बसन्त त्रिपाठी
प्रतिभा कटियार उन कवियों में है जिनके पास अपनी आत्मीय भाषा तो है ही, अपनी भावनाओं से ज़रा दूर जाकर चीज़ों को देखने की पारदर्शिता और तटस्थता भी है. सोचने वाले मनुष्य की एक विशेष वृत्ति यह भी होती है कि वह अपने द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अर्जित और निर्मित भाव-संसार को बहुत मुग्ध होकर देखने लगता है. उसे ही अंतिम सत्य मानकर उसी में डूबा रहता है. परिणाम यह होता है कि न केवल वह भाव-संसार को विवेक-सम्मत नज़र से नहीं देख पाता बल्कि उससे परे की दुनिया उसकी पकड़ से छूटती भी जाती है. प्रतिभा की कविताओं में ऐसा नहीं है. इसीलिए उनके प्रेम में भी जुड़ाव और तटस्थता का भावुक और बौद्धिक संयोजन है. अपने ही भाव-संसार से बद्ध न होने के कारण वे प्रेम और आत्मीयता के बने बनाए ढाँचे से अलग होकर सचेत राजनीतिक कविताएँ भी लिखती हैं. प्रेम में भी एक तरह की निस्संगता, राजनीतिक षड़यंत्रों पर प्रहार और स्त्री जीवन को गुलाम बनाए रखने वाली शक्तियों का प्रतिकार प्रतिभा कटियार की कविताओं का केन्द्रीय स्वर है.अपनी कविता में प्रतिभा जब कहती हैं
‘तुम्हारी याद का चेहरा/ ज्यादा सुंदर है तुम्हारे चेहरे से/ उसके संग बैठना
है ज्यादा सुखकर/ जानते हो तुम?’
तो इसे केवल काव्य-युक्ति या रोमान मानना भूल होगी. यह एक प्रतिक्रिया है उस संसार पर, जो अपनी उपस्थिति को वर्चस्व के अदीठ समीकरण में बदल कर स्त्री-संसार में दाखिल होता है.
आखिर एक स्त्री को क्यों लिखना पड़ता है कि ‘तुम्हारी याद मुझे कभी/ तन्हा नहीं रहने देती/ हालाँकि जब तुम होते हो पास/ बहुत ज्यादा तन्हा होती हूँ मैं’
स्मृति और वर्तमान के बीच के ऐसे विभाजन को सबसे ज्यादा निकटता से स्त्रियाँ ही देख पाती हैं. जीवन में वर्चस्व की जो साधारणीकृत छवियाँ हैं उस पर उत्पीड़ित की नज़र का जाना स्वाभाविक भी है. इसे वही समझ सकता है जो व्यक्तित्व को रिड्यूस किए जाने वाले क्रिया-कलापों की साजिशों को देखने का जोखिम उठाता है.
प्रतिभा कटियार अपने समय पर नज़र रखने वाली सचेत कवयित्री हैं. उनकी कविताओं से गुज़रने वाले पाठक इसे जानते ही हैं. यहाँ भी उन्हें इसका प्रमाण कोरोना काल की त्रासदी से जुड़ी हुई कविताओं को पढ़ते हुए मिलेगा. कोरोना की त्रासदी ने दुनिया के सामने कई तरह के संकट खड़े किए हैं. लेकिन भारत में मची अफरा-तफरी के कारण बिलकुल अलहदा हैं. कोविड-19 वाइरस हर मनुष्य के लिए चाहे समान रूप से ख़तरनाक हो, लेकिन इससे पैदा हुई तकलीफ़ों को सबसे ज्यादा भोगा है और भोग रही है वह निरीह जनता, जिसके माथे पर अतार्किक राजाज्ञाओं को मानने के कठोर आदेश लिख दिए गए हैं. वह भी उनकी सुविधाओं का ख़याल किए बग़ैर. भूख, गरीबी, पलायन, मौत के बरअक़्स मीडिया की मक्कारी और अनुशासन के नाम पर सरकारी अत्याचार की जितनी घटनाएँ और चित्र हमने पिछले दिनों देखे हैं वो हर संवेदनशील मनुष्य को लंबे समय तक मथते रहेंगे, बेचैन करते रहेंगे. हमारी दिनचर्या के पन्नों पर उन ज़ख़्मों के स्थायी निशान रहेंगे. उन्हें कभी मिटाया नहीं जा सकता.
बँटे हुए समाज पर खुशफ़हमी और सामंजस्य का जो आवरण डाल दिया गया था, कोरोना काल ने उसके चिथड़े-चिथड़े कर दिए हैं. प्रतिभा कटियार ने इस समूचे समय को अपनी कविताओं में बाँधने की कोशिश की है. इन कविताओं में हम प्रतिभा की पक्षधरता और उनकी तकलीफ़ को साफ़-साफ़ देख सकते हैं. इनको पढ़कर बेचैनी होती है. अपनी एक कविता में जब वे कहती हैं कि
‘इरेजर होना चाहती हूँ जो/ ‘सभ्यता’ के पहले गहराते जा रहे ‘अ’ को/ मिटा सके पूरी तरह से’ तो ‘असभ्यता’ को मिटाने की उनकी आकांक्षा साफ़ दिखायी पड़ती है.
प्रेम, प्रतिभा कटियार की कविताओं का स्थायी स्वर है. लेकिन उसके होने और छीजते जाने के कई-कई तरह के विवरण और बारीकियाँ उनके पास हैं. इसी कारण उनकी कविताएँ प्रेम का भिन्न संसार रचती हैं. उनकी एक कविता है जिसमें लिंचिंग को आतुर भीड़ से बचते-बचाते एक स्त्री जब अचानक अपने प्रेमी को पा जाती है तो आश्वस्त होती है. लेकिन प्रेमी खुद उसे भीड़ को सौंप देता है. प्रतिभा लिखती हैं :
कत्ल होने से पहले मैंने महसूस किया
कि अब मुझे भीड़ के हाथों
कत्ल होने का दुःख नहीं
दुःख था प्रेम के धार्मिक हो जाने का
मुझे भीड़ ने नहीं प्रेम ने मारा
और हमारे बीच जो प्रेम था
उस प्रेम को किसने मारा…
कविता के अंत में मासूम-सा लगने वाला सवाल है कि ‘हमारे बीच में जो प्रेम था उसे किसने मारा?’. यह केवल एक सवाल भर नहीं रह जाता. बल्कि इस कविता में उपस्थित घटना से अचानक पृथक होकर समूची सभ्यता के आसमान में गूँजने लगता है यह सवाल कि प्रेम को किसने मारा? या प्रेम को कौन मार रहा है? प्रतिभा स्त्री जीवन से जुड़े सवालों को मानव सभ्यता के सवालों से जोड़ देती हैं. इन्हीं स्थितियों से जुड़कर वे उन स्त्रियों की सहचर बनने की अपनी आकांक्षा रखती हैं जो अपनी दृढ़ता और साहस के कारण नया इतिहास बनाने की दिशा में लगातार आगे बढ़ रही हैं.
प्रतिभा कटियार की ये कविताएँ जितना बाहरी संसार से वाबस्ता हैं उतना ही भीतरी संसार से भी. बल्कि कहना होगा ये कविताएँ दोनों संसार के पारस्परिक संबंधों की पड़ताल करती हुई कविताएँ हैं.
प्रतिभा कटियार की कविताएँ
1.
जब याद आती है
तब सिर्फ याद आती है
जिद करती है
कि सब छोड़ बैठो बस उसके ही संग
तुम्हारी याद का चेहरा
ज्यादा सुंदर है तुम्हारे चेहरे से
उसके संग बैठना
है ज्यादा सुखकर
जानते हो तुम?
तुम्हारे साथ होकर भी कई बार
की हैं तुम्हारी याद से बातें
याद को कहीं जाने की
जल्दी नहीं होती
उसके जेहन में नहीं होता
कोई काम
किसी और का ख्याल
तेज़ धूप में बारिश बन बरसती है वो
टपकती है संगीत की धुन बनकर
चाँद बन दमकती है
अमावस की रातों में
थामकर हाथ सुलाती है वो
रात भर सहलाते हुए सर
सुबह के बोसे के संग जगाती है
तुम्हारी याद मुझे कभी
तन्हा नहीं रहने देती
हालाँकि जब तुम होते हो पास
बहुत ज्यादा तन्हा होती हूँ मैं.
2.
सारी धूप पी लेना चाहती हूँ
जो जला रही है
मजदूर से मजलूम बना दिए गए लोगों को
साइकिल के पैडल बन
सोख लेती हूँ सारी थकान
कि बेटियाँ बिना थके पहुंचा सकें
पिताओं को घर
और पिता अपने बच्चों को
सारे सांप गले में लपेट लेना चाहती हूँ
सारे बिच्छुओं से कह देना चाहती हूँ
कि आओ मुझे डसो
क्वारंटीन सेंटर का रास्ता भूल जाओ कुछ दिन
रेल होना चाहती हूँ
कि जहाँ सोये हों मजदूर
बदल सकूँ उधर से गुजरने का इरादा
पानी होना चाहती हूँ
कि हर प्यास तक पहुँच सकूँ
पुकार से पहले
रोटी होना चाहती हूँ
कि भूख से मरने न दूँ
धरती पर किसी को भी
चीख बन गुँजा देना चाहती हूँ समूची धरती को
कि दुःख अब सहा नहीं जाता
आग बन भस्म कर देना चाहती हूँ
कायर, मक्कार धूर्त राजनीति को
मीडिया को, चाटुकारों को
संवेदना और समझ बन उतर जाना चाहती हूँ
हर बेहूदा तर्क के गर्भ में
बच्चों की आँखों में खिलना चाहती हूँ
गुलमोहर की तरह
अमलताश बन सोख लेना चाहती हूँ
मुरझाये, पीले पड़े चेहरों की उदासी
शिव की भाँति गटक जाना चाहती हूँ
धरती पर फैलाई गयी नफरत का तमाम विष
बहुमत होना चाहती हूँ
कि पलट सकूँ
मगरूर, हत्यारी सत्ता को अभी इसी पल
मुझे कविता होने में कोई दिलचस्पी नहीं
इरेजर होना चाहती हूँ जो
‘सभ्यता’ के पहले गहराते जा रहे ‘अ’ को
मिटा सके पूरी तरह से.
3
समय के पाँव की बिवाइयाँ
रिसने लगी हैं इन दिनों
इन बिवाइयों से बह रही है भूख
बीमारी, असुरक्षा, भय
इन बिवाइयों से आवाज आती है
बच्चों के रोने की
स्त्रियों के सुबकने की
पुलिस की लाठी ठीक से पड़े पीठ पर
इसलिए सही ढंग से मुर्गा बनते
और दर्द को चुपचाप पी लेने की आवाज
मवाद पड़ गया है समय के पाँव में
रक्त के साथ साथ वह भी बह रहा है
दर्द नहीं होता अब, वो बस रिसता रहता है
प्लास्टिक की बोतलें पाँव में बँधकर
चप्पल हो गयी हैं
सूटकेस बन गया है बच्चे को ढोने की गाड़ी
कंधे जुते हुए हैं बैलगाड़ी के साथ
शुक्र मनाते हुए कि कम से कम
सांस बची है अब तक
समय के पाँव लड़खड़ा रहे हैं
वो अपने चेहरे पर पोत दी गयी
खूनी कालिख क्या धो पायेगा कभी
कैसे मिटा पायेगा कोई
समय के दामन पर लगे दाग
कि एक ऐसा वक़्त था इतिहास में
जब ज़िन्दा घायल इन्सानों ने
सफर किया था लाशों के ढेर के साथ
बच्चे इतिहास में पढ़ेंगे कि
एक तरफ लोगों ने हौसला बढ़ाने को
बजाई थी थालियाँ
जलाये थे दिए
और उन्हीं लोगों ने नौकरी से,
घर से निकाल दिया था लोगों को
वो मजदूर थे, उन्हें मजलूम बनाया गया
वो स्वाभिमानी थे
उन्हें हाथ फैलाने को मजबूर किया गया
बच्चे पूछेंगे इतिहास की कक्षाओं में
जिन लोगों ने बनायी थीं सड़कें
उन्हें उन सड़को पर चलने का हक क्यों नहीं था
जो रेल की पटरियां उन्होंने ही बिछाई थीं
उन्ही पटरियों पर उन्हें जान क्यों देनी पड़ी
जो अनाज उगाया उन्होंने खेतों में
उसी को तरसते हुए भूख से क्यों मर गए लोग
ये दुनिया जिन्होंने बनायी थी
उस दुनिया में उनके लिए ही जगह क्यों नहीं थी
बच्चे पूछेंगे और शिक्षक सोचेंगे
क्या लिखेंगे बच्चे अपनी कॉपियों में कि
उन्हें दिए जा सकें पूरे नम्बर
एक बच्चा कोरा पन्ना छोड़कर चला जाएगा
समय की आँख का आँसू उस पन्ने को भिगो देगा…
4
चुकने लगा है राशन
तेल, मंजन
गैस सिलेंडर भी चुकने ही वाला है
न नहीं ले सके थे हम दो सिलेंडर
ऐसे ही चल रहा था काम
चुकने लगी हैं दवाइयाँ
जो बिना प्रिस्क्रिप्शन के मिलती नहीं
और प्रिस्क्रिप्शन देने वाले डाक्टर
व्यस्त हैं कहीं और
चुकने लगी है हिम्मत
धैर्य चुकने लगा है
रोजमर्रा के जिन कामों में झोंककर
खुद को सँभाल रहे थे जरा
वो काम थकाने लगे हैं
न न आईना देखने को जी नहीं करता
उसमें उदासी दिखती है
सूखने लगी है वो बेल
जिसमें झमक के आने थे
मोहब्बत के फूल
उसकी जड़ में
जाने कौन डाल गया नफरत का मठ्ठा
नदियाँ ज्यादा मीठी हो चली हैं
और हम ज्यादा कड़वे…
5.
एक पत्ती मिली
उसके हरे में थोड़ा कत्थई घुलने लगा था
डाल मजबूती से पकड़ी हुई थी उसने
वो पत्ती मेरी उम्र की होगी शायद
एक तितली मिली
वो फूलों के ऊपर चक्कर काट रही थी
खुश लग रही थी,
उदास तितली कभी मिली नहीं मुझे
या मुझे तितलियों की उदासी
पढ़नी आती नहीं
एक पंछी मिला
वो मुझसे मिलने आया था
उसने शायद पढ़ी थी विनोद कुमार शुक्ल की कविता
और वो मुझसे मिलने आया
क्योंकि मैं उससे मिलने नहीं गयी
वो अपने साथ नदी क्यों नहीं लाया?
एक सड़क मिली मुझे
जो कहीं नहीं जाती थी
एक मौसम मिला
जो अपने तमाम वैभव के बावजूद
मुस्कुराहट गुमा आया था कहीं
एक बच्चा मिला
जिसका बचपन खो गया था
वो उसे ढूँढ़ भी नहीं रहा था
एक आईना मिला
जिसने झूठ बोलना सीख लिया था…
6
बरसों बरस चलते जाने से
पैरों में छाले उभर आये हैं
बिवाइयाँ चटखकर खाई बन गयी हैं
ये खाई सदियों पुरानी है
यह सूखी रोटी और पिज़्ज़ा के बीच की खाई है
ये एसी के बिना न रह पाने और
लाठियों से पिटकर भी जीने की आस में
चलते जाने की खाई है
ये 99 प्रतिशत नम्बरों की चिंता
और भूख से तड़पकर मर जाने वाले
बच्चों के बीच की खाई है
जानते हैं, लाठियाँ सिर्फ गरीब की पीठ पर पड़ने के लिए बनी हैं
लाठी खाकर भी मिले खाना तो बुरी नहीं लाठी
लेकिन सिर्फ लाठी खाकर
पानी पीकर सोना मुश्किल होता है
खुद भूखा रहना आसान होता है
बच्चों को भूख में देखना मुश्किल होता है
बरसात में टपकती, छप्पर वाली छत
और बिना दरवाजे के गुसलखाने वाले एक कोने को
घर कहना बुरा नहीं लगता
बुरा लगता है
उस घर तक पहुँच न पाना तब
जब सारे देश को घर पर रहने के हों निर्देश
जब विदेश में रहने वालों को
लौटा लाया गया हो अपने देश
हम विदेश तो नहीं गए न साहब
हम तो आपकी सेवा में थे
हम ड्राइवर थे, धोबी थे, रसोइया थे
हम घर की साफ़ सफाई वाले थे
सडकें, गटर साफ़ करने वाले थे
इत्ती बड़ी बीमारी तक हमारी कहाँ थी पहुँच
हम तो भूख से ही मरते आ रहे हैं सदियों से
क्यों हम गरीबों की घर पहुँचने की इच्छा को
लाठी मिलती है
और चुपचाप जहाँ हैं वहीं रुक जाने की मजबूरी को
भूख, बेबसी और मौत…
रोना नहीं आता अब
कि आँसू सूख चुके हैं
नींद नहीं आती कि उसकी जगह नहीं बची आँखों में
वो अब पाँव में रहती है
कि पाँव बेहिस हैं चलते जाते हैं
भूख अब पेट में नहीं रहती
वो रहती है चैनलों में
एंकरों के मुंह से झाग उगलती नफरत में…
7
ओ ईश्वर,
मन है तुमसे बातें करने का
जानने का तुम्हारे मन का हाल
कैसे हो तुम
कैसा लगता है तुम्हें
जब तुम्हारे नाम पर
होती हैं हत्याएँ
मचती है मार काट
क्या बीतती है तुम पर
जब मंदिरों के भीतर
और मस्जिदों के साये में
अंजाम लेते हैं अपराध
कैसे रोकते हो तुम अपने आँसू
जब नन्ही बच्चियाँ तुम्हारा नाम पुकारते हुए
रौंद दी जाती हैं
किसके काँधे पर सर टिकाकर
तुम फफक ही पड़ते हो
जयकारों के साथ गालियाँ सुनते हुए
अच्छी सी चाय बनाना चाहती हूँ
तुम्हारे लिए
जानती हूँ भूखे हो सदियों से
कुन्टलों चढ़ते भोग से निर्विकार हो तुम
क्योंकि मुठ्ठी भर अनाज के इंतजार में
दम तोड़ देते लोगों की भूख ही तुम्हारी भूख है
कितने बच्चे, स्त्रियाँ, बूढ़े, जवान
कभी न खत्म होने वाले सफर पर
चलते ही जा रहे हैं
लाठियां और गालियाँ खाते हुए
तुम्हारे पाँव खूब दुःख रहे होंगे न?
सोये नहीं हो न तुम अरसे से
कैसे सो सकता है कोई इन हालात में
कि कर्मकाण्ड की होड़ में
इनसानियत से ही दूर जा चुके भक्त
भला कहाँ सोने देते हैं पल भर भी
कितने अकेले पड़ गए हो
अज़ान, घंटे, घड़ियालों की आवाज के बीच
बहुत उदास हो न तुम?
ओ ईश्वर मैं समझती हूँ तुम्हारा दुःख
आओ बैठो यहाँ मेरे पास
यह उदास मौसम है…
8
खिलखिला कर हँस रहे हैं फूल
पंछियों का झुण्ड
कलरव से भर रहा है सन्नाटा
तमाम बारिशों से गुजरने के बाद भी
पेड़ों ने बचायी हुई हैं
अपनी शाखों पर बौर
सुन सकती हूँ धड़कन
आज फिर से
अपनी भी, तुम्हारी भी
नब्ज के चलने की आहटों पर
धर सकती हूँ ध्यान
वो जमा कर रहे हैं आटा, दाल, चावल
मैं जमा कर रही हूँ स्मृतियाँ…
9
पीछे कुछ अनजाने लोग थे
उनके हाथों में थे हथियार
वो मुझे नहीं जानते थे
मैं भी उन्हें नहीं जानती थी
वो मुझे मारना चाहते थे
क्यों मारना चाहते थे
ये न वो जानते थे
न मैं जानती थी
यह बात तो कोई और ही जानता था
हथियारों से लैस उस भीड़ से बचकर भागते हुए
अचानक टकरा गई अपने प्रेमी से
साँस में आई राहत की साँस
छलक पड़ीं आँखें
पीड़ा और सुख दोनों से एक साथ
कि उसने कहा था
वो मुझे दुनिया के हर दुःख से बचाएगा
आंच नहीं आने देगा मुझ पर
छुप गयी उसके पीछे जाकर
भीड़ थमी
भीड़ के कुछ चेहरे मुस्कुराये
अचानक मेरा प्रेमी सामने से हटते हुए बोला
‘ले जाओ इसे’
उस रोज पहली बार
प्रेमी का धर्म मालूम हुआ
इसके पहले तक प्रेम ही था
हम दोनों का धर्म
कत्ल होने से पहले मैंने महसूस किया
कि अब मुझे भीड़ के हाथों
कत्ल होने का दुःख नहीं
दुःख था प्रेम के धार्मिक हो जाने का
मुझे भीड़ ने नहीं प्रेम ने मारा
और हमारे बीच जो प्रेम था
उस प्रेम को किसने मारा…
10
‘हल्ला बोल’ बोलती
आज़ादी के नारे लगाती
न सिर्फ अपने
बल्कि अपनों के हक़ को भी समझती
उन हकों के लिए जूझती
लड़कियाँ खूबसूरत लगती हैं
जुल्मो-सितम के आगे घुटने न टेकने वाली
अपनी बात को ठीक से रखने वाली
उनींदी आँखों और उलझे बालों वाली,
खून और पसीने से लथपथ लड़कियों के
सौन्दर्य का नहीं है कोई सानी
सत्ता से टकराती, पुलिसिया मार खाती
जेलों में ठूँस दी जाती
फिर भी हार न मानने वाली लड़कियाँ
बहुत अच्छी लगती हैं
आज़ादी के तराने गाती
संविधान को सहेजती
अपनी शिक्षा को सही मानी देती
हिंसा के खिलाफ खड़ी होकर
हिंसा का सामना करती लड़कियाँ
बहुत प्यारी लगती हैं
रुपहले पर्दे से उतरकर
दुनियावी खूबसूरती का ताज उतार
हक़ की लड़ाई में शामिल लोगों के साथ
चुपचाप शामिल होती लड़कियाँ
बहुत ज्यादा सुन्दर लगती हैं
और ये सुंदर लड़कियाँ
सत्ता की आँख में किरकिरी सी चुभती हैं
सत्ता की आँख की यह चुभन
उनके सौन्दर्य को निखारती ही जाती है.
11. इतिहास बनाती लड़कियाँ
वो समझती हैं अपनी मर्जी को
जीती हैं उस मर्जी को
न बनती हैं किसी के हाथ का खिलौना
न बाँध सकता है कोई उन्हें खूँटे से गाय की तरह
सर झुकाकर नहीं वो सीना तानकर चलती हैं
पढ़ती हैं इस्मत, कुर्तुलएन और मंटो को
आँख से आँख मिलाकर करती हैं बात
यूँ ही नहीं मानती बात कोई भी, किसी की भी
पूछती हैं सवाल, परखती हैं बात
इतिहास पढ़ती भर नहीं
इतिहास बनाने का भी माद्दा रखती हैं
अटकती नहीं देह के भूगोल में
कि दुनिया के नक्शे में दर्ज करना जानती हैं
अपने पैरों के निशान
नहीं भाता उन्हें
सकुचा-सकुचा के बात करना
बे-बात मुस्कुराना
मोहल्ले गॉसिप में वो शामिल नहीं होतीं
इसलिए उस गॉसिप का सामान बन जाती हैं
दौड़ती-भागती, हाँफती लड़कियाँ
समर्थ होती हैं अपनी हर लड़ाई खुद लड़ने में
उन्हें कन्धों की तलाश नहीं होती
वो उठाना जानती हैं बोझ
अपने दुखों का,
अपनी हार का भी
वे सभी, सुशील, गृहकार्य में दक्ष वाले वैवाहिक विज्ञापनों पर
रखकर खाती हैं समोसा
मुस्कुरा देती हैं किसी मजदूर के काँधे पर हाथ रखकर
रो लेती हैं जोर से खुली सड़क पर
और उतनी तेज़ से हँस भी लेती हैं कहीं भी, कभी भी
नहीं आती किसी की लच्छेदार बातों में
अच्छे-बुरे का भेद बखूबी समझती हैं
आधी रात को सड़कों को पाट देतीं हैं आज़ादी के नारों से
वो अपनी लड़ाई लड़कर चैन से सोती हैं
लेकिन नींदें उड़ा देती हैं समाज के ठेकेदारों की
इनके चेहरे पर अश्लील फब्तियों का तेजाब फेंका जाता है
उन्हीं की देह रौंदकर उन्हें ही
चरित्रहीन करार दिया जाता
फिर भी डरती नहीं ये लड़कियाँ
लड़ती हैं आखिरी साँस तक
इतिहास उन्हें टुकुर-टुकुर देखता है
चरित्रहीनता के तमाम सर्टिफिकेट
औंधे पड़े हैं इनकी मुस्कुराहटों के आगे.
कि दुनिया को जीने लायक बना रही हैं
ये चरित्रहीन करार दी गयी लड़कियाँ.
(कवयित्री प्रतिभा कटियार, लखनऊ में जन्मी, पली-बढ़ी. राजनीति शास्त्र में एम ए, एलएलबी, पत्रकारिता में डिप्लोमा. 12 वर्षों तक प्रिंट मीडिया में पत्रकारिता. कहानियाँ और कविताएँ कई पत्रिकाओं और हिंदी अखबारों में प्रकाशित. व्यंग्य संग्रह ‘खूब कही’ और मैत्रेयी पुष्पा के साक्षात्कारों पर आधारित पुस्तक ‘चर्चा हमारा’ का संपादन. रूसी कवियत्री मारीना त्स्वेतायेवा की जीवनी प्रकाशित. इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन देहरादून में कार्यरत.
सम्पर्क: kpratibha.katiyar@gmail.com
टिप्पणीकार बसंत त्रिपाठी, 25 मार्च 1972 को भिलाई नगर, छत्तीसगढ़ में जन्म. शिक्षा-दीक्षा छत्तीसगढ़ में ही हुई। महाराष्ट्र के नागपुर के एक महिला महाविद्यालय में अध्यापन के उपरांत अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन. कविता, कहानी और आलोचना में सतत लेखन. कविता की तीन किताबें, कहानी और आलोचना की एक-एक किताब के अलावा कई संपादित किताबें प्रकाशित.
सम्पर्क: 9850313062, ई-मेल basantgtripathi@gmail.com)