समकालीन जनमत
कहानी

लाॅकडाउन

हेमंत कुमार 
(लाॅकडाउन, हेमंत कुमार की नयी कहानी है। हेमंत कुमार ने समकालीन ग्रामीण यथार्थ को कहानियों में पुनः स्थापित किया है। ‘रज्जब अली ‘ नाम से इनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। वे आज़मगढ़ के एक छोटे से बाजार में रहकर दवा की दुकान चलाते हैं)
वह चीख कर बिस्तर पर उठ बैठा और  तेजी से हाँफते हुए चेहरे को गमछे से पोछने लगा। सपने तो वह पहले भी देखता था लेकिन इधर दो दिनों से भयानक तरह का देख रहा है़। वह भी बार-बार। दो दिनों से उसकी नींद गायब थी। यदि नींद आती  भी तो रूह कंपा देने वाले सपने। सपनों में उसकी फैक्ट्री और  उसका मालिक सेठ , उसका गांव , गांव में उसका चचेरा भाई चंदन और  शुकुल प्रधान। लंबा रास्ता, रास्ते में चौड़ी-चौड़ी  नदियां, ऊंचे पहाड़, घने जंगल और फिर उसका छोटा सा परिवार। परिवार में उसकी बूढ़ी मां, पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे। यही सब उसके सपने में घूम-फिर कर आते और उसको बुरी तरह से डरा देते। अबकी बार देखा कि उसके दरवाजे पर उसको पूरे परिवार सहित  पेड़ो से बाँध दिया गया है़। गांव वालों के बीच नगाड़े बज रहे है़। शुकुल परधान और चंदन लकड़ी चीरने वाला आरा लेकर उसके  बेटे की तरफ बढ़ रहे है़ं। जो चीख-चीख कर ‘पापा बचा लो , बचा लो पापा’ की करुण  गुहार लगा रहा है़।  जैसे ही आरा उसके सिर पर वे रखे, गणेश की चीख निकल गयी।
उसने बोतल उठा कर दो घूंट पानी पिया । पेट में अन्न न होने की वजह से पानी जाते ही वह ऐंठ गया। उसके वार्ड में उसके अलावा छः मरीज और थे । जिसमें से कुछ सो गये थे और बाकी सोने की कोशिश कर रहे थे। उसकी चीख का किसी के उपर कोई असर नहीं पड़ा। वह बिस्तर से उतरा और  दरवाजा खोल कर बरामदे मे आ गया। रात आधी से ज्यादा गुजर चुकी थी। बिजली के मद्धिम पीली रोशनी मे पूरा अस्पताल किसी निःशब्द कब्रिस्तान सरीखा लग रहा था। पूरे माहौल में उदास खामोशी पसरी हुई थी। वह टहलना चाहता था लेकिन बाहर निकलने की  मनाही थी। फिर भी वह टहलते हुए स्टाफ रूम की तरफ बढ़ा। वहां पुलिस से लेकर नर्स, वार्ड बॉय सभी लोग सो रहे थे या ऊंघ रहे थे। वह दबे पांव आगे निकल गया। वह अस्पताल का पिछला हिस्सा था। जहां पर पार्क जैसा एक बड़ा मैदान था। मैदान के चारो तरफ बेतरतीब घनी झाड़ियां और  ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे। जिसके नीचे कुछ सीमेंट के बेंच बने हुए थे। गणेश एक बेंच पर लेट गया। उसे यहां कुछ ज्यादा ही सकून मिला फिर भी यादें उसका पीछा नहीं छोड़ रही थीं। धीरे-धीरे वह इस नरक यात्रा में खो गया।उसे मजदूरों का मोहल्ला कहने की जगह मजदूरों का बहुत बड़ा गंदा पोखरा कहा जाए तो ज्यादा ठीक रहेगा। जिसके बीचो-बीच काफी चौड़ा बदबू से बजबजाता नाला गुजरता था। पतली-पतली गलियां थी। गलियों के दोनों तरफ टिन के छोटे-छोटे कमरे थे- टिन की दीवारें, टिन का दरवाजा और टिन की ही छत। उस सीलन भरे  हर कमरे में चार-चार, पांच-पांच मजदूर मछलियों की तरह अटे पड़े थे। पूरे मोहल्ले में अजीब सी बदबू बिखरी पड़ी थी। पानी के नल और संडासों के सामने हर वक्त काफी भीड़ लगी रहती। जहां मार-पीट, गाली-गलौज, रोजमर्रा की बातें थीं। इसी माहौल में गणेश अपने तीन और साथियों के साथ एक कमरे में कैद था। चूल्हा बुझे चार रोज हो चुके थे। राशन का एक दाना भी नहीं बचा था। किसी गाड़ी के आने की आवाज सुन एक साथ सारे मजदूर दौड़ पड़ते। वे गालियां, ज्यादातर स्वास्थ्य विभाग की रहती। जो माइक से कारोना से बचाव के उपाय बताती। सोशल डिस्टेंसिंग, सेनेटाईजर और मास्क इस्तेमाल करने पर जोर देती। मजदूर यह सोच कर परेशान हो जाते कि जब सब कुछ बंद है, बाहर निकलना मुमकिन ही  नहीं है तो ये सम्भव कैसे होगा!
सभी लोग चुपचाप अपनी चाल में वापस आ जाते। भूख निरन्तर बढ़ती जा रही थी। यही एक उम्मीद थी कि लॉकडाउन जल्दी ही खत्म होने वाला है। जिंदगी फिर रास्ते पर लौट आयेगी।
रात के आठ बज रहे थे। पूरी चाल पेट में दोनों घुटने डाल अधमरी सी पड़ी हुई थी। उसी समय स्वास्थ्य विभाग की गाड़ी माइक पर सन्देश सुनाते हुए चाल में घुसी । कहीं कोई बाहर नहीं निकला । इस आवाज से गणेश तिलमिला उठा। उसका सूखा गला चीख पड़ा, “रोटी दे …रोटी दे स्साले  रोटी दे”
उसके तुरंत बाद बगल वाली झोपड़ी से उससे भी तेज चीख निकली। फिर क्या था, देखते ही देखते पूरी चाल “रोटी दे …रोटी दे ‘ की कर्कश आवाज के साथ गली मे निकल आयी और गाड़ी को घेर लिया। गाड़ी सैकड़ों  मजदूरों से घिरी हुई थी। उसमें बैठे सभी कर्मचारी डर से कांप रहे थे। माइक बंद कर दिया गया था। रोटी के नारों से पूरा इलाका गूंज उठा। कर्मचारी गाड़ी से उतरे और चुपचाप हाथ जोड़ कर खड़े हो गये। मजदूरों ने उनकी गाड़ी को रास्ता दिया। गाड़ी गली से रेंगती हुई निकली और सड़क पर आते ही तेज रफ्तार से निकल गयी। मजदूर कुछ देर तक नारे लगाने के बाद फिर अपनी अपनी कब्रों मे लौट  गए।
आधे घंटे के भीतर हूटर बजाती हुई पुलिस की लगभग दस गाड़ियां गली के बाहर खड़ी हुई।  गली का सन्नाटा बूटों से भंग हो गया। मजदूरों में जरा भी दहशत नहीं हुई। वे उसी तरह बेखौफ पड़े रहे। धीरे धीरे बूटों का शोर धीमा होने लगा। माइक से आवाज गूंजी , “मजदूर ध्यान दें, आपके लिए भोजन की व्यवस्था की गयी है। बहुत ही शांतिपूर्वक कतार में खड़े  होकर अपना अपना पैकेट ले लें।”
यह सुनते ही पूरी चाल मे खलबली मच गयी। एक साथ सभी भरभरा कर निकल पड़े  और वे ट्रक को घेर लिए। पुलिस वाले बहुत मशक्कत से लाठी सड़क पर पीट-पीट कर कतार लगवाए। कुछ देर तक शांति पूर्वक वितरण हुआ लेकिन ट्रक पर भोजन का पैकट कम होते देख लाइन के पीछे वाले मजदूरों में अफरा-तफरी  मच गयी। वे एकाएक अराजक हो गये और ट्रक पर  टूट पड़े। पूरे माहौल में घमासान मच गया। छीना-झपटी, गाली-गलौज, लात-घूसा चरम पर बढ़ता गया। यह देखकर कर्मचारी पैकट को दूर-दूर फेकने लगे। लोग उसपर भी टूट पड़े। पुलिस कुछ देर तक मूकदर्शक बनी  देखती रही। इसके बाद लाठी भाजना शुरू की। गणेश के हिस्से भी पीठ पर दो लाठियां और जमीन पर पैरों से रौदी एक रोटी मिली। जिसे वह झाड़ कर आधी अपने खा कर भर पेट पानी पी लिया और आधी रोटी महेश को दे दिया।
यह अब रोज की बात हो गयी थी। पिछले कुछ दिनों से गैर सरकारी संस्थाएं भी भोजन पहुंचाने लगी थी। लेकिन अब पुलिस ने उन्हें आने से रोक दिया। जिंदगी मुश्किल दर मुश्किल होती जा रही थी। मीडिया जिस तरह से डर पैदा कर रही थी उससे नहीं लग रहा था कि जिंदगी बचेगी भी। दिल हमेशा अपने परिवार पर लगा रहता। लेकिन सब कुछ बेबस था। मीडिया ने इस कदर डरा दिया था कि हर कोई मौत के रूप में दिख रहा था । हर किसी की आंखो में असुरक्षा और दहशत थी । इसी दहशत भरे माहौल में उसने एक रात को भयानक सपना देखा कि वह किसी तरह से बचते हुए अपने गांव पहुंचा है । खूब उजली रात थी । पूरे गांव के ऊपर चाँद की रोशनी बरस रही  थी लेकिन हर कोने मे सन्नाटा पसरा था । किसी किसी दरवाजे पर नरकंकाल बिखरे पड़े थे। वह डर गया । वह तेज दौडने लगा । वह जल्दी से अपने घर पहुंच जाना चाहता था लेकिन अपने ही गांव की गलियों में वह  भटक गया । किसी तरह वह अपने दरवाजे पर पहुंचा । नीम का पेड़ मंथर गति से झूम रहा था । जिसके नीचे टूटे खपरैल के ऊपर गिद्धों का झुंड बैठे हुए थे । पेड़ के बगल में नाद थी । नाद के बगल मे उसकी गैया का कंकाल था  । जिससे लिपटा हुआ एक नरकंकाल भी था  । शायद वह  उसकी मां का था  । वह बैठकर कंकाल को सहलाने लगा । वह चीख चीख कर रो लेना चाहता था लेकिन उसकी रुलाई गले में अटक गयी थी  । उसकी नजरें अपने दोनों बच्चों और पत्नी को ढूढ़ने लगी । कोई और कंकाल न देख उसे कुछ सुकून  मिला । वह सिसकते हुए उठा और देर तक अपने घर के खंडहर को निहारता रहा फिर सड़क की तरफ निकल गया ।
सड़क के किनारे एक बड़े मैदान मे ऊंचे चबूतरे पर बाबा साहब की आदमकद मूर्ति लगी हुई थी। वह मूर्ति के पैर छूकर उसे निहारने लगा । एकाएक वह चौंक गया । बाबा साहब की दोनों आंखों से खून टपक रहे थे और हाथ की किताब खून से लथफथ हो उठी थी। वह विस्मित हो अपने कंधे पर से गमछा उतारा और खून साफ करने लगा । उसका गमछा पूरी तरह से लाल हो गया लेकिन खून नहीं रुका ।
रात के सन्नाटे को चीरती हुई कहीं बहुत दूर संगीत का मद्धिम स्वर सुनाई दिया । जो निरंतर तेज होता जा रहा था । वह गर्दन घुमा कर देखा तो चारो दिशाओं में आसमान के रंग बिरंगे तारे जमीन पर उतर कर धीरे धीरे उसकी तरफ बढ़े चले आ रहे है थे । देखते ही देखते उसके चारो तरफ लाखों की संख्या में जादुई सँगीत के साथ नृत्य की आवाज आने लगी । वे आसमान के तारे नहीं थे । वे सारे के सारे नरकंकाल थे । उनकी दोनों आखें तारों की तरह चमक रही थी । उनके गले में नरमुंडों  की माला थी । शरीर पर तरह तरह के फूलों के गहने और उन हाथों में दुनिया भर के वाद्य यंत्र थे जो एक सुर में बज रहे थे । उनके होठों पर वह लोकगीत था जिसकी रचना होनी अभी बाकी थी । पैरों की थिरकन जादुई थी । उस जादू में वह पूरी तरह से बंध गया था । वह उनके साथ गाना चाहता था लेकिन गले से बोल ही नहीं फूट रहे थे । वह उनके साथ थिरकना चाहता था लेकिन दोनों पैर सुन्न हो चले थे । गीत के बोल मद्धिम होते होते नरकंकालो का झुंड जिस तरह से आया था उसी तरह वापस जाने लगा । वह उस झुंड को रोक लेना चाहता था लेकिन नहीं । वह उस झुंड में शामिल हो जाना चाहता था लेकिन पैर बिल्कुल जवाब दे चुके थे । आखिर में वह गला फाड़कर चिल्ला उठा- रुको !
वह उठ कर बैठ गया । पूरा शरीर पसीने से तरबतर था और सांस धौंकनी की तरह चल रही थी । उसकी चीख सुनकर उसके तीनों साथी भी उठकर बैठ गये और चुपचाप उसे निहारने लगे
“किस अनिष्ट का सपना देखे गणेश ?”
गणेश कुछ नहीं बोला । उसकी सांसे अभी सामान्य नहीं हुई थी ।
“मेरे सपने में तो मेरे दोनों बच्चे रोटी की जिद्द में तड़प तड़प कर मेरी आंखों के सामने ही दम तोड़ दिए थे” बिरजू बोला ।
“मेरा बाप तो दवा के अभाव मे असमय ही मर गया था।” महेश ने कहा ।
“अगले महीने मेरी बहन की शादी थी । जो टूट गयी । मेरी बहन ने जहर खा ली थी” भोला ने कहा ।
सभी ने सपना देखा था और सपने में सिर्फ मौत देखी थी ।
गणेश ने गमछे से अपने पूरे  बदन को रगड़ रगड़ कर पसीने को साफ किया । वह एक लंबी साँस छोड़ते हुए बिना कुछ बोले उस घुटन से बाहर निकल गया ।
बाहर बिल्कुल सन्नाटा था । हवा कुछ तेज चल  रही थी । वह टहलते हुए सड़क पर चला गया । वहां पर भी दूर दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था । चारो तरफ अनिश्चय और दहशत की चादर फैली हुई थी । सपने के बाद उसके मन मे घर के लिए मोह उमड़ आया था । परिवार से मिलने के लिए कलेजा फटा जा रहा था । कब मौका मिले कि वह घर भाग जाए ।
गांव मे चंदन उसका पट्टीदार है । उसके सगे बड़े काका का लड़का । दलित बस्ती में वह सबसे चालू माना जाता है । पुलिस थाना से लेकर तहसील तक अच्छी दलाली कर लेता है़ । सरकारी सुविधाओं वाला किसी भी पात्र अपात्र का कार्ड बनवाना उसके बाएं हाथ का खेल है । तिकड़मी इतना कि पूरी दलित बस्ती उसकी मुट्ठी में रहती है । इसीलिए गांव के शुकुल प्रधान बस्ती की जिम्मेदारी उसी को सौंप दिए है ।
घर का बटवारा इन दोनों के पिता की मौजूदगी में करीब बीस बरस पहले बिना किसी झगड़ा झंझट के आपसी राय से  हुआ था । चंदन के पिता तो पहले ही गुजर गये थे । गणेश के पिता की मृत्यु उसके बंबई जाने के बाद करीब तीन साल पहले हुई थी ।
उसी के बाद चंदन अपने हिस्से का कच्चा मकान गिराकर पक्का बनवाने लगा । चंदन का हिस्सा उत्तर तरफ था और गणेश का दक्षिण  । चंदन पूरा मकान बनवाकर अपने हिस्से के दक्छीणी भाग में तीन फुट छोड़कर दरवाजा लगा दिया । मकान पूरा होने के बाद वह गणेश से उसके हिस्से से दस फुट जमीन मांगने लगा ! जिससे उसके मकान का पिंड पूरा हो जाए । गणेश का परिवार उसके प्रस्ताव को नकार दिया । चंदन ने कुछ दिनों तक शराफत दिखाया फिर धीरे धीरे खुरापात शुरू कर दिया ।
पहले कुछ दिन तक रोज सुबह चंदन की पत्नी अपने हिस्से के तीन फुट जमीन में झाड़ू लगाती फिर धीरे धीरे गणेश के हिस्से में बढ़ने लगी । गणेश के मकान की कच्ची दीवार गिरकर ढुह हो चुकी  थी । एक दिन गणेश की मां ने उसे टोका , “देख , तू सिर्फ अपने हिस्से में झाडू लगाया कर , मेरे हिस्से में क्यो लगाती हो ?”
चंदन की पत्नी कुछ बोली नहीं और चुपचाप अपने घर के अंदर चली गयी । इस तरह रोज सुबह सुबह होने लगा । एक बार गणेश बंबई से एक महीने की छुट्टी पर घर आया था । उसके घर रहते तो कुछ नहीं हुआ लेकिन जिस रोज उसने बंबई के लिए ट्रेन पकड़ा उसी दिन शाम को चंदन फावड़ा से गणेश के घर की मिट्टी काटकर फेकने लगा । उस वक्त गणेश के घर पर कोई नहीं था । किसी ने उसकी मां को खबर दिया । वह पागलो की तरह दौड़ती हुई आयी और ‘ अरे मैया बप्पा ‘ चिल्लाती हुई फावड़े पर गिर गयी । चंदन उससे फावड़ा छुड़ाने की बहुत कोशिश किया लेकिन वह नहीं छोड़ी । अगल बगल के लोगों की भीड़ लग गयी । गणेश की पत्नी और बच्चे भी आ गये । वहां  देखते ही देखते कोहराम मच गया ।
“काहे इतना अनर्गल कर रहे हो चंदन । मेरी जमीन को क्यों कब्जा करना चाहते हो ? ऐसा मैं तुझे हरगिज नहीं करने दूंगी।”
“काकी फावड़ा छोड़ दे ।” चंदन शान्त स्वर में बोला , “यह दस फुट जमीन तुम्हारी नहीं मेरी है।”
“यह तो तुम सरासर बेईमानी बोल रहे हो । आज के बीस बरस पहले तुम्हारे ही बाप ने बांट कर हमे दिया था।”
“बंटवारा इस करार पर हुआ था कि जब मैं घर बनवाने लगूंगा तो तुम दस फुट जमीन छोड़ दोगी।”
“दुहाई पंचों , यह सब झूठ है।’
गणेश की मां भीड़ के सामने हाथ जोड़कर चिल्लाई।
“ऐसा कुछ नहीं हुआ था । इसी के बाप ने बांटकर मेरे मरद को दिया था । वह इसे बड़े भाई का परसाद समझ कर चुपचाप अपने माथे लगा लिए थे।”
वह भोकार मार रो उठी । रोते रोते बयान शुरू कर दी, “मैं तभी गनेसवा के बाबू से कही थी कि इस तरह से बंटवारा सही नहीं है । नात रिश्तेदार बुला लो , पाँच ठो पंच के सामने बटवारा कराना सही होता है लेकिन वह नहीं माने।”
नतीजा यह हुआ कि गणेश को बीच रास्ते से लौटना पड़ा । उसके घर आते ही बवाल शुरू हो गया । पहले मामूली झगड़े से बात शुरू हुई , गाली गलौज हुआ । लाठियां निकली , थाना पुलिस हुआ , पंचायत हुई फिर पैमाइश का दौर शुरू हुआ । जितनी बार मापी हुई उतनी बार जंजीर अलग अलग गिरी । जो पक्ष लेखपाल बुलाता उसका फायदा हो जाता ।
झगड़ा सुलझने के बजाय बढ़ता गया । आखिरी पंचायत में पंचों के सामने डंके की चोट पर चंदन बोला , “मैं कसम खाकर कहता हूँ कि मैं किसी भी कीमत पर कमरा बनवा कर ही रहूंगा । यदि मेरा नहीं बना तो गणेश का भी नहीं बनने दूंगा । जिस दिन उसकी नीव खोदी जायेगी उस दिन मैं कोर्ट से स्टे ले लूंगा।”
दोनों पक्ष थक कर शान्त हो गये  और मौके की तलाश करने लगे  । गणेश भी शांति देखकर बंबई वापस लौट आया
उसके कुछ ही दिनों बाद चंदन को मौका मिल ही गया ।

पहले लॉकडाउन का चौथा दिन था ।
अभी सूरज निकलने में थोड़ी देर थी । गांव रोजमर्रा के कामों में लगा हुआ था । गणेश की पत्नी बर्तन मांज रही थी । उसके दोनों बच्चे पास में ही खेल रहे थे और बुढ़िया गैया को सानी पानी कर रही थी । एकाएक तभी पांच सात मर्द चंदन के साथ  वहां आ धमके । उनके हाथों में फावड़े थे । जबतक कोई कुछ समझता वे नींव खोदने लगे । गणेश के परिवार के ऊपर तो भहरा कर बिजली गिर गयी । वे दोनों बदहवास होकर दौड़ी और चिग्घाड़ती हुई फावड़ों पर  गिर गयी। एकाएक कोहराम मच गया । दोनों बच्चे चीख कर रोने लगे । देखते ही देखते पूरी दलित बस्ती उमड़ पड़ी । लोग दूर खड़े होकर तमाशा देखने लगे ।
वे दोनों औरतें उन मरदों पर भारी पड़ रही थी । दोनों पक्षों में गुत्थम गूत्था बढ़ता जा रहा था । चंदन और उसके आदमी बार बार उन दोनों को खीचकर दूर झिड़क आते लेकिन वे छूटते ही नींव के गड्ढे में लेट जाती । एकाएक चंदन उत्तेजित होकर गणेश की मां का गर्दन पकड़ कर उठा लिया और दूर झटक  दिया । बुढ़िया की नाक से खून की धार बह निकली । यह देखते ही गणेश की पत्नी अगीयाबैताल होकर दौड़ी  और अपने दोनों हाथों से चंदन के  अंडकोष को  मजबूती से पकड़  कर झूल गयी । चंदन को लगा कि अब उसकी जान निकल जाएगी उसे गश आ गयी और वह गिर पड़ा । उसके आदमी दौड़ कर छुड़ाने लगे लेकिन उसमें बला की शक्ति आ गयी थी वह छोड़ने की बजाय और तेज से उमेठती जा रही थी । चंदन की पत्नी उसके ऊपर लगातार मूसल से प्रहार कर रही थी । जब एक मूसल उसके सिर पर पड़ा तो उसकी पकड़ ढीली पड़ गयी ।
खून से लथफथ बुढ़िया हाथ जोड़कर बस्ती वालों से रो रो कर गुहार लगाने लगी, “पंचों , निआव के लिए एक बूढ़ी बेवा मारी जा रही है । आज मेरे घर में कोई मरद मनसेधु नहीं है । मेरा बेटा कहकर गया था परदेस कि वह घर पर भले ही नहीं है । गांव पूरा तो है न । आज वही गांव खड़ा खड़ा तमाशा देख रहा है । कुछ तो निआव करो पंचों ।
बस्ती टस से मस नहीं हुई । नींव की खुदाई का काम तेजी से होने लगा था । गणेश की पत्नी को एकाएक ख्याल आया । वह दौड़ कर मोबाइल ली और 112 नंबर मिलाने लगी । चंदन की पत्नी की नजर उस पर पड़ गयी  । वह दौड़ कर उससे मोबाइल छीन ली । अब वह बिल्कुल असहाय हो चुकी थी ।
वह बभनौटी की तरफ दौड़ पड़ी । वहां वह शुकुल परधान के घर  को छोड़ कर हर दरवाजे पर गयी , हर चौखट पर माथा पटकी लेकिन हर कहीं से एक ही जवाब आया, “लॉकडाउन है । पुलिस बेइज्जत कर देगी।”
वह वही से सीधे पुलिस थाने भागी । थाना बहुत दूर नहीं था । वह सड़क के बजाय सिवान में दौड़ना शुरू की । उसके पैर में चप्पल नहीं थे । साड़ी जगह जगह फट गयी थी । पूरा शरीर मिट्टी से सना हुआ था । वह बप्पा मैया बिलखती हुई बदहवास दौड़ी चली जा रही थी । सिवान में जो भी मिलता, उसके मुंह से अनायास निकल पड़ता , “बेचारी!”
दरोगा कहीं निकलने की तैयारी में था । जीप स्टार्ट थी । उसके हमराही बैठने की तैयारी में थे । तबतक गणेश की पत्नी दौड़ते हुए पहुंची  और दहाड़ मारकर  दरोगा के पैर पर गिर गयी , “दुहाई सरकार , हमें बचा लो । हमारी जमीन को जबरदस्ती  हमारा पट्टीदार बाहरी गांव से गुंडे बुलाकर कब्जा कर रहा है।”
“चुप ! चल दूर हट।” दरोगा तेज आवाज में डांटा और एक साँस में हजार गालियां देते हुए बोला , “दुनियां कोरोना से परेशान है । इसको अपने घर की पड़ी है । चल भाग यहाँ से । हमें फुर्सत नहीं  है।”
दरोगा की डांट से वह डर कर चार कदम पीछे हट गयी थी । वह चुपचाप उसकी डांट और गाली सुने जा रही थी । गाड़ी धीरे धीरे रेंगने लगी । वह उसके साथ दौड़ती हुई गुहार लगाती रही और दरोगा गालियां  देता रहा ।
गणेश की पत्नी एकाएक ताव में आ गयी , “साहब एक बात ही बता दीजिए । जब लॉकडाउन में सारे काम बंद है तो उसको काम कराने का परमिशन कौन दिया । वह जरूर आपसे मिला हुआ है । नहीं तो उसकी इतनी हिम्मत नहीं थी।”
रेंगती गाड़ी से दरोगा कूद पड़ा और गाली देते हुए उसके बाल को पकड़ा औऱ झटक दिया । वह दूर भहरा कर गिर गयी । वह उठ कर बैठते हुए बोली , मुझे खूब मार लो साहेब , खूब गाली दे लो  लेकिन मैं मानने वाली नहीं हूँ । आप नहीं जाना चाहते हो तो मत जाओ । मैं ऊपर जाऊंगी । वहाँ भी सुनवाई नहीं हुई तो सारा दोष आपके मत्थे मढ़ कर पूरे परिवार के साथ जल मरूंगी । मैं जा रही हूँ।”
वह जाने लगी । दरोगा ने डांट कर उसे जीप में बैठाया और हूटर बजाते हुए उसके घर की तरफ चल दिया ।
नींव लगभग खोदी जा चुकी थी । कुछ आदमी ईंट जोड़ने के लिए बालू सीमेंट मिला रहे थे । बुढ़िया कुछ दूरी पर बेबस होकर दोनों हाथ जमीन पर पीट पीटकर चंदन को गालियां और श्राप दे रही थी । दोनों बच्चे उसके पास बैठ कर बिलख रहे थे । बुढ़िया एकाएक उठी और दौड़ती हुई घर के अंदर गयी और मिट्टी के तेल का बोतल उठा लाई । पूरा बोतल अपने ऊपर उड़ेल ली । फिर माचिस लाकर तीली जला दी, “दुहाई पंचों , अब मैं यह अनर्गल नहीं बर्दाश्त कर सकती । इसका मकान अब मेरी कब्र पर ही बनेगा । अब मैं जिंदा नहीं रह सकती । मैं अपने शरीर में आग लगा रही हूँ । इसकी सारी जिम्मेदारी चंदनवा की होगी।”
सभी लोग सकते में आ गये । चारों तरफ सन्नाटा फैल गया । चंदन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी । काम बंद हो गया । अब जाकर बस्ती के लोग हरकत में आये । सभी लोग एक साथ उसे समझाने लगे  और धीरे धीरे नजदीक आकर लोग उसके हाथ से माचिस छीन लिए ।
तभी हूटर की आवाज सुनाई दी । लोगों में भगदड़ मच गयी । चंदन और उसके आदमी घर छोड़कर फरार हो गये । दरोगा चंदन के बंद दरवाजे के सामने काफी फूहड़ गालियां देकर तरह तरह की धमकी देता रहा । इस बीच गणेश का पूरा परिवार मिलकर फावड़े से नींव को  मिट्टी से  पाट दिया और ईंट आदि चंदन के दरवाजे के सामने  फेंक दिया । इसमें उसके दोनों बच्चे भी शामिल थे ।

इन सब बातों को गणेश की पत्नी ने  रो रोकर उसी दिन उससे फोन पर बताई थी । मगर ताज्जुब इस बात का इतना कुछ सुनने के बावजूद उसके शरीर में कोई हरकत ही नहीं हुई । गुस्सा तो रंच मात्र भी नहीं आया । दिमाग की नशें मुर्दा शांति से भर गयी थी । उसके मुंह से मरी हुई फुसफुसाहट निकली थी , “जब दुनियां खत्म ही हो रही है तो उसके पहले दस फुट की जमीन के लिए क्या मरना।” यही सोचकर जब वह इत्मीनान से गले तक चद्दर खीचकर लेटा तो महसूस हुआ कि शरीर का उतना हिस्सा अजगर के पेट में समा गया है ।
यह सब सोचते हुए उसे इतना भी ख्याल नहीं रहा कि वह सड़क के बीचोबीच चल रहा है । वह तो तब चौंक पड़ा जब पुलिस की गाड़ी उसके बगल मे रुककर तेज हूटर बजाने लगी । वह जबतक  भागता पुलिस वाले कूदकर तीन चार लाठी उसकी पीठ पर जमा दिए ।
उस रोज वह देर रात तक सो नहीं सका था । सपने ने उसे अंदर तक झकझोर कर रख दिया था । उसका मन घर जाने के लिए बेचैन हुआ जा रहा था । पता नहीं उसके परिवार वालों के दिन कैसे गुजर रहे होंगे । उसे बच्चों के लिए मोह उमड़ आया । जब से सुना कि अभी लॉकडाउन खत्म नहीं होगा तबसे उसे यही महसूस हो रहा है कि उसकी जिंदगी की जहाज का इंजन फेल हो चुका है और वह धीरे धीरे समुद्र में डूब रहा है। वह घर पर बात करने के लिए बेचैन हो उठा लेकिन मोबाइल में पैसे ही नहीं थे । वैसे दिन में दो एक बार जरूर घर से फोन आ जाता । वह उठकर बैठ गया । बैग खोलकर सामान निकाल कर उसे सहलाने लगा । उसमें मां के लिए साड़ियां थीं । पत्नी के लिए साड़ियों के अलावा और कई चीजें थीं और बच्चों के लिए कपड़ों के साथ खिलौने । वह सब कुछ फैक्ट्री आते जाते समय  फुटपाथ से खरीदा था ।  राह चलते उसे जो पसंद आता उसे खरीद लेता।
सुबह साथियों के जगाने पर नींद टूटी । पता चला कि चाल में स्वास्थ्यकर्मी आये हैं और पूरी चाल के मजदूरों की स्क्रीनिंग कर रहे हैं । वह भी फ्रेश होकर कतार में लग गया ।
जिसको सर्दी जुकाम , बुखार के लक्षण मिलते उसे वे अलग कर देते । ऐसे लोगों के चेहरे पर साक्षात मौत नाचने लगती । फिलहाल गणेश और उसके साथी बच गये । पूरी चाल से वे पचपन लोगों को उठा कर ले गये थे ।
उसके पांचवें दिन दोपहर को मीडिया में जो खबर आयी उसे देखकर पूरी चाल दहशत मे आ गयी। सबकी आंखों के सामने मौत क्रूर अट्टहास करने लगी । पूरी चाल में भयावह सन्नाटा पसर गया । मीडिया चीख चीख कर बता रही थी कि वह चाल नहीं कोरोना बम है । सिर्फ पचपन सैंपल में सात पाजिटिव मजदूर मिले । पूरी चाल को वे सबसे गंदी चाल बता रहे थे ।
सबकी भूख प्यास मर चुकी थी । मौत के सिवा और कुछ नजर नहीं आ रहा था। सभी एक दूसरे को संदिग्ध निगाहो से देख रहे थे । पूरे दिन कहीं से भोजन भी नहीं आया । शाम को पुलिस वाले आये और सोशल डिस्टेंसिंग का सख्ती से पालन करने का निर्देश देकर चले गये । जो इतनी भीड़ में   संभव ही नहीं था ।
रात के दस बज रहे थे । एकाएक पुलिस की दसों गाड़ियां हूटर बजाती हुई आयी और चाल पर टूट पड़ी । लाठियों से टिन के छप्पर को बेमुरौवत पीटने लगी । मजदूरों में खलबली मच गयी। जो जिस हालत में था , अपना बैग उठाया और बाहर की तरफ भागा । पुलिस लाठी से पीट पीटकर सबको खदेड़ रही थी । गणेश भी अपने तीनों साथियों के साथ लाठी खाते हुए चाल से बाहर निकला और मेन रोड पर सरपट दौड़ने लगा  । काफी दूर तक वे पीछे मुड़कर भी नहीं देखे ।
जब  वे हांफते हुए थक कर चूर हो गये तो फुटपाथ पर लड़खड़ा कर बैठ गये । उन चारों को समझ में नहीं आ रहा था कि वे अब जाएं कहां और करें क्या ? सिर्फ बारी बारी से चुपचाप हाँफते हुए एक दूसरे का मुंह निहार रहे थे ।
गणेश आंखो के इशारे से पूछा , अब कहां जाएं ?
उसके तीनों साथी गर्दन झुकाकर हाथ माथे पर रख लिए ।
सन्नाटा उनके बीच में काफी देर तक पसरा रहा । जिसे गणेश ने तोड़ा , “चलो , सेठ के रूम पर चलते हैं।”
“वहाँ  क्यों चले ? उसको इतनी बार फोन किया गया । जब वह फोन ही नहीं उठा रहा है तो हमारी मदद क्या करेगा” भोला चिढ़ कर बोला ।
“नहीं रे , वह ऐसा नहीं है” बिरजू बोला , “जरुर वह किसी मुसीबत में होगा । देखते नहीं थे । जब कभी हमारी तनिक भी तबीयत खराब हो जाती थी । वह कितना परेशान हो जाता था। वह दिन में पाँच बार फोन करता था । जरुर वह किसी परेशानी में होगा बेचारा।”
“हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा उसका रिश्ता सिर्फ मालिक मजदूर का ही नहीं बल्कि बाप बेटे की तरह का भी है । हमें उसके पास चलना चाहिए । हो सकता है कि सचमुच वह किसी मुसीबत में हो और हम उसके काम आ जाएं।”
एकाएक गणेश को हंसी आ गयी। वे तीनों उसे किसी अजूबे की तरह निहारने लगे । गणेश बोला , “अरे मूर्ख , इस समय हम दुनिया के सबसे असहाय लोग हैं । हम किसी की मुसीबत दूर नहीं कर सकते हैं बल्कि उसकी मुसीबत बढ़ा सकते हैं …….फिर भी इस अक्खी बंबई में आज हमारा सबसे बड़ा हमदर्द कोई है़ तो सेठ ही है । चलो चलते हैं।”
वे चारो  सूनी सड़क पर पीठ पर बैग लटकाए अपने सेठ से मिलने चल दिए । रास्ते में कहीं पुलिस की गाड़ी दिख जाती वे झट फुटपाथ पर लेट जाते । रास्ते भर वे पुलिस की लाठी गाली खाते हुए भोर में   सेठ की कालोनी में पहुंचे ।
वह कालोनी क्या थी , पूरी की पूरी कंकरीट की  जंगल थी । एक से बढ़कर एक गगन चुम्बी जगमगाती इमारतें थीं । सब एक तरह की । वह तो गणेश कई बार का आया था नहीं तो इस सूनसान जंगल में वे भटक ही जाते ।
सेठ की बिल्डिंग का सलाखेदार गेट बंद था । गणेश झांक कर देखा तो सभी गार्ड सो  रहे थे । सिर्फ एक कुर्सी पर बैठकर उंघते हुए सुर्ती मल रहा था । गणेश की हिम्मत उसे पुकारने की नहीं पड़ी । वह वापस लौट आया और अपने साथियों के साथ फुटपाथ पर बैठकर सुबह होने का इंतजार करने लगा ।
बहुत मशक्कत के बाद सुबह आठ बजे सेठ से मुलाकात हुई । लाख मिन्नतें करने के बावजूद गार्ड मिलवाने को तैयार नहीं हो रहे थे । शुक्र हुआ कि उसी में से किसी गार्ड ने उनके एरिया का नाम पूछ लिया । जिसे सुनते ही एकाएक वहां पर कई बम एक साथ छूटे । सभी गार्ड छिटक कर दूर हो गये । उनके मुंह से निकला , “भागो यहाँ से भागो । तुम लोग पाजिटिव एरिया से हो।”
वे चारो चुपचाप खड़े रहे ।
“भागोगे या पुलिस बुलानी पड़ेगी ?”
गणेश मौके की नजाकत को समझ गया । वह थोडा़ अकड़ कर बोला, “साहब , चाहे पुलिस बुलाओ चाहे मलेटरी । हम अपने सेठ से मिलने आये हैं । बिना उनसे मिले नहीं जाएंगे।”
गार्डों में हड़कंप मच गया । सेठ का फोन स्विच आफ था । एक गार्ड दौड़ते हुए बिल्डिंग के अन्दर गया ।
गार्ड के साथ सेठ लगभग भागते हुए आ रहा था । पचास पचपन की उम्र , लंबे थुलथुल शरीर पर सफेद पाजामा और बाहदार बंडी थी । उसके चेहरे पर चेचक की दाग थी जिसपर इस वक्त हवाइयां उड़ रही थी । वह दूर से ही हड़बड़ाते हुए बोला , “अरे बाबा , तुम लोग यहां क्यों चले आये ?”
“सेठ , हमने तेरे को कई बार फोन किया । तू नहीं उठाया तो अपुन लोगों ने सोचा कि तू किसी मुसीबत में है । हम तेरी हाल चाल लेने चले आए।” गणेश काफी विनम्रता से बोला ।
“हम ठीक है बाबा । अब तुम लोग यहां  से जाओ।”
“कहाँ जाएं सेठ ? कोई ठिकाना हो तो बताओ।” बिरजू बोला , “हमें तो नरक से भी फेक दिया गया ।  उससे भी बड़ा कोई नरक हो तो हम वहीं चले जाएंगे।”
“हमें जोरों की भूख लगी है सेठ । पहले कुछ खिलाओ।” महेश अपना पेट ऐंठते हुए बोला ।
सेठ झुंझला गया , “बाबा , इस वक्त मैं तुम लोगों के लिए कुछ नहीं कर सकता । मैं खुद कंगाल हुआ हूँ ।”
“अभी कल तक तो आसमान में उड़ रहे थे । बात बात में हमें बरसों बिठा कर खिलाने का सपना दिखाते थे । आज एक ही झटके में जमीन पर आ गये । हमें एक वक्त की रोटी भी नहीं खिला सकते  । कल तक जब तुम्हें हमसे काम लेना था तो बेटा बेटा पुचकारते थे । हमारी तबीयत खराब होने पर दिन में सात बार फोन करके हाल लेते थे । आज जब हमारे उपर विपत्ति आयी तो  तेरा सुर ही  बदल गया । तुम तो एकदम से स्वार्थी निकले।”
“तुम लोग मेरी मजबूरी नहीं समझ रहे हो गणेश । हमें तो खुद की रोटी की चिंता सता रही है । फिर तुम लोग मेरे यहाँ काम किए मैं तुम लोगों को मजदूरी दिया । इससे अधिक और मैं कर ही क्या सकता हूँ । इतनी बढ़िया मजदूरी के बावजूद भी तुम लोग आत्मनिर्भर नहीं बन सके । इसमें मेरा क्या दोष है । इससे बढ़िया जिंदगी तो भिखारियों की है।”
गणेश भड़क गया , “देखो सेठ , अब तुम हमारी बेइज्जती कर रहे हो । हम भिखारी नहीं मजदूर हैं । तेरी फैक्ट्री में हम बारह बारह  घंटे कमरतोड़ मेहनत करते हैं तो तुम मजदूरी देते हो । वह भी उतनी ही जितने  में हम और हमारा परिवार साँस ले सके । इस बात को तुम अच्छी तरह से जानते हो कि जिस दिन हम आत्मनिर्भर बन गये । उस दिन से तुम आसमान में उड़ना बंद कर दोगे । अब ऐसा करो । हमारी जो मजदूरी बाकी है उसी को दे दो । हम अपना रास्ता खुद ही तलाश लेंगे।”

“मैंने कहा न बाबा ! मैं खुद कंगाल हुआ हूँ । आज मेरे पास इतने भी पैसे नहीं हैं कि बच्चों के लिए दूध खरीद सकूं।तुम लोग जाओ । जिस दिन फैक्ट्री खुलेगी उसी दिन तुम लोगों का पाई पाई चुकता कर दूंगा । अब तुम लोग जाओ । कहीं सोसायटी वाले हंगामा न खड़ा कर दे ।”
वे चारो कुछ देर तक सेठ को घूरते रहे । गणेश बोला , “तू डर रहा है सेठ कि अब हम वापस नहीं आएंगे । तेरा डर सही भी है । अब हम इस नरक कुंड में कभी नहीं आएंगे”
सेठ पहली बार मुस्कराया , “तुम जरूर  लौटोगे । हमने तुम्हारा पेट इतना बड़ा कर दिया है कि उसे  तेरा गांव कभी भर ही नहीं सकता और न ही वह सम्मान ही दे सकता जो हमने दिया।”
वे उसकी तरफ चुपचाप देखते रहे । इतने मे बिल्डिंग के तमाम टैरसों से उन्हें भगाने की आवाजें आने लगी । सेठ पीछे हटते हुए बोला, “जाओ बाबा अब तुम लोग जाओ । ईश्वर से विनती करो कि फिर जल्दी मुलाकात हो।” वह घूमकर तेज कदमों से आगे बढ़ गया । वे उसे देखते रह गये ।
एक गार्ड बहुत विनम्र आवाज में बोला , “जाओ बेटा , तुम लोग वापस अपने घर लौट जाओ । अब यह शहर तुम लोगों को कोई ठिकाना नहीं दे सकता । सुना है आज बांद्रा से कई ट्रेनें चलने वाली हैं।”

दोपहर के बाद ये चारो भी बांद्रा रेलवे स्टेशन के सैलाब में समा गये । मजदूरों की इतनी भीड़ वे कभी कल्पना में भी नहीं सोचे थे । उसके बावजूद भीड़ लगातार बढ़ती ही जा रही थी । सभी के चेहरे पर गहरी बेचैनी थी । किसी भी कीमत में अपने गांव पहुचने की बेताबी थी ।हर कोई एक दूसरे से जानकारी ले रहा था लेकिन मुकम्मल जानकारी किसी के पास नहीं थी । सब लोग सिर्फ इतना ही जानते थे कि आज ट्रेन चलेगी ।   असमंजस लगातार बढ़ता ही जा रहा था । धीरे धीरे वहां  पुलिस फ़ोर्स भी  बढ़ती जा रही थी । एनाउंस हुआ कि कोई ट्रेन नहीं जा रही है । सब अफवाह है लेकिन भीड़ टस से मस नहीं हुई । धीरे धीरे सबका दिल बैठने लगा । कुछ ही देर बाद लाठी चार्ज का सिलसिला शुरू हो गया । भीड़ कभी इधर भागती तो कभी उधर । आखिर में भगदड़ की स्थिति   हो गयी । गणेश अपने साथियों सहित किसी तरह से पुलिस की लाठी खाते हुए भीड़ से बाहर निकला और भागते हुए  स्टेशन से काफी दूर जा कर वह फुटपाथ पर बैठ गया  ।
एक उम्मीद थी । वह भी चली गयी । अब  उनके सामने निराशा के सिवा कुछ भी नही बचा  था । जिस बंबई को वे ममतामयी मां की तरह जानते थे । जिसका दूध उन्हें अमृत सरीखे लगता था आज वही एक कुरूप और बेहद अश्लील दिखाई देने लगी थी । अब इसका  रूप पौराणिक कथाओं की डायन जैसा लग रहा था । जिसके हर अंग से  मवाद बह रही थी और नुकीले पंजे उनकी गर्दन मरोड़ने और बड़े बड़े दांत उनके खून पीने को कदम कदम पर आतुर थे ।
वे चारो देर तक खामोश रहे सिर्फ पानी मरी आंखों से एक दूसरे से पूछ रहे थे कि अब क्या होगा ?
गणेश ने एकाएक धमाका किया , “हमें यह शहर छोड़ देना होगा । यह अब हमें जिंदा नहीं रहने देगा । मेरा तो यहाँ   दम घुट रहा है । मुझे तो इस शहर से घृणा हो रही है़ । अब हमें तुरंत इसी वक्त अपने गांव के लिए चल देना चाहिए।”
वे सब उसका मुंह निहारने लगे । महेश कराहते हुए बोला , “गांव बहूत बहूत दूर है गणेश । ट्रेन से हम तीसरे दिन पहुंचते है।”
“कोई दूरी नहीं है । बीते जमाने में हमारे गांव का एक परिवार रंगून से पैदल  घर चला आया था । जब  हमें मरना ही है तो इस परदेस में क्यों मरें । हो सकता है कि हम अपने गांव घर का मुंह ही देख ले”
“जब हम उस स्वार्थी सेठ के लिए बारह  घंटे मेहनत कर सकते हैं तो उतने ही मेहनत में हम अपने परिवार के लिए बहूत दूर चल भी सकते है।” बिरजू बोला
“लेकिन अब हम भूखे पेट है।”
रास्ते में तमाम गांव पड़ेंगे । आज भी गांव मौका पड़ने पर भूखों का पेट भर ही देते हैं। वे हमारा भी भरेंगे । इतना तो उनपर भरोसा करना ही होगा।” भोला ने तसल्ली दिया ।
वे चल पड़े अपने गांव और शामिल हो गये उन लहरों में जो सुनामी बनकर शहर में आया और गांव को सड़कों पर खदेड़ दिया । आज भी बंटवारे का ही दृश्य था । फर्क सिर्फ इतना था कि आज किसी मुल्क का बंटवारा नहीं था , शहर और गांव बँट रहे थे । गांव कभी सोचा नहीं था कि जिस शहर को समृद्ध करने  में उसने अपनी तमाम पीढ़ियों की बलि चढ़ा दी ।
आज वही शहर बेरहमी से धक्के मारकर अपनी चौखट से बाहर खदेड़ देगा।
हाईवे पर चलते हुए तीन दिन हो गये थे । उनके साथ सैकड़ों लोगों का झुंड था । उनमें से तमाम लोग आराम करने के वास्ते रुक जाते और फिर पीछे वाले झुंड में शामिल हो जाते । रास्ते में कहीं कहीं भोजन की वैन खड़ी रहती । जिससे आंत सूखने से बच जाती । लोगों की तकलीफें नहीं देखी जाती फिर भी लोग एक दूसरे की मदद करते हुए आगे बढ़ रहे थे ।
शाम के लगभग आठ बज रहे थे । तीन बूढ़े सरदार समूह का रास्ता रोक लिए और विनती करते हुए सभी से आग्रह किए कि बगल मेें एक बाग है । वहां पर लंगर चल रहा है । सभी लोग चलें । भोजन लें । रात में आराम करें फिर सुबह आगे की यात्रा शुरू करें ।
सभी लोग बाग की तरफ मुड़ गये ।
वह बाग काफी बड़ी थी । जिसमें सैकड़ों लोग तितर बितर होकर आराम कर रहे थे । करीब बीस
पचीस लोग बड़े बड़े बर्तनों में खाना पका रहे थे । कुछ लोग गर्म पानी और दर्द निवारक मलहम बाट रहे थे । गणेश भी अपने साथियों सहित एक खाली जगह पर बैठ गया ।  गर्म पानी से पैर धोने के बाद मलहम लगाने पर काफी राहत मिली । वे वही लेट गये । उन्हीं के कुछ दूरी पर पांच चारपाइयाँ बिछी हुई थी । जिसपर कुछ लोग बैठकर दुनियां जंहान की बातें कर रहे थे । काफी देर से चुप एक आदमी बूढ़े सरदार जो सबका मुखिया लग रहा था , से पूछा , “दादा ‘, मैंने प्रवासी पछी सुना था लेकिन प्रवासी मजदूर पहली बार सुन रहा हू । ये प्रवासी का मतलब क्या है”
बूढ़ा सरदार जोर से ठठाकर हंसा , “पुत्तर , बस इतना समझ लो कि जो वोटर है लेकिन वोट नहीं दे सकते उन्हें प्रवासी बताया जा रहा है। जैसे ये मजदूर। ये वोटर तो है लेकिन अपने गांव मे । जब वोट देने का समय आता है तब ये परदेस मे होते हैं और  वोट नहीं दे पाते । इसलिए देश की राजनीति में इनका कोई वजूद नहीं है । जिस तरह वन नेशन वन राशन कार्ड की बात होती  है । यदि उसी में यह भी जुड़ जाता कि वन नेशन वन राशन कार्ड वन वोटर कार्ड तो आज इनकी यह हालत नहीं होती । तब पैदल ये अपने घरों को न जाते । जाते भी तो इनके ऊपर हेलीकाप्टर से फूलों की बरसात होती और जगह जगह पर इनके पांव पखारे जाते।”
“तब तो ये अबकी बार  चुनाव में अपने घर रहेंगे और सरकार से बदला लेंगे।”
बूढ़ा सरदार दिल खोलकर हंसा , “तब तक ये गांव में रुकेंगे ही नहीं फिर ये इसी नरक लोक में लौट आएंगे।”
“लेकिन गाँवों में पैसा बहुत जा रहा है़।”
“देखना सब अखबारों और दलालों के पेट में रह जाएगा । उस पैसे से महीने भर भी इनका पेट नहीं भरेगा और ये गांव छोड़ कर वापस भाग आएंगे।”
दूसरे दिन भोर में जब ये आगे को चलने को हुए तो शरीर की सारी थकान मिट चुकी थी । इतना अपनापन घर के अलावा और कहीं नहीं मिला था । वे भावुक होकर बूढ़े सरदार के पैरों पर झुक गये । रास्ते के लिए इन्हें पोटली भर कर सूखा गुड़ और चना  मिला । ये उसी के सहारे आगे के लिए निकल पड़े ।
अब वे हाईवे छोड़कर गांव के रास्ते पकड़ लिए थे  । इसका फायदा यह हुआ कि उन रास्तों पर कोई न कोई ट्रैक्टर ट्राली या कोई वाहन मिल जाता । वे बुलाकर मुफ्त में बिठा लेते । कुछ दूर के लिए राहत मिल जाती । रास्ते में तरह तरह के लोग मिले । तरह तरह के गांव मिले । कुछ गांव ऐसे मिले जो लाठी लेकर खड़े हो गये लेकिन तमाम गांव ऐसे भी मिले जो घर घर से रोटी इकट्ठा  कर उन्हें खिलाए भी ।
दोपहर के दो बज रहे थे । वे सुनसान रास्तों पर चले जा रहे थे । अब उस झुंड मे सिर्फ दस लोग बचे थे । और लोग कई झुंड मे बंट कर दूसरे रास्ते पकड़ लिए थे । दो दिनों से तनिक भी खाना नहीं मिला था । सरदार जी का गुड़ भी आखिरी था । जिसे रह रहकर वे चाट कर पानी पी लेते । एकाएक महेश बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़ा और पेट पकड़ कर छटपटाने लगा । सबके तो होश उड़ गये । किसी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था । गणेश पानी से उसका मुंह धोने लगा । भोला पेट पकड़ कर सहलाने लगा । साथ के और लोग भी सहायता में लग गये । महेश निढाल हो गया । एक स्थानीय राहगीर से पता चला कि वहां से चार किलोमीटर दूर एक छोटी सी बाजार है़ । वही पर एक डाक्टर बैठता है़ ।
उसके निढाल शरीर को गणेश और भोला अपने कंधे पर लादकर सरपट बाजार की तरफ दौड़े । उनके पीछे और लोग भी उतना तेज चलने लगे ।
महेश की हालत देखकर डाक्टर को लगा कि इसको कोरोना हुआ है़ । वह इलाज करने से इनकार कर दिया । वे बेबस होकर महेश को फुटपाथ पर लिटा कर पानी पिलाने की कोशिश करने लगे । बाजार की भीड़ इकट्टा होने लगी । उसी भीड़ में से एक आदमी दौड़कर ग्लूकोज का  पैकट  ले आया । गणेश उसको थोड़ी थोड़ी महेश के मुंह में डालने लगा । करीब आधे घंटे बाद उसके शरीर में हरकत हुई और वह आंखे खोल दिया । कुछ देर बाद जब महेश अपने को सामान्य महसूस किया तो वह निरीहता से बोला , “तुम लोग जाओ । मैं अभी चल नहीं सकूंगा । जब चलने लायक हो जाऊंगा तो मैं भी घर आ जाऊंगा।”
“तुम्हे अकेला छोड़कर भला हम कैसे जा सकते है़।” गणेश बोला , “तब तक हम लोग भी रुक जाते है़ं । हम सभी एक साथ गांव चलेंगे।”
महेश उनको चले जाने की जिद्द करने लगा । बाजार के लोगों ने सुझाया कि बगल में एक कबीर मठ है़ । वहां पर खाने रहने की अच्छी व्यवस्था है़ । आप लोग वही चले  जाओ । जो भी कुछ करना हो कल सुबह कर लेना।”
वे कबीर मठ के लिए चल दिए ।

दूसरे दिन जब वे मठ से चले तो वे सिर्फ तीन थे । मठ की व्यवस्था देखकर वे महेश को कुछ दिनों के लिए वही छोड़ दिए ।
वे चलते रहे । भोर से यात्रा शुरू करते देर रात तक चलते रहते । बीच में तनिक देर तक आराम कर लेते फिर चलने लगते । रास्ते में दूर दूर तक जंगल पड़े । नदियां पड़ी । खेत खलिहान और बगीचे पड़े । ऊंचे ऊंचे पहाड़ पड़े । सबको निहारते लांघते वे आगे बढ़े जा रहे थे । जंगल के बीच से गुजरते हुए बिरजू बोला था , “हमारा देश सचमुच सोने की चिड़िया है़ गणेश।”
“उस चिड़िया से क्या फायदा जब हमें जलालत की जिंदगी ही जीना है़।” भोला ने बोला । गणेश खामोश रहा ।
महेश से अलग हुए उन्हें पांच दिन हुए थे । वे पहाड़ से उतर कर मैदानी इलाके में चल रहे थे । सांझ की बेला थी । पत्थर की पतली सड़क के किनारे ऊंचे ऊंचे पेड़ों की आड़ में सूरज डूबने की तैयारी में था । उसकी सिंदूरी रोशनी पेड़ों के झुरमुटों से छनकर धरती पर पड़ रही थी । इस अलौकिक सौंदर्य में डूबे वे उस एकांत में निरंतर आगे बढ़ रहे थे । कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक तिराहा पड़ा। तिराहे पर एक चाय की दुकान थी । जिसका चूल्हा बुझा हुआ था । गुमटी के सामने दोनों तरफ पत्थर की पटिया का बेंच था । जिसपर एक अधेड़ आदमी बीड़ी पीते हुए दुकानदार से बातें कर रहा था । उसकी नजर जब इन तीनों पर पड़ी तो वह इन्हें बुला लिया , “आओ बच्चों , कुछ आराम कर लो ।”
इन्हें भी आराम की जरूरत महसूस हो रही थी । ये तीनों चुपचाप जाकर सामने की बेंच पर बैठ गये। अधेड़ के इशारे पर  दुकानदार ने उनके सामने  ढेर सारे बिस्किट रख दिया और स्टोव पर बिना दूध की चाय बनाने लगा । इस बीच अधेड़ उनसे ढेर सारी जानकारियां लेता रहा । चाय पी लेने के बाद उसने कहा, “देखो बच्चों ! अब रात होने वाली है़ । आगे रास्ता भी सुनसान मिलेगा । गांव भी काफी दूर दूर है़ । रात में सड़क पर जंगली जानवर भी घूमते है़ं । मेरा कहा मानो , आज मेरे घर रात  विश्राम कर लो । कल भोर मे निकल जाना।”
वे इंकार नहीं कर सके ।
वह सड़क से थोडा़ हटकर करीब तीस घरों का बड़े बड़े पेड़ों से घिरा काफी खूबसूरत गांव था । एक दूसरे से थोड़ा हटकर हर किसी के  पक्के दोमंजिला मकान थे  । हर दरवाजे पर पेड़ और बहुत गहरे कुएं थे । पूरे गांव में जानवर और आदमी दोनों बहुत कम दिखाई दे रहे थे ।
इसी तरह का मकान उस आदमी का भी था । जो गांव के किनारे था । उसके घर से लगे चौदह बीघे का कंटीले तारों से घिरा खेत था । जिसकी मेड़ों पर इमारती लकड़ी के ऊंचे ऊंचे पेड़ थे । घर के बगल में ट्यूबबेल था और ट्रैक्टर भी खड़ा था । गणेश ख्याल करने लगा कि उसके गांव जवार में इतना संपन्न किसान कौन है़ ।
वे तीनों ट्यूबवेल पर नहाकर दूसरे कपड़े बदले । घर के दरवाजे पर ही लकड़ी पर अपने हाथो खाना बनाए । वह अधेड़ आदमी भी उन्हीं के साथ खाया था । उसका नाम शिव प्रसाद था । जिसे गांव में लोग शिवा सेठ कहते थे । वह काफी खुले दिल का था । जब तक खाना बना तबतक वह अपने परिवार के बारे में बता डाला ।
वह सगे चचेरे नौ भाई है़ं । बंबई में सबका अलग अलग धंधा है़ । वहां तो सभी अलग रहते है़ं लेकिन गांव में आने पर सबका चूल्हा एक हो जाता  । गांव में कोई नहीं रहता है़ । लेकिन बच्चों की शादी वे गांव से ही करते है़ं । उसी में सभी लोग एक साथ इकट्टा होते है़ं । खेती या तो परती रह जाती है़ या बटाई पर दे दी जाती है़ । खाने पीने की तकलीफ के बावजूद शिवा सेठ साल में तीन चार चक्कर गांव का लगा ही लेता है़ ।
खाने के बाद शिवा सेठ उन तीनों को छत पर सोने को भेज दिया । रात में कोई दरवाजे पर जंगली भेड़ियों के डर से नहीं सोता है़ ।
शिवा सेठ भोर में उन लोगों को विदा करते समय लंगर वालों की तरह चना और गुड़ दिया । जब वे चलने लगे तो सेठ ने बीड़ी सुलगाते हुए किसी याचक की तरह बोला , “मेरा एक काम है़ । क्या इसमें से कोई कर सकता है़ ?”
वे तीनों उसका मुंह निहारने लगे ।
“देवी मां की कृपा से हमारे पास सब कुछ है़ लेकिन यह पुश्तैनी दरवाजा सूना रहता है़ । संध्या को चौखट पर दीपक नहीं जलता । मैं चाहता हूँ कि तुम लोगों मे से कोई एक यहाँ रह जाता तो मेरी यह समस्या हल हो जाती । खेती बारी भी कायदे से होती और घर खलिहान भी सुरक्षित रहते । रहने के लिए पूरा मकान तो है़ ही , ठीक ठाक सैलरी भी दूंगा । यदि इच्छा होगी तो अपना परिवार भी बुला लेना।”  इतना कह कर वह बीड़ी के लंबे लंबे कश खीचने लगा
वे तीनों कंधे पर से बैग उतार कर चारपाई पर बैठ गये और गर्दन झुकाकर चुपचाप सोचने लगे । कुछ देर बाद गणेश बोला , “भोला ! तेरा क्या इरादा है़ ?”
“तुम तो जानते ही हो कि जिम्मेदारी के काम में मैं थोडा़ कमजोर हूँ । मैं सेठ को धोखा नहीं देना चाहता हूँ । मेरी समझ से बिरजू सही रहेगा।”
बिरजू सेठ के घर पर रुक गया और उन सभी से वादा किया कि यहाँ काम संभालने के पहले वह घर जरूर आयेगा ।
अब बचे दोनों अपने गांव के लिए निकल पड़े। वे जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे अपने गांव की माटी की महक तेज होती जा रही थी । शरीर थक कर निढाल थे । पैर सूज चुके थे । तमाम छाले फूट कर बह रहे थे । गणेश को सेठ के ट्यूबबेल का पानी नुकसान कर दिया था । उसको सर्दी जुकाम का असर होने  लगा था । कभी कभी हल्की खांसी भी आ जाती । फिर भी अपना गांव उन्हें खींचे लिए जा रहा था । बाल दाढ़ी जटा जूट हो चुके थे । पूरा शरीर धूल से सना हुआ और कपड़े चिथड़े थे । यदि वे खुद को आईना में देख ले तो फफक कर रो पड़ेंगे । रास्ते भर जमाना उन्हें किसी बैरागी की तरह देखता  रहा था ।

छब्बीसवे दिन वे अपने गांव पहुंचे ।
रात के दस बज रहे थे । चांदनी रात थी । खेत की मेड़ के दोनों तरफ खाली सिवान चुपचाप सो रही थी । गणेश अपने गांव की सरहद पर पहुंच कर खड़ा हो गया । वह भोला के कंधे पर हाथ रखकर बोला , “चल , रात मेरे घर तू रुक जा । कल सुबह सायकिल से अपने घर चले जाना ।”
“नहीं रे , अब तो सिर्फ सात कोस की दूरी बची है़।” भोला बड़े प्यार से बोला , “अब मुझे घर की याद  ज्यादा ही सताने लगी है़ ।”
“ठीक है़ । फिर जल्दी किसी दिन आना । बैठकर सोचा जाएगा कि आगे क्या किया जाए ।”
“मैंने तो सोच लिया है़ गणेश । यदि लॉकडाउन जल्दी खुल गया तो बंबई वापस जाना ही पड़ेगा । नहीं तो अपना पुराना वाला धंधा तो है़ ही । उसी को फिर शुरू करूंगा ।”
“अरे , तेरा कोई धंधा भी था क्या । कभी तूने बताया ही नहीं ।”
“धंधा ही ऐसा था कि जो किसी को बताने लायक ही नहीं था ।”
“ऐसा भी क्या था । जो तुम मुझसे भी नहीं बता सकते।”
“भोला मंद मंद मुस्कराते हुए धीरे से फुसफुसाया , “छिनैती ।”
गणेश उसे अपलक देर तक देखता रहा ।
“हां गणेश , मैं छिनैती करता था । बेरोजगारी से लाख भली चोरी ही । बहुत अच्छा धंधा था लेकिन घर वालों ने जबरदस्ती मुझे बंबई भेज दिया ।”
वे जब अलग हुए तो उनकी आंखों में आंसू थे ।

गणेश जिस सिवान में चल रहा था । वह गांव के पिछवाड़े की थी । जहाँ से बस्ती चाँदनी रात में किसी बड़ी कब्र की मानिंद लग रही थी । रास्ते में बरगद का बहुत विशाल पेड़ था । जिस पर असंख्य चमगादड़ें लटकी हुई थी । उसके मोटे तने के चारो ओर ऊंचा पक्का चबूतरा था। जिसपर घोड़े पर सवार भाला लिए डीह की मूर्ति थी । गांव आने या बाहर जाने के लिए डीह का पैर छूकर इजाजत लेना गांव की  परम्परा में है़ । उस दिन भी वह पैर छूने के लिए आगे बढ़ा लेकिन मन विरक्ति सा हो  गया । वह पैर छूने के बजाय चबूतरे पर बैठ गया । वह अपने घर के बिलकुल करीब था, फिर भी पैर एक कदम भी आगे बढ़ने के लिए तैयार नही थे । चबुतरे के बगल में एक पोखरा था । जिसमें पानी बिल्कुल ही नहीं था और उसमें नीलगायों के कई झुंड बैठे हुए थे । इसी पोखरे के कारण उसे अपना गांव छोड़ना पड़ा था ।
मनरेगा के तहत  पोखरे की खुदाई होने वाली थी । शुक्ला नया नया प्रधान हुआ था । जीत की खुमारी उसके सिर चढ़ कर बोल रही थी । खुदाई वह मनरेगा मजदूरों के बजाय जेसीबी से कराने लगा । गणेश की अगुआई में बस्ती से पचासों मजदूर पोखरे पर जाकर जेसीबी का विरोध करने लगे । वे जेसीबी के सामने लेट गये ।गांव में इस तरह का विरोध पहली बार हुआ था ।बभनौटी में शुक्ला के विरोधी भी मजदूरों के खिलाफ लामबंद हो गये ।   शुक्ला प्रधान ने पहले तो तरह तरह का आश्वासन दिया । जब मजदूर नहीं माने तो उसके आदमियों ने लाठी डंडे से हमला बोल दिया । सारे मजदूर भाग खड़े हुए । गणेश को पकड़ कर उसकी जबरदस्त पिटाई हुई थी । पूरे गांव का एक भी आदमी उसे अस्पताल पहुचाने वाला नहीं मिला था । सौ नंबर बुलाकर उसकी मां और पत्नी उसे अस्पताल ले गये थे । बाद में गणेश कोर्ट कचहरी, थाना पुलिस बहुत दौड़ा लेकिन शुक्ला के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं हुई । धीरे धीरे उसका मन गांव से खिन्न होने लगा और एक दिन वह गांव छोड़ दिया ।
वह घिसटते हुए बस्ती में घुसा । पूरी बस्ती सो रही थी । उसे देखकर कुछ कुत्ते भौंक कर शान्त हो गये । वह अपने दरवाजे पर पहुंचा और नीम के पेड़ के पास चुपचाप खड़ा हो गया । खंडहर पर दो चारपाई बिछी हुई थी । एक पर उसकी मां और बेटा और दूसरी पर उसकी पत्नी और बेटी सोई हुई थी । गणेश का कलेजा बच्चों को चिपका लेने को हूलास मारने लगा । उसे देखकर गैया उठ खड़ी हो गयी और उसे सूंघकर धीरे धीरे ओं ओं करने लगी । गणेश उसके नजदीक जाकर सहलाया तो वह उसे चाटने लगी । गणेश कंधे से बैग उतार कर जमीन पर बैठ गया और पीठ नीम के पेड़ के तने से टिकाकर टुकुर टुकुर अपने सोए परिवार को निहारने लगा । उसके दिल में जज्बात हिलोरे मार रहा था और आंखें बरस पड़ने को आतुर थी लेकिन वह सब्र करते हुए बहुत कातर स्वर में पुकारा , “माई !”
एकाएक बूढ़ी छातियों  में दूध के अनगिनत सोते फूट पड़े । जवान कलाइयों में चूडियां खनखना उठी ।बच्चों के सपनो में रंग बिरंगे खिलौने तैर उठे । वे एक साथ चीख कर उठे और गणेश से लिपट गये । एकाएक करुण रुदन से रात का सन्नाटा भंग हो गया और सारा गांव जाग गया । उसका पूरा परिवार  गणेश के शरीर को  सहलाने लगा , चूमने लगा । धीरे धीरे बस्ती के लोग इकट्ठा होने लगे और थोड़ी ही देर में काफी भीड़ हो गयी । गणेश बिल्कुल खामोश था और पूरा परिवार बिलख बिलख कर रो रहा था ।
आधे घंटे के भीतर ही शुकुल परधान अपने करीब दस लठैतों के साथ आ धमका । उसके बगल में चंदन भी था । एकाएक दसों टार्च की रोशनी गणेश के मुंह पर पड़ी और वह चूधिआ गया । परिवार भी  सहम कर उससे थोड़ा अलग हो गया । शुकुल परधान कड़ी आवाज में बोला , “का रे गनेसवा ! मेरे गांव में कोरोना फैलाएगा क्या तुम ? नाक उठाए सीधे गांव में घुस गये । पहले कोरोना सेण्टर जाकर जांच करानी चाहिए थी न । तुम गांव को अपनी खाला का घर समझ कर सीधे चले आये । चल उठ । गांव से बाहर निकल जा । जब तक तेरी जांच नहीं हो जाती तब तक तुम गांव में नहीं घुस सकते ।”
“ऐसा कैसे होगा बाबा।” गणेश की मां भी ऐंठ कर बोली , “ये कहाँ का नियाव है़ कि बभनौटी के परदेसी आवें तो सीधे चूल्हा में घुस जाए और हमारे लड़के गांव बाहर । एक ही गांव में दो कानून नहीं चलेगा शुकुल बाबा । मैं तो अपने लड़के को हरगिज नहीं जाने दूंगी ।”
“जो तेरी सात हाथ की जुबान लपर लपर चल रही है़ । उसे अभी बंद कराता हूँ ।” शुक्ला गुस्से में पाकेट से मोबाइल निकालते हुए बोला । वह मोबाइल पर किसी से बात करने लगा , “…सर मेरे गांव की दलित बस्ती में एक लड़का बंबई से लौट कर आया है़ …उसके ऊपर कोरोना के सारे लक्षण स्पष्ट दिखाई दे रहे है़ं । फिर भी वह  जांच के लिए नहीं तैयार हो रहा है़ …सारा गांव उसे हटाने के लिए उग्र है़ …मैं किसी तरह सबको शान्त किए हूँ …यदि आप जल्दी नहीं आएँगे तो गांव वालों को संभालना मेरे लिए मुश्किल होगा ।”
करीब बीस मिनट में पुलिस की गाड़ी और एंबुलेंस हूटर बजाती हुई आयी और गणेश के दरवाजे पर चरमरा कर खड़ी हो गयी । पूरा दरवाजा लाल नीली रोशनी से नहा उठा ।
मेडिकल टीम ने गणेश का चेक अप किया तो उसे सर्दी जुकाम , बुखार , खासी सब कुछ मिला । पुलिस उसे एंबुलेंस में बैठाने के लिए दबाव बनाने लगी तो  बुढ़िया गणेश की कमर पकड़ कर झूल गयी । वह रोते हुए चीखी , “ऐसा क्यों करते हो साहब ! इसी पंडिताना में तीसो लोग आये है़ं । कभी कोई पूछने तक नहीं  गया । शुकुल बाबा मेरे लड़के से पुरानी अदावत साध रहे है़ं सरकार । मेरा बेटा इतनी दूर पैदल चल कर आया है़ । उस पर रहम करो मालिक  ।”
गणेश के दोनों बच्चे और पत्नी भी दहाड़ मार कर रो रही थी ।
“बुढ़िया, छोड़ दे उसे।” दरोगा ने जोर से डपटा, “नहीं तो उसपर कोरोना फैलाने के जुर्म में केस हो जाएगा । तब सीधे जेल में ही जगह मिलेगी ।”
“साहब ! सिर्फ इसे ही नहीं , इसके पूरे परिवार को ले जाएं । ये सभी उससे लिपट कर चूम चाट रहे थे ।”
काफी हील हुज्जत और दबंगई  के बाद पुलिस लाठियों से ठेल कर पूरे परिवार को एंबुलेंस में बैठा लिया । अकेली गैया खूटे पर डकारती रही ।
गांव से कुछ दूरी पर बहुत बड़ा ऊसर था । जिसके बीच में एक निजी कालेज था । उसी को कोरोना सेन्टर बनाया गया था । उसी में इन्हें लाक कर दिया गया । सेन्टर में पहले से बीस लोग थे । जिसमें अधिकांश बाहर से आये मजदूर ही थे ।
दस दिन बाद रिपोर्ट आयी थी । इस बीच न तो कोई गांव का और न ही कोई रिश्तेदार उनसे मिलने आया था । रिपोर्ट उसके परिवार के ऊपर वज्र बनकर गिरी । सभी लोग भयानक सदमे में चले गये । परिवार की तो निगेटिव थी लेकिन गणेश की पाजिटिव आ गयी । परिवार को कुछ जरूरी हिदायते देकर छोड़ दिया गया लेकिन गणेश को जिला अस्पताल में भर्ती होना पड़ा ।

जिनका जीवन हमेशा गरीबी और मुफलिसी  में गुजरता हो उन्हें सरकारी तकलीफों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन जब वही तकलीफ उसके रसूख की वजह से मिलती है़ तब इंसानी वजूद को जबरदस्त धक्का लगता है़ । गणेश को लगातार कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा था । उसे बार बार यह बात चुभ रही थी कि वह बंबई में मजदूर था लेकिन गांव आते ही वह जाति में तब्दील हो गया । उसी हिसाब से उसके साथ व्यवहार भी किया जा रहा था ।  कोरोना सेन्टर और यहाँ अस्पताल में भी लगातार वह अपने को रसूखदार मरीजों के बीच उपेक्षित महसूस कर रहा था । ऐसा तो चिड़िया घर में पशुओं के साथ भी नहीं होता है़ ।
वह अपने वार्ड के बिस्तर पर लेटकर तमाम ऊल जलूल बातों को सोच रहा था । वार्ड के मरीजों के बीच लगभग नहीं के बराबर बात होती । वार्ड के बाहर भी जरूरत के हिसाब से निकलना होता । मेडिकल स्टाफ और पुलिस गार्ड की छन कर आने वाली बातें काफी डरावनी होती । उन बातों से लगता कि अब उसका मौत से बचना मुश्किल है़ । वह अन्दर तक हिल जाता । उसे अपने परिवार की चिंता सताने लगती । कभी कभी वह दिल खोलकर रो लेना चाहता लेकिन जगह ही नहीं मिलती । फिर एकाएक उसको विचार आता कि इस बर्बर दुनियां में वह जी कर ही क्या करेगा जब कि वह मौत के मुहाने पर खड़ा है़ और कोई सगा संबंधी उसको देखना तो दूर उसकी हाल चाल भी नहीं ले रहा है़ । तभी गार्ड आकर बताया कि कोई उससे मिलने आया है़ ।
उसे तनिक तसल्ली हुई । वह मास्क लगाकर बाहर निकाला । सलाखे दार बंद गेट के उस पार मास्क लगा कर चंदन खड़ा था । उसे देखते ही गणेश को थोड़ा झटका लगा फिर वह भावुक हो उठा। जंहा कोई नहीं आया वहां अपना खून तो आया न । भले ही वह आज दुश्मन हुआ है़ । खून का रिश्ता बहुत मजबूत होता है़ । मुसीबत में वह नजदीक खींच  ही  लाता है़ ।
गणेश बंद गेट के पास जाकर खड़ा हो गया और चुपचाप पनीली आंखों से उसे निहारने लगा । कुछ देर की खामोशी के बाद चंदन बोला , “गणेश, दिल नहीं माना तो चला आया । सोचा तुझे कल को कुछ हो गया तो जिंदगी भर के लिए पश्चाताप रह जाएगा ।”
गणेश कुछ नहीं बोला । वह अपनी नजरें उसके चेहरे से हटा लिया । थोड़ी देर चुप रहने के बाद चंदन फिर बोला , “नसीब नसीब की बात है़ गणेश । यह महामारी तुम्हारे लिए आपदा लेकर आयी और मेरे लिए अवसर ।”
गणेश चुपचाप नजर उठाकर उसे देखने लगा । चंदन रहस्य की तरह कुछ देर तक चुप रहा फिर कुटिलता भरी आवाज में धीरे से बोला , “जब तुम सभी कोरोना सेन्टर में थे । उसी वक्त मैंने मकान बनवा लिया ।”
गणेश के शरीर में तनिक भी हरकत नहीं हुई उसको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था । आखिर उसे हो क्या गया है़ । इस वक्त वह भले ही कुछ नहीं कर सकता है़ । उसके उपर थूक तो सकता है़ । वह यह भी नहीं कर पा रहा है़ । वह कुछ देर तक उसे देखता रहा फिर चुपचाप वापस लौट आया ।
उस रोज वह कुछ भी नहीं खाया । रात में भी नहीं । मन एकदम उचाट सा हो गया था । उसे बार बार मां याद आ रही थी । काश ! वह पास होती तो वह उसके सीने से चिपक कर खूब फफक कर रो लेता और माफी मांग लेता कि मां बाबू जी की विरासत मे सेंध लग गयी लेकिन वह कुछ कर नहीं सका ।
रात में खाली पेट दवा खाया तो उसे कुछ परेशानी हुई । सुबह दवा खाने के लिए हल्का नाश्ता लिया तो उबकाई आने लगी । बार बार मां का चेहरा और चंदन की कुटिल बातें उसे बेचैन किए दे रही थी ।
दूसरे दिन वह बिस्तर पर लेट कर चुपचाप छत निहार रहा था । उसी वक्त वार्ड के बाहर से गार्ड डपटा , “गणेश ! आज भी तेरा परिवार तुझसे मिलने आया है़ । ये रोज रोज का क्या तमाशा लगा रखे हो । आज मिल लो लेकिन कल से कोई आयेगा तो डांट कर भगा दूंगा ।”
गणेश चुपचाप उठा और मास्क लगा कर बाहर निकल गया । गेट के उस पार उसकी पत्नी अपने दोनों बच्चों के साथ खड़ी उसका रास्ता निहार रही थी । उसके हाथ के झोले में कुछ सामान था । गणेश गेट के इस तरफ जाकर खड़ा होकर अपने परिवार को चुपचाप एकटक निहारने लगा । काफी देर बाद वे बैठ गये । वहाँ सिर्फ लंबी खामोशी थी । बीच बीच में थोड़ी बातें हो जाया करती थी ।
“मां नहीं आयी ?”
“उनकी तबीयत ठीक नहीं है़।” कुछ देर खामोश रहने के बाद वह फिर बोली , “तुम कैसे हो ?”
“ठीक ही हूँ । कैदखाने में कोई कैसे रहता है़।”
थोड़ी खामोशी के बाद उसकी पत्नी बोली,
“सुना है़ कल तुम्हारा भाई आया था ?”
गणेश चुपचाप उसका मुंह निहारता रहा।
तेरा खून बहुत कमीना है़ । विपत्ति में भी वह  बेईमानी करने से नहीं चूका ।”
एक लंबी खामोशी के बाद गणेश बोला , “मेरे न रहने के बाद तुम क्या करोगी । कुछ सोचा है़ ?”
पत्नी के पूरे शरीर में एक सर्द सुरसुरी दौड़ गयी । वह कराहते हुए बोली , “ऐसा क्यों कहते हो । मेरी आत्मा कह रही है़ कि तुम जल्दी ठीक हो जाओगे ।”
“यदि मुझे कुछ हो गया तो तुम एक काम करना ।” गणेश गरदन झुका कलेजे पर पत्थर रख कर बहुत ही इत्मीनान से बोला , “अभी तेरी लंबी उमर है़ । फिर भी मां और बच्चों के भविष्य के लिए घर छोड़ कर मत जाना । यदि जरूरत पड़े तो ऐसी शादी करना जो तुम्हारे साथ यहीं गांव में ही रहे । अपना जीवन साथी ऐसा चुनना जो तुम्हारा और पूरे परिवार का ख्याल रखे । तुम्हें बेहतर पति मिले । बच्चों को खूब प्यार करने वाला बाप ,  मां को लायक बेटा  और चंदन को दबंग पट्टीदार मिले । जो एक न एक दिन उससे अपनी जमीन वापस छीन सके ।”
उसकी पत्नी डबडबाई आंखों से उसे  अपलक निहारती रही । तभी उसकी बच्ची बोल पड़ी , “पापा ! जरा अपने चेहरे से मास्क हटा लो । हम जी भर कर तुम्हें देखना चाहते हैं ।”
गणेश ने मास्क हटा दिया । बच्ची के साथ साथ सभी लोग  उदास हो गये । एकाएक बच्चा बोल पड़ा , “पापा ! सचमुच तुम मर जाओगे ?”
बच्ची ने झट उसका मुंह हथेली से बंद कर दिया । गणेश के कलेजे से बहुत तेज रुलाई का गुबार उठा जो गले में अटक गया । उसका दिल चाहा कि गेट फांदकर दोनों बच्चों को कलेजे से लगा कर फूट फूट कर रो ले । अब उसका वहां रुकना मुश्किल लगने लगा । वह एक झटके से उठा और हथेलियों से मुंह ढँक कर अपने वार्ड की तरफ दौड़ा । वह बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह गिरा और फूट फूट कर रोने लगा ।

पार्क के बेंच पर लेटे गणेश को लगा कि उसके वार्ड की तरफ कुछ शोर हो रहा है़ । वह उठकर बैठ गया और ध्यान से कान लगा कर समझने की कोशिश करने लगा । अभी कुछ देर पहले वार्ड का एक मरीज सुरक्षा कर्मियों के पास आकर बताया था कि गणेश काफी देर से अपने बिस्तर पर नहीं है़ । वह दो दिनों से काफी डिस्टर्ब लग रहा था । उम्मीद है़ कि वह हास्पिटल से फरार हो गया है़ ।
इतना सुनते ही सबके हाथ पांव फूल गये । सबको अपनी नौकरी जाती दिखने लगी । बेतहाशा गणेश की खोज शुरू हो गयी । लोग झुंड बना कर हर जगह ढूंढ़े लेकिन उसे  खोज नहीं पाए ।
शोर ज्यादा सुनकर गणेश झाड़ियां हटा कर पार्क में बढ़ने लगा । उसने देखा कि पांच सात लोग पार्क में पागलों की तरह कुछ ढूढ़ रहे है़ं । उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा था । वह आगे बढ़ता रहा । तभी उस झुंड की नजर उस पर पड़ी और वे चीख पड़े , “अरे यहाँ है़ साला यहाँ है़ । पूरा अस्पताल परेशान है़ । ई साला हवा खा रहा है़ ।”
अस्पताल के अन्दर से पचासों लोग दौड़ते हुए पार्क में आ गये । सभी लोग बदहवास थे । कुछ के हाथों में लाठियां थी । वे उसे भद्दी गालियां दे रहे थे । कुछ मारने के लिए ललकार रहे थे । गणेश की समझ से यह सब बाहर था कि आखिर उसने ऐसी क्या गलती कर दी । वह आगे आगे चल रहा था और लोग उसके पीछे ऐसे चल रहे थे मानो वे किसी हिंसक जानवर को काबू में कर उसे उसके पिंजड़े में ले जा रहे हों ।
पार्क से निकल कर जब वे अस्पताल के बरामदे में पहुंचे तो गणेश एकाएक रुक गया । अब उसे गालियां  बर्दाश्त नहीं हो रही थी । वह मायूस होकर बोला , “भाई ,
मैं मरीज हूँ , कोई आतंकवादी नहीं । मेरे साथ ऐसा  व्यवहार क्यों कर रहे है़ ?”
“इस वक्त तुम आतंकवादी से बढ़ कर हो । वह तो दस बीस मारेंगे लेकिन तुम तो अनगिनत को मार सकते हो ।” एक तरफ से आवाज आयी ।
“मारो साले को । बहुत बढ़ बढ़ कर बोल रहा है़ ।” एक आदमी लाठी तान कर दौड़ा । तभी दूसरा आदमी पकड़ लिया , “नहीं भाई ! इसको किसी भी चीज से मत छुओ । इसके रोम रोम में कोरोना है़ । कुछ भी संक्रमित हो सकता है़ ।”
“देश मे जब भी कोई महामारी आयी तो इन्हीं नीच जातियों की वजह से।”
“हमारे पूर्वज बहुत सही काम किए थे इन शूद्रों के लिए । उसी तरह अब भी इनके कमर में झाडू और हाथ में मटका पकड़ा देने का कानून लाना चाहिए ।”
“तब क्या , किसी शूद्र ने ही तो इस महामारी को जहाज से देश में लाया था।” गणेश ने प्रतिवाद किया
जहाँ से बीमारी फैली है़ ,  वहाँ तो सब के सब साले शूद्र ही है़ं । तुम लोग भी वहीं चले जाओ । हमारा देश छोड़ दो ।” एक आदमी फर्श पर लाठी पीटते हुए चिल्लाया , “अब खैरियत इसी में है़ कि चुपचाप तुम अपने कमरे में चले जाओ । नहीं तो तेरा जबड़ा तोड़ दूंगा चमर …….साले ।” इसके बाद वह जाति सूचक गालियों की बौछार करने लगा ।
गणेश के कलेजे की आग तो बुझ चुकी थी लेकिन किसी कोने में एक चिंगारी बची हुई थी । गालियां पेट्रोल का काम की । वह चिंगारी भभक उठी । दिमाग की नसें ऐंठने लगी । वह तनाव में तो पहले से ही था । अब वह बढ़ कर पागलपन की स्थिती में जा पहुंचा । वह थूथकार कर  धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा । यह देख भीड़ के होश उड़ गये । लोग गालियां देते हुए तेजी से पीछे हटने लगे । अब गणेश दौडने लगा था । वह जिधर दौड़ता , लोगों में भगदड़ मच जाती । लोग दूर से उसके उपर ईंट पत्थर फेकने लगे । यह सिलसिला करीब आधे घंटे तक चला ।
स्थिति बेकाबू होते देख अस्पताल से शहर कोतवाल को फोन गया । कोतवाल पंद्रह मिनट के अंदर भारी पुलिस फोर्स लेकर आ धमका । उसने मौके की नजाकत को भांप सबसे पहले भीड़ को खदेड़ा फिर बेटा बेटा कहकर पुचकारते हुए गणेश के समीप पहुंच कर उसे प्यार से समझाने लगा । कुछ ही देर में गणेश अपने वार्ड की तरफ बढ़ गया । उसके पीछे पीछे कोतवाल भी गया । उसे वार्ड के अंदर छोड़ कर दरवाजा बंद कर दिया । वहां पर उसके सिवा और कोई नहीं था ।
गणेश का शरीर अब भी थर थर कांप रहा था । चेहरे पर पसीना था और दिमाग शाय शाय करके उड़ रहा था । वह चुपचाप बिस्तर पर लेट गया । भूख तो उसकी दो दिनों से मर चुकी थी लेकिन दस मिनट बाद उसको कुछ प्यास महसूस हुई । वह बोतल उठाया । उसमें भी पानी कम था । टेबल पर दवाएं पड़ी हुई थी । आज की रात वाली दवा उसने खायी भी नहीं थी । वह बोतल रख कर दवाएं उठा ली । कई दिनों की ढेर सारी दवाएं थी । उन्हें वह देर तक एकटक घूरता रहा । इस समय वे दवाएं देखने में अमृत सरीखे लग रही थी । वह धीरे धीरे एक एक कर के उन्हें पत्ते से बाहर किया और थोड़ी थोड़ी कर के पानी से सारी  दवाएं पेट में उतार लिया ।
उसने बैग उठाकर बिस्तर पर रखा और उसे खोलकर सभी सामानों को निकालने लगा जिसे वह अपने परिवार के लिए बंबई से लाया था । एक एक करके वह सभी सामानों को बिस्तर पर सजा दिया । मां की साड़ी , बच्चों के खिलौने कपड़े और पत्नी की चूडियां, बिन्दी और बहुत कुछ । वह देर तक उसे निहारता रहा। काश ! ये सामान उसके परिवार तक पहुंच पाते । फिर वह उसपर लेट कर छत को घूरने लगा । अब उसके शरीर में तनिक भी उत्तेजना नहीं थी । वह बिल्कुल शान्त था । उसकी आंखों के सामने उसके परिवार की तरह तरह की तस्वीर एक एक कर उभरने लगी । करीब बीस मिनट के बाद उसके पेट में जलन होनी शुरू हो गयी । जो धीरे धीरे कलेजे की तरफ बढ़ते हुए गले तक पहुंच गयी । पेट में दर्द शुरू हो गया और गले में आग जलने लगी । उसे बहुत तेज प्यास महसूस हुई । वह हाथ बढ़ा कर बोतल उठाया तो उसमें पानी ही नहीं था । वह पेट पकड़ कर कराहने लगा । जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो वह किसी तरह बिस्तर से उठा और  दरवाजे के पास पहुंचा । दरवाजा बाहर से बंद था । वह दरवाजे को झिझोड़ते हुए चिल्लाया , “पानी।” ऐसा उसने तीन चार बार किया लेकिन बाहर से कोई हरकत नहीं  हुई । पेट में असह्य दर्द होने लगा । वह पेट पकड़ कर जमीन पर गिर गया । फिर हिम्मत करके उठा और पैर से दरवाजे को पीटने लगा । कोई दरवाजा खोलकर भाग गया था । दरवाजा खुलते ही वह जमीन पर फिर गिर गया । और घिसटते हुए बाहर बरामदे में गया । कुछ लोग दूर से तमाशा देख रहे थे । गणेश छटपटाते हुए पानी की गुहार लगाता रहा लेकिन कोई भय बस उसके समीप नहीं आया । उसकी चीखें लगातार तेज होती जा रही थी । वह जमीन पर इधर उधर लेट कर छटपटाने लगा । धीरे-धीरे वहां पर भीड़ लग गयी। कुछ लोग मोबाइल पर उसका वीडियो बनाने लगे कि कोरोना से मौत कैसे और कितनी दर्दनाक  होती है़ ।  एक नर्स को दया आयी तो वह पानी लेकर दौड़ी लेकिन लोग कोरोना का भय दिखाकर उसे भी रोक दिए  ।
चीखते , छटपटाते और पानी की भीख मांगते हुए आखिर कुछ ही देर में धीरे धीरे  गणेश शान्त हो गया ।

(फीचर्ड इमेज गूगल से साभार)
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