समकालीन जनमत
कविता

अशोक तिवारी की कविताओं का तेवर नुक्कड़ कविता का है

अनुपम त्रिपाठी


अशोक तिवारी हमारे दौर के चर्चित कवि हैं। अब तक इनके तीन कविता संग्रह आ चुके हैं- सुनो अदीब (2003), मुमकिन है (2009), दस्तख़त (2013)।

कवि अशोक तिवारी अपनी वैचारिकता में इतने प्रतिबद्ध हैं मानो बरगद की जड़। समय कैसा भी रहा हो, इनकी पकड़ हमेशा मज़बूत रही है। तमाम तरह की अवैज्ञानिक प्रथाओं मान्यताओं और शोषण के विरुद्ध डटा हुआ प्रगतिशील कवि-

देख पा रहे हैं क्या आप
उस लड़के के बिखरते क़दमों की थरथराहट
जो स्कूल जाने की बजाय
संस्कृति के कुछ और ही मायने सीख रहा है
ठहरिए,
वो अब गिरने को है
थाम सकें तो थामिए
उसकी रौशनी को जनाब
कीजिए उसे आज़ाद
उसी रौशनी के लिए

इनकी कविताएँ आलोचकों से पहले जनता के लिए हैं। वे अपनी कविताओं के साथ हमेशा जनता के बीच देखे जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे नागार्जुन कहते थे-

‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ
जनकवि हूँ, साफ़ कहूँगा क्यूँ हकलाऊँ?’

मज़दूर वर्ग की चिंता, बेचैनी, छटपटाहट और भूख अशोक जी की कविताओं के मूल तत्व हैं और यही तत्व मिलकर उनके काव्य संसार का प्राण बनते हैं। अपनी एक कविता में अशोक जी कहते हैं-

‘भूख आँतों से उतरकर आती है
जब आँखों में
आँखों से होकर ओझल
समा जाती है हथेली में
हथेली जुड़ती हैं जब मुट्ठी में
आग पैदा करने के लिए
भूख का सौंदर्य
कहीं और नहीं
यहाँ देखो
ये खूबसूरत ही नहीं, लाज़िमी भी है।’

यह जो भूख का आँखों में उतरना और जीवन संघर्ष के लिए हथेलियों का जुड़ जाना है, यही वह बिंदु है जहाँ श्रम और मेहनतकशों के संघर्ष का सौंदर्य दिखलाई पड़ता है। जहाँ से प्रगतिगामी परिवर्तन की आहट दिखलाई पड़ती है और संघर्ष के इसी सौंदर्य को देखने और उद्घाटित करने का खूबसूरत काम यह कवि करता है।

कवि अशोक तिवारी की कविताओं में बच्चों की उपस्थिति भी निरंतर एक बेचैनी के साथ बनी रहती है। हमारी सामाजिक और राजनीतिक बहसों से बच्चों से जुड़ी चिंताएँ भी हाशिये पर नज़र आती हैं जिसे कवि ने एक रागात्मक बेचैनी के साथ अपनी कविताओं में दर्ज किया है, एक बानगी देखिये

पांच साल की बच्ची समझ नहीं पा रही है
कि सुबह से भूखी गुड़िया खा क्यूँ नहीं रही है
क्यूँ है नाराज़
कि कुछ बोल ही नहीं रही
गुस्सा है तो चीख क्यूँ नहीं रही
दर्द है अगर तो रो क्यूँ नहीं रही

इसके अलावा अशोक जी कवि होने के साथ-साथ एक रंगकर्मी भी हैं। इसलिए उनके यहाँ कई कविताएँ रंगमंच के पात्रों पर भी हैं। उदाहरण के लिए प्रसिद्ध अदाकारा पीना बाउश पर लिखी उनकी कविता पढ़ी जा सकती है। एक लंबे समय से वो नुक्कड़ नाटक करते आ रहे हैं। इस रंगकर्म की छाया उनकी कविताओं पर खूब दिखाई पड़ती है। इनकी अधिकांश कविताओं को हम नुक्कड़-कविता भी कह सकते हैं। कारण यह कि इनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कवि किसी नुक्कड़ पर जनता से घिरा हुआ अपनी कोई कविता पढ़ रहा है-
‘गाँव मेरा है, पूछूँ तुमसे भाई एक ही बात
कैसे बन गया एक अजनबी खुद ही रातों रात’

अशोक जी की कविताओं की एक ख़ास बात यह है कि ये वर्तमान ख़बरों, राजनीति की हलचलों और समाज में होने वाले बदलावों से अपडेट रहती हैं। कह सकते हैं कि हमारे समाज की एक लाइव प्रस्तुति इन कविताओं में दिखाई गयी है। उदाहरण के लिए उनकी एक कविता ‘काँवड़िये’ का एक अंश देखें-

आज जब छंटे  हुए बदमाशों  
और नशेड़ियों की पूरी बिरादरी
बनाए हुए है
अपने कंधों पर काँवड़ के दोनों पल्लों का बैलेंस
रखी होतीं हैं जिनमें
छोटी-छोटी शीशियाँ
गंगाजल से भरी हुई
नफरत के संकल्प में डूबी
हम भूल रहे हैं गंगा की संस्कृति का मूल अध्याय
जो एक नदी है
जो तोड़ने नहीं, जोड़ने की हिमायत करती है।

साम्प्रदायिकता देश को लगी हुई एक ऐसी बीमारी है जिसका प्रभाव दिन पर दिन और मजबूत होता जा रहा है।

देश में लगातार एक कम्युनिटी के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा की जा रही है। हमारी प्रगतिशील सांस्कृतिक विरासत को जगह जगह से लहूलुहान किया जा रहा है और सरकार मुर्दा लाशों का तमाशा देखने में व्यस्त है।

हाल ही में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों को आखिर कौन भूल सकता है। क्या दिन और क्या रात। देश की राजधानी जलती रही और केंद्र सरकार समारोहों में व्यस्त रही। ऐसे ही क्रूर हालातों में अशोक जी जैसे कवि ही सामने आते हैं और बेबाक तरीके से अपना विरोध दर्ज करते हैं। इस संदर्भ में उनकी कविता गुजरात 2007 का यह अंश देखा जा सकता है-

हाँ हमने भंग की है शांति
हमने दागे हैं बेमेल बदन
छुरों और त्रिशूलों से
हाँ हमने जलाया है
उन जिन्दा लोगों को
जिनकी खाल पर
अल्लाह की इबारत लिखी है’।

अशोक जी को इनके पहले काव्य संग्रह के लिए वर्ष 2007 का वर्तमान साहित्य मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार मिला है।

यहाँ पाठकों के सामने उनकी कुछ कविताएँ दी जा रही हैं, उम्मीद हैं उन्हें पसंद आएँगी।

अशोक तिवारी की कविताएँ

1.सब खुश
इन दिनों एक बाज़
मेरे घर के इर्द- गिर्द
मंडराता है सुबह शाम
लहराता हुआ डैने बेख़ौफ़
बैठ जाता है मुंडेर पर
और ताकने लगता है मुझे ऐसे
जैसे मैंने छुपा लिया हो
उसका कोई शिकार
वह स्कैन करता है मेरी नजर
मेरी काया
और नोट करता है मेरा पता
कौओं में हलचल होती है
कांव-कांवकर आवाज देते हैं
एक दूसरे को साथ आने के लिए
और करते हैं पंचायत
बाज के निरीक्षण में
अपनी आंखों की पुतलियों को
चारों ओर घुमाता बाज
करता है नोट पूरी कार्यवाही
कबूतर और चिड़िया
हो जाते हैं सावधान
और ताकते हैं घोसलों के अंदर से
आपातकाल और मार्शल-लॉ के माहौल में
दाना पानी के लिए
बाहर जाने के वे मौके ढूंढते हैं
जान जोखिम में डालकर
पेट की भूख
मौत के पंजों में समा जाती है
कई बार
मैं खुश हूं कि
मैंने भगा दिया है
बाज़ को मुंडेर से
बाज़ खुश है कि
उसने ताकीद कर दिया है
कौओं को अपनी ड्यूटी पर
तैनात रहने के लिए
मुस्तैदी के साथ
कौए खुश हैं कि
बाज खुश है
उनकी रिपोर्ट से!!
2. गुड़िया नहीं बोलती
बच्ची खेल रही है गुड़िया से
और परेशान है कि
गुड़िया कुछ बोल क्यों नहीं रही
सोई पड़ी है जस की तस
वो अपनी गुड़िया को रोटी खिला रही है
उसे दुलार रही है रही है
पुचकार रही है
मनुहार रही है
रोटी उसके मुंह में ठूंसे दे रही है
मगर गुड़िया है कि
न खिलखिला रही है
न ही झपटकर रोटी के टुकड़े को अपने
मुंह में रखने की ज़िद कर रही है
न उसकी तरह
मम्मी से रूठते हुए
अपनी बात को मनवाने के लिए ज़िद कर रही है
पांच साल की बच्ची समझ नहीं पा रही है
कि सुबह से भूखी गुड़िया खा क्यूँ नहीं रही है
क्यूँ है नाराज़
कि कुछ बोल ही नहीं रही
गुस्सा है तो चीख क्यूँ नहीं रही
दर्द है अगर तो रो क्यूँ नहीं रही
वो कभी थपकियों से उसे सहलाती है
तो कभी उसे उठाकर कंधे से लगाती है
मगर गुड़िया है कि
बगैर किसी हलचल
निस्तेज पड़ी है बच्ची की बाहों में
और बच्ची है कि
परेशान है कि
गुड़िया क्यूँ परेशान है!
3. कांवड़िये
आया आया
फिर से आया
कांवड़ियों का मौसम आया
खड़े हो जाओ रास्ता छोड़कर
आ न जाओ कहीं तुम बीच में
और हो जाओ कहीं
एक और अयोध्या या गोधरा के शिकार
अब किसी बलात्कारी को भी
नहीं पकड़ पाएगी पुलिस
तस्करी में फंसे हुए लोगों का
नहीं ले पायेगी कोई सुराग़
और किसी भी अवमानना के लिए
नहीं होगी वो ज़िम्मेवार
क्योंकि वो जुटी है अब
सरकारी ड्यूटी पर
जुटी है उन सबकी मेहमानी पर
कल तक थे जो ब्लैक लिस्ट में
स्पेशल व्यवस्था बनाई जा रही है
जगह-जगह
उनके आराम के लिए
ताकि भरे जा सकें कुछ हद तक
कांवड़ से छिले उनके कंधों के घाव
 आखिरकार वो ढोकर ला रहे हैं कांवड़
 कोसों पैदल
कर रहे हैं वो
एक ‘राष्ट्रवादी’ काम
ऐसा काम जिसे आयोजित करते हैं
देश के संवैधानिक सदन के
संवैधानिक सदस्य
असंवैधानिकता के लिए
और करते हैं विदा
कांवड़ियों के समूह के समूह
इस तरह जा रहे हों जैसे वो
देश की सीमा पर लड़ने और शहीद होने
अपने जुनून में
अपने नशे में
शिव के नए अवतार
नए संस्करण में
अपनी जटाओं में धारण किए हुए गंगा
निकल पड़े हैं संस्कृति के रक्षार्थ
आस्था के कपोल कल्पित संसार के लिए
बिखेरे जा रहे हैं जो बीज
उगेंगे अपने नए संस्करण के साथ
मजबूती से कल जब
इसी दुनिया को मान लिया जाएगा
सबसे प्रमाणिक इतिहास
आस्था का सवाल
आमजनों की रोजमर्रा की
जिंदगी से जुड़ जाता है जब
बन जाता है सबसे ज्यादा खतरनाक तब
और इस्तेमाल कर सकते हैं आप
मासूम से मासूम चेहरों को
अपने किसी भी मकसद के लिए
आज जब छटे हुए बदमाशों
और नशेड़ियों की पूरी बिरादरी
बनाए हुए है अपने कंधों पर
कावड़ के दोनों पल्लों का बैलेंस
रखी होती हैं जिनमें छोटी-छोटी शीशियां
गंगाजल से भरी हुई
नफरत के संकल्प में डूबी
हम भूल रहे हैं गंगा की संस्कृति का मूल अध्याय
जो एक नदी है
जो तोड़ने नहीं, जोड़ने की हिमायत करती है
इससे पहले कि वो आकर
उघाड़ें तुम्हारा बदन
और दे दें पूरा प्रमाण अपने शिवभक्त होने का तुम्हें
रफा दफा हो जाओ भाई इन रास्तों से
चिन्हित कर दिए गए हैं जो उनके लिए
इंतजार करो
उनके गुजर जाने का।
4. नर्तकी
स्टेज के कोने से एक मूंछ
एनाउंसमेंट करती है….डांस के लिए
मसख़रा अभी-अभी
शुक्रिया अदा करके गया है एक दानकर्ता का
तैयारी हो रही है अगले दृष्य की
बदले जा रहे हैं पर्दे
तब्दील किया जा रहा है राज दरबार
रखा जा रहा है राजा का सिंहासन
बनाई जा रही है दरबारियों के लिए जगह
न्याय का अंतर साफ़ दर्शाने के लिए
फ़रियादियों की जगह को रखा जा रहा है नीचा
पर्दे के पीछे कई पर्दे हैं
उन पर्दों के पीछे कई दृष्य हैं
जो आगे होने के लिए हो रहे हैं तैयार
मगर पर्दे के आगे का भाग
ख़ाली है नाच के लिए
वहां अभी मुस्कराते चेहरे के साथ
एक नर्तकी आएगी
ठुमके लगाएगी
मनचलों का दिल बहलाएगी
नौटंकी के मालिक की जेब भरवाएगी
मेकअप से लिपी-पुती ये नर्तकी
औरत होने के साथ-साथ माँ है
जो चिपकाए बैठी है नन्हें बच्चे को
अपनी छाती से विंग्स में
दूध पिलाने के वास्ते…..
उसके नाम का एनाउंसमेंट हो रहा है बार-बार
लाउडस्पीकर पर
मगर बच्चा है कि छोड़ ही नहीं रहा है
मां से अलग होने की संवेदना
बच्चे को विचलित करती है
फ़िल्मी धुन के साथ गाने के बोल
हो गए हैं और तेज़….
“….हम तुम चोरी से
बँधे एक डोरी से……”
और डोरी में बँधी हुई
एक मां न चाहते हुए भी
छाती से छुड़ाकर अपनी जान को
मुँह मोड़ती है
बच्चा है कि चुप ही नहीं होता
मां की गंध और कौन है जो जान पाएगा
तेज़ होती जाती है जैसे-जैसे
बच्चे की रोने की चीख़
छाती में उमड़-उमड़ने लगता है
उसके अंदर का ज्वार
नसों में बहता हुआ गर्म अहसास
समा जाता है उसकी पोर-पोर में
हक़ीक़तन एक माँ
धीरे-धीरे
रूपांतरित होती जाती है कलाकार में
उतर जाती है जो स्टेज पर
अभिनय के लिए
माँ पर भारी होते कलाकार
के थिरकते क़दम
उठाते हैं कई सवाल…
कि कितने अभिनय निभा रही है वो एक साथ…..
घर में कोने-कोने में बिखरी
एक पत्नी….एक बहू
एक कलाकार
तालियों की गड़गड़ाहट और
मनचलों की छिछोरी टिप्पणियों में
ढूँढ़ते हुए अपने रिश्तों को
एक औरत
महसूस करती है अपने को
ठगी सी, अधूरी
और बिकी सी
चोरी चोरी नहीं ख़ुलेआम
एक डोरी से नहीं
लाखों-लाख डोरियों से बँधी हुई
कि हो नहीं जाय कहीं वो
टस से मस….
और मूंछ है कि पसरी पड़ी है
मसंद के सहारे
अगले एनाउंसमेंट करने के लिए।
5. ख़बर मिली है
ख़बर मिली है ड्यौड़ी पर माँ
रोज़ सुबह ताका करती है
स्कूल जा रहे बच्चों को
दफ़्तर आते-जाते सबको
याद किया करती है उनमें अपने बच्चे
चले गए जो पेट की खातिर दूर-दूर तक
ख़बर मिली है
माँ की आँखें दर्द कर रहीं
गाढ़ी झिल्ली छाई रेटिना के ऊपर
दिखना उसका ख़त्म हो रहा धीरे-धीरे
ख़बर मिली है
माँ की टांगें बोझ नहीं सह पाती हैं अब
रह-रहकर दबवाती तलवे
चलते-चलते रुक जाती है
जगह-जगह पर
पर चलती जाती, चलती जाती
कहीं पहुँचने…..
ख़बर मिली है
माँ अक्सर सोचा करती है बीती बातें
या आने वाले कल की बातें
कुछ सुख की
कुछ दुख की बातें
रोज़ देर से सोती माँ जगती है जल्दी
और जागकर देखा करती
उन सपनों को
देख नहीं पाती है जिनको गहरी नींद में
ख़बर मिली है
सहेज रही है बिखरे अपने सारे सपने
ख़बर मिली है
अरमानों को लेकर माँ बेचैन नहीं है
ख़बर मिली है
माँ को एक उम्मीद बँधी है
बचपन को जीने की फिर से
ख़बर मिली है
एक बार फिर माँ से सुनते ढेरों बच्चे
किस्से कहानी
हुआ करते हैं जिसमें
शेखचिल्ली और कोरिया जैसे ढेरों पात्र
करते हैं जो मेहनत दुनियाभर की
कहे जाते हैं पर सरेआम बेवकूफ़ फिर भी
ख़बर मिली है
इतने पर भी करती है माँ
घर का पूरा काम
मशगूल रहती है सुबह-शाम
भरते हुए
शेखचिल्ली और कोरिया के सत्व को अपने अंदर
बेवकूफ बनने-बनाने के लिए नहीं,
पाने के लिए अपने हक़ को
मेहनत के बल पर
ख़बर मिली है
माँ का चेहरा खिला-खिला है
उसे नाज है अपने उस होने का
जो वो हो पाई
और कोसा करती है
उस न होने को जो वो नहीं हो पाई
ख़बर मिली है
मेरी माँ अब
गांव गढ़ी में सबकी माँ है।
6. भगवान
टेम्पो में लदे पड़े हैं भगवान
तरह तरह और किस्म किस्म के भगवान
दुनिया की लंद-फंद से दूर
पसरे पड़े हैं
एक दूसरे के ऊपर…
विष्णु का एक हाथ
शिव के पैर के नीचे है
शिव की उलझी जटा
गणेश की सूंड में लिपटी हैं
कोने में लेटी काली माँ की जीभ
शेर के पंजे से सटी है
चीटों की एक कतार
जीभ पर लगे
मीठे रस पर लगी है
लक्ष्मी और दुर्गा
फँसा दी गयी हैं कुर्सियों के बीच
कि हिलडुल कर कहीं
कोई नुकसान न हो जाए
– वही सब जो कुछ ही देर में
पांडाल में सजकर
आभा बिखेरेंगे
सभी की पूजा अर्चना का करेंगे मूल्यांकन
राह चलतों को लुभायेंगे
अपने प्रताप की महिमा दिखायेंगे
टेम्पो से उतारकर
दिहाड़ी मज़दूर उन्हें धो-पोंछकर
गली के कोने पर बने स्टेज पर
करीने से लगाएगा
कमल की पंखुड़ी
और चूहे की पूँछ को फेविक्विक से चिपकायेगा
सजाएगा सँवारेगा
यथसंभव मेकअप करेगा
भगवानों को अपनी अपनी असली शक्ल में लायेगा
स्टेज के कोनों में खड़े भगवानों को
मालिक को एक-एककर गिनाएगा
रसीद पर हस्ताक्षर कराएगा
तब कहीं जाकर ठेकेदार से मज़दूरी पायेगा
अपना जुगाड़ बैठायेगा
भगवानों को स्टेज के हवाले छोड़कर
नन्हे भगवानों
मतलब अपने बच्चों के पास जाने का
वरदान पायेगा…!!
7. माँ आ रही है
माँ आ रही है
और ट्रेन है
कि लेट होती जा रही है
माँ आ रही है
पिता के पास से
और वहां आ रही है
जहां उसके सपने का बहुत बड़ा हिस्सा
किर्चों-किर्चों लेता है हर रोज़ सांस
किसी न किसी तरह
धड़कती है उसकी दी हुई परछाई
माँ आ रही है
और शहर में आ रही है
माँ का आना
नहीं है महज़ माँ का आना
पूरा का पूरा गांव है
क़स्बा है
खेत है, रक़्बा है
आ रहे हैं जो उसके साथ
माँ आ रही है
और ट्रेन है
कि लेट होती जा रही है
हो रही है ट्रेन लेट शायद इसलिए
क्योंकि आ नहीं रही है माँ अकेली
लेकर आ रही है वो अपने साथ
घर-घर
गली-गली
और मुहल्ले-मुहल्ले के क़िस्से और कहानियाँ….
कौन है जो बेचती है
अपने निठल्ले आदमी को पाव भर दूध
कौन है जिसके घर में पैदा हुआ एक नन्हा राग
मगर कौन है बुझ गया जिसके घर से
असमय ही चिराग़
टिमटिमाता हुआ दीपक
जलने की उम्मीद लिए
ताकता रहता है कौन मुलर-मुलर
हर आने जाने वाले को
सूखता जा रहा है
किसकी हड्डियों का बोन मेरो
दिन और रात
कैसे मर गया कमला हलवाई
चमचम की चासनी में कड़छुल चलाते-चलाते
बन गया एक और मंदिर अपने मुहल्ले में
भगवान को सुलाने और जगाने की
महाआरती की चीख़ें फाड़ती हैं कैसे कान के पर्दे
सुखा दी गई है बड़ी पोखर
कॉलोनी काटने के लिए निडर
नक़ली बापू की चौखट आ गई है
किस तरह मुहल्ले में घर-घर
बन गया है आश्रम सरकारी ज़मीन पर
फेंक दी गई हैं बच्चों की गिल्लियाँ उठा-उठाकर
होते हैं वहां प्रवचन उन औरतों के लिए
छोड़कर आती हैं जो
अपने घर का सारा का सारा काम
सिखाए जाता हैं उन्हें
मोह माया छोड़ने के गुर
चढ़ावे के बल पर
बाबा काटने लगे हैं योग के चलते
कैसे आदमियों के पर
बाल उगाने की अभिलाषा में
थामे हैं जो उम्मीद की एक डोर
घिसते रहते हैं जो उंगलियों की पोर
………………
माँ सी अपनी बहन की ग़मी में
देखती रही वो कैसे
अपनी पीढ़ी को खिसकते हुए
चुपके से
झरती हुई दीवार के लेप में
तलाशती रही वो कैसे
माँ सी अपनी बहन के स्पर्श को
जीवन के अनुभव की पिटारी से होती
भारी से भारी गठरी को
लादकर ला रही है माँ अपने साथ
आसान नहीं है उसे ढोकर लाना
और इसीलिए शायद ट्रेन लेट होती जा रही है
क्योंकि माँ अपने पूरे साज़ो सामान
और पूरे वजूद के साथ मेरे पास आ रही है
हां शायद……
अब ट्रेन सीटी बजा रही है
माँ आ रही है!!
…………….
8.नन्हें हाथों में रौशनी
चल नहीं पा रहा है
लंगड़ा रहा है
पैर में पुलटिस बांधा हुआ
बारह-तेरह साल का
नंगे पांव लड़का
बैंड बजाते
नाचते गाते
झूमते इठलाते लोगों
को घेरकर
सर पर लादे हुए है
बिजली के तारों से जुड़े हुए
ट्यूब लाइट्स का बोझ
दर्द से कराह-कराह जाता है
होठों को दबा लेता है
अपने दाँतों से
टीस न आ जाए कहीं बाहर
लड़खड़ाते क़दमों को सँभालता है
नंगे पाँव चल रहा लड़का
सर से उतारकर
अपने क़द से भी लंबी ट्यूबलाइट्स को
कभी रखता है वो
दाएँ तो कभी बाएँ कंधे पर
रौशनी को सँभाले रखने के लिए
दूसरों को बचाने के लिए अँधेरे से
बारह-तेरह साल का वह लड़का
चल रहा है बारातियों के साथ
बचपन को ठेलते हुए आगे ही आगे
उसकी आँखें
टिकी हैं
नाचने गाने वालों से ज़्यादा
दस रुपये के नोट और खाने पर
मेहनत के फूलों की सुगंध
बेहतर भविष्य का सपना दिखाती है
चाहें तो आप
भी हो सकते हैं शरीक
इस नज़ारे को देखने के लिए
असमानता की विडंबनाओं की बारीकी
भी यहाँ आपको आएगी नज़र
जहाँ सरकारी तंत्र
अपनी अंतिम साँसें गिन रहा है
बाल कल्याण विभाग के
अधिकारी के बेटे को
घोड़ी पर बैठे देख सकते हैं आप शान से
जिसके पीछे की पंक्ति में
चल रहे हैं बड़े-बड़े क़ानूनविद
अपनी पत्नियों के साथ
चौडे़ होकर
अपने पूरे रौब और पूरी गरिमा के साथ
चिपकी हुई है जो
उनकी खाल में एक तिल की तरह
चंद क़दमों की दूरी पर
लड़खड़ाता लड़का
कसकर थामे रहेगा
अपने से दूने बोझ को
और चलता रहेगा ऐसे ही
किसी फ़िल्मी गाने पर
झूमने की इच्छा को दबाए हुए अपने अंदर
मुंह फाड़-फाड़कर
देख रहा है
लंगड़ाता हुआ लड़का
सहते हुए घुड़की
आगे और पीछे के
अपने हमपेशा
ट्यूब लाइट्स पकड़ने वालों की
उसे मालूम है
आएगा अभी थोड़ी देर में
ठेकेदार
मारेगा ठोकर
देगा एक भद्दी गाली
अपने अंदर के पीव को
निकलने नहीं देगा बाहर
सहलाएगा अपने अंदर की इच्छाओं को
लंगड़ाता हुआ बारह तेरह साल का लड़का
थामी हुई है आख़िर उसने
अपने नन्हे हाथों में रौशनी
उन मज़बूत हाथों के बीच
गाते हैं जो क़दम-क़दम पर
अँधेरी दुनिया का गीत
देख पा रहे हैं क्या आप
उस लड़के के बिखरते क़दमों की थरथराहट
जो स्कूल जाने की बजाय
संस्कृति के कुछ और ही मायने सीख रहा है
ठहरिए,
वो अब गिरने को है
थाम सकें तो थामिए
उसकी रौशनी को जनाब
कीजिए उसे आज़ाद
उसी रौशनी के लिए
थामे हुए है जिसे वो दूसरों के लिए!
9. हिटलर मरा नहीं
हिटलर मरा नहीं
हिटलर मरते नहीं
आवाजाही करते हैं इतिहास के पन्नों में
परिवर्तित होते हैं
एक रूप से दूसरों में
एक मुल्क में ही नहीं
दुनियाभर में करता है सैर हिटलर
नहीं है जिसकी कोई एक शक्ल-ओ-सूरत
तमाम मुखौटों के साथ
आता है वो हमारे सामने
काल और समय से परे
वो अमर है- अजर है
अवतार है
अन्तर्यामी है
वो यहाँ भी है – वहां भी है
इधर भी है -उधर भी है
स्वर्ग में भी-नरक में भी
ज्ञानी है – ध्यानी है
वो सबसे बड़ा इतिहास वेत्ता है
मनो विज्ञानी है
मौसम विज्ञानी है
शिक्षा शास्त्री – वैज्ञानिक है
लेखक है, कवि और शायर है
वो क्या-क्या नहीं है ….
किसी एक मुल्क में नहीं…
वो बढ़ा रहा अपना पंजा
दुनियाभर की उन सारी जगहों पर  भी
जानी जाती हैं जो
लोकतंत्र के लिए,
भाईचारे, सुकून और चैन-ओ-अमन के लिए
उसी तरह जैसे
हिंदुस्तान की सरजमीं पर
नजर आया था सदियों पहले
तबाही के भीषण मंज़र के साथ
पुष्यमित्र शुंग..
हिटलर मरा नहीं
हिटलर मरते नहीं
आवाजाही करते हैं इतिहास के पन्नों में
ज़बरदस्ती
अपनी उपस्थिति दर्ज कराने
आत्महत्या तो महज़ छलावा था
झूठ था उसी तरह
बोलता रहा जिस तरह वो ताउम्र
दुश्मनों के लिए
बो दिए विष-बीज जिसने
अपनी महानता के गीत गाते हुए
हो सकें ताकि दुश्मन नेस्तनाबूत
दुश्मन जो
नफ़रत से परे
प्यार-मुहब्बत और ख़ुलूस की बात करता है
दुश्मन जो
रंग-बिरंगे फूलों को खिलाने की बात करता है
असहमति की बात करता है
संविधान की बात करता है
दुश्मन जो
गोली की एवज़ में
पत्थर चलाने की बात करता है
तिरंगे में खुद को लपेटकर
बचाने की बात करता है
गंगा-जमुनी तहजीब की बात करता है
हिंदुस्तानियत की बात करता है
हिटलर मरा नहीं
हिटलर मरते नहीं
हिटलर मरेंगे भी नहीं
वो रहेंगे हमारे आसपास
चौकन्ना रहना होगा
हम दुश्मनों को
आवाजाही करते इतिहास के पन्नों में दर्ज़
इन किरदारों से
उनकी मीठी नज़र और विषपान से
छलावों और कुटिल मुस्कान से !!
10. संभावना
संभावना है
जिस तूफ़ान की
उम्मीद की जा रही है
वो आए ही नहीं इधर
आ ही जाए अगर
गलती से कहीं
तो संभावना है
कि तूफ़ान की रफ़्तार ही थम जाए
न भी अगर थमे
फिर भी संभावना है कि
निकल जाए ऊपर ही ऊपर से ही
भूलवश अगर
नीचे आ भी जाए तूफ़ान
तो संभावना है कि
बंद खिड़की-दरवाज़ों और दीवारों के टकराकर
मोड़ ले अपना ही रुख
न भी मोड़े अपना रुख
तो भी संभावना है कि
हमारा कुछ बिगाड़ ही न पाए
क्योंकि हमने सीख लिया है
झुकना, झुककर लेटना
लेटकर जमीन में गाढ़े रहना मुँह
घंटों-दिनों-सालों तक
अपने अंदर से बाखबर होने और
बाहर से बेखबर होने के लिए
निरंतर अभ्यास से
या सालों के प्रयास से
अच्छा देखो-अच्छा सुनो-अच्छा कहो
असन्तुष्ट कभी न रहो,
सब सहो
शांत और योग मुद्रा में देखकर
संभावना है कि
रोर करता हुआ तूफान निकल जाए प्यार से
न भी निकले अगर प्यार से
तो कुदरत के खेल में
ये सब तो चलता है थोड़ा बहुत..
तूफ़ान तो तूफ़ान है
उसका क्या दोष
वो तो नहीं छोड़ सकता अपनी प्रकृति
झेल लो थोड़ा-थोड़ा हँसते हुए
बगैर किसी शिकायत के
करलो जितना कर सकते हो वचाव अपने से
वैसे भी “होइएँ वही जो राम रचि राखा”
सो मस्त रहो, चाहे पस्त रहो
हर हाल में अभ्यस्त रहो
बगैर किसी शिकायत के
मुस्कराते हुए
बनो आत्मनिर्भर
और कहते रहो एक यकीन के साथ….
कि संभावना है जिस तूफ़ान की
उम्मीद की जा रही है
वो इधर आए ही ना!!
11. कैक्टस
कैक्टस हैं ये
ज़्यादा पानी देने की ज़रूरत नहीं
बिना पानी के भी पल जाते हैं ये
बहुत दिनों तक
ज़्यादा पानी हो सकता है
उनके लिए नुक़सानदेह
कैक्टस हैं ये
ज़्यादा खाना न दो
नहीं होगी उन्हें ज़रूरत
इतना खाने की
मिट्टी को चूस-चूसकर
क़तरे–क़तरे से
निकाल ही लेते हैं पोषक तत्व
अपने हिसाब से
जिसके बल पर
ज़िंदा रह सकते है ये
सालों-साल
और इसीके बल पर
फलते-फूलते रहते हैं
धारदार काँटों के साथ
अभावों में पलने वाले
ये कैक्टस हो सकते हैं
ज़्यादा खाने से अफरा के शिकार
कैक्टस हैं ये
इनका काम है हमेशा
मुस्तैद रहना अपनी ड्यूटी पर
सलाम बजाते हुए हर हाल में
अपने काँटों के ही बल पर
ये आते हैं काम
चौक-चौबंद व्यवस्था के लिए
और इसीलिए
रेगिस्तानी काँटों की तर्ज पर
फलने-फूलने दो इन्हें ऐसे ही
वैसे भी उन्हें खाली पेट रहने की आदत है
जो सिद्ध करता है कि
‘खाली पेट कोई नहीं मरता’
और हम कैक्टस की प्रजातियों को
रखना चाहते हैं
सभ्यता के अंतिम छोर तक ज़िंदा
कैक्टस हैं ये
बचके रहना इनसे
बहुत सालता है इनका चुभना
इसलिए
फिक्र छोड़ो इनकी
पलते रहेंगे ये तो
पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह
फलते-फूलते रहे हैं जैसे
सदियों से ये आज तक!!
(‘वर्तमान साहित्य मलखान सिंह सिसौदिया पुरस्कार – 2007’  से सम्मानित कवि अशोक तिवारी का जन्म : 5 सितंबर, 1963, शिक्षा: एम. एससी. (गणित), एम. ए. (हिन्दी), पी एच. डी 

कविता संग्रह :’सुनो अदीब’, ‘मुमकिन है’, ‘दस्तखत’, 
संपादन : धार काफ़ी है (जनकवि शील पर केंद्रित)
       सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फ़ौज (भाग I एवं II)
       सरकश अफ़साने (जनम के चुनींदा नुक्कड़ नाटक)
       समकालीन हिंदी कविता और सांप्रदायिकता(शीघ्र प्रकाश्य)
किरदारों की ज़बानी (नासिरा शर्मा पर केंद्रित-शीघ्र प्रकाश्य)एवं देश की विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन। नुक्कड़ जनम संवाद (त्रैमासिक  थियेटर पत्रिका) के संपादन में 20 सालों तक सम्पादन।

संप्रति : गणित शिक्षण, दिल्ली शिक्षा विभाग(1990), मेंटर टीचर (2016 से)
“थिएटर इन एजुकेशन” पर लगातार काम. थियेटर : 1987 से लगातार अभिनय व निर्देशन, 1991 से लगातार जन नाट्य मंच के साथ नाट्यकर्म     

संपर्क :
17-डी, डी.डी.ए.फ्लैट्स,
मानसरोवर पार्क, शाहदरा,
दिल्ली – 110032
फोन : 91-9312061821
ई-मेल : ashokkumartiwari@gmail.com

टिप्पणीकार अनुपम त्रिपाठी, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं और प्रभाकर प्रकाशन का संपादन भी कर रहे हैं

सम्पर्क: Anupamtripathi556@gmail.com)

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