आज के भारत की कल्पना चार वर्ष पहले तक शायद ही किसी ने की थी। अहिंसा से हिंसा की ओर, सत्य से असत्य की ओर और ‘सत्याग्रह’ से मिथ्याग्रह की ओर देश बढ़ रहा है और हम सब गांधी की 150 वीं वर्षगांठ धूमधाम से मना रहे हैं।
सरकारी योजनाओं की कमी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी के लेख समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रहे हैं। वे बापू की 150 वीं जयन्ती के आयोजनों का शुभारम्भ कर रहे हैं। उन्होंने बापू के समानता और समावेशी विकास के सिद्धान्त की बात कही है। उनके 1941 के एक लेख ‘रचनात्मक कार्यक्रम: उसका अर्थ और स्थान’ का उल्लेख कर उनके ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ को पढ़ने की सलाह भी दी है – ‘हम कैसे गांधी जी के सपनों का भारत बना सकते हैं – इस कार्य के लिए इसे पथ प्रदर्शक बनायें। ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के बहुत से विषय आज भी प्रासंगिक हैं।’
गांधी का स्वप्न, स्वप्न ही बना रहा। उसे न नेहरू ने समझा, न पटेल ने, न कांग्रेस ने, न अन्य राजनीतिक दलों ने। भाजपा और संघ के समझने का प्रश्न ही नहीं है। अभी मोहन भागवत ने ‘ भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दृष्टिकोण ’ जो सामने रखा है, क्या उसका गांधी के स्वप्न से कोई संबंध है ?
गांधी के जीवनकाल में लगातार उनकी हत्या की कोशिश होती रही थी – दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक। 30 जनवरी 1948 से पहले भारत में उनकी हत्या की पांच कोशिशें हुई थीं – 1934, 1944 में दो बार, 30 जनवरी 1946 और 20 जनवरी 1948। 30 जनवरी 1946 को बच जाने के बाद अपनी प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा था – ‘मैं सात बार इस प्रकार के प्रयासों से बच गया हूं। मैं इस प्रकार मरने वाला नहीं हूं। मैं तो 125 साल जीने वाला हूं।’
नाथूराम गोडसे ने मराठी अखबार ‘अंग्रणी’ में लिखा था – परन्तु आपको जीने कौन देगा ?’ 20 जनवरी 1948 को बिड़ला भवन की प्रार्थना सभा में मदलाल पाहवा ने उन पर बम फेंका था। इस घटना के मात्र दस दिन बाद नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना सभा में उनकी हत्या कर दी।
गांधी की हत्या एक व्यक्ति मात्र की हत्या न होकर उन आदर्शों, सिद्धान्तों, विचारों और स्वप्नों की हत्या थी जिनका आज भारत का शासक वर्ग गुणगान कर रहा है। उनकी हत्या सत्य, अहिंसा, मानवता, सादगी, स्वच्छता, चारित्रिक गुण, साम्प्रदायिक सदभाव की भी हत्या थी। प्रायः प्रत्येक वर्ष 2 अक्टूबर को बड़े धूमधाम के साथ गांधी का समरण किया जाता है। लम्बी चौड़ी बातें कही और हांकी जाती है पर मात्र झाड़ू पकड़कर फोटो खिंचा लेने से भारत स्वच्छ नहीं होगा। हमारे भीतर कलुष-कल्मष हो और बाहर हम स्वच्छता कार्यक्रम चलायें, इससे कुछ बनने-संवरने वाला नहीं है। गांधी ने गांवों और शहरों की सफाई की बात कही है, पर भीतर की अपने भीतर की सफाई के बिना बाहरी सफाई का विशेष अर्थ नहीं है।
गांधी ने ‘शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई’ की बात कही। जहां तक शहर की सफाई का प्रश्न है, उन्होंने 28 मार्च 1929 के ‘यंग इंडिया’ में यह लिखा – ‘ सचमुच म्युनिसिपैलिटी को सफाई का काम करने वाली एक प्रमुख संस्था होना ही चाहिए और उसमें न सिर्फ शहर की बाहरी सफाई का बल्कि सामाजिक और सार्वजनिक जीवन की भीतरी सफाई का भी समावेश होना चाहिए।’
गांधी के साथ किसी राजनीतिक दल ने सही सलूक नहीं किया। आयोजनों-समारोहों में उनका गुणगान किया जाता रहा, राजघाट पर जाकर उनके प्रति श्रद्धा निेवेदित की जाती रही, पर अपने आचरण में कोई दल, न कोई राजनेता उनसे कुछ सीख पाया। अब प्रधानमंत्री अखबारों में लेख भेजकर हमें यह बताते हैं – ‘आज बहुत बड़ी संख्या उन भारतीयों की है जिन्हें स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने का सौभाग्य नहीं मिला। हमें उस समय देश के लिए जीवन बलिदान करने का अवसर तो नहीं मिला लेकिन अब हमें हर हाल में देश की सेवा करनी चाहिए और ऐसे भारत का निर्माण करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए जैसा भारत का सपना हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने देखा था’। (नरेन्द्र मोदी, प्रभात खबर, 02.10.2018)।
मोदी, भाजपा, आरएसएस का भारत का स्वप्न क्या गांधी के भारत के स्वप्न से मेल खाता है ? क्या गांधी-विचार, दर्शन, सिद्धान्त, आदर्श-मूल्य जिन्हें ‘गांधीवाद’ कहा जाता है, से भाजपा और आरएसएस के विचारों और सिद्धान्तों से कोई मेल है या दोनों दो ध्रुव पर हैं। आज का भारत जिस आर्थिक नीति को लेकर ‘घोड़े पर सवार’ (अष्टभुजा शुक्ला) है, उसका गांधी के भारत से कोई संबंध नहीं है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने उपभेक्तावाद और लालच को अधिक बढ़ाया है। गांधी का कथन है ‘दुनिया हर किसी की ‘नीड’ के लिए पर्याप्त है लेकिन हर किसी की ‘ग्रीड’ के लिए नहीं’। गांधी के सिद्धान्त और व्यवहार में, कथनी में कहीं कोई अन्तर नहीं रहा है। वे ‘अधनंगा फकीर’ थे। सूट-बूट धारण करने वालों और दिन में चार पांच बार वस्त्र बदलने वालों का जीवन गांधी के जीवन के विपरीत है। गांधी के डेढ़ सौ वे वर्ष में गांधी की आंधी फैलानेवाले कम नहीं होंगे, जिनमें अधिसंख्य बहुरुपिए होंगे। बहुरूपियों से मेरा तात्पर्य उन व्यक्तियों, संस्थाओं और दलों से है जिनका कोई एक रूप नहीं है। वे जो कहते हैं, वह करते नहीं और जो करते हैं, वह कहते नहीं।
गांधी से सीखने की जरूरत है। गांधी साम्प्रदायिकता के विरोधी थे। उनकी वैचारिकता सम्प्रदायवादियों, धर्मान्धों और फंडामेंटलिस्टों की वैचारिकता के विरुद्ध है। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को ‘ऊपरी एकता’ कहा है। ‘गोरक्षा’ को वे ‘हिन्दू धर्म का प्रधान अंग’ मानते थे, पर उन्होंने यह भी कहा कि ‘इस बारे में हम जो केवल मुसलमानों पर ही रोष करते हैं, यह बात किसी भी तरह मेरी समझ में नहीं आती। अंग्रेजों के लिए रोज कितनी ही गायें कटती हैं। परन्तु इस बारे में तो हम कभी जबान तक भी शायद ही हिलाते होंगे…..गाय के नाम से जितने झगड़े हुए हैं। उनमें से प्रत्येक में निरा पागलपन भरा शक्ति क्षय हुआ है।’ (यंग इंडिया, 24.12.1931 )
धर्म गांधी के लिए निजी विषय था। राजनीति में वे इसे कोई स्थान देना उचित नहीं मानते थे। गांधी का हिन्दू धर्म ‘हिन्दुत्व’ नहीं था। आरएसएस की दिशा को उन्होंने ‘हिन्दू धर्म के विरोध की दिशा’ कहा है जिसके बुरे परिणाम की आशंका भी प्रकट की थी। गांधी का धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है – ‘सत्य मेरा भगवान है, अहिंसा उसे पाने का साधन’। वे उसे ‘धार्मिक’ कहते थे ‘जो दूसरों का दर्द समझता है।’ आज दूसरों को दर्द देेने वाले, भयाक्रान्त करने वाले, मार-पीट करने वाले भी गांधी पर बोलेंगे, लिखेंगे। देश में जब भय का वातावरण फैल रहा है, हमें गांधी का यह कथन याद रखना चाहिए ‘चलिए सुबह का पहला काम ये करें कि इस दिन के लिए संकल्प करें कि मैं दुनिया में किसी से डरूंगा नहीं…..मैं किसी अन्याय के समक्ष झुंकूंगा नहीं। मैं असत्य को सत्य से जीतें… और असत्य का विरोध करते हुए मैं सभी कष्टों को सह सकूं।’
गांधी के सत्य और अहिंसा को हम सबने छोड़ दिया है। सत्य और अहिंसा संबंधी उनके विचारों को हमने धारण नहीं किया। जो झूठ बोलता है और हिंसा का वातावरण फैलाता है, वह भी गांधी का नाम जपता है। आवश्यकता ऐसे लोगों से सावधान रहने की है। देश में असहिष्णुता का माहौल बढ़ा है। गांधी ने कहा था ‘क्रोध और असहिष्णुता सही समझ के दुश्मन है।’ हमारा समय ‘ पोस्ट ट्रूथ ’ (असत्य झूठ) का है और गांधी की मुठभेड़ इस समय से है। गांधी के लिए अल्पमत और बहुमत का प्रश्न कभी प्रमुख नहीं था। ‘सच तो सच है’। ‘स्वच्छाग्रह’ से सत्याग्रह अधिक महत्वपूर्ण है। सत्य की आत्मनिर्भरता की बात उन्होंने कही है ‘सत्य बिना जनसमर्थन के भी खड़ा रहता है। वह आत्मनिर्भर है।’
सम्पूर्ण गांधी-दर्शन को समझने के लिए ‘सत्य’ एक कुंजी है। गांधी से बड़ा कोई सत्याग्रही नहीं हुआ। इस सत्य के कारण ही अंग्रेज झुके और ब्रिटिश साम्राज्य कायम नहीं रह सका। दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल में 1906 में एशियाई लोगों के साथ औपनिवेशिक सरकार के भेदभाव के कानून के खिलाफ उन्होंने ‘सत्याग्रह’ का प्रयोग किया। भारत का पहला सत्याग्रह आंदोलन चम्पारण से आरम्भ हुआ। फिर गुजरात के खेड़ा और बारादोली में। ‘सत्याग्रह बाहरी सहायता पर निर्भर नहीं करता‘, ‘यह अपनी सम्पूर्ण शक्ति भीतर से प्राप्त करता है।’ त्रिदीव सुहृद ने गांधी की भीतरी आवाज को जिसे हम अन्तर्यामी, आत्मा या ईश्वर कहते हैं, सत्य के समीप माना है। जो झूठ और असत्य के साथ है, वह गांधी का अपने हित और स्वार्थ में उपयोग कर सकता है, उनके साथ कभी नहीं हो सकता।
गांधी सदैव हत्या के विरुद्ध थे। बुद्ध के बाद वे अकेले है जिनका मार्ग अहिंसा का मार्ग था। गांधी के लिए ‘गीता’ से अधिक महत्व कानून का था। गीता के दुसरे अध्याय में कृष्ण द्वारा कौरवों का नाश करने को दिया गया उपदेश उनके लिए महत्व का नहीं था। उन्होंने इस संबंध में निर्दोष व्यक्ति द्वारा ही दोषियों को सजा देने के अधिकार प्राप्ति की बात कही है। वे पापियों द्वारा पापियों का न्याय करने के खिलाफ थे। उनका मत था कि दंड देने का अधिकार कानून द्वारा स्थापित सरकार को है। न्यायाधीश और जल्लाद में वे अन्तर करते थे। कानून को अपने हाथ में लेने के वे खिलाफ थे। अनुशासन उनके लिए अपने आप में कोई मूल्य नहीं था। अपने एक साथी के इस कथन का कि आरएसएस में ‘गजब का अनुशासन’ है, गांधी ने यह उत्तर दिया था ‘हिटलर के नाजियों में और मुसोलिनी के फासिस्टों में भी ऐसा ही अनुशासन नहीं है क्या ?’
प्यारेलाल के अनुसार उस दिन गांधी ने आरएसएस को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखनेवाली साम्प्रदायिक संस्था’ कहा था। 21 सितम्बर 1947 को उन्होंने गोलवलकर से यह कहा था ‘मैंने सुना है कि इस संस्था के हाथ भी खून से सने हुए हैं।’ गोलवलकर के उत्तर के बाद उन्होंने कहा था कि संघ अपने ऊपर लगाये गये आरोपों को अपने आचरण और काम से गलत साबित करे।
गांधी किसानों की सामाजिक- आर्थिक स्थिति की बेहतरी चाहते थे। किसानों के ‘ पूरक उद्योग ’ की बात उन्होंने कही है। गांधी जयन्ती के दिन ही किसानों के दिल्ली प्रवेश को लेकर सरकार और पुलिस ने बाधाएं उत्पन्न की। उन पर लाठी चार्ज हुआ। किसानों के प्रति सरकार का रवैया काॅरपोरेट के प्रति रवैये से भिन्न ही नहीं, विपरीत भी है। गांधी किसानों का स्थान पहला मानते थे। 1945 में ‘द बाम्बे क्रानिकल’ में उन्होंने लिखा था कि ‘किसानों के पास राजनीतिक सत्ता के साथ हर किस्म की सत्ता होनी चाहिए’, ‘देश में उनकी आवाज ही सबसे ऊपर होनी चाहिए’ और ‘अगर विधानसभायें किसानों के हितों की रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध होती हैं, तो किसान के पास सविनय अवज्ञा और असहयोग का अचूक इलाज तो हमेशा होगा ही’।
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