समकालीन जनमत
कविता

हिमांशु जमदग्नि की कविताएँ जीवन के विस्तृत आयामों को स्पर्श करती हैं।

देवेश पथ सारिया


युवा कवि हिमांशु जमदग्नि एक गाँव से आते हैं और एक महानगर में पढ़ाई करते हैं। उनकी कविताओं का फलक कम उम्र में की गई एक परिपक्व जीवन यात्रा से अपना विस्तार ग्रहण करता है। हिमांशु की कविताओं में गाँव की खाप पंचायत मौजूद है, वहीं देश का चुनाव भी। ये कविताएँ घरेलू मुद्दों से लेकर राजनैतिक चेतना तक की यात्रा पाठक को कराती हैं।

हिमांशु की कविताओं का प्रथम पुरुष एक युवा है जो गाँव के बिटोड़े की चिंता में मग्न होने के साथ महानगर में संघर्ष भी कर रहा है-

“खांसते महानगरों में
कब्र से छोटे कमरों में
मांस का लोथड़ा सड़ रहा है”

कविता के अलंकारिक तत्व जैसे लय और बिंब विधान हिमांशु की कविताओं में सुन्दर रूप में विद्यमान हैं। हिमांशु ‘कान बिंदवाती बच्ची के दर्द’ जैसा मार्मिक दृश्य रचते हैं। कहीं-कहीं हिमांशु की कविताओं में रंगमंच पर चल रहे दृश्य-सा रोमांच है-

“निर्देशक मैं हूँ
दर्शक एक बड़ी-सी खाप
बंद है मेरा सर
उनके एब्स्ट्रेक्ट फ्रेम में
डायलॉग भूला— मारा जाऊँगा
सर निकाला— भूखा रह जाऊँगा
सच बोला— घर नहीं ढूंढ पाऊँगा”

‘अवसाद’ शीर्षक कविता में कवि केवल अपने अवसाद की बात नहीं करता, वह केवल मनुष्य के अवसाद की भी बात नहीं करता; कवि जीव-जंतुओं के भी उतना ही निकट है और उनके अवसाद के कारणों की भी पड़ताल करता है-

“महानगर में सड़क किनारे
घास ढूँढती गाय
फ्लैट्स में अपना घोंसला टूटता देख रहे कबूतर
छत पर बैठे जंगल ढूँढ रहे बंदर
मेरे सबसे निकट हैं”

गांधी का अंतिम जन हिमांशु की कविताओं में विशालकाय सरकार और अपने अस्तित्व की तुलना कुछ इस तरह करता है-

“महानगर की सड़कों पर‌ रेंगता मैं
हर व्यक्ति को सरकार समझता हूँ
घोषणा पत्र पढ़ता हूँ
विश्वास करता हूँ
चुनता हूँ
भूल जाता हूँ
सरकारें क्या करती हैं”

हिमांशु जमदग्नि यदि इसी तरह सामाजिक सरोकारों के साथ-साथ अपने शब्दों के ज्ञान और उनके सही प्रयोग पर मेहनत करते रहे तो भविष्य के एक महत्वपूर्ण कवि की संभावना की उम्मीद की जा सकती है।

 

हिमांशु जमदग्नि की कविताएँ

 

1.मैं अभिनेता हूँ

मैं अभिनेता हूँ
अभिनय करता हूँ
मैथड एक्टिंग
जीने की,
जीवन में
निर्देशक के मुँह से सुनता हूँ गालियाँ
दर्शकों के हाथों से तालियाँ
निर्देशक मैं हूँ
दर्शक एक बड़ी-सी खाप
बन्द है मेरा सर
उनके एब्स्ट्रेक्ट फ्रेम में
डॉयलॉग भूला— मारा जाऊँगा
सर निकाला— भूखा रह जाऊँगा
सच बोला— घर नहीं ढूँढ पाऊँगा
तालियाँ!
मैं अहम की ख़ातिर जला दिया जाऊँगा
या बनकर आँखों में आँसू
अपने पालनहारों की आँखों में फूट पड़ूँगा
मैं क्या करुंगा?
अभिनय
जीने का

मैं हो जाऊँगा दाखिल
अपने मन-बस्ते में
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियाँ
वहाँ मुझे संतुष्ट करने
में लगी हैं,
पर मैं पाब्लो का कुत्ता
अभिनय करने में लगा हूँ
मुझे डर है मेरे बदन में
चीटियाँ दौड़ रही हैं
मतीरा फूट गया

दीवारों पर उभरी आकृतियाँ
मुझे बुला रही हैं
हमारे मध्य चार गज़ की दूरी
मुझे चार प्रकाश वर्ष की लगती है
दूर वहीं,
खड़ा है वहाँ यम
तलवों के नीचे दबाए भुजंग
भुजंग बजा रहे मृदंग
मृदंग पर लघु मानव कंकाल
उनपर लेपित अति मानव-खाल
छूट रहे प्राण
पर,
क्या मेरी आत्मा अभिनय करेगी?
मृत्यु पश्चात खाप बचेगी?

 

2. मैं पूछूँगा तुमसे

स्वप्न में लगे सातवें सुर
से प्राप्त अनुभव ने कहा :
तुम नश्वर और अमर हो
विद्यमान रहेंगे तुम्हारे तीनों गुण सदैव
अंधेरे में तैरती आकाशगंगा के ह्रदय में
पर यह मेरा अनुभव है?
मेरा अनुभव
स्वयं का प्रतिबिंब है
जिससे मुझे ज्ञान हुआ
गाली देना क्यों आवश्यक है
क्यों आवश्यक है प्रेम में डूबी
लड़कियों का खाने से दुश्मनी करना
घर से भागे लड़कों का घर ना लौटना
घिसी कमीज़ पहन विश्व राजनीति
पर बहस करते हुए
अपने डोलते रिश्तों को चितली अंगुली
से गले‌ लगा कर रो जाना

बहरहाल, परीक्षा में फेल हुए
बेटे के पिता की तरह
खोज रहा हूँ
दो‌ समानांतर रेखाओं के
मिलने वाले बिन्दु पर रखा
अनुकरण पट्
जिस पर लिखा है
यह, यह और यह करना है
यह कराना है
यही करते जाना है
कान बिंदवाती बच्ची के दर्द
को गले में भर
नवजातों के बेचते माँ-बापों से डर
घुडलिया होकर भाग रहा हूँ
पी. आर. संस्था की ओर
वर्तमान में जो मन चला‌ रही हैं
उन्हें चला रहे मंत्रियों के प्रधान
प्रधान को‌‌ घुमा रहा उद्योग‌ रानी का पति
और‌ मेरी गति यह है
बिटोड़े में रखे घोसे
की तरह मुझे जल‌ जाना है
मर जाना है?
नहीं, मैं मरूँगा नहीं
मैं विचार की संज्ञा ले
तुमसे पूछूँगा
तुम यह क्यों कर रहे?
क्यों करना है?
क्यों डरना है?

 

3. काटकरेळिये मारे गए

खांसते महानगरों में
कब्र से छोटे कमरों में
माँस का लोथड़ सड़ रहा है

यही सही समय है
वन‌ की ओर‌ लौट‌ चलें

नपुंसक पुरुष ज्यों
कंधे झुकाये
क्रोध पीये
भावहीन आंखों से लुक कर
ढूँढे धरती में धंसी अस्मिता
जिसके लिए लड़ा ना जा सके
मरा ना जा सके
बस जीया जा सके
पर जंगल जाकर मैंने जाना
वो काटकरेळिये मार दिये गये
जिन्हें नाचना नहीं आया।

 

4. सर पर बरौंटा

मैंने सर पर बरौंटा रख लिया
रिसता पेट घड़ा बाँध लिया
मैं इंतज़ार में हूँ
गोया
डिलीवरी‌ बॉय ऑर्डर के
पिता शान्ति के
माँ शहर गए बच्चों के
और बच्चे,
घड़ी में कैद उम्मीदों के‌।

इंतज़ार खत्म,
मेरे माथे पर मजबूरियाँ रहने लगी
सर से बाल‌ तोड़कर खाती हैं
चाटती हैं,
मेरे सर की बंजर ज़मीन
उसी ज़मीन तले
घुटने मोड़कर‌ लेटा हूँ
तमाम बेशक्ल रक्तलिप्त कुंठाएँ
मारने दौड़ रहीं लाठ डंडे‌ उठाए
मैंने बचाव किया
प्लेसिबो का कवच बना
लाठियाँ पड़ती‌ रही
मैं खाता रहा
मुस्कराता रहा

कुंठाओं ने थककर
राज़ पूछा
राज़ घड़ी में उम्मीद के पीछे छिपा प्रेम
मैं पानी में मिला हर रोज़ पीता हूँ प्रेम
नित्त पुनरावृत्ति
मेरे फेफड़ों और दिल से पूछो
कितना सुखमय है यह
पानी में प्रेम मिला पीना
प्लेसिबो का कवच बनाना
रक्त में लिप्त मुस्कराना
पेट घड़ा रिसते‌ रहना

यह सुन तमाम कुंठाएँ
मेरे वस्त्र ले भागीं
तीतरों की तरह
मैं राजा नल‌ की भाँति
उन्हें देख रहा हूँ
औंधे मुँह पड़े
नग्न नल मुर्दे की तरह
आशा ढूँढ रहा
एक कुंठा रुकी
चीरने लगी तन
भरी मेरे खून से कटोरी
चाट रही उसे चटोरी
कैनवास लगा बनाने लगी चित्र
मैं सुमिरन कर रहा हूँ
नल की आँखों में दौड़ते तीतर
चित्र पूरा हुआ
कुंठा बोली आँखें उठा
यह तुम हो
हो ना तुम!
दरअसल  यह एक
साँप का चित्र है
जो अपनी पूँछ चबा रहा है

यह देख
मैं हताश हूँ
हताशा में व्यक्ति क्या करता है?
साँस खींचता है
सर‌ हिलाता है
थूक‌ गटक जाता है
दोहराता है
और मैने‌ भी यही किया
ऐसे ही जीवन जिया।

 

5. गुस्लख़ाना

मुझे लगता है
दुनिया का सारा संतोष कैद है
गुस्लख़ानों में
मैं जाता हूँ उसके अंदर बार-बार
जैसे निवाला जाता है मुँह में
क्रोध गालियों में
और मैं हमेशा मन‌ में

मैं यज्ञ करता हूँ
वहाँ बैठ
नवसृजन नवजीवन के लिए
बूढ़ा प्रजापति यज्ञ-कुंड में
अपनी देह त्याग देता है
तीनों गुण भस्म कर‌ देता है
यज्ञ-अग्नि में
देह जलाकर फूटता है कमल
कमल‌ में जन्मा शिशु
पोंछ रहा होता है मन-पटल

यह शिशु मैं हूँ
बूढ़ा प्रजापति भी मैं हूँ
भीड़ में सरकारी आंकड़ा बना
युवा‌ बेरोज़गार भी मैं हूँ
मैं गलियों में स्मृति छोड़ता फिरता हूँ
गलियों का शोर‌ और सूनापन‌
झोले में डालता हूँ
मेरे झोले में बंद हैं
इस शहर के समस्त अपराध
जहाँ पुलिस कभी नहीं पहुँच पायी
और वे सारी सरकारें जो अपने‌ वायदे
नहीं निभा पायीं

हर गली संग
मेरी उम्र और अनुभव
दोनों बढ़ते हैं
झुर्रियाँ कभी ना उतरने‌ वाले
कर्ज की‌ तरह आती हैं
माथे को चूमती ज़ुल्फ़ें
काबरों की तरह विलुप्त हो जाती हैं
सूर्यास्त हो गया
और मैं बूढ़ा प्रजापति
आँखों में झाँक रहा हूँ
इन्होंने सब देखा है
कह रही हैं—
यह सब कितना ख़तरनाक है
तुम्हें हर रोज़ वृद्ध होना है
खुद को खाना है
और‌ पुनः पैदा हो जाना है

 

6. परवा और पछवा

परवा और पछवा‌ के बीच
गोया तीली मैं
कभी नहीं जला
जला तो केवल विश्वास
अपेक्षा की चिता पर सुबकता हुआ
मैं खुद को कानखजूरा मानता
हाथ‌‌ देने‌ वालो को‌ काटता
मरीचिका (हँसने की आवाज़)।
मैं डरा हुआ साँप
देखते ही मुंडी छेत‌ दी गई
मेरी आत्मा डिब्बी में बंद कर
बेच‌ दी गई (घाव भरने के‌‌ लिए)
महानगर की सड़कों पर‌ रेंगता मैं
हर व्यक्ति को सरकार समझता हूँ
घोषणा पत्र पढ़ता हूँ
विश्वास करता हूँ
चुनता हूँ
भूल जाता हूँ
सरकारें क्या करती हैं
बिल‌ लाकर बिल तोड़ देती हैं
मरीचिका (रोने की आवाज़)
तवा
चिता
विश्वासघात
मैं ही सरकार
मैं ही साँप।

 

7. विसंगति

ईश्वर पैदा हुआ
माँ की गोद में खेला
पिता के कंधों पर बैठ बादलों को छुआ
माँ के स्तन पर होठ रख
मम्म..का संगीत गाकर सो‌ गया
नींद तोड़ी गयी
छीने गए‌ ईश्वर के हाथों से बादल
सिल दिए गए होंठ
जलते चराग़ पर बैठाकर भेजा गया वनवास
चौखट पूत खोजने गाँव की सीमा लांघ गयी
बूँद आँख ढूँढने बादल छोड़ भाग गयी
ईश्वर पी.जी. में पंखे संग अपने अक्ष पर
घूम रहा है
देख नल का गला सूख गया
टयूबलाइट की आँखें पथरा गयी
खिड़की सदमा खा गयी
पर्दे विलाप में हाथ हिला रहे हैं
ईश्वर की‌ दुनिया में वे
मनुष्यों को बुला रहे हैं
मुर्दा दर्पण की चेतना खा रहा है
इस संगत काल की सबसे
बड़ी विसंगति यह है
मनुष्य ईश्वर से
ईश्वर मनुष्य‌ से‌ भय खा रहा है।

 

8. मैं तथागत कवि हूँ

मैं तथागत कवि हूँ
यही मेरी अस्मिता है
बिन मोजे-जूते पहने
दिल्ली‌‌ नापता बेरोज़गार
यह लिखकर खुश हो गया
मेरी‌ बड़ी कविताओं में छोटी
छोटी कविताओं में बड़ी
खुशी‌ नहीं मिलती
मिलते हैं तो–
बेढंगे स्ट्रक्चर को कुतरते चूहे
अनगढ़‌ शिल्प पर पंजे गाड़ते कान‌खजूरे

कलाएँ मेरे लिए
सरकारी ज़मीन पर लगे आम हैं
जिन्हें मैं केवल‌ देख सकता हूँ,
पा नहीं सकता
न्याय मेरे लिए किसान को मिलने वाला‌ लोन
जो मिलकर भी नहीं मिलता
और भय पहला दूध
जो जुबान से कभी नहीं उतरता

फिलहाल मैं दिल्ली की सड़कों पर
पंजों की हाज़िरी देता हुआ
कुत्तों के लिए गीत बुन‌ रहा हूँ
आवारा कुत्तों के लिए
मैं भी आवारा कुत्ता हूँ
पाठक को‌ चेतावनी‌ देते हुए
लिख रहा हूँ :
आवारा कुत्ते काट लेते हैं
भय से।

 

9. अवसाद

महानगर में सड़क किनारे
घास ढूँढती गाय
फ्लैट्स में अपना घोंसला टूटता देख रहे कबूतर
छत पर बैठे जंगल ढूँढ रहे बंदर
मेरे सबसे निकट हैं
पलक छपकर छाया अंधेरा
मुझसे लिपटा बिस्तर पर पड़ा रहता है
मेरा कान काटते हुए फुसफुसाता है—
गाय-बंदर-कबूतर की जगह
मनुष्य लिखो
डर क्यों रहे हो?
सीधी बात कहो

मेरी सीधी बातें मध्यवर्गीय लड़के का अवसाद है
जिसे आत्महत्या पूर्व बेवकूफ़ी‌ समझा जाता है
और मैं?
अखबार पर कराहती ख़बर
अनसुनी और अनपढ़ी
जो रोटियों की गर्मी बचाने लायक रह गई

नहीं मैं,
दो‌ पीढ़ियों के बीच पिसता गेहूँ हूँ
जिसका आटा चींटी भी नहीं खाती
खाते हैं मुझसे घिन खाते हुकमरान

मैं गाय की आँखों में
अभी भी उम्मीद बो रही
भावहीन-शक्ति।

 

10. मैं कलिंग

मेरे मरने पर वे इतना रोये
गोया चींटी के मरने पर रोता है समाज
अपने काज पर करवट लेता मैं
सुबकता हूँ
सुबकते सब हैं
“सब मनुष्य समान हैं”
कलिंग विजय पश्चात
यह अशोक ने कहा

मैं अशोक हूँ?
मैं मनुष्य हूँ?
मैं कलिंग हूँ!
इतिहास की किताब में धँसा
प्रमाण तुम्हारे दोगलेपन का।


 

कवि हिमांशु जमदग्नि हरियाणा के सोनीपत जिले के भैंसवाल गाँव से हैं और फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर कर रहे हैं। इनकी कविताएँ कुछ और प्लेटफॉर्म्स पर प्रकाशित हो चुकी हैं।

सम्पर्क: ईमेल : himanshujamdagni66250@gmail.com 

टिप्पणीकार देवेश पथ सारिया युवा कवि-लेखक और अनुवादक हैं। देवेश को उनके कविता संकलन ‘नूह की नाव’ के लिए भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया गया है। देवेश की ताइवान डायरी ‘छोटी आँखों की पुतलियां में’ भी चर्चित रही है। संपर्क : deveshpath@gmail.com

 

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