मऊ। प्रो. तुलसीराम स्मृति व्याख्यानमाला के तहत इस शृंखला का आठवाँ व्याख्यान राहुल सांकृत्यायन सृजनपीठ व जन संस्कृति मंच के संयुक्त तत्वावधान में 11 फरवरी को मऊ के राहुल सांकृत्यायन सृजन पीठ में आयोजित हुआ। ‘ भारतीय चिंतन परम्परा की वैकल्पिक धारा’ विषय पर आयोजित इस गोष्ठी में मऊ के स्थानीय लोगों के अलावा गोरखपुर, बलिया, ग़ाज़ीपुर आज़मगढ़, बनारस से भी तमाम बुद्धिजीवियों, छात्र – छात्राओं और कार्यकर्ताओं की अच्छी उपस्थिति रही।
कार्यक्रम का प्रारंभ डीपी सोनी द्वारा प्रकाश उदय के लिखे गीत ‘ रोपनी के रउंदल देहिया .. ‘ के गायन से हुई। इसके बाद युवा आलोचक डॉ. रामायन राम ने आधार वक्तव्य में कहा कि प्रो. तुलसीराम ने बौद्ध दर्शन, मार्क्सवाद, लोकायत व चार्वाक दर्शन को अपने साहित्य का आधार बनाया। साहित्य के क्षेत्र में उनकी लेखनी का रेंज बहुत अधिक है। प्रो. तुलसीराम का साहित्य उनके जीवन संघर्ष की गाथा है।उनका जन्म आजमगढ़ के जहानागंज के पास धरमपुर गांव मे हुआ था। यहां से निकल कर वे बनारस हिंदू विवि होते हुए जेएनयू तक पहुंचे और वहीं प्रोफेसर नियुक्त हुए। उन्होंने भारतीय दर्शन की वैदिक व सनातन धारा के समानान्तर चार्वाक, लोकायत, बौद्ध दर्शन तथा मध्य काल के निर्गुण ब्रह्म की परिकल्पना करने वाले दार्शनिक प्रणालियों का विस्तृत अध्य्यन किया था। इसके साथ वे मार्क्सवाद के गंभीर अध्येता थे। आज जब वैदिक परंपरा को ही भारतीय चिंतन का एक मात्र पर्याय बताया जा रहा है ऐसे समय में प्रो.तुलसी राम के चिंतन को आम जन तक पहुंचाना बहुत जरूरी है।
मुख्य वक्ता दलित चिंतन व विमर्श के प्रख्यात स्कालर , लेखक व चिंतक कंवल भारती ने कहा कि मैं सनातन हिंदू विरोधी धारा को वैकल्पिक नहीं कह सकता, क्योंकि यह तो मुख्य धारा है। बहुजन-कल्याण की जो भौतिकवादी दर्शन-धारा यहाँ आजीवकों, चार्वाकों, बुद्ध से शुरू होकर सिद्धों, नाथों, कबीर, रैदास, फुले, आंबेडकर, पेरियार से होती हुई संविधान तक आई है, आज उसे नष्ट करने का काम हो रहा है, और उसके स्थान पर सनातन दर्शन के रूप में हिन्दुत्व का विकल्प दिया जा रहा है।यह प्रतिक्रांति ही वैकल्पिक है, भारतीय चिंतन की मूल धारा मानवतावादी, समतामूलक और परिवर्तनकामी है।
अभी हाल में, आपको याद होगा, सनातन धर्म के मुद्दे पर आरएसएस और भाजपा ने कितना बड़ा उपद्रव किया था, ऐसा उपद्रव कि उस समय हिन्दुत्व भी किनारे हो गया था। दक्षिण के कुछ नेताओं ने सनातन धर्म को नष्ट करने की बात कही, और उनके खिलाफ धड़ाधड़ एफआईआर लिखवा दी गईं। आरएसएस और भाजपा ने सनातन धर्म के विरोध को भारत का अपमान बताया। लेकिन फिर अचानक सनातन धर्म का मुद्दा बंद हो गया। हुआ यह कि सनातन धर्म के विरोध में देश भर में दलित-पिछड़ी जातियों के लोग शामिल हो गए। उन्होंने तर्क दिया कि सनातन धर्म के अच्छे होने का फैसला ब्राह्मण और ठाकुर नहीं कर सकते। उनके लिए सनातन धर्म स्वर्ग की तरह हो सकता है, पर यह शूद्रों के लिए स्वर्ग नहीं है। शूद्रों के इस विरोध से आरएसएस और भाजपा तुरंत बैकफुट पर आ गए। उन्हें महसूस हो गया कि यह मुद्दा उनका भारी राजनीतिक नुकसान कर सकता है। उन्हें लगा कि अगर इस मुद्दे को आगे बढ़ाया, तो दलित-पिछड़ी जातियों के लोग सनातन धर्म के विरोध में खड़े हो जायेंगे, जिससे उनकी राजनीतिक ज़मीन दरक सकती है। क्योंकि आरएसएस और भाजपा जिस हिन्दुत्व को स्थापित कर रहे हैं, वो दलित-पिछड़ी जातियों को उससे जोड़े बिना संभव नहीं है।
डा. आंबेडकर का विचार है कि किसी दर्शन का परीक्षण दो सिद्धांतों से होना चाहिए। एक है न्याय का सिद्धांत और दूसरा है उपयोगिता का सिद्धांत। न्याय के सिद्धांत से उनका तात्पर्य एक ऐसे सारगर्भित सिद्धांत से है, जिसमें ऐसे सिद्धांत निहित हैं, जो नैतिक व्यवस्था की बुनियाद हैं। उनके अनुसार, ये तीन सिद्धांत हैं, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता, जिन्हें उन्होंने न्याय का नाम दिया है। उनका तर्क है कि यदि सभी मनुष्य समान हैं और सभी में एक ही आत्मा का वास है, तो समान आत्मा उन्हें समान मौलिक अधिकारों और समान स्वतंत्रता का हकदार बनाती है। फिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? भारत में सबको स्वतंत्रता और सबको समानता क्यों नहीं मिली? बंधुता का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, क्योंकि वह स्वतंत्रता और समानता के ही बाद की चीज है। फिर ऐसा दर्शन उपयोगिता के सिद्धांत पर भी क्या परिणाम देगा? यह बताने की आवश्यकता नहीं है। आंबेडकर ने कहा कि जो सनातन धर्म और दर्शन वर्णव्यवस्था पर आधारित है, उसमें सबके लिए समान न्याय का सिद्धांत हो ही नहीं सकता।
लेकिन यह एक बड़ा सवाल है कि जब भारत में एक ऐसा दर्शन मौजूद था, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित था, जैसे आजीवक दर्शन, लोकायत दर्शन, बौद्ध दर्शन, तो वह नष्ट कैसे हुआ? हमें ऋग्वेद में कुछ प्रमाण मिलते हैं। दसवें मंडल में बाइसवें सूक्त के मन्त्र आठ में लिखा है, ‘हे इंद्र, हमारे चारों ओर ऐसे लोग रहते हैं, जो न यज्ञ करते हैं, न किसी देव को मानते हैं, वे वेद-निंदक हैं। उनसे हमारी रक्षा करो।‘ सातवें मंडल में अट्ठारहवें सूक्त का मन्त्र अट्ठारह कहता है, ‘हे इंद्र, तुम्हारे बहुत से शत्रु तुम्हारे वश में हो गए हैं, लेकिन इन नास्तिकों को भी वश में करो। ये नास्तिक हमारा बहुत अहित करते हैं।‘ मुझे लगता है कि हमारे आज के सम्राट ‘इंद्र’ भी बहुत सारे शत्रु अपने वश में कर चुके हैं, नहीं हो पा रहे हैं तो बस नास्तिक कम्युनिस्ट, जो उनके लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं।
उन्होंने कहा कि समय की सूई सदैव आगे की ओर चलती है। वह पीछे की दिशा में नहीं लौटती। किन्तु भारत में दर्शन की सूई शंकराचार्य के ‘ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या’ पर ही अटकी हुई है। यह कहना ज्यादा सही होगा कि उसे वहीं पर अटकाकर रखा गया है। इस सूई को न दयानंद सरस्वती आगे बढ़ा सके, न स्वामी विवेकानंद और न अरविंदो। क्योंकि सूई के आगे बढ़ने से मानव-मस्तिष्क का विकास होता है, ज्ञान-विज्ञान का विकास होता है, जबकि सूई के ठहरे रहने से ब्राह्मणवाद टिका रहता है। दूसरे शब्दों में यही सनातन दर्शन है, जो एक वैकल्पिक दर्शन में थोपा जा रहा है।
बीएचयू के पूर्व प्रोफ़ेसर प्रो. दीपक मलिक ने कहा कि तुलसीराम के गठन में इस इलाके का महत्वपूर्ण योगदान है। क्योंकि एक समय में यह क्षेत्र जहां यह कार्यक्रम हो रहा है मार्क्सवाद का गढ़ रहा है। जिसे हम वैकल्पिक धारा कह रहे हैं असल में इन वैकल्पिक धाराओं का सामूहिक रूप है जो नई धारा के रूप में हमारे सामने आनी चाहिए और लोगों को जोड़ने के लिए तुलसीराम के साहित्य को हथियार के रूप में प्रयोग करना चाहिए। आधुनिक भारत बनाने की जगह जो हिन्दू राष्ट्र बनाने का विकल्प दिया जा रहा है वह कहीं से ठीक नहीं। रतीय राज व्यवस्था के इतिहास में में हिंदू राष्ट्र की कोई अवधारणा थी ही नहीं। चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा थी जो साम्राज्यवादी थी। आज हमें तुलसीराम के व्यापक दृष्टि से जुडने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि आज जरूरत है कि बदलाव की जितनी भी विचारधाराएँ हैं , चाहे वह मार्क्सवाद हो, गांधीवाद हो या अंबेडकरवाद हो उनके आपसी मतभेद भूलकर सबको एक साथ आना होगा , क्योंकि आज जो ख़तरा हमारे सामने मौजूद है वह अभूतपूर्व है, इसके ख़तरे का अंदाज़ा भी आज की पीढ़ी नहीं लगा सकती। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में योरप में जो नाज़ीवाद और फ़ासीवाद आया था उस समय वैश्विक स्तर पर योरप में उसके विरोध में दूसरे मॉडल भी मौजूद थे, जिन्होंने फ़ासीवाद से हर मोर्चे पर मुक़ाबला किया , लेकिन आज ऐसा कोई मॉडल हमारे सामने नहीं है। पूरे विश्व में पूंजीवाद तानाशाही और दक्षिणपंथी विचार के साथ फल फूल रहा है। ऐसे में भारत की जनता इस संघर्ष में अकेले हैं, इसलिए यह लड़ाई उन्हें अपने दम पर लड़नी है।
वक्तव्य के क्रम में बी.एच.यू. के हिंदी विभाग की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ. प्रियंका सोनकर ने कहा कि पूरा दलित साहित्य गौतम बुद्ध से अपनी ऊर्जा लेता है। बुद्धिजीवी होने के साथ-साथ हमें अपने अधिकारों को जानना चाहिए और अपना दीपक स्वयं बनाना चाहिए। सत्यम ने कहा कि आज के समाज में बहुजन समाज के संघर्ष की गाथा मुर्दहिया की संघर्ष गाथा है।
सेवानिवृत्त जिला विद्यालय निरीक्षक शिववचन राम ने कहा कि सारा का सारा दलित जीवन ही नहीं पूरा भारत ‘मुर्दहिया’ से होकर गुजर रहा है। जहां से उच्च समाज का जीवन समाप्त होता है उसी स्याह स्थल से दलित समाज का जीवन शुरू होता है। भारतीय चिंतन परंपरा की स्थूल चर्चा की जाए तो केवल दो धाराएं हैं एक अवैज्ञानिक व दूसरी वैज्ञानिक। भारत का इतिहास इन दो धाराओं की टकराहट का है।
जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव मनोज कुमार सिंह ने अपने वक्तव्य में बताया कि आज हमारे स्मृतियों पर हमला किया जा रहा है। सच्ची स्मृतियों के प्रतिरोध में झूठी और कॉल-कल्पित स्मृतियों को थोपने का काम चल रहा है। जिसको लेकर हमें सचेत रहना चाहिए। उन्होंने ये भी कहा कि मोटे तौर पर समाज में दो धाराएं चल रही है। एक धारा में असमानता के समर्थक हैं तो दूसरी में समानता के। श्री सिंह ने कहा कि आरएसएस-बीजेपी समर्थक बुद्धिजीवी इस दौर को नया सांस्कृतिक जागरण बता रहे हैं और कह रहे हैं कि अमृतकाल में गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, जाति व लिंग आधारित भेदभाव के सवाल का कोई महत्व नहीं है, सरकार की भक्ति ही महत्वपूर्ण है। इस तरह के माहौल में जनपक्षधर बुद्धिजीवियों का दायित्व और बढ़ जाता है।
वरिष्ठ पत्रकार अशोक चौधरी ने कहा कि फासीवादी ताकतों द्वारा फैलाए जा रहे झूठ के जाल को तोड़ने के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करने की जरूरत है।
अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. जयप्रकाश धूमकेतु ने कहा कि यह तय करने की जरूरत है कि कौन किस ओर है, आदमखोर के साथ या आदमी के साथ।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए जसम उत्तर प्रदेश के सचिव और गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर राम नरेश राम ने कहा कि भारतीय चिंतन परंपरा की दो धाराएं हैं । जिसको मुख्य धारा कहा जाता है वह वर्चस्व की संस्कृति वाली धारा है। इसके विपरीत वैकल्पिक वैकल्पिक चिंतन धारा इतिहास के हर दौर में मौजूद रही है , बुद्ध , चार्वाक, फूले और अम्बेडकर ने इसी वैकल्पिक चिंतन धारा का प्रतिनिधित्व किया। प्रो तुलसी राम भी इसी वैकल्पिक चिंतन धारा के प्रतिनिधि चिंतक थे। इनका लेखन जितना हिंदी में है उससे कहीं अधिक अंग्रेजी में है। उसको हिंदी में लाने पर उनके चिंतन के विस्तृत फलक से हिंदी समाज रूबरू हो सकता है इसलिए यह महत्वपूर्ण यह हमारा कार्यभार होना चाहिए।
गोरखपुर विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा रुचि मौर्य और दीपिका गुप्ता ने ‘ मुर्दहिया ‘ को पढ़कर उसकी भावना को अपनी-अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया और उनको वंचित समाज का तेजस्वी चिंतक बताया।
आभार ज्ञापन ओमप्रकाश सिंह ने किया।
इस व्याख्यानमाला में पूर्व विधायक कामरेड इम्तेयाज अहमद,ओमप्रकाश सिंह, वीरेंद्रकुमार, शैलेंद्र कुमार, बसंत कुमार, सिकंदर, अरविंद मूर्ति, राम भवन, संजय राय, प्रमोद राय, समसुहक चौधरी, रामप्यारे राय, डॉ. सरफराज (वरिष्ठचिकित्सक), डॉ. रामविलास भारती, डॉ. शिवकुमार, डॉ. अरविंद यादव, डॉ. गोपाल , फौजिया, डॉ.तेजभान तेज, डॉ. रामशिरोमणि, डॉ. धनंजय शर्मा, गुलाब, मुन्नू राम, ब्रिकेश यादव ,फकरे आलम , प्रद्युम्न यादव, डा. निर्मल भारद्वाज, डी.पी. सोनी, विद्या मौर्या उपस्थित रहे। इस दौरान आज़मगढ़ के धरमपुर गांव से तुलसी राम जी के छोटे भाई व उनके अन्य परिजन भी उपस्थित रहे।
रिपोर्ट-बसंत राजभर