शालिनी सिंह
सीमा सिंह की कविताओं में प्रवेश के लिए आपको पूर्वाग्रह के समस्त पैरहन उतार कर आना होगा क्योंकि ये कविताएँ हमारे समय के सच का आख्यान प्रस्तुत करती हैं.
जहाँ प्रतिरोध, प्रश्न और प्रकृति इन तीनों का अद्भुत रचाव बसाव है, विस्तृत काव्य परिदृश्य बुनती हुई ये कविताएँ अपने पढ़े जाने के लिए ठहराव की माँग करती हैं .आप इन्हें सरसरी तौर पर पढ़ कर कविता के मर्म तक नहीं पहुँच सकते, ये मनोभावों के अंतस्तल में संवेदना की रोशनाई से लिखी गई कविताएँ हैं,जहाँ वेदना की स्वर लिपियाँ जगह जगह बिखरी हुई हैं..
सीमा के कथ्य की विशेषता उनकी विनम्रता है जो प्रतिरोध लिखते समय भी उन्हें विनीत बनाये रखता है ..और वे गहरी से गहरी बात बहुत ही आहिस्तगी से लेकिन पूरी दृढ़ता के साथ कहते हुए अपना प्रतिरोध दर्ज करती हैं और उनका आपके मन पर गहरा असर भी होता है..और यही तो एक अच्छे कवि की रचनात्मकता है..
आसमान रात का है
और अंधेरा भी उसी का
कहीं कोई जुगनू चमक भर जाए
तो टूट जाती अंधेरे की लय
कितना बड़ा दृश्य कितनी सहजता से रच देती हैं..कि आसमान सिरमौर है रात का ,उसी का आधिपत्य है ,कोई जुगनू भी चमक जाए तो उसके साम्राज्य में संकट छा जाता है..इसे आज के संदर्भ से जोड़ें तो अक्षरशः सच के बहुत क़रीब पाएँगे इस कविता को..
सीमा की कविताओं को पढ़ते हुए आपको एकबारगी महसूस होगा कि जो लिखा गया है, वही अर्थ अपेक्षित है पर जब आप इन कविताओं को फिर-फिर पढ़ते हैं तो इनके विराट संदर्भ आपके सामने खुलते चले जाते हैं..
डाली पर झुका गुलाब तुम्हारी स्मृति में खिला है
या साथ न जा सकने की बेबसी में
काँस जंगल में खिले या आँखों में
अपेक्षित था उसका उजला होना ..
कितनी मार्मिक वेदना से भरी हुई हैं ये पंक्तियाँ है और ये पुण्य एक कवि को ही हासिल है कि अपनी वेदना /पीड़ा को लिखकर भारी मन को शांत करना जानता है..
सीमा की विशेषता है कि वे सीधे कोई बात नहीं कहतीं बल्कि उनकी कविताओं का शिल्प और कथ्य सुंदर चित्रविधान के माध्यम से अपनी बात कहने की कला जानता है..और तभी कविता के अंतःसूत्र खुलते हैं.
कहते हैं कि कविता वहीं घटित होने में सहजता पाती है जहाँ वह कहने के दबाव से मुक्त हो। उनके अनुभव जगत में प्रकृति की एक बड़ी भूमिका है. एक कविता में चिड़िया के माध्यम से कितना सुंदर दृश्य रचती हैं कि जब वे कहती हैं कि-
“लेकिन जैसे ही उड़ने के लिए
खोलती हूँ अपनी पाँखें
अगले ही क्षण पाती हूँ खुद को ज़मीन पर !”
वे हमारे समय की महत्वपूर्ण और ज़रूरी कवि इसलिए भी हैं कि समाज में चल रही तमाम तरह की विद्रूपताओं को लेकर इनके मन में एक गहरी चिंता ही नहीं है बल्कि इनके भीतर लगातार इन्हें कैसे ठीक किया जाये यह सवाल भी चलता रहता है..
“और मैं सोच रही कि इस हिन्दू होते समय में
वे कब तक बचा पायेंगे आखिर एक मुसलमान नाम !”
हर कविता एक नई बात कहती है और बहुत प्रभावशाली ढंग से कहती है।
कथ्य की तारतम्यता को पकड़े रहना और साधे रखना उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत है.वे एक चेतस स्त्री की तरह बाजार की चालाक आहटों की विसंगतियों को बख़ूबी समझती हैं. समय की चमकदार जकड़बंदियों में वो नहीं फँसती बल्कि वो लगातार उसे दर्ज करते हुए आगाह भी करती रहती हैं..
इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में इनकी कविताएँ पूरी प्रतिबद्धता के साथ सामाजिक सरोकारों से तो जुड़ती ही हैं बल्कि वो व्यवस्था से, पितृसत्ता से सवाल करने का साहस भी रखती हैं..
कहते हैं कि कविता रातों रात कुछ बदल नहीं देती लेकिन एक अच्छी कविता पढ़ने के बाद आप और अधिक संवेदनशील ,करुणा से भरे मनुष्य बनने की तरफ़ एक कदम अवश्य बढ़ाते हैं.
सीमा सिंह की कविताएँ
1. टूटना
आसमान रात का है
और अंधेरा भी उसी का
कहीं कोई जुगनू चमक भर जाए
तो टूट जाती अंधेरे की लय ,
कहीं दूर किसी पुल पर
गुज़रती है इस समय की ट्रेन
धड़कता है पुल ज़ोर से
टूटती है उसकी तन्द्रा
जाग जाते छोटे छोटे स्टेशन
सोए हुए यात्री
और इस तरह टूट जाती नींद ,
सब कुछ सतत टूट रहा
टूटना कितना क्षणिक और दीर्घ है ..
टूटना.2
युद्ध के आसमान से
टूटती हैं लाल लाल चिंगारियाँ
धरती की गोद में ,
टूट जाती एक बच्चे की किलकारी
बिखर जाते माँ के आँसू ,
इसके बाद कुछ भी शेष नहीं रहता
न मनुष्य
न मनुष्यता
न इतिहास
न सभ्यताएँ
टूटना कितना क्षणिक और दीर्घ है !
2. एकालाप
स्मृति में होती है बारिश
और भीग जाती है देह
कोई सपना आँखों से बह निकलता
प्रतीक्षा के घने जंगलों में ,
पुकारे जाने के लिए ज़रूरी था
किसी आवाज़ का साथ होना
कोई न सुने तो अकेलापन
और घहरा उठता है !
एकालाप .2
कानों में गूंजती हैं अभी भी की गई प्रार्थनाएँ
जुड़ी हथेलियों के बीच
जो लौट लौट आती ,
मूल्य चुकाने से चुक जाता दुख
तो अनुक्षण बना रहता सुख ,
भाषा में रचे गए विलोम
जीवन में अक्सर पर्यायवाची की तरह मिले
कोई शब्द अर्थ से परे मिला
तो खोजा किए रात दिन सात आसमान ,
पर जा चुके को पकड़ा नहीं जा सकता
खोल कर मुट्ठी बिखेरा जा सकता है हवाओं में !
3.आश्वस्ति
बसंत के माथे पर खिलते फूलों को देख
लौट लौट आती हैं तितलियाँ
जबकि पूस की रातों में जुगनू नहीं लौटते
ऋतुएँ ले आती हैं अपने साथ मौसम का गुड
बिछड़ गए पत्तों की उम्र किसको पता भला
कोंपलें भले ही लौट आए अपने समय पर
सारी गिलहरियाँ कहीं नहीं जाती
वे अपने ही ठिहे पर लौटती हैं
डाली पर झुका गुलाब तुम्हारी स्मृति में खिला है
या साथ न जा सकने की बेबसी में
काँस जंगल में खिले या आँखों में
अपेक्षित था उसका उजला होना
इच्छाओं की सीमा कैसे तय हो भला
वे कितनी थोड़ी थीं और रास्ता लम्बा
फिर भी दुनिया सीने पर सवार रही
लौटने के सभी उपक्रमों में ज़्यादा नहीं
चाहिए थी तो बस एक आश्वस्ति !
4. अन्तर
अपने नियत समय पर एक चिड़िया
रोज मेरी खिडकी पर आकर बैठ जाती
मुआयना लेती आँख भर मेरे कमरे का
और कुछ कहे बिना धीरे से उड़ जाती
यह काम वह लगभग रोज़ करती
मैं रोज़ उसे आते जाते देखती हूँ
न वह कुछ कहती है और न ही
मेरी तरफ से कोई पहल होती है
दोनों इस आदत में इतने एकसार हो गए कि
कभी कभी मैं खिड़की पर बैठ कर
अपने ही कमरे का मुआयना करती हूँ
और वह बिस्तर से मुझे निहारती
लेकिन जैसे ही उड़ने के लिए
खोलती हूँ अपनी पाँखें
अगले ही क्षण पाती हूँ खुद को ज़मीन पर !
5 . अशेष
एक घनीभूत इच्छा जो चाह रही
होना फलीभूत
पर भ्रम ऐसा कि अपनी ही परछाई
से डर लगता
चाहना ऐसी कि मिटती नहीं प्यास
घिर कर पानी से भी
और आकाश को तकते हुए आख़िर में
टूट जाता भोर का तार भी
कुछ यात्राएँ ऐसे ही समाप्त होती हैं
जिसके बाद कुछ भी शेष नहीं रहता !
6. हिन्दू होते समय में
अभी उनके ध्यान में नहीं आया है
इस छोटे से गाँव का नाम
जहाँ सुबह वैसी ही होती है हस्बे मामूल
जैसी कि पूरे देश में
सूरज पूरब की खिड़की से झाँकता हुआ ही
निकलता है रोज
चिड़िया बतियाना शुरू कर देती है भोर से ही
लोग सानी पानी के लिए निकल पड़ते हैं
अपनी अपनी दिशाओं में
स्त्रियाँ आज भी सबसे पहले झाड़ू ही उठाती हैं
और लग जाती हैं सफ़ाई में
मानो पूरी दुनिया को साफ करने का ठेका
इनके ही कंधों पर रखा हो
वे झाड़ बुहार के फेंक आती है सारा कूड़ा
गाँव से लगे घूरे पर
जो दिन ब दिन ऊँचा होता जा रहा
जिस पर नहीं जाता ध्यान किसी का
उसकी बढ़ती ऊँचाई पर पूरे देश के कूड़े को
ढोने का अंतिम भार है
छोटे लड़के खाली नेकर पहने
सड़कों पर यूँ ही उछलते फिरते हैं
लड़कियाँ फ्रॉक पहने बिखरे बालों में
किसी पेड़ के नीचे झुंड बना कुछ करती नज़र
आती हैं
गाँव दिन के समाप्त होने के इंतज़ार तक में
उलझा रहता है तरह तरह से
दुआ सलाम देश दुनिया पर बहस
चलती रहती है एक छोटे बस स्टैंड पर जहाँ
सुबह का अख़बार दोपहर तक पहुँचता है
और वे नज़रें बचा पढ़ते हैं कि कहीं देख तो नहीं
लिया किसी ने उनके चेहरे पे उनके गाँव का नाम
और मैं सोच रही कि इस हिन्दू होते समय में
वे कब तक बचा पायेंगे आखिर एक मुसलमान नाम !
7. वायरल
पहले पहल वह आपकी आँखों में उतरता है
वह चुपके से लाल रंग में बदलती जाती है
फिर धीरे धीरे धमनियों से होता हुआ
वह गर्दन कमर और जोड़ों तक फैल जाता है
इतनी मध्यम होती है उसकी रफ़्तार की
शुरू शुरू में उसके आंलिगन में गिरफ़्त
होने वाले को आभास ही नहीं होता
कि उसने कर लिया है प्रवेश आपकी देह में
धीरे धीरे फैलता जाता है उसका समूचा जाल
और वह स्थापित हो जाता है आपके भीतर
देह डूब जाती है दर्द के समुंदर में
इस तरह बहुरूपिया वायरल मनुष्य पर
प्राप्त करता है विजय
और सचेत करता है कि सभ्यताएँ कितनी भी
विकसित क्यों न हो जाए
बुख़ार के सामने धराशायी होना उनकी नियति है !
8 . आयाम
हम मध्यवर्गीय परिवार की लड़कियाँ
सदी इक्कीसवी में भी
बुन रहीं थी उन्हीं के सपने ,कि
एक दिन सूरज के सातवें घोड़े से उतर
आयेगा कोई और ले जायेगा
दृश्य के उस पार
हम खोई रहीं अपनी दुनिया में
पढ़ती रहीं उन्हीं के क़िस्से बड़े बड़े आख्यानों में
इतिहास ग्रंथों में उनकी विजय गाथाएँ
और करती रहीं प्रतीक्षाएं
ऋतुओं के बरस जाने की ,
हम भूल गई कि कहानियों के भीतर का नायक
जीवन के नायकों से नितान्त भिन्न था
समय के अन्तरंग हिस्सों में
उसकी कहानी बीत चुके क़िस्सों से अलग थी ,
संघर्षों की एक विशाल दुनिया थी उसके समक्ष
और विकल्प का दूसरा रास्ता भी नहीं
व्यवस्था जिसने बनाया था हम स्त्रियों को
उसी ने गढ़े थे ये पुरूष नायक भी ,
धीरललित धीरोदात्त धीरप्रशांत का भारी बोझ था
उनके बलशाली कहे जाने वाले कांधो पे
हाथियों के अज्ञात बल से भरी थी उनकी भुजाएँ
राजचक्र से ले राजनीति चक्र के सभी हथियार
थमा दिये गये थे बचपन से कोमल हथेलियों पे
“पर वह एक और मन जो रहा राम का “
मन का तो तुम भी न कर पाये
कितने मिथ कितनी संभावनाएँ थोपी गई तुम पर भी
नायक होने के भार से दबे तुमने ग्रहण की सारी शक्तियाँ
उस आच्छादित शक्ति स्रोत से तुमने भी किये
सधे हुए प्रहार निरन्तर
जबकि हम समझ रहीं थी पक्ष तुम्हारा
जो किताबों आख्यानों से इतर हाड़ माँस का
सचमुच का पुरूष था
ये पक्ष इतर था किताबों वाली कहानियों से !
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“पर वह एक और मन जो रहा राम का “
(यह निराला जी की पंक्ति है )
कवयित्री सीमा सिंह, जन्म तिथि-20 जून। जन्मस्थान -लखनऊ (उत्तर प्रदेश )। शिक्षा -एम ए (हिन्दी ) ,पी एच डी, जनसंचार एवं पत्रकारिता में डिप्लोमा
अध्यापन -असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (अस्थायी) नेशनल पी जी कॉलेज
कई पत्रिकाओं तथा ई पत्रिकाओं और ब्लॉग में कविता का प्रकाशन ,
“सदानीरा है प्यार “काव्य संग्रह (संयुक्त) तथा आकाश की सीढ़ी है बारिश “ काव्य संग्रह (संयुक्त)में कविताओं का प्रकाशन।
लखनऊ आकाशवाणी से वार्ता का प्रसारण। लखनऊ में साहित्यिक संस्था “सुखन चौखट “ का संचालन
सम्पर्क: ईमेल: bisenseemasingh@gmail.com
मो नम्बर -7607857536
टिप्पणीकार शालिनी सिंह, जन्म स्थान-लखनऊ
शिक्षा-एम ए,एम फ़िल,पी एच डी (हिन्दी)
प्रकाशन-विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन
लखनऊ से साहित्यिक संस्था सुख़न चौखट का संचालन
सम्पर्क: ईमेल: Satyshalini@gmail.com
फ़ोन: 9453849860