सआदत हसन मंटो की यौमे पैदाइश पर ख़ास
ग़ालिब का एक मशहूर शे’र है-
‘हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और’
अगर मंटो भी अपने बारे में कहता तो शायद यही कहता। मंटो जब लिख रहा था तो उस वक्त कृष्ण चन्दर, राजिंदर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, इस्मत चुगताई, उपेंद्र नाथ अश्क़, अहमद नदीम कासमी भी लिख रहे थे लेकिन मंटो का अंदाज़-ए-बयाँ तो कुछ और ही था।
अफ़सानों के अलावा मंटो ने ड्रामे, तंज वगैरह भी लिखा है लेकिन उसकी मक़बूलियत अफ़सानों की वजह से है। अफ़साना लिखने का उसका अंदाज़ एकदम अलहदा और बाकी से जुदा था। अपनी वफ़ात के 64 साल बाद भी मंटो मक़बूल है और उसकी मक़बूलियत समय के साथ-साथ और बढ़ती जा रही है तो उसकी तमाम वजहें हैं। एक वजह तो ये है कि मंटो ने अपने अफ़सानों में ऐसे किरदार लाये जो अछूत समझे जाते थे जिनके लिए अदब में कोई जगह नहीं थी। वो तांगे वालों, खोमचे वालों, चना बेचने वालों, तवायफों और मोचियों का कहानीकार था। उसके अफ़सानों में इंसान कम बल्कि लहूलुहान हिन्दू और मुसलमान ज्यादा दिखालाई पड़ते हैं।
उर्दू के आलोचक मुहम्मद हसन अस्करी ने मंटो के बारे में लिखा है,
‘मंटो की दृष्टि में कोई भी मनुष्य मूल्यहीन नहीं था। वह हर मनुष्य से इस आशा के साथ मिलता था कि उसके अस्तित्व में अवश्य कोई-न-कोई अर्थ छिपा होगा जो एक-न-एक दिन प्रकट हो जाएगा। मैंने उसे ऐसे अजीब आदमियों के साथ हफ्तों घूमते देखा है कि हैरत होती थी। मंटो उन्हें बर्दाश्त कैसे करता है! लेकिन मंटो बोर होना जानता ही न था। उसके लिए तो हर मनुष्य जीवन और मानव-प्रकृति का एक मूर्त रूप था, सो हर व्यक्ति दिलचस्प था। अच्छे और बुरे, बुद्धिमान और मूर्ख, सभ्य और असभ्य का प्रश्न मंटो के यहां जरा भी न था। उसमें तो इंसानों को कुबूल करने की क्षमता इतनी अजीब थी कि जैसा आदमी उसके साथ हो, वह वैसा ही बन जाता था।’
मंटो पर बहुत लिखा गया हैं जिसमें इस बात पर ज्यादा सफे काले किए गए हैं कि उसके अफ़साने फोहश हैं या नहीं। इसपर बात करने का मेरा कोई इरादा नहीं। मंटो की सबसे बड़ी खासियत ये है कि वो छोटी से छोटी कहानियों में बड़ी से बड़ी बात कह जाता है। जब उसके अफसानों के किरदार बोलते हैं तो उनकी कड़वी मगर सच्ची बातें नश्तर की तरह सीने में उतरती हैं। जब अफ़साना खत्म होता है तो एक अजीब किस्म की खामोशी पाठक पर तारी हो जाती है। मसलन खोल दो कहानी को ही ले लीजिए।
डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।
सकीना के मुर्दा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है? (‘खोल दो’ कहानी से)
या फिर लाइसेंस कहानी का ये आखिरी हिस्सा-
ये कह कर वो चली गई। दूसरे दिन अर्ज़ी दी… उसको अपना जिस्म बेचने का लाईसेंस मिल गया। (‘लाइसेंस’ कहानी से)
मंटो की पैदाइश पंजाब के लुधियाना जिले के समराला गाँव में 11 मई 1912 में हुई। 1933 में मंटो की मुलाकात अब्दुल बारी से हुई। अब्दुल बारी की सोहबत के कारण ही मंटो विश्व साहित्य पढ़ने लगे थे। उन्होंने मोपासां और चेखव, गोर्की, विक्टर ह्यूगो को खूब पढ़ा और उर्दू में तर्जुमा भी किया।
1934 में मंटो तालीम हासिल करने के लिए अलीगढ़ चले आये। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से शाया होने वाली पत्रिका “अलीगढ़ मैगज़ीन” में उनकी पहली कहानी ‘तमाशा’ 1934 में ही प्रकाशित हुई जो जलियावाला बाग़ नरसंहार पर मंटो ने लिखी थी। अलीगढ़ में ही उनकी मुलाकात मशहूर शायर, तनक़ीदनिगार अली सरदार जाफ़री से हुई लेकिन इसी साल टीबी की बीमारी की वजह से अलीगढ़ छोड़ना पड़ा।
1935 में मंटो की दूसरी कहानी ‘इंक़लाब पसंद’ “अलीगढ़ मैगज़ीन” में ही शाया हुई। 1934 में मंटो मुम्बई (तब बॉम्बे) चले गए थे और पत्रिकाओं में फिल्मों पर लिखने लगे थे। 1941 में मंटो ने ऑल इण्डिया रेडियो के उर्दू संभाग में नौकरी करने लगे और यहीं काम करते हुए उन्होंने ड्रामे लिखे और प्रसारित किया। किसी बात पर रेडियो के डायरेक्टर से अनबन हुई तो 1942 में रेडियो छोड़कर फिर फिल्मों के लिए लिखने लगे, और मिर्ज़ा ग़ालिब, आठ दिन, चल चल रे नौजवान शिकारी जैसी फिल्मों के लिए लिखा। अगरचे मंटो अफसाने भी लिखते रहे थे। बॉम्बे में रहते हुए ही धुआँ, काली सलवार और बू जैसे अफ़साने लिखे थे। देश के बँटवारे के बाद 1948 में वो पाकिस्तान चले गए।
हिंदुस्तान का बंटवारा बीसवीं सदी की एक बड़ी परिघटना है जिसे न तो हम याद रख सकते हैं और न ही भूल सकते हैं। इसका असर मंटो पर पड़ा। मंटो के लेखन को दो भागों में बांटकर देखा जा सकता है। एक तरह का लेखन वो है जो 1947 से पहले का है जब मंटो रोमानी और स्त्री-पुरुष के संबंधों पर लिख रहा था। 1947 के बाद का मंटो 1947 के पहले वाले मंटो से एकदम जुदा है। धुआं, काली सलवार और बू लिखने वाला मंटो टोबा टेक सिंह, शरीफन, आखिरी सैल्यूट, खोल दो जैसे अफ़साने लिखता है।
विभाजन और साम्प्रदायिक दंगों का असर मोहन राकेश, राही मासूम रज़ा, भीष्म साहनी वगैरह के लेखन में भी है यहाँ तक कि उर्दू के ही बड़े अफसानानिगार राजिंदर सिंह बेदी की कहानी “लाजवंती” मुल्क के बंटवारे के पसमंजर में ही लिखी गयी है लेकिन जितनी गहराई और बारीकी मंटो के अफसानों में हैं किसी में नहीं। मंटो ने बेहतरीन अफसाने लिखे हैं, मंटो पर बहुत लिखा जा चुका है, बावजूद इसके उसकी बहुत कहानियों पर बात नहीं हुई है। उसका एक मशहूर अफ़साना है ‘हतक‘ जिसकी पात्र सौगंधी कथा साहित्य में अमर हो गयी। मशहूर शायर शहरयार ने सौगंधी नाम से एक नज़्म लिखा है, उसके चंद मिसरे देखें-
तिरी गली में हर तरफ़ से आ रहे हैं भेड़िये /किवाड़ खोल देख कैसा जश्न है/हवा भरा वो चाँद/सात इंच नीचे आ गया /ग़िज़ा मिलेगी चियूँटियों को तेरा काम हो गया /हमारे नाख़ुनों के मैल से /तेरे बदन के घाव भर गए /ये हादसा भी हो गया /मगर कहाँ से बीच में ये आसमान आ गया
मंटो चेखव से बहुत मुत्तासिर रहा था इसलिए चेखव के अफ़सानों की छाप भी मंटो के अफ़सानों पर देखने को मिलती है। मिसाल के तौर पर ‘हतक‘ का हिस्सा-
बहुत देर तक वो बेद की कुर्सी पर बैठी रही। सोच-बिचार के बाद भी जब उसको अपना दिल पर्चाने का कोई तरीक़ा न मिला तो उसने अपने ख़ारिशज़दा कुत्ते को गोद में उठाया और सागवान के चौड़े पलंग पर उसे पहलू में लिटा कर सो गई।
जब हम इस अफ़साने को पढ़ते हैं तो यकायक जेहन में चेखव की कहानी ‘दुख‘ का दृश्य उभर आता है जिसमें तांगे वाला जिसका बेटा मर गया है। उसके दुख को कोई सुनता नहीं है, आखिर में वो अपने घोड़े को अपना दुखड़ा सुनाता है।
‘टेटवाल का कुत्ता‘ अपने बयाँ और मजमून के ख्याल से एकदम चौंका देने वाला अफ़साना है। इसमें मंटो ने तंजिया-मजाहिया लहजे में अपनी बात कह दी है। ‘टोबा टेक सिंह’ सिंह मंटो का नायाब अफ़साना है। जिसमें मंटो ने जेल के दृश्य और उसमें रहने वाले पागलों पर लिखा है जिनकी अदला-बदली हो रही है। इन्हीं पागलों में एक पागल है रोशन सिंह था जो टोबा टेक सिंह में ही रहना चाहता था। बँटवारे का असर हिंदुस्तान के एक बड़े तबके पर कुछ ऐसा ही था। पागलों में एक वकील था जो लीडरों को गाली इसलिए देता था क्योंकि वो सोचता था कि जिन्होंने मिल मिला कर हिंदोस्तान के दो टुकड़े कर दिए, उसकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गई और वो पाकिस्तानी।उसकी एक और कहानी है “आखिरी सैल्यूट“।
जिसमें पहले एक ही मुल्क के सैनिक बंटवारे के बाद आमने-सामने हैं। जब वो एक देखते हैं तो सामने जानी पहचानी सूरत नज़र आती है। दोनों सोचते हैं लेकिन फिर रब नवाज़ अपने दिल को तसल्ली देता है कि ऐसी बारीक़ बारीक़ बातें फौजी को बिलकुल नहीं सोचना चाहिए। फौजी की अक्ल मोटी होनी चाहिए कि मोटी अक्ल वाला ही अच्छा सिपाही हो सकता है। विजय राज़ ने इसी कहानी से मिलती जुलती एक फिल्म बनाई है – ‘क्या दिल्ली क्या लाहौर’। जंगों से किसी मुल्क का भला नहीं हो सकता। साठ साल पहले मंटो हमें चेता कर गया बावजूद इसके दोनों मुल्क जंगों की अहमकाना बातें कर रहे हैं जो अफसोसनाक है।
अफ़सानों के अलावा मंटो ने तंज में भी लिखा है। उसने चाचा सैम के नाम कुल जमा नौ ख़त लिखें हैं। इन ख़तों को पढ़कर ऐसा मालूम पड़ता है कि अगर मंटो तंज लिखता तो इस उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा व्यंगकार होता। तीसरे खत (इसमें मंटो ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के अमेरिकापरस्ती के सारे तहों को उघाड़कर रख दिया है) में मंटो ने लिखा है जो काबिले गौर है-
हमारे साथ फौजी सहायता का समझौता बड़ी मा़र्के की चीज है। इस पर कायम रहिएगा। उधर हिंदुस्तान के साथ भी ऐसा ही रिश्ता मजबूत कर लीजिए। दोनों को पुराने हथियार भेजिए, क्योंकि अब तो आपने वह तमाम हथियार कंडम कर दिए होंगे जो आपने पिछली जंग में इस्तेमाल किए थे। आपका यह कंडम और फालतू अस्त्र शस्त्र भी ठिकाने लग जाएगा और आपके कारखाने भी बेकार नहीं रहेंगे।
इन खतों में भी विभाजन का दर्द छलक उठा है। पहले खत में मंटो लिखता है- मेरा देश हिंदुस्तान से कटकर क्यों बना? कैसे आजाद हुआ? यह तो आपको अच्छी तरह मालूम है। यही वजह है कि मैं खत लिखने की हिम्मत कर रहा हूँ, क्योंकि जिस तरह मेरा देश कट कर आजाद हुआ उसी तरह मैं कट कर आजाद हुआ और चचाजान, यह बात तो आप जैसे सब कुछ जानने वाले से छुपी हुई नहीं होनी चाहिए कि जिस पक्षी को पर काटकर आजाद किया जाएगा, उसकी आजादी कैसी होगी !
बहुत कम उम्र में जो मक़बूलियत मंटो को हासिल हुई बहुत कम अफ़सानानिगारों को नसीब हुई है। उसके अफ़सानों पर मुकदमे चले और कोर्ट का चक्कर लगा, आज़ादी के पहले भी और आज़ादी के बाद भी।
18 जनवरी 1955 को लाहौर में मंटों की वफ़ात हुई। मंटो ने 238 कहानियां लिखीं जिसमें 236 उपलब्ध हैं। एक नॉवेल, पांच नाटक संग्रह, बाईस कहानी संग्रह के अलावा दो संग्रह व्यक्तिगत रेखात्र के मंटो के नाम दर्ज हैं।
42 साल 8 महीने सात दिन में मंटो ने अदब को बहुत कुछ दिया लेकिन हमने उसको क्या दिया सिवाय जहालत और गुरबत के। उर्दू के बड़े अफ़सानानिगार कृश्न चन्दर ने बहुत तकलीफ में ये लिखा होगा और ठीक ही लिखा है- ‘फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि उन लोगों ने गोर्की के लिए अजायबघर बनाए, मूर्तियां स्थापित कीं, नगर बसाए और हमने मंटो पर मुक़दमे चलाए, उसे भूखा मारा, उसे पागलखाने पहुंचाया, उसे अस्पतालों में सड़ाया और आखिर में उसे यहां तक मजबूर कर दिया कि वह इंसान को नहीं, शराब की एक बोतल को अपना दोस्त समझने पर मजबूर हो गया था।’
मंटो ने नस्र के हर सिंफ में खूब लिखा है। अफ़सोस कम उम्र में ही मंटो मर गया ।
कृश्न चन्दर के ही लफ़्ज़ों में कहें तो- ग़म उन अनलिखी रचनाओं का है, जी सिर्फ मंटो ही लिख सकता था।
(लेख में प्रयुक्त स्कैच दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक भास्कर रौशन का है)