जयप्रकाश नारायण
जन-आंदोलन और उसके प्रभाव
जनता के अंदर मौजूद जटिल आर्थिक और सामाजिक संकट के तीव्र होने के चलते जब समाज का व्यापक जनसमूह संकट को हल करने के लिए सत्ता प्रतिष्ठानों के समक्ष अपनी मांगों के साथ खड़े होते हैं, तो आमतौर पर इसे जन आंदोलन के रूप में देखा जाता है।
किसी राष्ट्र और राज्य की सीमा के अंतर्गत। जन-आंदोलनों की महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक भूमिका होती है । अभी तक देखा गया है, कि हर जन आंदोलन का एक केन्द्रक या केंद्रीय क्षेत्र होता है, जहां सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अंतर्विरोध तीव्रतम रूप से प्रकट होते हैं।
इसे यों भी कह सकते हैं, कि जन आक्रोश वहां ज्वालामुखी की तरह फूटता है। उस विस्फोट का प्रभाव क्षेत्र धीरे-धीरे केंद्र के इर्द-गिर्द बढ़ता जाता है।
अगर सामाजिक, आर्थिक अंतर्विरोध बहुत तीव्र है, तो आंदोलन में इतिहास को परिभाषित करने वाली सामाजिक शक्ति और क्षमता होती है।
जब ये अंतर्विरोध केंद्रीय शक्ति के रूप में काम करते हैं, तो आंदोलन एक राष्ट्रव्यापी और कभी-कभी अंतरराष्ट्रीय प्रभाव रखते हैं। जैसे 17वीं सदी की फ्रांस की क्रांति।
हमने भारत में ऐसे कई दौर देखे हैं, जब भारतीय जन के बीच में बिना किसी केंद्रीय नेतृत्व या राजनीतिक केंद्र के भी आंदोलन पैदा हुए हैं और महत्वपूर्ण सामाजिक प्रभाव डाल कर समाज को परिवर्तित किया है।
बैरकपुर छावनी से शुरू हुए विद्रोह ने कंपनी-राज सहित ब्रिटिश-राज के साथ भारतीय राष्ट्र-राज्य और जनगण के अंतर्विरोध को सूत्रबद्ध कर दिया था।
वह अंतर्विरोध उपनिवेशवाद बनाम भारतीय जन-गण का था । इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव छोटे-छोटे इलाकों से बढ़ते हुए पटना और दिल्ली के बीच के विस्तारित इलाकों में फैल गया था। जिसके केंद्र समय-समय पर बदलते रहते थे।
यह केंद्रीय अंतर्विरोध पटना, अवध, पूर्वांचल, दिल्ली, झांसी से लेकर पंजाब और बंगाल तक फैल गया था।
यह एकमात्र आंदोलन था, जिसमें भारत में कंपनी, उसकी नीतियां और भारतीय जनता के प्रति उसके व्यवहार और नजरिए को भी बदलने और भारतीय जन-गण को जागृत करने की की क्षमता थी। जिसने कंपनी-राज का सफाया भी कर दिया था।
इस संघर्ष के बाद औपनिवेशिक शासकों ने भारत की जनता की साझी एकता व ताकत को महसूस किया था। इस संघर्ष से सबक लेते हुए औपनिवेशिक शासकों ने भारत के विभिन्न धर्मावलंबी भाषायी समूहों के प्रति अपनी नीति में बदलाव कर लिया था ।
यह नीति थी, धर्म और वर्ण के अंतर्विरोध को विस्तारित करो और इस्तेमाल कर भारत की जनता की औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ बनने वाली किसी भी बड़ी एकता को विखंडित करो।
उसके बाद हम देखते हैं, कि केंद्रीय अंतर्विरोध ब्रिटिश उपनिवेश बनाम भारतीय राष्ट्र-राज्य के अंतर्विरोध को 1947 ई. में आकर के ही बदला जा सका।
हम कह सकते हैं, कि कंपनी-राज के शुरू होने के पहले तक भारत में किसी भी जन-आंदोलन या जन-संघर्ष का कोई इतिहास नहीं है ।
चाहे हजार कोशिश कर ली जाए, इतिहास को तोड़-मरोड़ करके पेश किया जाए, उसे धार्मिक, नस्लीय श्रेष्ठता के बोध से लैस करने की कोशिश की जाए, लेकिन कंपनी-राज के शुरू होने से पहले भारत में कोई जन-आंदोलन का विस्तृत इतिहास नहीं है।
हां, राजाओं, छोटे-मोटे भू-पतियों के अपने संघर्ष हैं। जिसे आप किसी भी स्थिति में जन-आंदोलन या जन-संघर्ष नहीं कह सकते हैं।
राजशाही में नागरिक नहीं, प्रजा होती है। उस समय तक नागरिक की कोई चेतना नहीं विकसित हुई है।
1793 ई. में कार्नवालिस द्वारा लाए गए भूमि बंदोबस्त के बाद ही जनता के विद्रोहों और जन-आंदोलनों का इतिहास भारत में शुरू होता है।
अट्ठारह सौ सत्तावन के पहले तक 80 से ज्यादा आदिवासियों, किसानों और विभिन्न तबकों के विद्रोह हो चुके होते हैं।
बंग-भंग के बाद 1905-6 में भारत ने पहली बार जन-आंदोलन देखा, जिसमें नीचे तक जनता की भागीदारी दिखती है।
फिर, गांधी जी द्वारा 1920 ई. के दशक के शुरू में चलाया गया असहयोग आंदोलन पहला अखिल भारतीय जन-आंदोलन होता है।
बारदोली, चंपारण के किसान आंदोलन का केंद्र भी छोटे इलाके में था। हालांकि, इसका राष्ट्रीय आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
स्वामी सहजानंद द्वारा चलाया गया मध्य बिहार का किसान आंदोलन समय के साथ आगे बढ़ते हुए एक अखिल भारतीय स्वरूप लिया और अखिल भारतीय किसान सभा नाम से एक राष्ट्रीय स्तर का किसान संगठन निर्मित करने में कामयाब रहा।
आजादी के पहले और उसके बाद भी ढेर सारे जन-आंदोलन भारत ने देखे हैं, लेकिन उनकी तीव्रता के केंद्र कुछ इलाकों में ही होते थे, जहां से खड़े होकर वे राष्ट्रीय प्रभाव बना लेने की कोशिश करते थे।
बिहार का 1974 ई. का छात्र-युवा आंदोलन एक राष्ट्रीय स्वरूप लेने की दिशा में बढ़ा । अगर आपातकाल न आया होता, तो शायद इस आंदोलन का कोई बड़ा राजनीतिक परिणाम न आता।
लेकिन आपातकाल के बाद परिस्थितियों के दबाव के चलते इस आंदोलन के साथ जुड़ी ताकतों ने जनता पार्टी के नाम से एक राजनीतिक दल बनाकर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल भी कर दिया था ।
लेकिन इस आंदोलन में किसी बुनियादी संकट को हल करने की क्षमता नहीं थी। विभिन्न विचार, चिंतन वाले राजनीतिक लोगों की जनता पार्टी शीघ्र ही बिखर गयी।
अंततोगत्वा इसने भारतीय लोकतंत्र में नकारात्मक तत्व ही विकसित करने में मदद पहुंचायी। वास्तविक लोकतंत्र की मांग नेपथ्य में चली गयी।
1967 ई. में नक्सलबाड़ी के किसानों के विद्रोह का केंद्र वैसे उत्तरी बंगाल के दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी के इलाके में ही था, लेकिन इस आंदोलन ने भारतीय समाज के सबसे दबे-कुचले लोगों की राजनीतिक सत्ता की दावेदारी को राष्ट्र के समक्ष रख दिया था।
इसलिए, इसे तीव्र दमन झेलना पड़ा। इस आंदोलन ने भारत के ग्रामीण जीवन के सबसे गरीब मेहनतकश शक्तियों में राजनीतिक आकांक्षा को जागृत कर दिया था और उसे सत्ता की दावेदारी तक उन्नत कर दिया था।
इसलिए दमन के बावजूद यह आंदोलन एक राजनीतिक पार्टी बनाने और काल क्रम में धीरे-धीरे एक राष्ट्रीय राजनीतिक आंदोलन निर्मित करने में कामयाब रहा ।
आज भी यह आंदोलन अपने मुद्दों, जनता के बुनियादी सवालों और जनता के लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की सबसे प्रबल और सशक्त राजनीतिक धारा बनी हुई है। जिसे अभी भारत में पूंजी और श्रम के बीच, लोकतंत्र और जनता के अंतरसंबंधों के बीच, सामाजिक न्याय, समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के वास्तविक लोकतांत्रिक मॉडल को विकसित करने का ऐतिहासिक कार्यभार पूरा करना है।
भारतीय समाज के विकास के इस मंजिल पर फासीवाद बनाम लोकतंत्र का सवाल केंद्रीय महत्व धारण करता जा रहा है।
इतिहास के इस मंजिल में सही मायने में समतामूलक लोकतंत्र बनाने के संघर्ष में शामिल सभी राजनीतिक आंदोलनकारियों को भारतीय राजनीति के पटल पर किसान आंदोलन की जो एक नयी सर्वथा भिन्न परिघटना विकसित हुई है, उसके साथ अपने संबंधों को बेहतर और उन्नत करते हुए समग्र भारत के लोकतांत्रिक रूपांतरण के कार्यभार को पूरा करने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी समस्त संघर्षरत शक्तियों के साथ मिलकर निश्चित ही उठानी होगी ।
जन-आंदोलनों और जन-संघर्षों के झंझावातों के उभार के दौर में हमें नये लोकतांत्रिक भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए हर संभव तैयारी करने में जुट जाना चाहिए।
किसान आंदोलन के द्वारा उठाए गये महत्वपूर्ण सवालों पर इस समय गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करते हुए, उसे आगे ले जाने का कार्यभार सभी लोकतांत्रिक शक्तियों के कंधे पर आन पड़ा है।
किसान आंदोलन ने भारतीय समाज में सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों के ध्रुवीकरण, उनके बीच के अंतरसंबंधों को सही मामले में परिभाषित करने और साझा शत्रु के खिलाफ एकताबद्ध संघर्ष करने का दरवाजा खोल दिया है। आगे का रास्ता इसी से निकलना है!
(अगली कड़ी में जारी)