे मे छिपा कर वह कुछ दारू की बोतले रखा हुआ था। उसमे से एक निकाल कर कुंदन के ऊपर फेक दिया,”अब तो जा। उसे जल्दी बुलाकर लायेगा तो एक और दूंगा।”
कुंदन की आंखे चमक पड़ी। आज सिर्फ दो ही शीशी का इंतजाम हो सका था। बार बार उसे दारू की तलब लग रही थी। वह शीशी के ढक्कन को तोड़ा और एक ही बार में गले में उड़ेल दिया। खाली शीशी फेकने के बाद वह पार्टी गमझे को मुंह पर लपेटा और शाल ओढ़कर बस्ती की तरफ चल दिया।
सरिता उसी तरह तड़पती रही।
सड़क पूरी तरह खामोश थी। उसके किनारे कुछ छुट्टा पशु खाली आसमान के नीचे बैठकर ठंढ़क से कांप रहे थे जो कुन्दन को देखकर इधर उधर भागने लगे। कुन्दन बस्ती के मुहाने पर पहुंचा जहां अंबेडकर की मूर्ति खड़ी थी। कुन्दन को दारू का शुरूर चढ़ चुका था। वह मूर्ति के सामने खड़ा होकर उसे होठ भींचकर आंख तरेरने लगा। एक पल को वह चाहा कि मूर्ति की गरदन पकड़ कर उसे दूर फेंक दे लेकिन किसी अनजाने भय से वह आगे बढ़ गया।
सुरसतिया का घर बीच बस्ती मे है। बच्चा जनाने का काम उसका पुस्तैनी हैं। इधर कुछ सालों से लोग अस्पताल में ले जाने लगे हैं फिर भी गाहे बगाहे इसको भी लोग बुलाते ही हैं। अभी भी बहुत से लोगों का इसपर अस्पताल से ज्यादा बिस्वाश रहता है। इसका पूरा परिवार परदेश में रहता है इसके साथ इसका दस साल का नाती और एक शानदार किस्म का मुर्गा रहता है। मुर्गा काफी खूबसूरत था। सुर्ख लाल और काले रंग के पंख और बड़ी कलगी। जो देखता, देखता ही रह जाता । बहुत लोगो ने खरीदना चाहा लेकिन वह साफ इंकार कर देती। वह भी नाती की तरह उसके कलेजे का टुकड़ा था। वह एक बार आवाज लगाती , वह कहीं भी रहता उड़ते हुए आकर उसके
कंधे पर बैठ जाता। अभी पिछले हफ्ते कुंदन को भी वह नकार चुकी है। कुंदन को बस्ती के लोगो से कभी ना सुनने की आदत नही है। वह इसे अपने कलेजे में गांठ बांध लिया। दिनभर की कमरतोड़ मेहनत से पूरी बस्ती गहरी नीद में सो रही थी। सुरसतिया का घर पतली गली के मुहाने पर है। छोटे से घर के सामने टीन सेड है। उसी में वह नाती के साथ सोई हुई थी। उसके सिरहाने एक छोटा सा दडबा था जिसमे मुर्गा बंद था। दड़बे का मुंह सील पत्थर रखा हुआ था। कुंदन कुछ देर खड़ा होकर पहले अगल बगल का जायजा लिया फिर वह दबे पांव दड़बे के पास पहुंचा और उसके मुंह से सील पत्थर हटा दिया । मोबाइल की रोशनी मे उसने देखा कि मुर्गा सिकुड़ कर बैठा था और थर थर कांप रहा था। कुंदन आहिस्ता से हाथ डालकर उसकी गरदन अपने पंजे में जकड़ लिया। मुर्गा थोड़ा फड़फडाया लेकिन शाल के अंदर जाते ही शांत हो गया। कुंदन झट उठा और गली में तेज कदमों से चल पड़ा।
सुरसतिया को तनिक आभास जरूर हुआ। वह अचकचा कर बिस्तर पर उठ बैठी। वह मोबाइल की रोशनी में दड़बे को देखी तो उसके होश उड़ गए। वह गली में दौड़ी। कुछ दूर दौड़ने पर उसे तेज कदमों से भागते आदमी की छाया दिखी। वह और तेज दौड़ी। अब वह कपड़ा देखकर पहचान ली थी कि यह कौन है। वह शोर मचाना चाहती थी लेकिन रुक गई। वह जानती थी कि शोर मचाने से कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि बस्ती का कोई भी कुंदन के सामने नहीं पड़ेगा। वह पुलिस को फोन भी करना चाहती थी लेकीन अभी नहीं, उसके दरवाजे पर फोन करेगी जिससे वह सबूत सहित पकड़ में आ जाय।
वह कुंदन के पीछे दौड़ती रही। कुंदन को भी आभास हो गया कि कोई उसका पीछा कर रहा है। वह लगभग दौड़ने लगा। सुरसतिया के पहुंचने के पहले ही वह भूसे वाले घर में घुसा और मुर्गे की गरदन पंख बांध कर खूंटी पर लटका दिया और अपने वही छुपकर बाहर की आहट लेने लगा।
सुरसतिया खंडहर में पहुंची तो कुंदन का कहीं पता ही नही था। चंदन ऊंघ रहा था। उसे किसी के आने का आभास तक नहीं हुआ । सुरसतिया अभी कुछ बोलती उसके पहले घर के अंदर से तेज कराह उभरी। सुरसतिया इस कराह को समझ गई। कराह को सुनते ही सुरसतिया अपने आप को रोक नही सकी।वह बिना कुछ बोले तेजी से अन्दर गई। सरिता लस्त पस्त चारपाई पर पड़ी थी। ठंढक के बावजूद उसके चेहरे पर पसीना झलक रहा था । वह सुरसतिया को देखकर हाथ जोड़कर रोने लगी,”मैं मर जाऊंगी। मुझे बचा लो। जीवन भर कर्जमंद रहूंगी। तेरे सिवा मेरा कोई सहारा नही है।”
सुरसतिया मुर्गे को भूल गई। वह तुरंत सरिता के पेट को टटोलने लगी और चौंक पड़ी,”अरे, बच्चा तो आड़े तिरछे है। मेरे बस की बात नहीं है। अस्पताल ले जाना पड़ेगा।”
“मुझे कोई अस्पताल ले जाने वाला नही है जो कुछ करना हैं तुम्ही करो।मैं भले ही मर जाऊं लेकिन मेरे बच्चे को बचा लो ।”सरिता लगातार रो रो कर यही बात दुहरा रही थी।
“रो मत दुलहिन, मैं कोशिश कर रही हूं। तेरा भी जिंदा रहना जरूरी हैं नही तो बच्चे की कौन परवरिस करेगा ?”
उसे तू अपने साथ लेती जाना। दुनियां को बताना कि यह भी हवेली का वारिस है।”
सरिता कराहती रही, सुरसतिया कोशिश करती रही। मां अपने कमरे में अपना दाहिना हाथ पैर पटकती रही।
जब कुंदन को पूरी तरह से अहसास हो गया कि सुरसतिया वहां ब्यस्त है तो वह भूसे के घर में से निकला और चंदन को हाथ के इशारे से अपने पास बुलाया । चंदन जब मोबाइल की रोशनी में मुर्गे को देखा तो उसके मुंह से एकाएक निकला,”अरे, यह तो सुरसतिया का मुर्गा है।”
“हां, उसी का है। एक दिन मुंहमांगा पैसा दे रहा था तोवह हेठी बोलने लगी। आज मौका मिल ही गया।”
चंदन उसका चेहरा देर तक देखता रहा।

“क्या करूं, वापस कर दूं?” कुंदन ने चंदन का मन टटोला।
“नहीं, जब चुरा ही लाए तो अब रहने दो नही तो वह हमे चोर समझेगी ”
“तब तुरंत हंसिया ले आओ। देर करोगे तो यह अपनी मौत मर जायेगा। अभी यह जिंदा है।”
चंदन हंसिया ढूढने लगा।
जिस वक्त कुंदन मुर्गे को पैर से दबा कर उसकी गरदन रेत रहा था ठीक उसी वक्त सरिता को एक तेज चीख निकली और कमरे मे बच्चे की किलकारी गूंज उठी और उसी किलकारी में मुर्गे की चीख गुम हो गई। उधर सुरसतिया बच्चे की शरीर साफ कर रही थी इधर चंदन और कुंदन दोनों मिलकर मुर्गे के पंख साफ करने में लगे थे।
बच्चे के स्पर्श मात्र से सुरसतिया की सूखी छातियों में कुछ रेंगने सा लगा। वह अपनी छाती बच्चे के मुंह पर लगा दी। किसी तरह बच्चा चूसने की कोशिश किया लेकिन सब बेकार, कुछ भी नहीं निकला। उसने बच्चे को सरिता की गोंद मे डाल दिया और दोनों छातियों को चटा कर वापस ले ली। उसे एक पुरानी साड़ी के टुकड़े में लपेट कर मां के कमरे में ले आई और मोबाइल की रोशनी में मां को दिखाते हुए बोली,”आप को पोता हुआ है ठकुराइन जी। बधाई हो।”
मां बिहस पड़ी। वह कभी बच्चे को सहलाती तो कभी सुरसतिया को । चंदन और कुंदन अभी भी भूसे के घर मे मुर्गे को साफ करने में लगे थे। सुरसतिया बच्चे को लेकर एक ऊंचे खंडहर के टीले पर चढ़ गई और तेज आवाज में सोहर गाने लगी। सुरसतिया का गला तेज और सुरीला था। उसका स्वर लहरों की तरह रेंगता हुआ गांव में धीरे धीरे पहुंच गया। गांव में खुसुर पुसुर शुरू हो गई और औरते स्वतः हवेली की तरफ चल दी।
कुंदन के खंडहर में औरतों की भीड़ लग गई। तरह तरह की सोहर होने लगीं। पितरों को बधाई दी जाने लगी। चंदन और कुंदन भी एक एक सीसी पीकर भूसे के घर में से निकले और सिर झुका कर चारपाई पर बैठ गए। कुंदन को देखते ही सुरसतिया जल कर राख हो गई। उसका दिल चाहा कि सबके बीच में वह उसकी इज्जत उतार ले लेकिन इस मंगल अवसर पर वह चुप रहना ही उचित समझी।
सोहर देर रात तक होने के बाद सुरसतिया के नेग लेने का समय आया। वह गोद मे बच्चे को लेकर उठी और लगभग ललकारते हुए बोली ,” ठाकुर साहब नेग चाहिए। बिना नेग लिए बच्चे को वापस नहीं दूंगी।”
दोनों भाई चुपचाप सिर झुकाए बैठे रहे। औरते भी चुप होकर कौतुहल से नेग सुनने का इंतजार करने लगीं लेकिन इन दोनों में से कोई कुछ बोल ही नहीं रहा था। अबकी सुरसतिया चेतावनी दी,”यदि अब नही कुछ बोले तो मैं बच्चे को लेकर अपने घर जा रही हूं। इसे बंधक समझना।”
इस चेतावनी के बाद कुंदन धीरे से बोला,” मेरे पास है ही क्या जो तुझे दूं। ले देकर एक सांड और एक भैंसा है। उसी में से एक ले लो।”
औरतें ठहाका लगा कर हंस पड़ी।
कुंदन की बात सुनते ही चंदन को तैश आ गया। वह गुस्से में उठा और झगड़ा करने पर उतारू हो गया ,”यही तो मेरे दो बेटे हैं।तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई , इसे नेग में देने को।”
“क्या तुम इतनी भी कुर्बानी नहीं कर सकते?”
देखते देखते बात बढ़ गई। दोनों में गरमी गरमा शुरू हो गई। कुंदन की गरदन पकड़ कर चंदन उसे औरतो के बीच में झटक दिया। औरतें भरभरा कर दूर खड़ी हो गई। जहां अभी तक सोहर हो रही थी। वह जगह अब अखाड़े में बदल चुकी थी। दोनों एक दूसरे से मल्ल युद्ध की तरह लड़ रहे थे। दोनों के गले से गंदी गंदी गलियों की बौछार हो रही थी। बारी बारी से वे एक दूसरे की छाती पर सवार हो जा रहे थे। बच्चा लिए सुरसतिया थर थर कांप रही थी। थोड़ी देर के बाद कुछ साहसी औरते किसी तरह पकड़ कर अलग की। फिर भी दोनों ताल लगातार ठोक रहे थे। थोड़ी शांति हुई तो सरिता करहाते हुए कमरे से निकली और सबके बीच में बैठ गई। उसके पूरे शरीर पर गिलट के गहने थे। सिर्फ एक बिछुआ ही चांदी का था। वह उसे निकाल कर वो सुरसतिया के हाथ पर रख दी और रोते हुए हाथ जोड़कर बोली,” दाई दीदी, मेरे पास सिर्फ यही है जो मै तुझे दे सकू। इसी को तुम छप्पन तोले की करधन समझ कर रख लो।”
इसके बाद वह सिसक कर रो पड़ी। सुरसतिया सहित सभी औरतों की आंखे भींग गई। इसी बीच कुंदन गुस्से में चिल्लाया ,”देखो नीच घर से आई औरत आज अपना रंग दिखा ही दी। हवेली की ठकुराइन होकर एक नीच औरत के सामने हाथ जोड़कर रो रही है। हवेली की सारी इज्जत इसने आज मिट्टी में मिला दी।”
सुरसतिया का पूरा बदन गुस्से से आग हो गया। उसका दिल चाहा कि बिछुआ को वह कुंदन के मुंह पर दे मारे लेकिन शुभ घड़ी देखकर वह सब्र कर ली। वह बड़े प्रेम से सरिता से मनुहार की, मालकिन आप वाली हो गई। बिछुआ को आप वापस रख लीजिए। यह आपके सुहागिन होने की निशानी है। आप यह समझिए कि इसे मैं आपके वारिस को शगुन दे रही हूं।
ऐसा मत करो । मैंने पूरी जिंदगी दुःख और अपमान सहा है। आज जीवन में पहली बार खुशी मिली है। तुम बिछुआ वापस कर दोगी तो मेरी बेइज्जती होगी
सुरसतिया चुपचाप बिछुआ को साड़ी के टोंग में गठिया ली
धीरे धीरे सभी लोग चले गए। जब खंडहर एकदम खाली हो गया तो वे दोनो एक दूसरे को देखकर मुस्कराए और मुर्गा भूनने की तैयारी में लग गए।

(हेमंत कुमार का जन्म 8 जनवरी 1966 को हावड़ा पश्चिम बंगाल में हुआ लेकिन उसके कुछ दिनों बाद परिवार अपने पुश्तैनी गांव खुटौली जनपद आजमगढ़ उ.प्र. आ गया । लेखन मे लंबे अरसे से सक्रियता । हंस, कथा देश, समकालीन जनमत, कथा, पल प्रतिपल, गांव के लोग आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित । दो साल पहले आधार प्रकाशन से कहानी संग्रह रज्जब अली प्रकाशित, जो काफी चर्चित रहा । मो. -9793591905)

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