( 28 सितम्बर 1920 को इलाहाबाद के जमींदार मुस्लिम परिवार में पैदा हुए ज़िया –उल-हक़ ने अपने जीवन के सौ साल पूरे कर लिए हैं. नौजवानी में ही समाजवाद से प्रभावित हुए ज़िया साहब अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए और बकायदा पार्टी के दफ़्तर 17 जानसेन गंज, इलाहाबाद में एक समर्पित होलटाइमर की तरह रहने लग गए. 1943 में बंगाल के अकाल के समय जब महाकवि निराला कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित राहत अभियान में अपना सहयोग देने पार्टी दफ़्तर पहुंचे उस समय ज़िया भाई ही पार्टी के जिला सचिव थे और निराला जी ने अपनी दस रूपये की सहयोग राशि उन्हें सौंपी.
अपने जीवन का एक हिस्सा ज़िया साहब ने पत्रकार के रूप में भी निभाया और दिल्ली रहे. इस रोल में भी वे बहुत कामयाब रहे. हो ची मिन्ह जैसी दुनिया की नामचीन हस्तियों के साथ इंटरव्यू करने का मौका भी उन्हें मिला. साठ के दशक से वे अपनी पार्टनर और शहर की मशहूर डाक्टर रेहाना बशीर के साथ इलाहाबाद में पूरी तरह बस गए. पिछली आधी शताब्दी से ज़िया साहब इलाहाबाद के वामपंथी और लोकतांत्रिक स्पेस की धुरी बने हुए हैं. अपने दोस्ताना व्यवहार के कारण वे जल्द ही सबके बीच ज़िया भाई के नाम से जाने गए. आज उनके सौवें जन्मदिन के मुबारक़ मौके पर समकालीन जनमत उन्हें बहुत मुबारक़बाद पेश करता है और उनके बेहतर स्वास्थ्य के लिए दुआ करता है.
इस मुबारक़ मौके पर हम ज़िया भाई के चाहने वाले तमाम युवा और बुजुर्ग साथियों के संस्मरण पेश कर रहे हैं जिन्हें उपलब्ध करवाने के लिए उनके बेटे और छायाकार सोहेल अकबर का बहुत आभार.
इस कड़ी में पेश है पाकिस्तान की मशहूर पत्रकार और ज़िया भाई की भतीजी बीना सरवर
का लेख. सं. )
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मुन्नन चाचा से मेरी पहली मुलाक़ात कराची में हुई, 1990 में। वो मेरे वालिदैन का रिहाइशी कमरा और बैठक था जहां मैने पहली बार देखा उनको। उनके चेहरे पर एक अलग सा रौब था, लम्बी टांगों वाले मुन्नन चाचा अपनी ट्रेड मार्क इलाहाबादी घेरदार पैजामा और एक सफ़ेद कुर्ते में नमूदार एक हत्थे वाली कुर्सी में धसे हुए थे। ठीक मेरे अब्बा जान के सामने गोया वे एक अर्से बाद एक-दूसरे के सामने थे।
कुछ सालों में मुझे ये समझ में आ गया कि वो इलाहाबाद के आलीशान बुज़ुर्गवार न केवल मेरे अब्बा डाक्टर सरवर और मेरे बड़े अब्बू ताया अख़्तर बल्कि एम.एस.नसीम साहब के भी उस्ताद थे जो 1950 के पाकिस्तान में छात्र आन्दोलन के मज़बूत नुमाइंदे थे। जिसे मेरे अब्बा ने लीड किया था। जल्द ही मुन्नन चाचा मेरे भी उस्ताद और पथ-प्रदर्शक हो गए, बावजूद इसके कि हम अलग-अलग मुल्क के बाशिन्दे थे और हमारी मुलाक़ात मुश्किल से होती थी।
मेरे लिए ये बड़ा मज़ाकिया था कि मुन्नन चाचा असली नाम ज़िया उल हक़ था। लेकिन तभी उन्होंने बताया कि वो पहले आए। ज़िया उल हक़ जो कम्युनिस्ट थे, इलाहाबाद में जन्मे 1920 में और वो ज़िया उल हक़ जो पाकिस्तान के फ़ौजी तानाशाह हुए उनका जन्म जालन्धर में हुआ था 1924 में।
फिर कभी दो दशक के लम्बे अन्तराल के बाद मैने मुन्नन चाचा को नहीं देखा, मेरी मुलाक़ात ईमेल के माध्यम से हुई। जब एम.एस.नसीम साहब ने दिल्ली के फ़ोटोग्राफ़्री टीचर सोहेल अकबर साहब से परिचय करवाया। एक मज़ेदार बात बताऊं, ये सारे पारिवारिक नाम आश्चर्यजनक रुप से अपनी टाइटल से अपने पुरखों की नुमाइंदगी नहीं करते थे, जैसे सोहेल और उनके भाई के नाम के आगे लगे टाइटल उनके अब्बाजान यानी हमारे मुन्नन चाचा ज़िया उल हक़ से अलहदा हैं। इसी तरह मेरे अब्बा मोहम्मद सरवर और बड़े अब्बू मोहम्मद अख़्तर, जबकि उनके अब्बा यानी मेरे दादा अब्दुल हलीम।
फिर तो उसके बाद एक बार सिलसिला बन गया तो ये मुश्किल था कि मै कभी दिल्ली जाऊं और ट्रेन पकड़कर इलाहाबाद न जाऊं। हालांकि कभी-कभी जो वीज़ा में शहरों के नाम की पाबन्दियां होती है। मेरा इलाहाबाद जाना मुमकिन नहीं होता था। फिर भी मुन्नन चाचा के घर इलाहाबाद जाना और उनकी ज़िन्दादिल बेगम डाक्टर रेहाना से मिलना, सन् 2009 से 2013 के बीच मेरे हिन्दुस्तान की यात्रा के बेशक़ीमती पन्ने हैं।
सन् 2009 में मैने पहली बार एक वयस्क के रुप में दिल्ली से इलाहाबाद की एक पूरी रात वाली यात्रा की। उस वक़्त मुन्नन चाचा क़रीब नवासी साल के थे। पाकिस्तान-हिन्दुस्तान पीपुल्स फ़ोरम फ़ार पीस एण्ड डेमोक्रेसी के शायद सबसे बुज़ुर्ग सदस्य। शायद ये भी एक कारण था जिसने हमको जोड़े रखा था। मैं भी इस फ़ोरम की एक सदस्या हूं जो अपने जन्म 1995 से ही अवाम का एक सबसे पुराना और बड़ा फ़ोरम है इस क्षेत्र के लिए। मुन्नन चाचा ने एक स्कूल में पाकिस्तान-हिन्दुस्तान पीपुल्स फ़ोरम फ़ार पीस एण्ड डेमोक्रेसी की एक मीटिंग की । जिसमें उन्होंने भीड़ भरे हाल में मेरा ताअर्रुफ़ इलाहाबाद की बिटिया कहकर करवाया। और हमारी बहुत सी पारिवारिक बातों को शिद्दत के साथ साझा किया। मैने अपनी कुछ दस्तावेज़ी फ़िल्मों का प्रदर्शन किया जो महिलाओं के ऊपर हिंसा पर आधारित थीं। मुझे ख़ुशी हुई कि लोगों ने फ़िल्म की मूल बात को बख़ूबी पकड़ा और ये बात निकलकर आई कि महिलाओं के ख़िलाफ़ दोनो मुल्क़ों के मसाइल एक ही हैं।
इस शानदार और यादगार मीटिंग के बाद मुन्नन चाचा ने बहुत ज़ाती अंदाज़ में इतिहास और राजनीति का अपना पिटारा खोलकर मेरे सामने रख दिया।
मुझे वो कम्पनी बाग़ ले गए जहां अख़्तर और सरवर यानी मेरे अब्बा और ताया खेलते-कूदते बड़े हुए थे। उन्होंने बताया कि ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1857 के ग़दर के बाद कई गावों को ज़मींदोज़ करके इसे बाग़ बनवाकर प्रिन्स अल्फ़्रेड के हिन्दुस्तान आने के बतौर मेमोरियल अल्फ़्रेड पार्क नाम दिया था। लेकिन किसी ने भी उसे इस नाम से तवज्जोह नहीं दिया। इस पार्क में जार्ज पंचम और महारानी विक्टोरिया की मूर्ति भी बीचों-बीच लगी थी लेकिन हम वहां नहीं गए।
इसके बदले उन्होंने मुझे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चन्द्रशेखर आज़ाद के बारे में बताते हुए उनकी माल्यार्पित मूर्ति दिखाई जो ठीक वहीं पर थी जहां वो पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में ख़ुद को गोली मारकर आज़ाद रहे थे। मुन्नन चाचा ने बताया तब वो क़रीब ग्यारह साल के थे और सरकारी कालेज में कक्षा छः में पढ़ते थे। तब, जब आज़ाद की शहादत का समाचार फैला था, पुराने सभी लड़के यानी उनके सीनियर बाग़ की ओर भागने लगे थे और उनके जैसे छोटे बच्चे भी उन्हीं बड़े बच्चों की ओर लपक रहे थे। लेकिन पुलिस की भारी तैनाती ने रास्ता रोक रखा था और उन्हे पार्क से काफ़ी पहले ही रोककर वापस भेज दिया गया।
बमुश्किल एक महीने बाद गोरों ने भगत सिंह और उनके साथियों को लाहौर जेल में फांसी पर लटका दिया। उसी समय युवाओं को आंदोलित करने का एक और कारण मिल गया जब मेरठ षड्यंत्र काण्ड (1929-33) में ब्रिटिश हुक़ूमत ने तैतींस वामपंथी ट्रेड यूनियन लीडरान को फ़र्ज़ी केस में फंसा दिया था।
अपने छुटपन में स्कूली छात्र के रुप में ही योरोप में उभरते फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष को उन्होंने अपना ही संघर्ष समझा था। मुन्नन चाचा ने बताया कि युवा स्वतंत्रता, आज़ादी, राष्ट्रीयता के बारे में तमाम किताबों, पत्रिकाओं और पर्चों से जानकारी के लिए बेताब रहते थे। जवाहर लाल नेहरू जैसी राष्ट्रीय शख़्सियत ने दुनिया के इतिहास और जीवनियों में ये बात स्थापित कर दी थी कि दुनिया एक है और दुनिया के लोगों का संघर्ष भी एक है।
वहां कोई बातचीत किसी इज़्म या किसी ख़ास विचार, मज़हब या धर्म पर नहीं होती थी बस एक साझा संघर्ष था हिन्दू, मुस्लिम और तमाम धर्मों के लोगों का जो सिर्फ़ और सिर्फ़ बर्तानी हुक़ूमत से मुक्ति की चाह लिए हुए थे। यहां तक कि साहित्य और इतिहास के अध्यापक भी छात्रों में स्कूलों और विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीयता ही रोपते रहते थे।
हम सब चाहते हैं कि हिन्दुस्तान आज़ाद हो और अवाम की हालत बेहतर हो, ग़रीबी का नाश हो।
सिवाय उन बच्चों के जो मंहगी कारों में आते थे और जिनके पालनहारों ने बर्तानी हुक़ूमत से माल कमाया था सभी बच्चे उन्हें टोडी बच्चा कहते थे। लेकिन किसी ने भी स्कूल में न तो चिढ़ाया था न किसी तरह से प्रताड़ित किया था।
मुन्नन चाचा ने सविनय अविज्ञा आन्दोलन में भाग लेकर स्कूल गेट पर धरना दिया था। जिसपर हेड मास्टर ने उनके अब्बा को एक मज़मून भेजा था कि ज़रा बच्चों पर लगाम लगाएं कोई इनको बहका रहा है।
जब हिन्दुस्तान में पहली बार ज़रा बड़े पैमाने पर 1935 के संविधान के आधार पर चुनाव हुए, उस समय पन्द्रह साल के मुन्नन चाचा पूरी तरह से राजनैतिक जामा पहन चुके थे। तब तक हिन्दुस्तानियों को सरकार में महज़ नामित किए जाने तक का रोल था। वो भी प्रांतीय स्तर तक ही, सिर्फ़ रायदाता के रूप में यानी टोडियों की कोई बहुत महत्व भूमिका नहीं थी। कांग्रेस ने यू.पी., बिहार और कई जगहों पर सरकार बनाई और कुछ और पार्टियां भी नमूदार हुई। माहौल थोड़ा सा बदला, घुटन थोड़ी सी कम हुई और बर्तानी प्रभुत्व थोड़ा कम हुआ, ये मुन्नन चाचा ने बताया था।
1936 में हुए चुनाव के बाद ही जनता की सोचने-समझने की दिशा बदली। जो द्वितीय विश्वयुद्ध 1939 के बाद क्रांतिकारी रुप से बदलने लगी।
साहित्य और गीतों के माध्यम से आधुनिक विचारों का विस्तार हुआ। प्रेमचंद जैसे लेखक और इक़बाल और मजाज़ जैसे शायर नौजवानों के पसंदीदा हो गए। मुशायरों और कवि-सम्मेलनों के दौर चलने लगे। मुन्नन चाचा ने बताया कि इलाहाबाद आने पर मजाज़ साहब उर्दू विभाग के प्रोफ़ेसर एजाज़ हुसैन साहब के घर ठहरते थे। कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के कोर कमेटी के मिम्बरान जिसमें बड़े नाम जैसे ज़ेड.ए. अहमद, सज्जाद ज़हीर और के.एम.अशरफ़ की नुमाइन्दगी छात्रों में जोश भर देती थी।
भारत की द्वितीय राजधानी और विश्वविद्यालय के शहर इलाहाबाद में नेताओं और छात्रों के बीच एक अनोखा रोचक संबंध था। मुन्नन चाचा बताए कि कांग्रेस की सेन्ट्रल वर्किंग कमेटी की मीटिंग इलाहाबाद में ही होती थी और छात्र उन तमाम बड़े नेताओं से मुख़ातिब होने का मौक़ा पाते थे। छात्र के रुप में मुन्नन चाचा को ऐसी तमाम गतिविधियों में आगे की सीट हासिल होती थी जिसमें उनके राजनैतिक सरोकार और जुनून को बढ़ाया।
जवाहरलाल नेहरु की उपस्थिति में एक सभा में जिसकी अध्यक्षता कम्युनिस्ट नेता के.एम.अशरफ़ कर रहे थे मुन्नन चाचा को विश्वविद्यालय की लेवलर सोसाइटी के संयुक्त सचिव के रुप में एक पर्चा पढ़ने का मौक़ा मिला जिसके बाद नेहरु जी ने उनसे मुख़ातिब होकर कहा था कि तुम जो कह रहे हो वो सही है लेकिन अंग्रेज़ मिडिल ईस्ट छोड़ कर नहीं जाएंगे क्योंकि भारत पर नियंत्रण रखने के लिए ज़रुरी है।
( लेवलर क्लब, इलाहाबाद का ग्रुप फ़ोटो। मौका था फ़िलिस्तीन पर चर्चा का जिसमें ज़िया भाई ने भी पर्चा पढ़ा। ज़िया भाई खड़ी हुई पंक्ति में दायें से सबसे पहले। फ़ोटो क्रेडिट : ज़िया भाई का निजी संग्रह )
1940 आते-आते मुन्नन चाचा कम्युनिस्ट पार्टी के लिए वो करने लगे जिसे वो होलटाइमरी कहते थे। हाव-भाव से और अपने तौर-तरीक़ों से इलाहाबादी पैजामा, शेरवानी और टोपी लगाए गवईं से दिखने वाले मुन्नन चाचा क्रान्तिकारी तो शायद कतई नहीं लगते थे। शायद इसीलिए सी.पी.आई. ने उन्हे बी.ए. पूरा करते ही अपनी पार्टी में शामिल कर लिया क्योंकि वो पुलिस की निगाह में नहीं थे।
जब अंग्रेज़ों ने कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों को प्रतिबंधित किया तो वास्तव में उत्तर भारत का समूचा नेतृत्व ही इलाहाबाद में भूमिगत हो गया। सी.पी.आई. पर प्रतिबंध तो आज़ादी के बाद भी लागू रहा जब मुन्नन चाचा भी भूमिगत हो गए जबकि मेरे अब्बा और ताया अपने पुरखों और बहनों के साथ पाकिस्तान चले गए। जहां अख़्तर साहब का इंतेक़ाल 1958 में हुआ, वो पत्रकार थे। मैं उनके बारे में ही सुनती हुई आहिस्ता-आहिस्ता बड़ी हुई। मैने उनके रोमांस के बारे में थोड़ा-मोड़ा सुना था जिसे मुन्नन चाचा ने 2001 के इन्टरव्यू में मज़ेदार तरीक़े से तफ़्सील से बताया। जैसा कि उन्होंने अख़्तर के यानी मेरे ताया के जोश-ख़रोश, राजनैतिक सरगुज़ारियों और जुनून के बारे में बताया जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नेता थे। मैने सोचा कितना मुश्किल रहा होगा उनके लिए अपने घर, दोस्तों और अपनी राजनैतिक लड़ाइयों की ज़मीन को छोड़कर जाना। मुन्नन चाचा ने भी इस बात पर सहमति जताई। एक बात और भी उन्होंने कहना शुरु किया फिर रुक गए बोले क्या मैं कहूं। उत्सुक्ता से मैने कहा जी बेशक। फिर मुन्नन चाचा ने बताया कि मेरे ताया का जो प्रेम का संबंध था पाकिस्तान जाने के उनके निर्णय से वो टूट रहा था इसलिए वो टूटा हुआ दिल लेकर पाकिस्तान गए। मुन्नन चाचा की बातों ने मेरा कौतूहल जगा दिया और इस टूटे प्यार की कहानी की चर्चा सोहेल से करने पर उसने मेरी मुलाक़ात अपनी एक मित्र से कराई जिसकी शायद फूफी मेरे ताया की खोया हुआ प्यार हुआ करती थीं।
उस दोस्त ने बाद में मुझे लिखते हुए कहा था कि, “ यह विभाजन की एक और दर्दनाक कहानी है” उसकी फूफ़ी और मेरे चचा बुरी तरह एक दूसरे के प्यार की गिरफ़्त में थे और मेरे ख़याल से वे विभाजन के बाद शादी करने के लिए आये हालांकि फूफ़ी के परिवार वाले राज़ी न हुए, बहाना यह था कि दोनों दिल के मरीज थे इस कारण ये शादी दुखदायी साबित हो सकती है।”
लेकिन असल कारण परिवार के तरक्क़ीपसंद बुजुर्गों का घोर राष्ट्रवादी होना था और उन्हें यह कतई गवारा न था कि उनके जवान लोग पाकिस्तान में बसें।
मुन्नन चाचा का पूरा परिवार भी बाद में पाकिस्तान चला गया लेकिन मुन्नन चाचा ने पाकिस्तान जाने के विचार को सिरे से नकार दिया और हिन्दुस्तान की आब-व-हवा में ही रचे-बसे रहे।
भारत के स्वाधीनता संग्राम में और फ़ासीवाद और राजशाही के विरोध में लड़ते हुए जापान के विरुद्ध चीन को समर्थन दिया, हिटलर के विरुद्ध चेकोस्लाविया को समर्थन दिया और फ़्रांस के विरुद्ध स्पेन को।
जब हम 2009 में बात कर रहे थे तो यहां हिटलर के उत्तराधिकारी फिर से राष्ट्रवाद बनाम ग़ैरराष्ट्रवाद का नारा गढ़ रहे थे। उन्होंने याद किया कि जब ऐसा लग रहा था कि हिटलर और जापान की जुगलबंदी कामियाब होने जा रही है, पूरी दुनिया पर वे राज करेंगे, तो बहुत से लोगों ने अपना चोला बदलकर उनका रुख़ कर लिया। मुन्नन चाचा ने कभी नहीं सोचा कि दक्षिण पंथियों की चापलूसी काम आएगी और वो सही थे। नाज़ी चिन्हों का पुनरुत्थान होने लगा और हिटलर की भारत और अन्य देशों में पूजा जाना उन्हें लगा कि ये घातक ट्रेन्ड है। जिसके ख़िलाफ़ उनका मानना है कि हम सबको एक मज़बूत विचार देने की ज़िम्मेदारी है।
सौवां जन्मदिन बहुत मुबारक़ हो मुन्नन चाचा। आपकी लीडरशिप, आपकी समझ और आपकी ‘होलटाइमरी’ के लिए बहुत शुक्रिया.
(बीना सरवर की मां ज़किया सरवर के साथ ज़िया भाई , फ़ोटो क्रेडिट: सोहेल अकबर )
( पाकिस्तान की मशहूर पत्रकार बीना सरवर अब बोस्टन, अमरीका में रहती हैं। )
इस लेख का मूल अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद कलिम्पोंग में पली -बढ़ी और गोरखपुर में बसी अनुवादिका सुनीता अग्रवाल ने किया है। सुनीता जी के इस अनुवाद को संपन्न करने में उनके पार्टनर और गोरखपुर फ़िल्म सोसाइटी के संस्थापक सदस्य नितेन अग्रवाल का भी महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी अनुवाद की ऑडियो फाइल के देवनागरी में लिप्यान्तरण के लिए फरज़ाना महदी का आभार ।
Original article of Beena Sarwar:
Munnan Chacha’s 100th birthday, September 28, 2020
Lessons from the Zia ul Haq I’m proud to know
Happy birthday Munnan Chacha
Beena Sarwar
It was in Karachi, 1990s, walking into my parents’ bedroom which also served as their sitting room, that I first met Munnan Chacha. A long-limbed figure with craggy features, wearing his trademark white kurta and flappy Allahabadi pyjamas, he sat in an armchair across from my father. They had probably not seen each other for decades.
Over the years I have come to understand that the ‘grand old man of Allahabad’ was a mentor not only to my father Dr Sarwar and his older brother Akhtar but also to S. M. Naseem, my father’s friend and fellow student activist of Pakistan’s dynamic 1950s student movement that my father led. And he became my mentor and teacher as well, despite our all too rare meetings across the India-Pakistan divide.
I thought it was funny that Munnan Chacha’s name was actually Ziaul Haq. But then, as he pointed out, he was there first. He was right. Ziaul Haq the Communist was born 1920 in Allahabad. Ziaul Haq, the Pakistani military dictator was born 1924 in Jallandar.
But I didn’t see Munnan Chacha again until nearly two decades later when S.M. Naseem put me in touch via email with Sohail Akbar, a photography teacher in Delhi (interesting, all these non-western style family names. Sohail and his brother have different last names than their father Ziaul Haq. My father Mohammad Sarwar and taya Mohammad Akhtar had different last names than their father Abdul Haleem).
Once I had made the connection, it was inconceivable to go to Delhi and not take the train to Allahabad. But sometimes, I didn’t get a visa to do that, since India and Pakistan issue city-specific visas to each other’s citizens. Visits to Munnan Chacha’s house in Allahabad, meeting him and his amazing wife Dr Rehana, were the highlights of my visits to India between 2009-2013.
In 2009, I took the overnight train from Delhi to Allahabad for the first time as an adult to meet Munnan Chacha. He was then nearly 89 years old, one of the senior-most members of the Pakistan-India People’s Forum for Peace and Democracy (PIPFPD). This was another area around which we connected, the cause of regional peace. I had been a member of PIPFPD, the largest and oldest people-to-people organisation in the region, since its launch in 1995.
Munnan Chacha arranged for a PIPFPD meeting a school. Before the full hall he graciously introduced me as “a daughter of Allahabad”, and talked about our shared family histories. I showed some of my documentary films about violence against women and was happy that the audience countered the dominant finger-pointing narrative by identifying the similarity of the issues in both countries.
Beyond that energising meeting, Munnan Chacha gave me a window into history and politics in a very personal way.
He drove me over to Company Bagh, near the area where he, Akhtar and Sarwar had grown up. He told me that the British East India Company laid out the garden over the site of several villages they razed to the ground after quashing the 1857 uprising. They named it Alfred Park to mark Prince Alfred’s visit but no one calls it by that name. Statues of George V and Queen Victoria stand at the centre of the gardens, but we didn’t go there.
Instead, he introduced me to the freedom fighter Chandra Shekhar Azad, showing me his garlanded statue at the spot where he was killed after a gun battle with the colonial police in 1931. Munnan Chacha was around 11 years old, in class 6 at Government College Allahabad, when news of Azad’s death spread. The older boys started to march towards the Bagh, the younger ones running to join them. Heavy contingents of police along the way blocked their way. “They stopped us at a distance and sent us back.”
Less than a month later, the British hanged Bhagat Singh and his companions in Lahore. Another politicising factor for the youth was the Meerut Conspiracy Case (1929-33), in which the British convicted 33 leftist trade union leaders under a false lawsuit.
Even as a very young schoolboy, Munnan Chacha identified with those in Europe fighting against the emerging fascism. He told me that young people devoured new ideas and concepts regarding freedom, autonomy and nationalism through books, magazines and papers — the writings of nationalist Indians like Jawaharlal Nehru, world history, autobiographies. Ideas like socialist ideals of equality — “the world is one, the people’s struggle is one”.
There was no talk about any ‘ism’ or ideology. The struggle involved Hindus, Muslims, people of all communities, all focused together on getting rid of the British. Even literature or history teachers at schools and universities would inculcate patriotism – as in Indian nationalism — in some way.
“We all wanted that India should be free, that people’s conditions should be improved, and that poverty should be alleviated”.
All except the boys who came to school in expensive motor cars, whose families gained materially from British rule. “We called them ‘toady bachas’. But no one harassed or teased them in school”.
Munnan Chacha participated in civil disobedience protests by picketing at the school gates. “The Principal would send notes to our parents to rein us in, we were being led astray”.
By the time elections in India were held for the first time on a slightly broader basis under the 1935 Constitution, Munnan Chacha, then 15-years old, was practically a full-fledged political worker. Until then, the only Indians in government roles were the British-nominated “toadies” and then too only in advisory roles in the provinces. Congress formed government in UP, Bihar and elsewhere and other parties also emerged. The atmosphere changed. The ghuttan, suffocation, of British dominance loosened, said Munnan Chacha.
The relative freedom that India experienced after the 1936 elections, followed by the war, radically changed traditional ways of thinking. Political awakening escalated after the Second World War began in 1939.
Progressive ideas also spread through literature and poetry. Hot favourites with young people were writers like Prem Chand and poets like Iqbal and Majaz. Mushairas, poetry sessions, had a big hold. When visiting Allahabad Majaz would “stay at the home of Prof. Ijaz Hussain of the Urdu Department”. National level Central Committee members of the Communist Party also often visited Allahabad, including big names like Z.A. Ahmed, Sajjad Zaheer, and K. M. Ashraf. Their presence provided guidance and inspiration to the students, said Munnan Chacha.
There was a critical synergy between politicians and students in Allahabad, a university town and India’s second capital. The Congress Party held its working committee meetings in the city, said Munnan Chacha. Students could approach major political leaders and invite them to give talks. As a student, Munnan Chacha had a front row seat to all these activities that contributed to his own increasing political participation and commitment
As Joint Secretary of the Levellers Society at university, he read a paper at a discussion presided over by the Communist leader K.M. Ashraf, in the presence of Jawaharlal Nehru. Nehru’s words to him afterwards were: “What you’re saying is right. But the British will not leave the Middle East because they need that route to keep control of India”.
By 1940 Munnan Chacha was doing what he called “whole timery” with the Communist Party of India. Dressed typically with a topi and sherwani over his white Allahabadi trousers, he presented a simple, rustic exterior and had just completed his BA when the CPI swept him up as someone conveniently not in the sights of the police.
When the British banned Communist Party activities, virtually the entire North India leadership went “underground” in Allahabad. The restrictions on CPI continued after Independence, and Munnan Chacha himself was underground when Akhtar followed Sarwar to Pakistan in 1949 along with their parents and sisters.
Akhtar, a journalist, died in 1958. I had grown up hearing about him. There was the hint of a romance he had been involved in but no one would talk about it. It was Munnan Chacha who unlocked that secret for me when I interviewed him in 2009.
As he talked about Akhtar’s dynamism, political involvement and commitment – he was a student leader at Allahabad University — I commented that it must have been very hard for Akhtar to leave behind his home, his friends, his political involvement. Munnan Chacha agreed.
“There was also…” he began, then stopped. “Shall I say it?”
Intrigued, I nodded.
He then told me who my uncle had been involved with, the niece of one of their mentors. “That became well known later… Akhtar was very heart broken and it must have taken something to leave”.
Intrigued by “the sad romantic life” of Akhtar that emerged from his father’s words, Sohail later connected me with a friend who knew this story well. Akhtar’s lost love was her aunt.
The friend wrote to me later saying, “This is really another story of the tragedy of Partition”. Her aunt and my uncle, she said “were madly in love and I believe he came back to try and marry her after Partition”. However, her family did not agree. “The excuse was that they were both heart patients and the marriage could lead to tragic results”.
But the real reason probably was that the family elders, secular-minded Muslims, were “fiercely nationalistic”. For one of their young people to leave for Pakistan would have been unacceptable.
All of Munnan Chacha’s own family also migrated to Pakistan but he staunchly refused.
Having participated in the Indian national movement grounded in resistance to imperialism and fascism, he had supported China against Japan, Czechoslovakia against Hitler, and the Spanish against Franco. He remembered all too well how Indians many supported Hitler and admired his military advances as he went through France like a “knife through butter”, said Munnan Chacha.
When we talked in 2009, their ideological heirs were again appropriating “nationalist” identities, branding political dissidents as “anti-nationalists” and “traitors”.
Munnan Chacha remembered also how many advocated mending fences with the expected victors when it seemed that the Hitler-Japan alliance would win and dominate the world. “Don’t anger them too much”. He never thought that appeasing the right-wing would work, and he was right. The revival of Nazi symbols and Hitler-worship in India and elsewhere marks a dangerous trend that we need stronger strategies against.
Happy 100th birthday Munnan Chacha. Thank you for your leadership, your vision, and “whole-timery”.