(शहीद चंद्रशेखर आजाद की स्मृति को सलाम करते हुए उनके सपनों के हिंदुस्तान बनाने की जिम्मेदारी याद दिलाते हुए आज़ाद के शहादत दिवस पर यहां प्रस्तुत है के के पाण्डेय का लेख: सं.)
1857 में मौलाना लियाकत अली के नेतृत्व में इलाहाबाद में लड़ी गई पहली जंगे आजादी की गवाह रही वह धरती जिस पर कभी बस्तियां बसी थी, अंग्रेजों ने कत्लेआम मचा कर उन बस्तियों को जमींदोज कर कंपनी गार्डन बना दिया था। उसे 27 फरवरी 1931 को अपने लहू से सींच कर क्रांतिकारी आजाद ने आने वाली वतनपरस्त नस्लों की इबादत गाह में तब्दील कर दिया।
आज 27 फरवरी को उनकी शहादत के 89 साल बाद जब उनको याद करने,हमसब शहीद चंद्रशेखर आजाद पार्क में इकट्ठा होंगे, तब इस बात को जरूर सोचना होगा कि आजाद भारत की जैसी तस्वीर उनकी आंखों में थी, देश का जो सपना उन्होंने और उनके साथियों ने देखा था और शहादत को गले लगाया, क्या उसे पूरा करने की ओर हम बढ़े हैं। गरीब ब्राम्हण परिवार में पैदा हुए, संस्कृत पढ़ने वाले असहयोग आंदोलन में 14 साल के सत्याग्रही‘आजाद’ स्वतंत्रता से प्रजातंत्र और फिर समाजवादी समाज के निर्माण के लक्ष्य तक की क्रांतिकारियों की यात्रा में (मात्र 25 साल की उम्र में शहीद हो जाने वाले) उनके ‘कमांडर इन चीफ’ बने जबकि अभी और लोग पूर्ण स्वतंत्रता तक की मांग नहीं कर पाए थे।
एक तरफ तो आजाद के कुशल नेतृत्व में क्रांतिकारी लोग भूमिगत रहते हुए, कठिन कठोर जीवन जीते हुए, देश की आजादी की लड़ाई में विशाल साधन संपन्न ब्रितानी हुकूमत से लोहा ले रहे थे तो दूसरी तरफ, उनकी पार्टी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी (एच एस आर ए) का घोषणा पत्र उठाकर देख लीजिए तो वह जाति- वर्ग किसी भी तरह के शोषण से मुक्त, समतामूलक समाज और बंधुत्व पर आधारित आजाद भारत का एक खाका भी जनता के सामने रख रहे थे। एक तरफ वे अंग्रेज सरकार द्वारा लाए जा रहे जन विरोधी कानूनों और उनकी ‘बांटो और राज करो’ की नीति के खिलाफ आंदोलन के हर तरह के रूप का जरूरत के अनुसार इस्तेमाल कर रहे थे, चाहे वह बहरों को सुनाने के लिए धमाका करके असेंबली में पर्चे फेंक,गिरफ्तार होकर अदालत को अपनी बात कहने का मंच बना देना हो या फिर छुआछूत से लेकर सांप्रदायिकता और भाषाई समस्या तक पर लेख लिखकर, अखबार निकालकर, लोगों को अपना देश बनाने और उसकी समस्याओं को हल करने की राह भी सुझा रहे थे।
आज उनकी आजाद भारत को लेकर जो सामाजिक- राजनैतिक-आर्थिक चिंताएं थी, वह खतरनाक हद तक एक बुरे सपने जैसी घटित हो रही है। हमारा देश लगातार होते सांप्रदायिक दंगों से आगे बढ़कर भयानक सांप्रदायिक विभाजन और बर्बर हिंसा, राज्य दमन , सामाजिक भेदभाव में जकड़ गया है। हमारे द्वारा ही चुनी गई सरकारें एक तरफ तो विभाजन कारी कानून ला रही हैं और उनका शांतिपूर्वक विरोध करने पर लोगों को देशद्रोही बता कर जेलों में ठूंस रही हैं,आंदोलनों पर बर्बर पुलिसिया दमन ढा रही हैं। देश की संपत्ति कुछ लोगों के लाभ के लिए इस्तेमाल की जा रही है। आम लोगों का जीवन महंगाई और रोजगार छिनने से कठिन से कठिनतम होता जा रहा है। बेरोजगारी की ऐसी मार पड़ी है कि भारत युवाओं द्वारा आत्महत्या कर लेने के मामले में दुनिया में सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा हो गया है। सरकार लगातार लोगों के जीवन जीने की बुनियादी चीजों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, सम्मानजनक जीवन जीने लायक रोजगार देने से हाथ खींच रही है। लोगों के कठोर परिश्रम से अर्जित गाढ़ी कमाई भी एक के बाद एक हो रहे बैंक घोटालों से लूट ली जा रही है। आज वह नौजवान हो या नौकरी पेशा कर्मचारी, किसान हो या खेत-खदान -बालू के मजदूर, सभी के जीवन को इस सरकार ने संकट में डाल दिया है। आजादी के आंदोलन के दौर में जो काम अंग्रेज सरकार कर रही थी आज की सरकार भी वही कर रही है। हमारे पुरखों ने 1857 से लेकर 1947 तक 90 साल लगातार लड़कर, शहादतें देकर जिस भारत का सपना देखा था,उन सपनों से दगा कर रहा है हमारा शासक वर्ग।
आजादी के बाद हमने एक संविधान पाया था जिसमें सामाजिक शैक्षणिक रूप से जो कमजोर तबके हैं, उनके लिए कुछ विशेष प्रावधान किए गए थे। आदिवासी समाजों के लिए, वंचित तबकों के लिए जो प्रावधान थे, उन सब को यह सरकारें एक-एक कर खत्म कर रही हैं। यह आजादी की लड़ाई के सपनों के साथ गद्दारी है। लोगों ने हर बार इसका मुकाबला किया है और आज हमारे ऊपर भी यही जिम्मेदारी आई है। क्या हम अपने जिस शहीद के स्मृति को यहां सलाम करने आए हैं, उसके सपनों को भी पूरा करने की जिम्मेदारी लेंगे ! और लेंगे, तो यही हम सब के नेता शहीद चंद्रशेखर आजाद की स्मृति को हमेशा जीवित रखेगी।
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