जन्म दिवस, 01 जनवरी पर
समाजिक परिवर्तन का संघर्ष ऐसे शख्सियतों को पैदा करता है जो जनता के सामाजिक संघर्ष की अमूल्य निधि हैं। उनका जीवन और कर्म अगली पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम करता है। क्रान्तिकारी श्रमिक नेता योगेश्वर गोप का व्यक्तित्व ऐसा ही रहा है।
उनका जन्म पिछड़ी जाति और निर्धन परिवार में पहली जनवरी 1925 को बिहार के तत्कालीन मुंगेर जिले के बेगूसराय सबडिविजन में हुआ था। साल 1925 का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी है कि इसी वर्ष भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी। योगेश्वर गोप के जीवनवृत, शख्सियत, राजनीति, वैचारिकी, श्रमिक व जन आन्दोलन में उनके योगदान, जीवन-संघर्ष और कार्यशैली को सामने लाती पुस्तक है ‘कामरेड योगेश्वर गोप – क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन के महानायक’।
इसकी खासियत यह है किः बिहार में आजादी के संघर्ष, कम्युनिस्ट आन्दोलन और मजदूर-कर्मचारी आन्दोलन और उसमें गोप जी की भूमिका के साथ इन आन्दोलनों पर भी अच्छी रोशनी पड़ती है। हाल के बिहार विधान सभा चुनाव में वामपंथी दलों की विजय तथा वर्तमान के वहां के जन आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में योगेश्वर गोप जैसे कम्युनिस्ट व ट्रेड यूनियन नेताओं के व्यक्तित्व व संघर्ष को याद किया जाना चाहिए जिन्होंने कठिन-कठोर परिश्रम से बिहार में आन्दोलन और परिवर्तन की जमीन तैयार की। इस मायने में नई पीढ़ी के लिए यह जरूरी किताब है। संकलन तथा अलेखों का चयन अवधेश कुमार सिंह ने किया है। भूमिका भाकपा (माले) के पोलिट ब्यूरो सदस्य धीरेन्द्र झा ने लिखी है। इसमें करीब दो दर्जन आलेख और टिप्पणियां संकलित हैं।
योगेश्वर गोप के मेधावी होने की वजह से गांव में ऐसे विद्यार्थियों की मदद के लिए बनी किसान कमेटी का उनकी पढ़ाई में सहयोग मिला। बेगूसराय का इलाका राजनीतिक रूप से सजग रहा है। देश की आजादी का संघर्ष हो या आजादी के बाद किसानों-मजदूरों का संघर्ष, यह अग्रणी रहा है। योगेश्वर गोप के जीवन और चिन्तन पर इसका असर हुआ। उन्हें बनाने में इसकी भूमिका थी। 1939 में बिहार राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण हुआ। वे इस राज्य की पहली पीढ़ी के कम्युनिस्ट नेताओं में थे जिनमें भोगेन्द्र झा, चन्द्रशेखर सिंह, सियावर शरण श्रीवास्तव, चतुरानन मिश्र, राजकुमार पुर्वे, इन्द्र्रदीप सिंह, सुनील मुखर्जी आदि शामिल रहे हैं।
इनके राजनीतिक जीवन का आरम्भ 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से हुआ। यह समय है जब सहजानन्द सरस्वती के नेतृत्व में किसान आन्दोलन चल रहा था। बेगूसराय में कम्युनिस्टों का प्रभाव बढ़ रहा था। इन सब का गोप जी के नौजवान मन-मस्तिष्क पर असर हुआ। जल्दी ही कांग्रेस के ढ़ुलमुलपन और दोमुंही राजनीति की वजह से उनका मोहभंग हो गया।
योगेश्वर गोप ने 1944 में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली। उसके छात्र मोर्चे पर काम करते हुए कम्युनिस्ट कार्यकर्ता में उनका रूपान्तरण हुआ और जीवन पर्यन्त कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता के रूप में मजदूरों और किसानों की मुक्ति के लिए अपने को उन्होंने समर्पित कर दिया। 1946 में बिहार विधान सभा के लिए बेगूसराय से कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे ब्रहमदेव नारायण सिंह। गोप जी ने उनके प्रचार के काम में अपने को लगा दिया। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी राजनीतिक यात्रा विचार और संघर्ष की उच्चत्तर मंजिल की ओर लगातार आगे बढत़ी गयी। 1964 में भाकपा का विभाजन हुआ। बिहार में पार्टी का मुख्य आधार भाकपा के साथ ही रहा। लेकिन योगेश्वर गोप के लिए क्रान्तिकारी वाम राजनीति प्रधान थी। इसी प्रक्रिया में वे पहले माकपा फिर भाकपा (माले) में शामिल हुए।
योगश्वर गोप की भाकपा माले के जन राजनीतिक संगठन इंडियन पीपुल्स फ्रन्ट (आईपीएफ) के निर्माण में नेतृत्वकारी भूमिका थी। आईपीएफ की ओर से उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ा और मसौढ़ी से विधायक के रूप में वे निर्वाचित हुए। जहां अपने क्षेत्र में जनता के जमीनी संघर्ष में शामिल होकर उसे आवेग प्रदान किया, वहीं विधान सभा के मंच का भी उन्होंने मजदूरों, कर्मचरियों और किसानों के हितों के संघर्ष के मंच के बतौर इस्तेमाल किया। गौरतलब है कि उक्त चुनाव में आईपीएफ को छ सीटों पर विजय मिली थी। लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे। वे आईपीएफ के तीन विधायकों सहित, सीपीआई के छ तथा एमसीसी के एक विधायक को अपने दल में मिलाने में सफल हुए। गोप जी को भी श्रम मंत्री बनाने का प्रलोभन दिया गया। उन्होंने लालू यादव को इस संबंध में जो जवाब दिया, वह राजनीतिक नैतिकता का उत्कृष्ट उदाहरण है। उनका कहना था ‘आप हमें श्रम मंत्री बनाकर, कुछ सुविधाएं, कुछ पैसे और साधन देकर हमसे हमारे साथियों पर लाठियां चलवाना चाहते हैं। कर्मचारी हितों के लिए हमने हर सरकार से संघर्ष किया है। आज भी हम कर्मचारी हितों के लिए संघर्ष करेंगे। आप अपना मंत्रालय अपने पास रखिए। अगर कुछ कर सकते हैं तो कर्मचारियों की मांगों को पूरा कीजिए।’
इसी दृढ़ता ने योगेश्वर गोप को जनप्रिय बनाया। विचारधारा आधारित राजनीति उनके चिन्तन के केन्द्र में थी। इस संदर्भ का एक आलेख किताब में है ‘वैचारिक साथियों की श्रृंखला का निर्माण’। इसमें उदाहरण देकर बताया गया है कि साथियों के वैचारिक शिक्षण का कार्य उनकी कार्यशैली का हिस्सा था। इस पर उनकी प्राथमिकता थी। उनका मानना था कि किसी भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी के जीवन का सबसे बड़ा पहलू जनता के साथ लगाातार संवाद और अपने विचारों को धारदार बनाते रहना है। ऐसा करके ही सुदृढ़ और सुयोग्य नेतृत्वकारी कार्यकर्ता तैयार किये जा सकते हैं। क्रान्तिकारी विचार और दर्शन को जनता की सबसे निचली कतार तक कैसे पहुंचाया जाय, यह उनकी चिन्ता का प्रस्थान विंदु रहा।
बात अधूरी रहेगी अगर हम ट्रेड यूनियन आन्दोलन में उनके अविस्मरणीय योगदान की चर्चा न करें। 3 मई 1951 को बिहार सचिवालय में निम्नवर्गीय सहायक के पद पर उनकी नियुक्ति हुई। सरकारी कर्मचारी होते हुए राजनीतिक कार्यवाहियों में उनकी सक्रियता बनी हुई थी। 1956 में बेगूसराय के बखरी क्षेत्र से कम्युनिस्ट उम्मीदवार चन्द्रशेखर सिंह के चुनाव प्रचार में भाग लेने के कारण उन्हें निलम्बित कर दिया गया। 1944 में बिहार में कर्मचारियों के संगठन बनने की शुरुआत हुई। पहला संगठन बिहार चिकित्सा और जन स्वास्थ्य कर्मचारी संघ बना। 1957 में कई कर्मचारी संगठनों ने मिलकर बिहार राज्य अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ का निर्माण किया। योगेश्वर गोप की इसमें सक्रियता बढ़ती गई। महासंघ पर सोशलिस्ट-कांग्रेसी विचार के लोग हावी थे। जातिवाद का भी प्रभाव था। गोप जी ने दो मोर्चे पर काम किया। एक, सरकार की कर्मचारी विरोधी व निरंकुश कार्यवाहियों के विरुद्ध कर्मचारी एकता व संघर्ष को आगे बढ़ाना और व्यवहारिक पहल लेना। दूसरा, धैर्य के साथ वैचारिक बहस को महासंघ के अन्दर संचालित करते हुए जनवादी प्रक्रिया को संगठन में लागू करना। इसी प्रक्रिया में महासंघ पर कम्युनिस्ट नेतृत्व स्थापित हुआ। 1966 में महासंघ के महासचिव की जिम्मेदारी योगेश्वर गोप के कंधे पर आ गयी। इसे राज्य कर्मचारी आन्दोलन में उनका योगदान कहा जाएगा कि महासंघ की पहचान उनसे जुड़ गयी और वह उनके नाम से जाना जाने लगा। महिला कर्मचारियों के सम्बन्ध में उनके संघर्ष को नहीं भुलाया जा सकता। उन्हें मासिक धर्म पर सवैतनिक छुट्टी मिले, इस मांग को गोप जी ने मजबूती से उठाया, संघर्ष चलाया और राज्य सरकार को बाध्य किया कि वह इसे स्वीकार करे।
योगेश्वर गोप बिहार राज्य तक सीमित रह जाने वाले नायक नहीं थे। देश के मजदूर आन्दोलन को क्रान्तिकारी दिशा देने के राष्ट्रव्यापी अभियान के वे अग्रणी साथी थे। क्रान्तिकारी ट्रड यूनियन आन्दोलन व उसके संगठन एक्टू के वे संस्थापक थे। इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बनाये गये। यह कर्मचारी व मजदूर आन्दोलन में उनका योगदान ही था जिसने उन्हें इस आन्दोलन का महानायक बनाया। योगेश्वर गोप पर केन्द्रित इस किताब में संकलित आलेख व टिप्पणियां उनके जीवन संघर्ष के बहुत से ज्ञात-अज्ञात, चर्चित-अचर्चित पहलुओं को सामने लाती है। ऐसे अनेक प्रसंगों की चर्चा है जो जन संघर्षों के लिए महत्वपूर्ण है तथा इतिहास के उस काल खण्ड को भी समझने में मदद करती है जिसकी उपज योगेश्वर गोप जैसे जननायक हैं। अपने समय के ज्वलन्त सवालों को कैसे समझा जाय और उनसे संघर्ष करते हुए राह बनायी, इस संदर्भ में गोप जी का जीवन और संघर्ष आज के लिए भी मार्गदर्शक है। अपने नायकों को हम इसीलिए याद करते हैं। किताब हमें योगेश्वर गोप के साथ उस काल खण्ड को भी समझने में मदद करती है। इसका प्रकाशन पुस्तक केन्द्र, पटना ने किया है।