पुरु मालव
अरबाज़ ख़ान और उनकी कविताओं से पहला परिचय हाल ही में आए ’समय के साखी’ पत्रिका के कविता विशेषांक से हुआ। जिसका सम्पादन हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि राजेश जोशी ने किया है। एक पाठक के रूप में मेरी पहली उत्सुकता कवि के नाम और पते से थी। कोई और समय होता तो शायद ये उत्सुकता भी न होती। किंतु आज समय जिस करवट बैठा है। ये उत्सुकता किसी के भी मन में भी उठ सकती है। लेकिन इसका आभास कवि को अवश्य है और इसी उत्सुकता को शांत करती उनकी एक कविता है – पोस्टल एड्रेस। जिसकी शुरुआत कुछ इस तरह होती है-
“तुलसी कालोनी, गौशाला रोड,
वार्ड न. 21, पिन न. 473331,
अशोक नगर म.प्र.
मेरा यानी अरबाज़ का है यह पोस्टल एड्रेस।“
बाबरी मस्ज़िद विध्वंस और उसके बाद की घटनाओं से भारतीय समाज में जो परिवर्तन आए। सामाजिक समरसता की लड़ियाँ जो टूटी और विगत एक दशक से जिस प्रकार का वातावरण देश में बनता जा रहा है वो किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय में भय, असुरक्षा और संत्रास पैदा कर सकता है। अरबाज़ की कविताओं में ये सब सूक्ष्म स्तर से प्रकट होता है और वितान की तरह फैल जाता है। ‘पोस्टल एड्रेस’,’क्या मैं मारा जाऊंगा’,’जिहाद’, ‘आजादी के दिन’ आदि कविताएँ हमारे समय कड़वा सच बयान करती हैं।
अरबाज़ की कविताएँ प्रश्न करती हैं और उन प्रश्नों के ठोस उत्तर भी चाहती हैं, प्रतिप्रश्न नहीं। स्मृतियाँ हैं जो दूर तक जाती हैं। जब समाज में फ़िरक़ापरस्ती का ऐसा आलम नहीं था। साम्प्रदायिक सौहार्द था, समरसता थी, गंगा-जमुनी तहजीब थी, एक कौम दूसरी कौम को शको-शुबहा से नहीं देखती थी, दोगली नहीं मानती थी। मगर अब हालात ऐसे हैं-
“कहीं गाय मर जाती है
कहीं बम फूट जाता है
कभी दंगे होने लगते हैं
तो कभी हिंदुस्तान – पाकिस्तान के बीच मैच
तब हर कहीं टकराती हैं
लाल – लाल आँखें”
अरबाज़ की कविताओं में समाज की चिंताएँ हैं। बदलते सामाजिक तानेबाने को लेकर आशंकाएँ हैं। राजनैतिक व्यवस्था को लेकर आक्रोश है। किंतु द्वेष कहीं नहीं है। उनके ह्रदय में प्रेम का अथाह सागर है जो हिलोरें मारता है तो कवितओं में छलक पड़ता है।
भाई -बहन के असीम प्रेम को व्यक्त करती उनकी एक कविता है- बाजी बनकर। जहाँ एक बहन अपने भाई बाजी कहना पसंद करती है और भाई भी सहर्ष अपनी बहन के लिए बाजी बनना स्वीकार करता है।
अरबाज़ की कविताओं के बिम्ब चमत्कृत करते हैं। सम्पूर्ण दृश्य हमारे सम्मुख प्रकट ही नहीं होता अपितु हम स्वयं दृश्य के मध्य प्रकट हो जाते हैं।‘ मस्ज़िद में चहकते बच्चे’ कविता को पढ़ते हुए जैसे हम मस्ज़िद ही में पहुँच जाते हैं। बच्चों की शरारतें और बड़ों की नसीहतें देखते- सुनते हैं।‘गवाह है शबे- बारात’ और ‘औरतों की ईदगाह ‘भी ऐसी ही एक कविताएँ है।
अरबाज़ खान की कविताएँ
1. गवाह है शब-ए-बारात
कब्रिस्तान की वीरानी आज खत्म हुई
शब-ए- बारात है आज
वे जो देखने को मजबूर हैं ये बुरा वक्त
वे जो ज़िंदा हैं
जिनकी रगों में अब तक खून दौड़ता है
जिनकी सांसे बदस्तूर चलती हैं
जिनका दिल धड़कता है
कभी जोरों से
तो कभी आहिस्ता
देखते हुए नफरतों के मंज़र
वे चले आये हैं इस कब्रिस्तान में
जिंदगी और मौत के नजदीक
जिंदों और मरे हुओं के बीच
ख्यालों और सवालों के दरमियान
चले आए हैं
हो रहे हैं दुआ करने वाली जमात में शामिल
ले रहे हैं सामूहिक फातिहा में हिस्सा
मौलाना समझा रहे हैं
यहां सिर्फ इबादत किया करें
इबादत के अलावा हर बात यहां हराम है
सभी नसीहतों से बेपरवाह
बहुत सी कब्रों के बीच वे अपने सगों की कब्रें ढूंढते हैं
सिरहाने के पत्थरों के नाम देखते हैं
उन्हें छू छूकर महसूस करते हैं
जैसे महसूस करते हैं वह छुअन
जिसे विदा हुए एक अरसा हुआ
लेकिन जो जब तब हवा की तरह महसूस होती रहती है
इन्हीं सिरहाने के पत्थरों पर लिखी हैं विलादत की तारीखें
वे तारीखें जो जुड़ी हैं उन तारीखों से
जिनमें बीमार हुए और आफतें आईं
जिनमें भटकते रहे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल
जिनमें हिम्मत ने साथ छोड़ा
जिनमें उम्मीदों ने अलविदा कहा
जिनमें देखा बुरा वक्त निस्सहायता से भरा हुआ
जिनमें देखे वे चेहरे जो अबतक के सबसे खौफनाक चेहरे हैं
वे तारीखें जिनके बाद और विकृत हो गई इस दुनिया की तस्वीर
क्रूर से क्रूरतम नजर आने लगे कई चेहरे
इन पत्थरों पर लिखी तारीखों के आस पास
पैदा हुए थे बच्चे
बच्चो में ढूंढते रहे गुजरें हुओ के चेहरे
उनके नाक नक्श से मिलाते रहे
अपने बड़ों के नाक नक्श
उनकी आदतों में ढूंढा किए
अम्मा अब्बाजी खाला मामा की आदतें
इन तारीखों से बुजुर्ग
बच्चो की उम्रों का अंदाज़ा लगाते हैं
करते हैं उनके भविष्य की चिंता
कोसते हैं जमाने को
कि अब पहले जैसे काम न रहे
अपने घर के कामों में ही बच्चो को लगा लेना हुआ मुश्किल
जमे जमाए काम हाथों से छूटते जाते हैं
मक्कारी और फरेब का जमाना है
न रही जुबान की कीमत
न रही धंधे में भरोसे की गुंजाइश
याद करते हैं वे दिन
जिनमें खुद्दारी से जीते थे
सच को सच कहते थे
जिनमें किसी से न दबते थे
हक के लिए लड़ने का जमाना न रहा
सच्ची बात कहने सुनने वाले न रहे
बीते जमाने को याद करते बुजुर्ग
आज रूबरु हैं
उन मरहूमों के जो अलविदा कह गए दुनिया से
आये है कि देखो हम तुम्हारे खानदान के लोग है
कोई रखे न रखे तुम्हें याद हम रखेंगे
कोई करे न करे तुम्हें याद हम करेंगे
तुम्हें, तुम्हारे उन दिनों को
सुनाएंगे बच्चो को किस्से तुम्हारी जिंदगी के
उस घर के जो रोज मेहमानो से भरा रहता था
जिसमें हमेशा बनता था आने जाने वालों के हिस्से का अतिरिक्त खाना
आज बना है सभी घरों में नियाज़ का खाना
बने हैं तरह तरह के हलुवे
अपने मरहूमों के लिए आज
सबने मिलकर छोड़ा है लोबान
दिलाई है फातिहा
लगायी हैं अगरबत्तियां
मिले हैं एक परिवार के वे लोग
जो बंटे रहते हैं सालभर अलग अलग परिवारों में
अपने बुजुर्गों को याद करते वे इकट्ठा हुए हैं
कि इस दिन हमें साथ देखकर खुश होगी वो मां
जिसने मरते मरते दी थी नसीहत
सब मिलकर साथ रहना
कभी आपस में लड़ना नहीं
बड़े इकट्ठा करके ले आए हैं बच्चों को
कि चलो सब मिलकर चलो
आज मरहूमीन हमारा इन्तेजार करते हैं
बाट जोहते हैं हमारी
पलकें बिछाए
देखो देखकर चलो किसी कब्र के ऊपर से न गुज़रो
कब्र पर वजन पड़ता है तो गुनाह लगता है
अगरबत्तियां दूर लगाओ
रूह को आग से जलन पड़ती है
फूल बिछाओ कब्र के ऊपर
हरी घास और फूल पत्तियां रूह को ठंडक देते हैं
गुलाबजल और इत्र छिड़को
महकाओ ये कब्रें
रूहों को खुशबुएँ पसन्द हैं
मरहूमीन के लिए दुआ मांगो
जहां है वहां वे खुश रहें
दुआ मांगते वक्त याद आते हैं तमाम मंजर
दिखते हैं चेहरे
हंसते हुए
होती हैं धुंधली रेखाएं गहरी
जिनसे गहराती जाती हैं यादें
खोता जाता है होश
बड़े समझाते हैं बच्चों को
ये रूहें तुम्हारे अपनों की रूहें हैं
इनमें तुम्हारे बुजुर्ग हैं
दादा के भी दादा है
यानी तुम्हारे परदादा है
उस खजूर के पेड़ के आस पास कहीं
दादी है, बड़े अब्बा है, मझली अम्मी हैं
वो फूफी है जो जवानी में गुज़र गयी
वो बहिन है जो सात दिन की होकर मर गयी
तुम्हें सबको याद रखना है
कल हम रहें न रहें तुम्हें यहां आना है
सबकी कब्रों पर बिखेरनी हैं खुशबुएँ
सबके हक़ में मांगनी हैं दुआएं
सबके लिए रखनी है दिल मे जगह
बड़े समझा रहे हैं बच्चों को
वे बड़े जो बच्चो से अलग दूर रहते हैं
जिन्हें समझानी थी कई दूसरी जरूरी बातें भी
जताते हुए कि हम तुम्हारे अपने बड़े हैं
तुम हमारे बच्चे हो
हाय !!
वे समझा न सके
उन्हें मौका ही कब मिल सका
अपने खानदान के बच्चो के साथ रहने का
आज वे समझा रहे हैं
कब्र में पड़ी शख्सियतें सिर्फ रूहें नहीं
वे लोग हैं जिनसे हम पैदा हुए
और वे भी जिन्हें हमने पैदा किया
जिनसे हमने प्यार किया
जिन्हें देख देखकर जीते रहे एक उम्र
लेकिन वे अब इस दुनिया में नहीं हैं
लेटे हुए हैं इन कब्रों में
कई सालों से दबे हैं मिट्टी में
मिट्टी में दबे दबे
जो मिट्टी नहीं हुए हैं अबतक
न वे मिट्टी होंगे कभी
बचे रहेंगे हम में
तुम में
आने वाली पीढ़ियों में
कल हम भी यहीं आकर लेट जायेंगे
तुम बचाना हमें
जैसे हमने बचाया अपनों को
वे हमें समझाते थे इसी तरह
हम समझा रहे हैं तुम्हें
तुम समझाना अपने बच्चों को
हमारी नसीहतों की गवाह है शब- ए- बारात
हमारी याददाश्त की गवाह है शब ए बारात
हमारे इहतराम की गवाह रहेगी शब -ए – बारात
इस मिट्टी में अपनेपन की जो महक है
उसे हमेशा महसूस करना
वो तुम्हें ले ही आयेगी यहां
भूलना नहीं तुम हमारी बात
चलना हमारे नक्शे कदम पर
हमारे पांवों के निशानों की
गवाह है शब ए बारात।
2. बाजी बनकर
मेरी बहिन को जब मुझपर प्यार आता है
कहती है
तुम मेरे बड़े भाई नहीं बड़ी बाजी हो
मुझे अच्छा लगता है उसके मुँह से ये सुनकर
अच्छा लगता है अपनी छोटी बहिन की बाजी बनकर
मैं उसकी बाजी बनने के लिए क्या क्या नहीं करता
उसकी दिन भर की बातें सुनता हूं
अपनी सारी व्यस्तताओ को भूलकर
सारे कामों को दरकिनार कर
निकालता हूं वक्त
सुनता हूं उसे
उसके किस्सों को
किस्से उसके दोस्तों के
दिन भर की भागदौड़ के
उसकी खुशियों और परेशानियों के
सुनता हुआ
देखता हूं उसकी नजर से दुनिया
अपनी बहिन की बाजी बनकर
करता हूं वह पाठ याद
जो उसे याद करवाना होता है
सुनता हूं वे गीत
जो उसे बहुत पसंद हैं
जाता हूं उन दुकानों पर
जहां मिलते हैं उसकी जरूरत के सामान
खाता हूं वो सारी चीज़े
जिन्हें खाने का मन होता है उसका
मैं अपने बड़े होने का फर्ज निभाता हूं
उसका दोस्त बनकर रहता हूं
उसके साथ साथ चलता हूं
जितना जानता हूं उसे बतलाता हूं
अपनी समझ के मुताबिक समझाता हूं
यह भी सही है
कि जब वो हँसती है तो मैं हंसता हूँ
जब वो डरती है
उसका हाथ थाम लेता हूँ
उसकी फिक्र में मैं भीतर तक फिक्र से भर जाता हूँ
वह मुझपर इतना भरोसा करती है कि
उसके गलत फैसलों पर भी
मैं नहीं सोच पाता किसी मूंछोवाले बड़े भाई की तरह
जब मैं सोचता हूं अपनी बहिन के बारे में
तो सोचता हूं उसकी
बाजी बनकर…
3. औरतों की ईदगाह
ताजियों के तीजे की शाम है
औरतों के ईदगाह आने का दिन
औरतें ईदगाह आईं हैं
माएं और उनकी जवान बेटियां
सासें और उनकी बहुएं
संग साथ बहुओं के नन्हें मुन्ने
संग साथ बेहिसाब उमंगे
उमंगों के मेले
दो चार झूले
टिकिया के ठेले
पापड़ की डलिए
गुड़िया के बाल
समोसे कचोरी चाट
गर्मागर्म सिके भुट्टे
सिगड़ी की आंच
आंच से ज्यादा चमकते चेहरे
देखता है बादलों से भरा आसमान
बारिश के मौसम में
जमीन की चमक
उसकी खुशियां
देखकर मुस्कुराता है
पुरानी दोस्तों के हाथों में हाथ
उम्र से ज्यादा बड़ी बनी लड़कियों की
छीना छपटी
मारा मारी
दौड़ भाग
अम्मी से चाची से रूपियों की लूट
फिर ठेलेवाले से चलता फर्जी हिसाब
टिकियां की गिनती भुलाना
बिना रुपिए चुकाए चकमा दे जाना
छीन छपट एक दूसरे का खाना
अपनी चीज को लेकर दूर दौड़ जाना
पूरी ताकत से
अपनी जिंदगी की बंदिशों से दूर
सारी नेक सलाहों
और तरबियतों से दूर
जमीन पर न आना
हवा से बातें करना
देखता है बूढ़ा बरगद
और देखकर खुश होता है
खुश होते हैं
शाम को घरों को लौटते पंछी
कि जमीन पर भी कोई चहक रहा है
बिना पंखों के उड़ रहा है
लोबान और अगरबत्तियों का धुआं
एक कोना पकड़कर उड़ा चला जाता है
एक कोना पकड़कर बैठ जाती हैं पंचनियां
अपने थाल लिए
तबर्रुक का सामान लिए
सुरमा और पान लिए
आज थोड़ी सी राजनीति करने दो इन्हें
इस कोने में
बन जाने दो पंचनियां
कहता है ईदगाह पर लगा खामोश माइक
सुनती हैं उसकी बात
ऊंची गुंबदें
औरतों की ईदगाह पर
बहुत जल्दी ढलने लगता है दिन
गहराने लगती है शाम
वे जल्दी जल्दी पकड़ती हैं अपनी सहेलियों को
खीचती हुई सेल्फियां
लेती हैं विदा
पंचनियां जल्दी जल्दी बांटती हैं
तबर्रुक और सुरमा
और पान की गिलौरियां
ठेलेवाले कर देते हैं अपने सामान को सस्ता
और जैसे तैसे थमा ही देते हैं
इन मोल भाव की पक्कियों को
अंधेरा होते होते
ईदगाह खाली होती जाती है
घर की रौनकें घर को पहुंचती हैं
संभालती हुई इज्जत वाला पल्लू
खोलती हैं रसोई का दरवाजा।
4. जिहाद
जिहाद कहते हैं
घर तोड़ देते हैं
जिहाद कहते हैं
लठ्ठ बजाने लगते हैं
जेलों में ठूंस देते हैं
कहते हैं – “देश का खाते हो
पाकिस्तान का गाते हो “
जिहाद कहते हैं
ज़िंदा जला देते हैं
देश को धर्म की आंख से देखते हैं
मनुष्यता को
कौम से छोटा मानते हैं
बस्ती की ओर बढ़ती है प्रशिक्षित भीड़
तलवारें और त्रिशूल लहराती
सद्भाव को समूचा निगल जाती है
धर्म की आड़ में घृणा फैलाती है
वो दिन दूर नहीं
कि लोगों का एक समूह
खा रहा होगा खाना और उसे
कहा जायेगा भोजन जिहाद
कोई पानी पी रहा होगा
उसे बोला जायेगा वाटर जिहादी
लड़के घूमने निकलेंगे सड़क पर
उन्हें पर्यटन जिहादी के रूप में
चिन्हित कर दिया जाएगा
एक दिन कोई सांस लेगा
तो उसे मान लिया जाएगा
ऑक्सीजन जिहादी
5. मैं युद्ध के खिलाफ हूँ
उंगली में अगर फ़ांस चुभ जाए
तो वह तीन दिन तक कलपती है
धोखे से भी दीवार से सिर फूट जाए
तो वहां गूम बनकर उभरता है
मैं एक बार ठोकर खाकर गिरने से लहूलुहान हो चुका हूँ
जहां चोट लगे वो कितना दुखता है मैं जानता हूँ
लेकिन मैं यह नहीं जानता
कि बम के गिरने से लहूलुहान हुए
किसी अधमरे अधजले को कितना दर्द होता होगा
और अगर वह बच्चा हो तो..
मैं तो उसे देखने की भी हिम्मत नहीं रखता
इस समय जब युद्ध चल रहा है
मैं लिखता हूँ
मैं युद्ध के खिलाफ हूँ
यह पाषाण युग होता यदि
पत्थरों से चल रहा होता यह युद्ध
कुछ हज़ार ही आते इसके चपेट में
तब भी मैं लिखता मैं युद्ध के खिलाफ हूँ
यह लौह युग होता
तब तलवारों से चल रहा होता युद्ध
कुछ लाख ही आते इसकी चपेट में
तब भी मैं लिखता मैं युद्ध के खिलाफ हूँ
अभी अभी खोज हुई होती बारूद की
और तोपो से लड़ा जा रहा होता यह
तब भी मैं लिखता यही
कि मैं युद्ध के खिलाफ हूँ
अब जबकि पूरी दुनिया ही आ सकती है इसकी चपेट में
यह युद्ध देखते ही देखते बन सकता है परमाणु युद्ध
रॉकेट, मिसाइल और जाने क्या क्या से लड़ा जा सकता है यह युद्ध
तब मुझे बहुत जोर देकर लिखना है
मैं युद्ध के खिलाफ हूँ
मुझे एक बार नहीं बार बार लिखना है
मैं युध्द के खिलाफ हूँ
हर आती जाती सांस को मेरी दोहराना है
मैं युद्ध के खिलाफ हूँ
मैं यूक्रेन के लिए
फिलिस्तीन के लिए
अफगानिस्तान के लिए अफसोस करता हूँ
कि उन्होंने युद्ध की तबाही देखी
हिरोशिमा और नागासाकी का नाम सुनकर
मेरी रूह कांप जाती है
जलने से कितना कुरूप लगने लगता है आदमी
मासूम बच्चों की चीखें गूंजती हो जहां
जिस दुनिया में
वहां क्या सो सकता है कोई
औरतें जिनके लिए शायरों ने अपने दीवान भर दिए
उनका क्षत, विक्षत होना
दहाड़े मारकर रोना किससे सुना जा सकता है भला
खूबसूरत शहरों पर किताबें लिखी जानी चाहिए
उनपर कालिख नहीं पोत देनी चाहिए
उन्हें खंडहर बनते देखना
झुलसते हुए देखना
मज़बूत दिल वालों का काम है
मेरा दिल कतई मज़बूत नहीं
इसलिए मैं युद्ध के खिलाफ हूँ
6. आज़ादी के दिन
यह कौन सा रंग चढ़ गया
स्वतंत्रता के उत्सव पर
माहौल कितना बदल गया
हम बस देखते रह गए
बेचैनी से भरे हुए
चुप चुप
डरे हुए
बोलें तो क्या बोलें
सैकड़ों सालों की कुर्बानियां
हज़ारों लाखों देशभक्तों की शहादतें
उनके लहू से लिखी इस दिन की इबारत
किस तरह पढ़ें
कैसे महसूस करें
जबकि हम यह भी नहीं कह सकते
हमारे भीतर क्या है
देश को लेकर किस तरह के सपने देखते हैं हम
हमारी आवाज़ शोर में दब गई
भीड़ में खो गए हम
निरीह से हो गए हम।
7. क्या मैं मारा जाऊंगा ?
मैं हर रोज़ खुदको समझाता हूँ
मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा
कि मैं मार दिया जाऊं
बोटी-बोटी काट दिया जाऊं
जला दिया जाऊं जिंदा ही
या गोलियों से छलनी कर दिया जाए मेरा जिस्म
लेकिन क्या कर सकूँगा अकेला
जब मौत आँखों के सामने होगी
सोचकर कांपने लगता हूँ ..
आखिर कसूर क्या है मेरा?
या मेरे बाप-दादों का
मेरे दादा भूसा बेंचते थे
गाय-ढोर पालते थे
मेरे पापा सब्जी बेंचते हैं
मेहनत मजूरी से
जब तक पढ़ाते बना
मुझे पढ़ाया
अब जब उनके बस से बाहर हो गया
मैं खुद ही स्कूलों में पढ़ाकर
अपनी आगे की पढाई करता हूँ |
पापा, बीडी- सिगरेट नहीं पीते
मंडी की गाली-गलौंच
मंडी में छोड़कर आते हैं
घर में एक गाली नहीं बकते
ताकि हमारी तालीम सही हो
अम्मी सालभर में
एक-दो जोड़ी कपड़ों से ज्यादा नहीं सिलवातीं
ताकि स्कूलों की फीस भर सकें
अम्मी-पापा दोनों मिलकर
खुली आँखों से सपनें देखते- दिखाते है
कि जब हम भाई –बहिनों की
लग जाएगी सरकारी नौकरियाँ तो
जीत जायेंगे वे भी अपनी ज़िन्दगी की जंग
भूल जायेंगे अबतक झेली सारी मुसीबतें
बहुत बेचैन होता हूँ कभी-कभी
जब नामुमकिन लगने लगते हैं उनके सपने
अचानक परेशान करना शुरू करतीं हैं
लाल-लाल आँखें
कहीं गाय मर जाती है
कहीं बम फूट जाता है
कभी दंगे होने लगते है तो कभी
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच मैच
तब हर कहीं टकरातीं हैं लाल-लाल आँखें
और कांपना शुरू करता हूँ मैं
कांपना शुरू करते हैं जाने कितने ही अरबाज़
शिनाख्त करता हूँ लाशों की तो घबरा जाता हूँ
अपना ही चेहरा देखकर चकरा जाता हूँ
कितने ही अरबाज़ कब्रों में दफ्न हैं
कितने ही काट-पीट दिए गये हैं
कितने ही पागल हो गये हैं
कितने ही कांपते हैं मेरी तरह
पूछते हैं एक ही सवाल कि
क्या मैं मारा जाऊंगा?
मारा जाऊंगा इसलिए कि
बच्चे के पैदा होने पर
दी जाने वाली अज़ान
मेरे कानों में भी पड़ी
मारा जाऊंगा इसलिए कि
बोलना सीखते ही
मैंने भी कलमा पढ़ा
उड़ती चिड़िया के धोखे में
मेरा भी ख़तना हुआ
कि पापा की उंगलियाँ थामकर
मैंने भी मस्जिद जाना सीखा
यही मेरे कसूर होंगे वरना
मैंने तो नहीं गिराए मंदिर
मैंने तो नहीं बनवाईं मस्जिदें
मैंने नहीं किया किसी का क़त्ल
मैंने नहीं लूटी किसी की अस्मत
न मैं गजनवी के साथ था
न औरंगजेब को जानता हूँ
न शिवाजी से दुश्मनी रखने की
कोई जरुरत है मुझे |
मेरी जरूरतें भी वही आम हैं
रोटी, कपड़ा, मकान और थोड़ा- सा सुकून
लेकिन जब बार- बार कसौटियों पर कसा जाता हूँ
परखा जाता हूँ
अजीब- अजीब चश्मों से देखा जाता हूँ
तो कांप जाता हूँ मैं
कांप जाता हूँ जब दो – चार होता हूँ
अपने खिलाफ भरी गयी नफरतों से
कांप जाता हूँ
जब इकट्ठी की जातीं हैं कुल्हाड़ियाँ
पूजा होती है तलवारों की
भाषा बदल जाती है
ईश्वर के जयकारों की
तो कांप जाता हूँ मैं
और अब तो पहले से ज्यादा कांप जाता हूँ
क्या.. यह कोई जंगल है
जहाँ अकेले पड़ते ही मार दिए जाते हैं लोग
जिसकी दाढों में खून लगा हो
वह चुना जाता है जंगल का राजा
जहाँ बोटी-बोटी खा जाने के लिए
तैयार किये जाते हैं
भेडिये और शिकारी कुत्ते
जहाँ कानों-कान ख़बर नहीं होती
किसी के लुट पिट जाने की
जब देखता हूँ चारों ओर जंगल ही जंगल
तो कांपने लगता हूँ…
8. मस्जिद के भीतर चहकते बच्चे
नमाजियों से बर्दाश्त नहीं हो रहे हैं
मस्जिद के भीतर चहकते बच्चे
इन बच्चों की वजह से
कई चेहरे.. बिगड़ चुके हैं
कई सारी गालियाँ..
ज़ुबान तक आते-आते, थमकर रह गईं हैं
सभी भारी आवाज़ वाले जिम्मेदार लोग
इन्हे डराने की नाकाम कोशिशें कर चुके हैं
और अब …. झुंझलाये हुए बैठे हैं
इन.. बच्चों की वज़ह से
तकबीर देते हुए इमाम को
इस्लाम के रुतबे की मसला
उसने मोहब्बत से जीता सारा जहाँ जैसी बात
अधबीच में छोडकर समझाना पड़ा
कि कितना बड़ा गुनाह है
मस्जिद के भीतर शोर करना
लेकिन ये बच्चे अनसुनी कर गए
खुदा की जात से न डरे !!
आज के खास दिन की जानिब
एक का सत्तर गुना सबाब मिलने का दावा करते हुए
मस्जिद की तामीर को
नमाजियों से ज्यादा से ज्यादा चंदा देने की अपील करते
सदर,सेकेट्री, खजांची इन बच्चों पर चिढ़े हुए हैं
बार- बार इन्हें डांट रहे हैं
चुन- चुनकर पीछे की सफों में भेज रहे हैं
लेकिन ये बच्चे अपनी मनमर्जी करते हैं
किसी के समझाने से मानते ही नहीं !
जिन्हें खुदा के ये बन्दे समझा रहे हैं
ये बच्चे हैं
कोई खुदा के इन बंदो को समझाये कि
ये बच्चे हैं…
आपके ऊंचे ओहदों का इन्हें
बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं
अपने साथ अपनी पूरी दुनिया लेकर
मस्जिद के भीतर चले आये हैं ये बच्चे
इनकी गेंद, इनका बस्ता, इनका स्कूल
बंदर मामा, हाथी दादा, मछली रानी
सबके सब आज मस्जिद में चले आये हैं
इनके आने से मस्जिद का एक हिस्सा
शायद उसका दिल कुछ देर से
अजान और आयतों से बेखबर है
उसमें गूंज रही हैं पतली- पतली, तोतली आवाज़ें
मिल गए हैं कई शैतान एक साथ
मचा रखी है धमाचौकडी
ये बच्चे बार- बार पीछे की सफों में पहुचाये जाते हैं
बार- बार नमाज़ियों के बीच पाए जाते हैं
अपनी जेबों से कड़क नोट निकालते, बताते
कौन सी चीज खानी है तय करते, बतियाते
देखो क्या- क्या कर रहे हैं ये बच्चे
कोई अपनी छाती पर अम्मी के लगाये
काले टीके पर अकड़ रहा है
बता रहा है अपने दोस्तों को
इससे नज़र नहीं लगती
एक सिखा रहा है उसके ढेर दोस्त को
सीधी टोपी कैसे लगाई जाती है
एक का कुर्ता बजू करते हुए गीला हो गया है
इसलिए वह उसे सुखा रहा है
कि “सूख,सूख पट्टी,चन्दन पट्टी” गा रहा है…
अभी मस्जिद में खुतबा चल रहा था
हदीस के मुताबिक सारे नमाज़ी
रीढ़ की हड्डी सीधी किए
दाहिने पैर का अंगूठा खड़ा रखे
खुतवा सुन रहे थे
अब नमाज़ शुरू हुई है
इमाम ने बांध ली है नीयत
इसलिए नमाज़ियों ने भी दोनों हाथ कानों तक ले जाकर
नमाज़ की नीयत बाँधी
तो इन नकलचियों ने भी
नीयत बांध ली
यानि अपने दोनों हाथ बांध लिए
नमाज़ी रुकू में जाते हैं
तो ये नकलची भी अपने घुटनों पर हाथ रखकर
झुककर खड़े हो जाते हैं
फिर ज़मीन पर सिर पटक
सजदा करते हैं।
बड़ों की तरह नमाज़ पढ़ने की
पूरी कोशिश करते हैं ये बच्चे
लेकिन अपने आप खुल जातीं हैं इनकी आँखें
एक–दूसरे को इस तरह खड़ा हुआ देख
अपने आप छूट जाती है इनकी हँसी
बीच नमाज़ ही टूट जाती है मस्जिद की खामोशी
फिर क्या.. हँसी के फव्वारे छूटते हैं
शैतानो को नए- नए खेल सूझते हैं
कोई किसी को धक्का देता है
तो कोई पादने वाले को ढूँढते हुए
सबको अल्लाह की कसम खिलाता है
आदा पादा कर मुजरिम को पकड़
उसे फिर से बज़ू बनवाता है
कोई फिर से सफ़ को दुरुस्त कराता है
कोई पहला कलमा ही बार- बार
जोर- जोर से पढ़े जाता है
ये बच्चे खेल रहे हैं
नमाज़ी सिर झुकाये हैं
ये बच्चे गा रहे हैं
नमाज़ी आयतें पढ़े जा रहे हैं
उनके चेहरे बिगड़ चुके हैं
उनका ध्यान इन बच्चों पर जाता है
वे कोशिश करते हैं कि ख़ुदा में डूब जाएं
आज के मुक़द्दस दिन की जानिब
धो लें अपने अगले- पिछले सारे गुनाह
लेकिन बार- बार खींचती हैं उन्हे
इन बच्चों की आवाज़ें
कुछ सोचे बैठे हैं कि
जल्दी से ये दो रकात नमाज़ फर्ज़ पूरी हो
और सलाम फेरें
सलाम फेरते ही इतनी तेज़ चिल्लाना है
इन शैतानों पर कि
सुन सकें इनके जज्बाती बाप
जो इन्हे अपने साथ मस्जिद में लाये हैं ।
इन नमाज़ियों में कुछेक ऐसे भी हैं
जिनके चेहरे खिल उठे हैं
इन बच्चों की अटखेलियों में
वे भूल गए हैं कि आज बाज़ार मन्दा है
शाम को आटा, दाल, तेल जाने क्या- क्या खरीदना होगा
जबकि जेब मे आड़तिया की कलम भी पूरी नही हो पाई है
तिरपाल से ढँके अपने ठेले को भूलकर
ज़िन्दगी की फ़िक्रों को भूलकर
वे खो गए हैं इन बच्चों में..
उनके भीतर का कोई बच्चा
खोजने लगा है उसका खोया हुआ बचपन
उसे भी याद आने लगे हैं अपने मिटटी के ट्रैक्टर
अंटियों से भरी छनछनाती जेबें
बीती पुरानी लड़ाईयों के किस्से…
वे पछता रहे है
कि उनके भी बगल में आज
कोई ऐसा दोस्त क्यों नहीं खड़ा
जिसे वे आँख मार सकें
और सजदे से बमुश्किल उठकर खड़ा हो पाता हुआ
मोटा सेठ बताकर हँस सकें
लेकिन वे अब भी जी रहे हैं वह हँसी
आयतों, कलमों, दुरुदों और दुआओं के
जुबान पर होते हुए भी
अंडा- डॉवरी खेलने को
वे चढ़ चुके हैं अमरुद के पेड़ों पर
भर रहे हैं हवाओ में कुलांचे
कर रहे हैं आसमानों की सैर
और यहाँ बाद नमाज़ के
शुरू हो चुकी है दुआ
दुआ में बोले जाने वाले आमीन को
कुछ बच्चे अम्मी समझ बैठे हैं
और इमाम की हर दुआ पर चिल्ला रहे हैं
अम्मी… अम्मी… अम्मी…
साबित करते हुए
ये बच्चे हैं
अपनी अम्मियों के बच्चे
तुम मत दो कोई जगह अम्मी को मस्जिद में
लेकिन ये साथ ले ही आएंगे उसे।
दुआ पूरी होते ही बयान होंगे
मीलाद होगी
फिर फातिहा होगी
तब कहीं जाकर तबर्रुक बँटेगा
जिसे लूटने ये लालची
आज यहाँ इकट्ठा हुए हैं।
रमजान के अलविदा जुमा में
हर बरस तबर्रुक के लालच में
मस्जिद के भीतर चले आते हैं
कुछ चहकते हुए बच्चे
जिनके जाने के बाद
मस्जिद हो जाती है मायूस
गिनती रहती है
चंदो में इकट्ठे होते नोट
सुनती रहती है
मौलवियों और ओहदेदारों की बहसें
चहकते हुए बच्चों के जाने के बाद
उनके वापिस आने की दुआ करती
अपने मे ही खो जाती है मस्जिद।
9. बुरका उतार लेना बेटा !!
सईदा भेज रही है अपनी नई बहू को मायके
पहला लिबाना है
लेने आया है उसका भाई
पर सईदा है कि चिंता में है
एक- एक सामान जमाती है
पूरी तैयारियां कराती है
कुछ कहना चाहती है
फिर चुप हो जाती है
सईदा घर की बड़ी है
वही है पीढ़ियों से बनी इज़्ज़त की रखवालन
उसे ही सिखाना है बच्चों को कुरान की आयतें
लेकिन आज वो कुछ देर को सभी आयतें भूल जाना चाहती है
याद रखना चाहती है
समधन से किया वादा
बेटी लेकर जा रही हूं
रखूंगी बेटी बनाकर
करूंगी बेटी जितनी फिक्र
उसे फिक्र होती है
उड़ती- उड़ती खबरों ने उसे कर दिया है वाकिफ
देश में बने नए माहौल से
उसके अंदर भी समा गया है नया डर
इसलिए भारी मन लेकर
अज़ाब और सबाब की चिंता किये बगैर
जाते- जाते अंत में
अपनी पूरी ताकत बटोरकर कह ही देती है
गांव से जैसे ही बाहर निकलो
बुरका उतार लेना बेटा
रास्ते में समझदारी से काम लेना
10. पोस्टल एड्रेस
तुलसी कॉलोनी
गौशाला रोड
वार्ड न०21
पिन न० 473331
अशोकनगर म० प्र०
मेरा यानी अरबाज़ का है यह पोस्टल एड्रेस
हमेशा से
स्थाई पते के रूप में लिखता रहा हूँ इसे ही
इसे लिखते हुए कभी मन भारी नहीं हुआ था
हरेक के पूछने पर
पूरी आश्वस्ति के साथ
एक सांस में बताता आया हूँ
इसके बारे में ठहरकर घंटों इस तरह
नहीं सोचा पहले कभी
लेकिन आज इसे दोहरा रहा हूँ बार-बार
बार-बार पढ़ता हूँ यूं कि
गले लग जाना चाहता हो कोई किसी अपने से
बार-बार पढ़ता हूँ इसलिए कि
बुरे ख्याल घेर रहे हैं
निकाले जाने के
धकेले जाने के
निर्वासित कर दिए जाने के
क्या कोई वनवास मेरे इन्तेजार में है ?
मेरी आँखों मे घूम रहीं हैं फिल्में
नाजी इतिहास पर बनी हुई
बहुत करीब से सुनाई दे रहे हैं शब्द
कंसन्ट्रेशन कैम्प, अवैध नागरिक
जाओ भागो मरो
मैं समझ नहीं पा रहा
किस तरह गुजारूं ये वक़्त
मन होता है चीख चीख कर कहूँ
मैं कहीं नहीं जाने वाला
तुम कौन होते हो मुझे निकालने वाले
किसी को भी क्या हक़ है मुझे निकालने का
लेकिन मैं चीखता नहीं
अम्बेडकर चौराहे पर हर शाम
संयमित आवाज़ में
गांधी का सत्याग्रही रास्ता चुनता हूँ
शाहीन बाग में शामिल होता हूँ
ताकि कोई मुझसे छीन न ले मेरा पोस्टल एड्रेस
एक दरोगा अपनी छोटी सी चोटी को उंगली से घुमाता
मेरा अरबी नाम सुनकर जब कहता है
कहाँ रहते हो
कटरा मोहल्ला या आज़ाद मोहल्ला
मैं अकड़ता हुआ कहता हूँ तुलसी कॉलोनी
बताता हूँ अपना पोस्टल एड्रेस
और दंग कर देता हूँ उसे
उसकी आश्चर्य भरी अबूझ आंखें
जिनमे घृणा है या गुस्सा फ़र्क़ नहीं कर सकता
मुझे याद रहती है
जब मैं सोता हूँ
तो देखता हूँ मेरे आंगन में
सफेद कपड़ा उड़ता है
उस सफेद कपड़े के पीछे- पीछे
जब मैं जाता हूँ तो पाता हूँ
मैं किसी कब्रिस्तान में पड़ा हुआ हूँ
कोशिश करता हूँ जानने की
कि मैं जिंदा हूँ या मर गया
तभी हाथ पांव हिलाने की कोशिश में
जिंदा होने के सबूत के तौर पर
खुल जाती है मेरी नींद
आंखे खोलते ही
देखता हूँ
अपने हाथ पर लिखा हुआ अपना पोस्टल एड्रेस
हाँ, ये मेरा घर है
मैं पानी पीता हूँ और पाता हूँ
मैं ठीक हूँ
जबकि ये पागल हो जाने का समय है
वाकई यह पागल हो जाने का समय है
पागल हो गयी है सरकार
इसलिए तो सदियों से रहते लोगों से
मांग रही है नागरिकता का प्रमाण
जिसकी वजह से
अपनी मिट्टी के लिए पागल हो रहे है लोग
सो नहीं पा रहे रातों में
तड़प रहे हैं ऐसे जैसे तड़पती हों मछलियां
मछलियां हो गईं हैं दादियां
खुले में रात बिताती हैं बुरकेवालियां
और मैं एक कवि पढ़े जा रहा हूँ बार- बार
निराला की किसी कविता की तरह
अपना ही पोस्टल एड्रेस बार-बार
जैसे इसमें कोई छिपी बात हो
कोई दबा हुआ अनकहा स्वर
याकि यह हो मर्सिया
जिसे पढ़कर विलाप किया जा सकता हो
हाँ शायद
शायद नहीं…
मैं इसे पढ़ रहा हूँ इसलिए कि
सुनहरी यादों का खजाना छुपा है इसमें
मेरे व्यक्तिव के निर्माण की कहानी
जुड़ी है इसी से
मैं क्या हूँ
यहां रहने वाले लोगों से बेहतर कोई नहीं जानता मुझे
इन्होंने देखा है मेरा संघर्ष
इन्होंने बनाया है मुझे
इन्हीं ने दी हैं सफलताओ की शाबाशियाँ
ये ही खड़े हुए हैं दुःखों मुसीबतों में साथ
इन्हीं ने दिखाया है विश्वास
इनमें कोई मेरे धर्म का नहीं लेकिन
ये सब मेरे अपने हैं
मैं इन्हें अपना मानता हूँ
हमेशा रहा हूँ इन्हीं के बीच
रहना चाहता हूं इन्हीं के बीच हमेशा
हमेशा इसी पोस्टल एड्रेस पर
इससे पहले कि इसे दूर से याद करूँ
जिसपर लोग यकीन न करें
कि हिंदुओं की बसाहट के बीच
एक अकेला मुसलमान घर रहा
फिर भी उसे दूसरे मुसलमान घर की जरूरत महसूस नहीं हुई
उस घर की गृहस्थिन को उसी के बीच राखी बंधवाने वाले
और उसकी हिफाजत करने वाले हाथ मिले
उस घर के गृहस्थ को
उन्ही के बीच दोस्त मिले
बहनें मिलीं
बच्चों को चाचा, ताऊ, बुआ, मौसी , मामा मिले
एक धर्मों जातियों से परे परिवार मिला
इन्हीं पर दादागिरी दिखाई, इन्हीं से दब गए
लड़े- झगड़े फिर एक हुए
रिश्तेदारों की लाख सलाहों के बावजूद
इनसे दूर जाने का कभी मन नहीं हुआ
यही वो जगह रही
जहाँ आकर दुनिया भर के डर दूर हुए
इस पते पर रहने चले आये थे पापा
दादा से अलग होकर
मैं लगभग एक साल का रहा होऊंगा तब
मैंने होश संभाला तो यहीं संभाला
भाषा सीखी तो यहीं की सीखी
मेरी रगों में खून के साथ यहां का पानी भी दौड़ता है
मेरी फूफी उलाहना दिया करती थी मुझे
गऊशाला का पानी है
तेज़ तो होगा ही
जब हमारा एक कमरे में समाना मुश्किल हुआ
तब यहां के पानी से हमने मिट्टी सानी
मैंने, मेरी बड़ी बहनों ने
छोटे भाई – बहन ईंटों के टुकड़े ढोते
अम्मी – पापा कारीगर बन उन्हें जोड़ते
हम छोटे-छोटे बच्चे बित से बाहर मेहनत करते
हमें देख बूढ़े आशीष देते
अम्मी-पापा दीवार का पेट निकाल देते
तो उन्हें डांटते हुए मोती दादा आते
दिन-दिनभर हमारे साथ जुटकर दीवार सीधी कराते
मुझे याद है उन्होंने जिद से एक दीवार नहीं बनाने दी
अपनी दीवार पर रखवाई हमारे नए कमरे की बल्लियां
इसी मोहल्ले के थे वे लोग
जो हमारे त्योहारों में शामिल हुए
अपने रंग में हमें रंग गए
हम जिन्हें हर बार आगे करते रहे
जब ये हमारे घर आते
तो हमारे रिश्तेदार नाक- भौ सिकोड़ते
कोई समझाता हिंदुओ से इतनी नज़दीकी ठीक नहीं
कोई कहता ये दोगली कौम है
इनपर विश्वास नहीं करना चाहिए
उनकी बेबकूफाना बातें सुन
अम्मी हंस देती
बाजी लड़ने लगती
हम कहते वो हमारी माई हैं
वो चाची हैं
वो ताऊ हैं
उनमें हमारे भाई हैं
बहनें हैं
लेकिन रिश्तेदार समझ नहीं पाते
समझते भी कैसे
उन्हें कहाँ मिला था वैसा प्यार
वो भरोसा जिसे देखते हम बड़े हुए
किसी के भी घर मे कभी भी चले गए
बिना डरे जो दिया खा लिया
जिन्हें वे दूसरे कहते
उनके घरों में हम रात सो चुके हैं
उनके कंधों पर घूमे हैं
उनकी बाहों में झूले हैं
चीज़ दिलाने की जिदें मचाई हैं उनसे
लाड़ मिला तो डांट भी भरपूर खाई है उनसे
शायद.. शायद कोई वक़्त ऐसा आये जब ये सारी बातें गप्प लगें
उससे पहले लिखना चाहता हूं मैं
अपने इस पोस्टल एड्रेस पर घटी हर एक बात
अम्मी बताती है
पापा काम पर बाहर चले जाते थे
केले की गाड़ी भरने
चार-चार, पांच-पांच दिन में लौटते थे
उनकी गैर हाज़िरी में इन्ही लोगो के भरोसे
सुबह से शाम तक
अपने छोटे- छोटे बच्चों यानी हमारे साथ वो
अकेली रहती थी
उनके पास कई कहानियां हैं
जिनमें मुसीबत आई
और इसी मोहल्ले के लोगों ने उससे उबार लिया
दौड़ पड़े सगों जैसे
कभी सांप भगाने चले आये
कभी किसी बच्चे की पट्टी कराने दौडे
कभी बेहोशी से उठाया
कोई अस्पताल में रातभर जागी
किसी ने हमें अपने बच्चों सा संभाला
कोई पीने के गुंड गगरा ही भरकर चली गयी
अम्मी नाम लेती जाती हैं
और अहसान मानती जाती हैं
यहीं इसी मोहल्ले के थे वे लोग
जो कोई भी काम करते वक़्त नज़र में रहे
जिनके सामने शान दिखाई अम्मी ने
शादियों में हर काम बड़ा- बड़ा किया इन्ही का ख्याल रखकर
इनसे ही गवाएं गाली गीत नए रिश्तेदारों को
इनसे मड़वे पहने
इनके घर भात भिजायी
हमने जब जो किया हमारे हर काम में
सलाहें और सामान देने से लेकर
साथ खड़े रहने वाले और
काम करवाने वाले यही लोग रहे
हमें कभी नहीं लगा
हमारा घर अलग है
एक कारीगर हर हरियाली अमास
हमारे घर की दहलीज पर एक कील गाड़ता रहा
घर की खुशहाली के लिए
अम्मी शादियों में गौरैया बन घूमती रहीं
हम झांकियों में सज-धजकर देवताओ का रूप धरकर बैठे
हमें दीवाली की मिठाईयां मिली
पटाखे चलाते वक्त हमने कभी नहीं सोचा
ईद है या दीवाली
हमने बस मस्ती की
रंग लगाया, गुलाल उड़ाया
राखी बंधवाई, झूले झूले
अपनी गोल टोपी कितनो को पहनाई
कितनो से लगवाया तिलक
हमने साथ मिलकर जन्मदिन मनाए
हमें कभी नहीं लगा
मोहल्ले में हमारा घर अलग है
लेकिन सरकार देख रही है हमें अलग निगाह से
ऐसी निगाह जो बेगाना साबित करती है हमें
एक नज़रिया खत्म कर देना चाहता है
जीवन की पूंजी
क्या चंद दस्तावेजो की कमी से
साबित हो सकता है हम बेगाने हैं ?
किसी दिन कोई अफसर भगवा रंग में रंगा हुआ
आएगा और कहेगा
तुम्हारा नहीं है ये पोस्टल एड्रेस
तुम्हारा नाम अरबाज़ है
तुम्हारा नहीं हो सकता ये पोस्टल एड्रेस
तुम जाओ कोई ऐसा मोहल्ला ढूंढो
जिसका नाम उर्दू या अरबी में हो
तुम जाओ कोई ऐसा देश ढूंढो
तुम यहाँ रहते हो
ये तुम्हारा कसूर है
तब क्या कहूंगा मैं उससे
मेरे सामने आती हैं आश्चर्य से भरी अबूझ आंखे
मैं किस तरह समझाऊँगा किसी को
कोई सुनना ही न चाहेगा जब
जबरदस्ती कहेगा मैं नहीं हूं यहां का
मेरे मोहल्ले के ये लोग
उस वक़्त मेरे साथ होंगे
मैं जानता हूँ
मैं समझा रहा हूँ खुदको
ये लोग मेरे साथ होंगे
जब ये लोग मेरे साथ होंगे
कौन छीन लेगा मुझसे मेरा पोस्टल एड्रेस।।
—
कवि अरबाज़ खान। कवि, लेखक एवं रंगकर्मी।
शिक्षा – स्नाकोत्तर हिंदी। व्यवसाय – थोक सब्जी विक्रेता
निवास – तुलसी कॉलोनी गौशाला रोड अशोकनगर मध्यप्रदेश। पद – अशोकनगर प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव। पुरुस्कार – रवि शंकर उपाध्याय स्मृति पुरुस्कार के लिए नामित। भारतीय जन नाट्य संघ का सक्रिय सदस्य ।
टिप्पणीकार पुरू मालव, जन्मः 5 दिसम्बर 1977, बाराँ (राजस्थान) के ग्राम दीगोद खालसा में। शिक्षाः हिन्दी और उर्दू में स्नातकोत्तर, बी.एड.। सृजनः हिन्दी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये दरिया इश्क का गहरा बहुत है’ प्रकाशित।
पुरस्कारः हिन्दीनामा-कविता कोश द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार
सम्प्रतिः अध्यापन
सम्पर्कः कृषि उपज मंडी के पास, अकलेरा रोड, छीपाबड़ौद, जिला बारां (राजस्थान)
पिन-325221
मोबाइलः 9928426490