अनुपम त्रिपाठी
अशोक तिवारी हमारे दौर के चर्चित कवि हैं। अब तक इनके तीन कविता संग्रह आ चुके हैं- सुनो अदीब (2003), मुमकिन है (2009), दस्तख़त (2013)।
कवि अशोक तिवारी अपनी वैचारिकता में इतने प्रतिबद्ध हैं मानो बरगद की जड़। समय कैसा भी रहा हो, इनकी पकड़ हमेशा मज़बूत रही है। तमाम तरह की अवैज्ञानिक प्रथाओं मान्यताओं और शोषण के विरुद्ध डटा हुआ प्रगतिशील कवि-
इनकी कविताएँ आलोचकों से पहले जनता के लिए हैं। वे अपनी कविताओं के साथ हमेशा जनता के बीच देखे जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे नागार्जुन कहते थे-
‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ
जनकवि हूँ, साफ़ कहूँगा क्यूँ हकलाऊँ?’
मज़दूर वर्ग की चिंता, बेचैनी, छटपटाहट और भूख अशोक जी की कविताओं के मूल तत्व हैं और यही तत्व मिलकर उनके काव्य संसार का प्राण बनते हैं। अपनी एक कविता में अशोक जी कहते हैं-
‘भूख आँतों से उतरकर आती है
जब आँखों में
आँखों से होकर ओझल
समा जाती है हथेली में
हथेली जुड़ती हैं जब मुट्ठी में
आग पैदा करने के लिए
भूख का सौंदर्य
कहीं और नहीं
यहाँ देखो
ये खूबसूरत ही नहीं, लाज़िमी भी है।’
यह जो भूख का आँखों में उतरना और जीवन संघर्ष के लिए हथेलियों का जुड़ जाना है, यही वह बिंदु है जहाँ श्रम और मेहनतकशों के संघर्ष का सौंदर्य दिखलाई पड़ता है। जहाँ से प्रगतिगामी परिवर्तन की आहट दिखलाई पड़ती है और संघर्ष के इसी सौंदर्य को देखने और उद्घाटित करने का खूबसूरत काम यह कवि करता है।
कवि अशोक तिवारी की कविताओं में बच्चों की उपस्थिति भी निरंतर एक बेचैनी के साथ बनी रहती है। हमारी सामाजिक और राजनीतिक बहसों से बच्चों से जुड़ी चिंताएँ भी हाशिये पर नज़र आती हैं जिसे कवि ने एक रागात्मक बेचैनी के साथ अपनी कविताओं में दर्ज किया है, एक बानगी देखिये
इसके अलावा अशोक जी कवि होने के साथ-साथ एक रंगकर्मी भी हैं। इसलिए उनके यहाँ कई कविताएँ रंगमंच के पात्रों पर भी हैं। उदाहरण के लिए प्रसिद्ध अदाकारा पीना बाउश पर लिखी उनकी कविता पढ़ी जा सकती है। एक लंबे समय से वो नुक्कड़ नाटक करते आ रहे हैं। इस रंगकर्म की छाया उनकी कविताओं पर खूब दिखाई पड़ती है। इनकी अधिकांश कविताओं को हम नुक्कड़-कविता भी कह सकते हैं। कारण यह कि इनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कवि किसी नुक्कड़ पर जनता से घिरा हुआ अपनी कोई कविता पढ़ रहा है-
‘गाँव मेरा है, पूछूँ तुमसे भाई एक ही बात
कैसे बन गया एक अजनबी खुद ही रातों रात’
अशोक जी की कविताओं की एक ख़ास बात यह है कि ये वर्तमान ख़बरों, राजनीति की हलचलों और समाज में होने वाले बदलावों से अपडेट रहती हैं। कह सकते हैं कि हमारे समाज की एक लाइव प्रस्तुति इन कविताओं में दिखाई गयी है। उदाहरण के लिए उनकी एक कविता ‘काँवड़िये’ का एक अंश देखें-
आज जब छंटे हुए बदमाशों
और नशेड़ियों की पूरी बिरादरी
बनाए हुए है
अपने कंधों पर काँवड़ के दोनों पल्लों का बैलेंस
रखी होतीं हैं जिनमें
छोटी-छोटी शीशियाँ
गंगाजल से भरी हुई
नफरत के संकल्प में डूबी
हम भूल रहे हैं गंगा की संस्कृति का मूल अध्याय
जो एक नदी है
जो तोड़ने नहीं, जोड़ने की हिमायत करती है।
साम्प्रदायिकता देश को लगी हुई एक ऐसी बीमारी है जिसका प्रभाव दिन पर दिन और मजबूत होता जा रहा है।
देश में लगातार एक कम्युनिटी के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा की जा रही है। हमारी प्रगतिशील सांस्कृतिक विरासत को जगह जगह से लहूलुहान किया जा रहा है और सरकार मुर्दा लाशों का तमाशा देखने में व्यस्त है।
हाल ही में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों को आखिर कौन भूल सकता है। क्या दिन और क्या रात। देश की राजधानी जलती रही और केंद्र सरकार समारोहों में व्यस्त रही। ऐसे ही क्रूर हालातों में अशोक जी जैसे कवि ही सामने आते हैं और बेबाक तरीके से अपना विरोध दर्ज करते हैं। इस संदर्भ में उनकी कविता गुजरात 2007 का यह अंश देखा जा सकता है-
‘हाँ हमने भंग की है शांति
हमने दागे हैं बेमेल बदन
छुरों और त्रिशूलों से
हाँ हमने जलाया है
उन जिन्दा लोगों को
जिनकी खाल पर
अल्लाह की इबारत लिखी है’।
अशोक जी को इनके पहले काव्य संग्रह के लिए वर्ष 2007 का वर्तमान साहित्य मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार मिला है।
यहाँ पाठकों के सामने उनकी कुछ कविताएँ दी जा रही हैं, उम्मीद हैं उन्हें पसंद आएँगी।
अशोक तिवारी की कविताएँ
कविता संग्रह :’सुनो अदीब’, ‘मुमकिन है’, ‘दस्तखत’,
संपादन : धार काफ़ी है (जनकवि शील पर केंद्रित)
सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फ़ौज (भाग I एवं II)
सरकश अफ़साने (जनम के चुनींदा नुक्कड़ नाटक)
समकालीन हिंदी कविता और सांप्रदायिकता(शीघ्र प्रकाश्य)
किरदारों की ज़बानी (नासिरा शर्मा पर केंद्रित-शीघ्र प्रकाश्य)एवं देश की विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन। नुक्कड़ जनम संवाद (त्रैमासिक थियेटर पत्रिका) के संपादन में 20 सालों तक सम्पादन।
संप्रति : गणित शिक्षण, दिल्ली शिक्षा विभाग(1990), मेंटर टीचर (2016 से)
“थिएटर इन एजुकेशन” पर लगातार काम. थियेटर : 1987 से लगातार अभिनय व निर्देशन, 1991 से लगातार जन नाट्य मंच के साथ नाट्यकर्म
संपर्क :
17-डी, डी.डी.ए.फ्लैट्स,
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ई-मेल : ashokkumartiwari@gmail.com
टिप्पणीकार अनुपम त्रिपाठी, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं और प्रभाकर प्रकाशन का संपादन भी कर रहे हैं