अनामिका
1960 में एक फ़िल्म आई थी, ‘उसने कहा था’. हिन्दी के सुप्रसिद्ध कहानीकार चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी पर आधारित है. फिल्म का एक दृश्य है जिसमें सिपाही लाम पर जा रहे हैं. बैंकग्राउंड में मन्ना डे की आवाज़ में गीत बज रहा है- ‘जाने वाले सिपाही से पूछो कहाँ जा रहा है…. ’
आज इतने अरसे बाद देश के हालात और अपनी जड़ों से उखड़े और पैदल चलते कामगार-मजदूरों को देखते हुए भी यही ख़याल कौंधा.
सिपाही और मजदूर जिन्होंने दो धुरी से इस देश को सम्हाला, लेकिन आज आज़ादी के इतने वर्षों के बाद उनकी क्या स्थिति है ? क्या कुछ बदला ? क्या जुड़ा ? लगातार जो विकास के सपने दिखाए गए, जिन्हें सींचने का काम नेपथ्य में रहकर लगातार बिना किसी क्रेडिट और कद्र के यह करते आए, उनकी इस दशा पर आज इतनी चुप्पी क्यों है ?
सीधे मुख्यधारा से गायब, ठीक उसी प्रकार से जैसे सिपाही को अपनी जान जाने का अंदाज़ा लगभग होता है युद्ध में जाने से पहले. ठीक उसी तरह से पैदल चलने वाले यह मज़दूर अपनी जड़ों की ओर लौटने की ठान, अपनी जान से बेपरवाह, महीनों से पैदल चले जा रहे हैं, बिना किसी सुविधाओं के जीते-मरते !
मेरा ताल्लुक बिहार से रहा है और व्यापकता में देखें तो बिहार के प्रवासी मज़दूर आधुनिक भारत के निर्माण में सस्ता एवं सर्व-सुलभ श्रम का बलिदान देने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
यह कहना कतई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि यह सवाल पुछा जाय कि -‘कौन बनाया हिंदुस्तान ? तो यही जवाब मिलेगा -‘ भारत का मज़दूर किसान.’ लेकिन आज मजदूर-किसान की क्या स्थिति है यह सब देख रहे हैं.
वर्तमान में मोदी सरकार में देशी-विदेशी पूँजी की मुनाफ़ाखोरी को लगातार बढ़ावा देने के लिए धीरे-धीरे श्रम-क़ानून को ख़त्म कर लगातार निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों के द्वारा मज़दूरों को पूँजीपतियों के अधीन ग़ुलाम बनाने की वकालत धड़ल्ले से होती रही है.
भारत को अपने खून-पसीने से तराश कर गढ़ने वाला मज़दूर वर्ग आज भारत सरकार के सामने हाथ फैलाए मदद की गुहार लगा रहा है. कोरोना महामारी के इस दौर में प्रवासी मजदूरों के हालत ने हम सभी को निराशा की ओर धकेल दिया है. वे आज दो जून की रोटी के लिए मोहताज हैं. जहां वे ज़िंदगी के आख़री पड़ाव पर खड़े होकर पुलिस के डंडे और यातनाओं को झेलने को विवश हैं.
बिहार से पलायन करने वालों की संख्या भारत के दूसरे राज्यों की अपेक्षा अधिक है. जहाँ पलायन आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग, गरीब, दलित, महादलित, भूमिहीन मज़दूर और अर्द्ध भूमिहीन मज़दूर करते आए हैं. वहीं साल दर साल बिहार में पलायन घटने की बजाय लगातार बढ़ा ही. साथ ही यह वर्षों से पिछड़े राज्य की श्रेणी में शामिल है. यहाँ भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, पलायन, लाचारी और बेबसी की समस्याएँ ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशानुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देशवासियों के समक्ष बिना किसी रोस्टर प्लान के 25 मार्च से संपूर्ण लॉकडाउन की घोषणा करते हैं. केंद्र सरकार द्वारा लिया गया लॉकडाउन का फ़ैसला जरूरी था लेकिन प्रवासी मज़दूरों को बिना कोई सुरक्षा मुहैय्या कराए तथा उनकी मूलभूत समस्याओं को दरकिनार कर यह फैसला लेना पूरी तरह से अमानवीय और मज़दूर विरोधी है. केंद्र के साथ राज्य सरकारों ने भी लॉकडाउन की नीतियों में मज़दूर हितों की अनदेखी की.
सरकार ने देश को संबोधित करते हुए लोगों को अपने घर में ही रहने की सलाह तो दी, लेकिन देश के दिहाड़ी मज़दूरों के लिए लॉकडाउन के नियमों का नियमित पालन करना कितना संभव है ? जो रोज कमाने खाने को यूँ ही मजबूर रहे हैं. अंततः मोदी सरकार द्वारा देश के कामगारों के प्रति कोई भी संवेदना प्रकट नहीं की गई और ना ही किसी प्रकार की विशेष राहत योजना बनाई गई, बल्कि प्रवासी मज़दूरों को उनकी स्थिति पर छोड़ दिया गया.
लॉकडाउन-1 की घोषणा होने के दूसरे दिन ही कंपनी के प्रबंधकों और ठेकेदारों द्वारा अपने श्रमिक मज़दूरों को किसी प्रकार की सहायता प्रदान नहीं की गयी. यहाँ तक कि उन्हें उनकी बकाया राशि भी नहीं दी गई और उन्हें काम पर आने से भी मना कर दिया. ऐसे में दिहाड़ी मज़ूरी करने वाले श्रमिकों को रहने एवं जीवनयापन के संकटों से लगातार जूझ रहे हैं.
प्रवासी मज़दूरों के प्रति ‘सुशासन बाबू’ की नैतिकता
बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य में छह बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं. और लगभग 15वाँ साल अपने मुख्यमंत्रित्व का पूरा करेंगे. लेकिन क्या इन पंद्रह सालों में बिहार की तस्वीर बदली है ? क्या बिहार समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से मज़बूत हुआ ? शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के क्षेत्र में कितना विकास हुआ है ? तथा बिहार के प्रवासी मज़दूरों को पलायन से रोकने में नीतीश सरकार कितनी सक्षम है ? बिहार आज कहाँ खड़ा है ? इसका सही आकलन इस महामारी के दौर में ही लगाया जा सकता है.
बिहार के प्रवासी मज़दूर ज़्यादातर दिल्ली, मुम्बई, पुणे, आंध्रप्रदेश, बेंगलुरु, गुजरात, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि के शहरों में अनौपचारिक क्षेत्र में दिहाड़ी मज़ूरी या किसी ठेकेदार के अधीन तथा हाइवे, सड़क, बिल्डिंग के नवनिर्माण के कार्य में संलग्न हैं.
अब तक बिहार के श्रमिक वर्गों के प्रति नीतीश कुमार की सहानुभूति नगण्य है. उन्होंने श्रमिक मजदूरों के लिए किसी प्रकार की ठोस सहायता प्रदान नहीं की, जिस कारण आज श्रमिक वर्ग असमर्थ और असहज महसूस कर रहा है. कोरोना महामारी प्रवासी श्रमिकों के लिए एक त्रासदी बन कर आई. बिहार के प्रवासी मज़दूर देश के विभिन्न हिस्सों में लगभग 50 दिनों से फँसे हुए हैं. और घर-परिवार से दूर निरंतर भूख, बेचैनी और मौत से जूझ रहे हैं.
आज मज़दूर अपने ही देश में तिरस्कृत महसूस कर रहा है. आज उनके पास ना भोजन है और ना ही रहने के लिए घर का किराया. आज वे पूरी तरह से समाजिक संस्थाओं की मदद पर आश्रित हैं. ऐसे में बिहार के प्रवासी मजदूर अपने पैतृक गाँव लौटना उचित समझते हैं. ताकि अपने लोगों के बीच सुरक्षित महसूस कर सकें.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन सभी परिस्थितियों से रूबरू हैं, इसके बावजूद अपने श्रमिकों से लगातार दूरी बनाए हुए हैं. वे फ़िलहाल इन्हें गृह राज्य बुला कर किसी तरह का जोखिम उठाना नहीं चाहते. वहीं बिहार के यह प्रवासी मज़दूर इस उम्मीद में थे कि लॉकडाउन-एक की अवधि समाप्त होगी तब कुछ राहत मिलेगी. लेकिन पुनः मोदी सरकार द्वारा लॉकडाउन-दो की घोषणा कर दी गई. जहाँ श्रमिक वर्गों को किसी प्रकार की राहत पैकेज तथा छूट नहीं दी गई.
आज मज़दूरों की आमदनी का ज़रिया पूरी तरह से खत्म हो चुका है. वे अपनी ज़िंदगी की जर्जर हालत और मौत के बीच संघर्ष कर रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकार के तमाम दावों के बावजूद उन तक कोई मदद नहीं पहुँच पायी. तब वे मज़दूर दिल्ली से लेकर देश के दूसरे शहरों की तंग गलियों से निकल कर अपनी पत्नी, और मासूमों के साथ, कंधों पर सामान उठाये भूखे-प्यासे पैदल, साइकिल वगैरह से हज़ारों किलोमीटर दूर अपने पैतृक गाँव बिहार जाने के लिए विवश हुए. और इस त्रासदी के दौरान कितनों ने घर पहुँचने से पहले ही, बीच रास्ते में दम तोड़ दिया. अपने राज्य को पैदल लौट रहे इन प्रवासी मज़दूरों की हुई मौत का आधिकारिक आँकड़ा भारत सरकार द्वारा अब तक जारी नहीं किया गया है.
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ‘सुशासन की सरकार’ कही जाती है. लेकिन वही ‘सुशासन राज’ बिहार के कई ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र 14 वर्ष से 17 वर्ष होगी, जो ग़रीबी के अभाव में अपनी पढ़ाई को अधूरा छोड़कर बड़े शहरों की ओर रुख़ करते हैं. और अंततः इस व्यवस्था में दिहाड़ी मज़दूरी करने को विवश होते हैं ताकि वे अपने परिवार की जीविका में सहयोग कर सकें. लॉकडाउन में इन बच्चों की हालत सोशल मीडिया पर आये दिन देखने को मिला. कैसे पुलिस के डंडे के सामने वे अपना बचाव कर रहे होते हैं. लेकिन उन बच्चों के मलिन चेहरे को देखकर पुलिस को दया तक नहीं आती. वे बच्चे रोते-कलपते, भूख से बेहाल, तेज धूप और लू के थपेड़ों को सहते हुए अपने घर जाना चाहते हैं. इन बच्चों की दयनीय स्थिति को देखकर भी सुशासन बाबू की अंतरात्मा जागृत नहीं हुई और ना ही प्रवासी मज़दूरों के लिए किसी तरह का एक्शन प्लान ही बनाया गया.
आख़िर हम सरकार को क्यों चुनते हैं ? सरकार की ज़िम्मेदारियाँ क्या होती हैं ? मज़दूरों की आवाज कौन सुनेगा ? अन्य तमाम गतिविधियों को दरकिनार करके बिहार सरकार को सबसे पहले प्रवासी मजदूरों को उनके घर तक पहुँचाने की व्यवस्था करनी चाहिए थी. पर वे चुप्पी साधे, मूक़दर्शक बनकर मज़दूरों की हालत को देख रहे हैं.
(अनामिका भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू नई दिल्ली में शोधार्थी हैं.)