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न्यायपालिका से जुड़ी कुछ चिन्ताएं

कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकीलों में कुछ अधिक चिंताएं देखने-सुनने को मिल रही है । यह घटने के बजाय अधिक बढ़ रहे हैं। प्रशांत भूषण जजों पर सवाल उठा रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के संबंध में उनका यह कथन है कि कोर्ट अपनी गरिमा खोता  जा रहा हैं। सामान्य जनता का विश्वास न्यायपालिका पर ना रहे या कम, बहुत कम रहे, यह केवल न्यायपालिका के लिए ही नहीं, लोकतंत्र और संविधान के लिए भी बहुत चिंताजनक है। प्रशांत भूषण आश्चर्य प्रकट करते हैं कि ‘यूपी में गुंडागर्दी के राज’ पर न्यायपालिका कैसे शांत है? खुलेआम मंत्री, मुख्यमंत्री सार्वजनिक रूप से प्रदर्शनकारियों और सीएए के विरोधियों से बदला लेने की बात करते हैं जबकि संविधान की शपथ ली है जिन पर संविधान की रक्षा और विधि व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व है, वही संविधान की अनदेखी कर रहे हैं।

स्वाधीन भारत में जनता ने आज के पहले संविधान को बचाने के लिए सामूहिक रूप से कभी कोई धरना प्रदर्शन नहीं किया था। यह विरोध प्रदर्शन देश के प्रत्येक हिस्से में है। सामान्य नागरिक को आज लोकतंत्र और संविधान को बचाए रखने की आज सबसे अधिक चिंता है। न्यायपालिका पर संविधान की रक्षा का सबसे बड़ा दायित्व है।

22 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में ‘अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन 2020 – न्यायपालिका और बदलती दुनिया’ के उद्घाटन समारोह में सुप्रीम कोर्ट के तीसरे वरिष्ठ जज जस्टिस अरुण मिश्रा द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की की गई प्रशंसा को लेकर काफी प्रतिक्रियाएं आई। जस्टिस अरुण मिश्रा 2 सितंबर 2020 को सेवानिवृत्त होंगे। उद्घाटन समारोह में जस्टिस अरुण मिश्रा ने अप्रचलित हो चुके 15 सौ से अधिक कानूनों को समाप्त करने के लिए मोदी और केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की प्रशंसा की। दुनिया के 20 देशों से आए न्याय और कानूनविदों के समक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसनीय, दूरदृष्टि और बहुमुखी प्रतिभा वाला नेता’ कहा जिनकी सोच वैश्विक स्तर की है, लेकिन स्थानीय हितों की अनदेखी नहीं करते। जस्टिस अरुण मिश्रा ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत को ‘अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सबसे अधिक जिम्मेदार और सबसे अधिक अनुकूल सदस्य’ कहा।

उन्होंने प्रधानमंत्री के संबोधन को सम्मेलन में विचार-विमर्श की शुरुआत के साथ और सम्मेलन का एजेंडा तय करने में अहम भूमिका निभाने की बात कही। प्रधानमंत्री को उन्होंने ‘वर्सेटाइल जीनियस’ कहा। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष एपी शाह ने ‘द क्विंट’ से हुई बातचीत में जस्टिस अरुण मिश्रा के बयान पर अपनी असहमति प्रकट की – मौजूदा जज का यूं पी एम की तारीफ करना ठीक नहीं है। यह पूरी तरह से गैरजरूरी है और ऐसा बयान न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बारे में संदेह पैदा करता है। इस तरह के बयान से उन्हें बचना चाहिए था।

जिस कॉन्फ्रेंस में 20 देशों के जज भाग ले रहे हो, वहां सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठतम जज द्वारा प्रधानमंत्री की जाने वाली प्रशंसा पर प्रतिक्रियाओं का आना स्वाभाविक है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक पूर्व जज जस्टिस आर एस सोढ़ी ने ऐसे बयान को न्यायपालिका और उन मामलों को लेकर गलत संदेश देने वाला कहा है जिसमें सरकार भी एक पक्ष होती है – ‘सरकार एक वादी है और एक वादी के रूप में यह बाकी नागरिकों की तरह कानून के दायरे में आती है। सबसे अच्छा यही है कि प्रधानमंत्री की पीठ न थपथपाई जाए और ऐसा कुछ भी ना किया जाए। इससे गलत संदेश जाता है कि जज अपने केस में ऑब्जेक्टिव नहीं होगा।’

सुप्रीम कोर्ट के अतिरिक्त भवन में संपन्न इस कॉन्फ्रेंस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 8 पन्नों का उद्घाटन भाषण था। उन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में गांधी की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ समारोह की बात की और यह कहा कि गांधी स्वयं एक बैरिस्टर थे। उन्होंने गांधी की सत्य निष्ठा और मूल्य निष्ठा की बात की और यह कहा कि कानून का नियम युगों से भारतीय समाज का अभ्यंतर-सभ्यतिक मूल्य है। कानून सभी राजाओं का राजा है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने अंबेडकर को भी याद किया था कि संविधान वकीलों का मात्र दस्तावेज नहीं है। उन्होंने इसे जीवन का एक पहिया कहा। मोदी ने पिछले 5 वर्ष में भारत की अनेक संस्थाओं द्वारा अपनी परंपरा को सुदृढ़ करने की बात कही। ‘लैंगिक न्याय’ की बात की और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ की बात कहकर यह बताया कि शैक्षिक संस्थाओं में उनकी संख्या लड़कों से अधिक है।

प्रधानमंत्री के उद्घाटन भाषण पर अनुकूल-प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं आई। जस्टिस अरुण मिश्रा के बयान पर अनुकूल प्रतिक्रियाएं नदारद रहे और उनकी आलोचना की गई। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पी वी सावंत  ने ऐसी प्रशंसा को अनुचित कहा। उनके अनुसार ‘यह साल का सबसे अच्छा मजाक है’। प्रशांत भूषण ने अपने ट्वीट में यह कहा – क्या आपको आश्चर्य है कि सुप्रीम कोर्ट आपके अधिकारों की रक्षा क्यों नहीं कर रहा है?
क्या यह कहना सही है कि सुप्रीम कोर्ट ‘बिल्कुल खत्म हो गया है’। पूर्व न्यायाधीश एपी शाह ने एसपी जैन मेमोरियल लेक्चर में सुप्रीम कोर्ट को ‘सरकार की एजेंसी’ तक कह दिया था। वे हाल के कुछ फैसलों में इसे देख रहे थे। उनके अनुसार कश्मीर के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ढीला व्यवहार रहा है। यूपी में नियम कानून की स्थिति पर उसने ध्यान नहीं दिया। वहां पुलिस ने कईयों को गोली मार दी, हत्या कर दी। इमरजेंसी में सुप्रीम कोर्ट के जज भयभीत थे। जस्टिस शाह ने आज के हालात को इमरजेंसी से भी बदतर कहा।

15 वे जस्टिस पीडी देसाई मेमोरियल लेक्चर में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने असहमति को ‘लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व’ कहा। असहमति की आवाज को देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी कहना लोकतांत्रिक मूल्यों पर चोट करना है। देशों और सरकार एक दूसरे के पर्याय नहीं है। सरकार का विरोध देश का विरोध नहीं है और कोई भी संस्था आलोचना से परे नहीं है। असहमति के अधिकार में ही आलोचना का अधिकार निहित है। सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित ‘लोकतंत्र और विरोध’ विषय पर अपने भाषण में लोकतंत्र में विरोध की स्वतंत्रता पर बल दिया। उन्हें प्रोत्साहित करने की बात कही और ऐसों पर देशद्रोह का मुकदमा दायर करने को सही नहीं माना। लोकतंत्र सबके लिए है। स्वतंत्र और निडर न्यायपालिका के बिना कानून का शासन नहीं हो सकता। उनके अनुसार सरकार सदैव सही नहीं होती है। नागरिकों को शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का अधिकार है। प्रदर्शन का दमन करने का अधिकार सरकार को नहीं है। प्रशांत भूषण मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के दबाव में है।

फ्रांसिस बेकन को बार-बार याद किया जाता है, उद्धृत किया जाता है कि जजों को हाजिर जवाब और प्रत्युत्पन्नमति से अधिक विद्वान और पांडित्य पूर्ण होना चाहिए, कपट पूर्ण और सत्याभासी से अधिक श्रद्धेय और आदरणीय होना चाहिए और आत्मविश्वास से अधिक विवेकवान और ज्ञानी होना चाहिए। अखंडता और इमानदारी उसके लिए सर्वोपरि है – घूंट और चुस्की है और समुचित मर्यादित सच्चाई उसका सद्गुण है। बेकर ने जजों की निष्पक्षता, शुद्धता और विश्वसनीयता आदि को लेकर जो भी कहा है उसे बार-बार याद किया और कराया जाता रहा है।

दुष्यंत दवे ने अपने एक लेख ‘न्यायपालिका के लिए अनाक्रमणीय बीज शब्द’ – द अनण्स्सिण्लेबल की वर्ड्स फॉर द जुडिशिएरी, 25 फरवरी 2020, द हिंदू – में जस्टिस अरुण मिश्रा के बयान के प्रत्येक शब्द को गंभीरता से लिए जाने की बात कही है। उन्होंने अपने इस सुचिन्तित, तथ्यपरक लेख में 1981 की संविधान-पीठ में लिए गए एक निर्णय के अलावा 1993 की दूसरी संवैधानिक पीठ के बाद 1995 के एक केस ‘सी रविचंद्रन अययर बनाम जस्टिस ए एम भट्टाचार्जी एवं अन्य’ का उल्लेख किया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने जज के स्टैंडर्ड की याद दिलाई थी। 1981 की संविधान पीठ ने अपने निर्णय में जजों को किसी भी आर्थिक या राजनीतिक शक्ति से अलग रहकर कानून के नियम के सिद्धांत को कायम रखने की बात कही थी। दवे ने कई उदाहरण देकर यह बताया है कि समय-समय पर जजों को किसी भी प्रकार के दबाव से परे रहने की बात कही गई है। आज ऐसी सभी उदाहरणों का स्मरण इसलिए जरूरी है कि आज जज जितने अधिक दबाव में हैं उतने पहले कभी नहीं थे।

दुष्यंत दवे ने 1997 में पूर्ण पीठ – फुल कोर्ट द्वारा न्यायिक जीवन के मूल्यों के पुनर्कथन चार्टर की याद दिलाई है जो ‘एक गाइड’ की तरह है। इस चार्टर के अनुसार जजों को स्वतंत्र, सुदृढ और आदरणीय होना चाहिए। न्यायिक नैतिकता की दृष्टि से यह चार्टर अधिक महत्वपूर्ण है।

दुष्यंत दवे ने संवैधानिक सभा की उस बहस का जिक्र किया है जिसे 24 मई 1949 को बिहार के प्रोफेसर किटी शाह ने उस संकट खतरे के बारे में भी बताया था यह कहा था कि यह संविधान प्रधानमंत्री के हाथों में इतनी अधिक शक्ति और प्रभाव क्षमता प्रदान करता है जजों राजदूतों राज्यपालों से संबंधित की वैसी स्थिति में प्रधानमंत्री के तानाशाह बन जाने का कहीं अधिक खतरा है उन्होंने उसी समय यह कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के जजों को उनके प्रभाव से पूर्णता बाहर होना चाहिए न्यायपालिका को पूर्णता कार्यपालिका विधायिका से संपर्क और किसी प्रकार के प्रलोभन से बाहर रहना चाहिए केवल कार्यकाल में ही नहीं सेवानिवृत्ति के बाद भी ऐसा बहुत कम हो पाया है जिसे आज कहीं अधिक सामान्य नागरिक चिंतित है।

न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच की दूरी न्यायपालिका के लिए ही नही, लोकतंत्र और संविधान के लिए भी कहीं अधिक हितकर है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कलीश्वरम राज ने पिछले दिनों अपने एक इंटरव्यू, टेलीग्राफ, 20 फरवरी 2020 में शाहीनबाग संबंधी सुप्रीम कोर्ट के प्रयत्न को ‘लोकतंत्र के लिए खतरा’ माना है। सुप्रीम कोर्ट ने शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों से बातचीत के लिए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगडे, वकील साधना रामचंद्रन पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह की कमेटी नियुक्त की जिसे कलीश्वरम राज सही नहीं मानते। वे सुप्रीम कोर्ट को संवैधानिक कोर्ट से कार्यपालिका कोर्ट में बदलते देखते हैं क्योंकि प्रदर्शनकारियों से बातचीत करना-कराना सरकार का काम है – कोर्ट ना तो कार्यपालिका का विस्तार है और ना उसका स्थानापन्न है। उसे लोकतंत्र के ‘अंपायर’ के रूप में कार्य करना है। सुप्रीम कोर्ट के काम कहीं बड़े और मूलभूत, तात्विक कार्य हैं। राज यह मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट अपने धर्म के निर्वहन में असफल रही है। बाबरी मस्जिद ध्वंस, नोटबंदी, कश्मीर, तीन तलाक, सक्रियता वादियों की गिरफ्तारी, सड़कों पर प्रदर्शनकारियों की हत्या, धारा 144 आदि के दुरुपयोग से लोगों में चिंताएं बढ़ गई हैं। नोटबंदी से असंवैधानीकरण का आरंभ हुआ था जो थमा नहीं, बढ़ता ही गया है। न्यायपालिका संविधान की रक्षक है, अभिभावक है। उसने इस दायित्व का पूर्णतः निर्वाह नहीं किया। किया होता तो संविधान की रक्षा के लिए पूरे देश में लोग सड़कों पर न उतरे होते, उसकी रक्षा की कसमें न खाई होती और ना उसकी प्रस्तावना का हजारों लाखों की संख्या में सामूहिक पाठ न किया होता। कोर्ट का कार्य न तो विधायिका का कार्य है, ना कार्यपालिका का। जो सरकार का काम है, वह न्यायपालिका का काम नहीं है। स्वाभाविक है न्यायपालिका से जुड़ी नागरिकों की चिंताएं, जिन्हें मिटाने का काम न्यायपालिका ही कर सकती है।

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