नचिकेता की रचनात्मक दृष्टि का विकास सातवें-आठवें दशक के किसान संघर्षों की पृष्ठभूमि में हुआ। उस समय वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर शासक वर्ग संकटग्रस्त था और जनसंघर्षों के बीच से नई दुनिया और नये समाज का स्वप्न युवा आँखों में आकार ले रहा था। वातावरण में नई ऊर्जा और आवेग था। शंभुनाथ सिंह, राजेन्द्र प्रसाद सिंह उनके पूर्ववर्ती नवगीतकार थे। अपने समय और समाज की चिंताओं से गहरे स्तर पर जुड़े युवा नवगीतकारों की पीढ़ी नवगीत की जमीन को बहुत कुछ बदल रही थी। दबे-कुचले, शोषित और उत्पीड़ित लोगों के जीवन का कर्म, सौन्दर्य और संघर्ष नवगीत के मध्यवर्गीय रोमान को ध्वस्त कर उसे नवजनवादी स्वरूप प्रदान कर रहा था। यह रामकुमार कृषक, रमेश रंजक, उमाकांत मालवीय, विजेन्द्र अनिल, रमाकांत द्विवेदी ’रमता’, गोरख पांडे, महेश्वर, नचिकेता, यश मालवीय की पीढ़ी थी। ये लोग नवगीत की कलात्मक अभिरुचियों एवं अनुभवों को अपने क्रांतिकारी तेवर से बदल रहे थे। उसमें हँसिये और हथौड़े का संगीत प्रवेश कर रहा था। यह हिन्दी कविता के नवप्रगतिवादी उठान का दौर था, जब नई कविता के व्यामोह से मुक्त होकर हिन्दी की कविता पुनः केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की परंपरा से जुड़ रही थी। केदारनाथ अग्रवाल नचिकेता के प्रिय कवि थे। आठवें दशक की उत्सवधर्मी कविता जब चिड़िया, पेड़, लड़की, आस-पड़ोस और परिवार के बीच रमी थी तब नचिकेता के गीत ’पसीने के रिश्ते’ और ’सुलगते पसीने’ से गहरे स्तर पर जुड़े थे। आठवें दशक के प्रारंभ से लेकर अगले चार दशकों तक उनका रचनात्मक वितान फैला है। उनके दर्जन भर गीत संग्रह हैं। उन्होंने गजलें भी लिखी हैं। गीतों की सैद्धांतिकी, सौन्दर्यशास्त्र और उसके प्रतिमान विकसित करने का कार्य भी उन्होंने किया। उन्होंने ’बीज’, ’अंतराल’ और ’अलाव’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया।
नचिकेता जनता और जनजीवन से निरंतर प्रतिबद्ध रहे। उनके गीत अपने समय और समाज को उसके वास्तविक स्वरूप में पहचानने के लिए आमंत्रित करते हैं। उनमें श्रम के सौन्दर्य के साथ प्रतिरोध का सौन्दर्य है। लोगों के हक और आजादी के लिए चलाये जा रहे संघर्षों में उन्होंने अपना योग दिया। उनके गीतों में ढहते, टूटते, बिखरते घर की पीड़ा और सतह के आदमी की विवशता है। उनमें उनके साथ हुए छल, धोखे और दगाबाजी का दर्द छलकता है। सामाजिक जड़ता का विरोध, सामूहिकता, रागात्मकता और सहजता उनके गीतों की विशिष्टता है।
धरती, प्रकृति और जीवन का सौन्दर्य नचिकेता को लुभाता है। यह सौन्दर्य ही उनके गीतों में अन्तर्निहित संघर्ष का प्रेरक तत्व है। उन्हें अंदाजा है कि बिना संघर्ष के इस सौन्दर्य की रक्षा नहीं की जा सकती। प्रकृति का सौन्दर्य उन्हें प्रफुल्ल करता है और वे उल्लास से भरे गा उठते हैं-“धरती लगी महावर हुलसी/ठुमक रही चैरे पर तुलसी/हरी घास की हरी चुनरिया सौ बल खाये रे/धूप फसल का तन सहलाये/मन का गोपन भेद बताये/पेड़ों की फुनगी पर तबला हवा बजाये रे”। यहाँ प्रकृति अत्यंत गतिशील और क्रियाशील है। उसमें जड़ता नहीं, हलचल है। तंद्रा नहीं, जागरण का संदेश है। यह दुनिया उन्हें इसलिए सुन्दर लगती है कि वे उसे शिकारी और व्यापारी की नजर से नहीं, प्रेमी की नजर से देखते हैं। इस सुन्दर दुनिया को वे जालिम राहबरों से बचाना चाहते हैं। प्रकृति में हर तरफ जीवन की हलचल है। रोशनी, चिड़िया, हवा सब गतिशील हैं। प्रकृति का हर क्रियाकलाप उन्हें आलस्य और जड़ता को त्याग कर जागरण और संघर्ष का संदेश देता है। जीवन की सीमाओं और बन्धनांे को तोड़ने की प्रेरणा देता है-“रोशनी से मिल रहा संदेश चैखट लाँघने का/उठो, मत सोये रहो, यह वक्त है, खुद जागने का/किवाड़ों पर थाप/देकर अभी गुजरी हैं हवाएँ/घोसलों में छिपी चिड़ियांे ने सिकोड़े पर फुलाये/फूल ने खिलकर भरोसा दिया तंद्रा त्यागने का”।
नचिकेता के कई गीतों से प्यार का अहसास उभरता है। यह प्यार, मध्यवर्गीय डरे-सहमे प्रेम से अधिक उर्वर और उदात्त है। यह लौकिक प्रेम है, जो जीवन से अलग नहीं है। यह प्रेम घुटन, अवसाद, बदहाली और दुश्वारियों के बीच जीवन के छप्पर पर लौकी की लत्तर की तरह पनपा और फैला है। यह विपरीत स्थितियों में जन्मा, पनपा और खिला हुआ प्रेम है। यह गंगा में नौका विहार के रोमानी अनुभव वाला प्रेम नहीं है। तेजाबों से भरी नदी में नाव बनकर ताव से टहलने और माचिस की तीली की तरह जलने के अनुभव वाला प्रेम है। देह यहाँ अनुपस्थित नहीं है। वह सरसों की तरह गदरायी है। प्रिया की हँसी में झरनों का संगीत और बनचम्पा का सौन्दर्य है। यहाँ प्रेम जीवन का अनिवार्य अंग है, जो जीवन को नया रंग और अर्थ देता है। पोर-पोर में धँसा यह प्रेम जीवन का सरमाया है। कवि को पता है कि स्नेह का जल ही जीवन को सींच कर हरा-भरा कर सकता है।
नचिकेता के गीत विरोध, प्रतिरोध से आगे प्रतिहिंसा तक जाते हैं। इस प्रतिहिंसा के पीछे सदियों से शोषित, उत्पीड़ित, अपमान और हिंसा के शिकार जन का विक्षोभ है। वह हर हाल में मृत्यु से जूझ कर भी जीना चाहता है। इसलिए वह साहस के साथ उद्घोष करता है कि-“भूख बँटे/पर जीजीविषा की प्यास नहीं बाँटूँगा/गर्दन भी काटूँगा/केवल घास नहीं काटूँगा”। यहाँ जीवन बहुत आसान नहीं है। वह नागफनी के जंगलों से गुजरने की तरह है। लेकिन नागफनी से बिंध कर भी बन ’बेला की महक’ कायम रहती है।
भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के दौर में पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए सारे दरवाजे खोल दिये गये। नव साम्राज्यवादी शोषण को आमंत्रित किया गया। जनता को सब्जबाग दिखाये गये कि इससे अमीरी और खुशहाली बढ़ेगी। रोजगार का सृजन होगा। लेकिन इससे जनता की गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली और भी बढ़ गयी। साम्राज्यवादी शोषण के इस नये फरेब को नचिकेता भली-भाँति समझते थे। उन्हें मालूम था कि यह हमें खुशहाल बनाने का नहीं, साम्राज्यवादी लूट को बढ़ावा देने का षड्यंत्र है। उस समय हमारे देश का शासक वर्ग उस साम्राज्यवादी लूट में हिस्सा बँटाने को आतुर था। नचिकेता ने इस षड्यंत्र को ’खुशबू बाँटने के नाम पर हरापन चूसने का हुनर’ कहकर परिभाषित किया-“सोचिए/किस दौर में शामिल हुए/खिड़कियाँ खोली कि/आयेगी हवा/छंटेगा इस बंद/कमरे का धुँआ/क्या खुलेपन से/मगर हासिल हुए/.. क्या न खुशबू/बाँटने के नाम पर/है हरापन चूसने का/यह हुनर/जो बने रहबर/वही कातिल हुए”।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से उपजी निर्बाध शोषण, अन्याय, अत्याचार, यातना, संत्रास और घृणा की दुरभिसंधियों के बावजूद आमजन में किसी तरह की बेचैनी और तड़प के अहसास का न होना हमारे समय की पहचान है। आज अमानवीकरण की चढ़ती बाढ़ में डूबते उतराते लोग हृदयहीनता और जड़ता के शिकार हैं। अत्यंत दमघोंटू माहौल है। ऐसे में नचिकेता जब कहते हैं कि-“इस नदी में सिर्फ/बालू-रेत ही हैं, जल नहीं है/सीप, घोंघे, केंकड़े पर/हो रहे विह्वल नहीं हैं/मछलियों को/तैरने से भी रहा/कोई न मतलब/…….. हो चुका है/इस नदी का/संगीत नीरव”-तो वे अपने समय की अमानवीयता और संवेदनहीनता को ही परिभाषित कर रहे होते हैं। फैलते सघन अँधेरे की भयावहता के बावजूद पसरी हुई इस भुतही खामोशी नचिकेता को परेशान करती है। वे ’बहन का पत्र’ जैसे गीत में हमारे सामंती पारिवारिक संबंधों में छुपी हृदयहीनता और अमानवीयता की परतें उधेड़ते हैं।
युद्ध, नफरत, घृणा और आवारा भीड़ की आक्रामकता की फैलती विषबेल के बीच भी इस दुनिया की बेहतरी के प्रति कवि की आस्था कायम है। वह निराश और हताश नहीं हंै। माँओं के चेहरे पर मुस्कान, स्त्रियों की खिलखिलाहटों, भटके हुए भाईचारे की वापसी की उम्मीद अभी बची है। नई उम्मीदों, नये विश्वासों से दामन छूटा नहीं है। वह एक जिद् की तरह कायम है, क्योंकि उसे मनुष्यता में भरोसा है। सरहदांे और दीवारों से बँटी दुनिया उसे मंजूर नहीं है। एक बेहतर दुनिया के प्रति उसका विश्वास बना हुआ है। इस अंधकार काल में भी सातवें-आठवंे दशक के क्रांतिकारी संघर्षों से उपजी आस्था और विश्वास की लौ से उनके गीत जगमगाते हैं। उनके गीतों में अंततः मनुष्यता की ’सुनहरी जीत’ के प्रति आश्वस्ति है।
नचिकेता के सपने और आकांक्षाएँ किसी मध्यवर्गीय व्यक्ति की न होकर किसान परिवार से जुड़े हैं। उन्होंने अपना समग्र व्यक्तित्वान्तरण किया। वे ’चुल्हे पर चढ़े तवे की आँच’, भूखे, जाँगर की खातिर, ’कुट्टी-चुन्नी का नाद’ और ’खड़ी फसल के लिए हथिया नक्षत्र के झपास’ हो जाना चाहते है। उनमें चट्टानों को तोड़कर उगी दूब की जीजिविषा है। रात के तन पर हर बार सुबह का उजाला लिखने की जिद् है। वे भ्रमजालों को तोड़कर नयी दुनिया की तलाश में निकले लोगों की अगवानी करते हैं-“घना कोहरा दूर भागे/गाँव जागे खेत जागे/पक्षियों का यूथ निकला/जिन्दगी की खोज करने”। उनके सपनों में जन-मन की चमक है। फूलों से लदी शाखें और दहकते पलाश का मंजर है।
नचिकेता के गीतों में लोक की लय और राग का असर है। भाषा और शब्दों में किसान और मजदूर के खून और पसीने का रंग और गंध है। उनकी चित्रात्मक भाषा जीवन की लय, रंग, खुशबू और स्पर्श को मूर्त करती है। हवा की गंध, फूलों के रंग, झील की कँपकपी और जिस्म की थरथराहट साकार हो उठती है। ’हँसिये से तनी भौहांे’, का चित्र उनके जैसा कृषक जीवन से प्रतिबद्ध कवि ही खींच सकता है। ’करखाही हांड़ी’, ’सरपत की झलास’, ’लसिया गये भात’, ’सहजन के गुच्छे-गुच्छे फूल’, ’मुडे़र पर सूख रहे कपड़े लत्ते सा दिन’ जैसे विलुप्त, ग्राम्य और कृषक जीवन से जुड़े बिम्ब, उन्हीं के गीतों में मिल सकते हैं। नचिकेता कृषक जीवन की संवेदना और विचार से जुड़े गीतकार हैं। सौन्दर्य, प्यार और संघर्ष उनके गीतों की आत्मा है। वे इस अँधेरे दौर में भी स्वप्न और उम्मीद के गीत गाते हैं।
सियाराम शर्मा
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