‘हमारा समय और चंद्रबली सिंह की आलोचना दृष्टि’ विषय पर लखनऊ में संगोष्ठी
प्रसिद्ध आलोचक चंद्रबली सिंह की पुण्य तिथि पर कैफ़ी आज़मी एकेडमी में ‘हमारा समय और चंद्रबली सिंह की आलोचना दृष्टि’ विषय पर चंद्रबली सिंह स्मृति न्यास, जलेस, जसम और प्रलेस की ओर से संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
सबसे पहले चंद्रबली सिंह के पुत्र प्रवाल कुमार सिंह ने आये हुए अतिथियों का स्वागत किया। उसके बाद विषय प्रवर्तन करते हुए कथाकार देवेन्द्र ने अपने विद्यार्थी जीवन की तमाम यादों को साझा किया। उन्होंने बताया कि आपातकाल के समय एक कविता के कारण उनके अधिक निकट आया। वे गाँवों में स्टडी सर्किल चलाने के पक्षधर थे। उनके आचरण से ही मार्क्सवाद को समझा जा सकता था। उन्होंने कहा कि हमारे समय की माँग है कि संगठनों में एकता हो। सब मिलकर ऐसा निर्णय लें क्योंकि यह अब तक का सबसे कठिन समय है।
कवि-आलोचक चन्द्रेश्वर ने कहा कि चंद्रबली सिंह ने 23 साल की उम्र से लिखना शुरू किया था। कविताओं से उनका गहरा लगाव था। तमाम विदेशी कविताओं का उन्होंने उम्दा अनुवाद किया। उनका समय रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के बीच आता है। चंद्रबली सिंह ने आलोचना विधा में महत्वपूर्ण काम किया लेकिन वे मुख्य धारा में अपनी बड़ी पहचान नहीं बना सके। ऐसा क्यों हुआ, इस पर आज विचार होना चाहिए। चंद्रबली सिंह मानते थे कि लेखक ज्यादातर जुगाड़ू और अवसरवादी हो गए हैं। लेखक का काम दिलबहलाव नहीं है। वह डर को खत्म करता है, उसे डरना नहीं चाहिये। वे 24 कैरेट के मार्क्सवादी आलोचक थे। वे जनसरोकारों के आलोचक थे। उन्होंने जनवाद को परिभाषित करने का काम किया। उन्होंने प्रेमचंद के यथार्थवाद को जनवादी यथार्थवाद कहा। उन्होंने पहली बार देवकीनंदन खत्री को महत्वपूर्ण रूप से व्याख्यायित किया। चन्द्रेश्वर ने अंत में यह भी कहा कि 90 के बाद की मार्क्सवादी आलोचना समय से तादात्म्य नहीं बना पाती। आज जरूर उसमें परिवर्तन दिखाई देता है।
वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि चंद्रबली सिंह ने शीतयुद्ध के दौर में लिखना शुरू किया था। आज़ाद देश में मार्क्सवादी आलोचना के सिद्धांत निरूपण की जरूरत थी। उन्होंने इसे स्पष्ट किया। आलोचक की भूमिका की भी उन्होंने व्याख्या की। उस दौर में जो नजरिया चंद्रबली सिंह ने अपनाया वह रामविलास शर्मा से अलग था। उन्होंने उस समय जो दिशा दी वह आज हमारे काम की है। वे खूब उद्धरण देते थे और उससे जोड़ने का काम करते थे। आज के समय की चुनौतियों के सामने खड़े आलोचक नहीं हैं। फासीवाद से कोई वाद-विवाद नहीं। आज ऐसे माहौल में चंद्रबली सिंह के विचारों की आवश्यकता अधिक है। उन्होंने कहा था कि हमें घृणा करना सीखना चाहिए। जो शोषक हैं उनसे घृणा जरूरी है। उनके लेखों का पुनर्पाठ जरूरी है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर, कवि और आलोचक बलराज पाण्डेय ने कहा कि चंद्रबली सिंह से उनकी गहरी आत्मीयता थी। उनकी एक ट्रैजिक जिंदगी थी। उनके छोटे बेटे का निधन उनके सामने ही हो गया था। वे मानते थे कि उनकी गलती थी कि उन्होंने रामविलास शर्मा का साथ छोड़कर बनारस में नौकरी की और बड़ी गलती की कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में नौकरी लग जाने के बाद भी विभाग में कार्यभार ग्रहण नहीं किया। उनमें गज़ब की वैचारिक प्रतिबद्धता थी। बलिराज पाण्डेय ने चंद्रबली सिंह से जुड़े ढेर सारे संस्मरण सुनाए। उन्होंने चंद्रबली सिंह की पुस्तक ‘आलोचना का जनपक्ष’ के सैद्धांतिक और व्यवहारिक आलोचना के पक्षों को रेखांकित किया। वे मानते थे कि आलोचक वही है जो कविता की पुनर्रचना करे। उसे गंभीर, निष्पक्ष और समझदार होना चाहिए। उन्होंने तमाम लेखकों की गंभीर समीक्षा की। उन्होंने नई कविता को संक्रमणशील कविता कहा है। उनके अनुवाद ऐसे थे जैसे मूल कविता हो।
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए जलेस के कार्यकारी अध्यक्ष चंचल चौहान ने उनके व्यक्तिगत जीवन पर कम आलोचना दृष्टि पर अधिक बातें कीं। उन्होंने माना कि उनकी आलोचना मुक्तिबोध के निकट है और रामविलास शर्मा से अलग है। सांगठनिक रूप से भी वे व्यापक साझेदारी के समर्थक थे। हमारा समय ‘पोस्ट ट्रुथ’ का समय है। ऐसे समय में व्यापक एकता की जरूरत है। साहित्य में भी व्यापक दृष्टि की जरूरत है। ऐसे समय में चंद्रबली सिंह की आलोचना हमें दृष्टि देती है। यह व्यक्तिगत आलोचना का समय नहीं है। न ही व्यक्तिगत आलोचना होनी ही चाहिए। आलोचना का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिए।
कार्यक्रम का आलोचकीय संचालन ज्ञानप्रकाश चौबे ने किया। धन्यवाद ज्ञापन उषा राय ने किया। इस अवसर पर रमेश दीक्षित, अजय सिंह, कौशल किशोर, किरन सिंह, नलिन रंजन सिंह, अवधेश कुमार, भगवान स्वरूप कटियार, विजय राय, रामकिशोर, राजेश कुमार, श्याम अंकुरम, गौरी त्रिपाठी, बिपिन तिवारी, प्रदीप जायसवाल, विपिन कुमार शर्मा, इंदू पांडेय, हिरण्मय धर, मधुसूदन मगन ,माधवी मिश्रा आदि साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।