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देश के 12 करोड़ लोगों के पास कोई काम नहीं

लखनऊ. हर हफ्ते रविवार को होने वाली शीरोज़ बतकही की 37 वीं कड़ी, बेरोजगारी समस्या और समाधान पर केंद्रित रही।

बातचीत को शुरू करते हुए सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने कहा कि भारत की कुल आबादी का 11 प्रतिशत यानी 12 करोड़ लोगों के पास कोई काम नही है। उच्च शिक्षित 17 प्रतिशत लोगों को नौकरी का ठिकाना नहीं तो कम पढ़े लिखे की क्या बिसात ? देश विस्फोटक स्थिति में है। बेरोजगार युवकों का राजनैतिक इस्तेमाल किया जा रहा है। घर, परिवार और समाज, सबके लिए उनकी प्रासंगिकता नहीं है। नोयडा के चौराहों पर सुबह के दिहाड़ी मजदूर बाजार में बीटेक और एम.बी.ए. किये नौजवान आ जाएं तो समस्या की गम्भीरता समझी जानी चाहिए। युवावर्ग हताश और कुंठित है। वह भीड़ का हिस्सा बनने को अभिशप्त है। वह किसी भी कीमत पर बिकने को मजबूर है। उसे जितना सस्ता बनाया जा सके, यह नीति निर्धारकों का खेल है। चार , पांच हजार रुपए में 12 घंटे काम करने वाले उपलब्ध हैं।

श्री कुशवाहा ने कहा कि सम्मानजनक काम, बेरोजगारी की बाढ़ में नहीं मिल सकती। उन्हें हर हाल में समझौता करना सिखाया जा रहा है । उनके स्वाभिमान और मूल्य का मर्दन किया जा रहा है । राजस्थान में 4 पढ़े लिखे युवक अकारण रेल के नीचे नहीं आ जाते? हताशा, क्रियाशील आयुवर्ग का दहन कर रही है। कोई भी मुल्क प्रायोजित बेरोजगारी पैदा करने का खेल नहीं करता। यह अपने यहां हुआ है।

आज देश के औद्योगिक शहरों में गए मजदूर, गांवों में लौट चुके हैं। वहां नरेगा भी बंद पड़ा है। फिर करें तो क्या ?

बतकही को आगे बढ़ाते हुए प्रभात त्रिपाठी ने कहा कि बेरोजगारी की समस्या इस समय की बड़ी सामाजिक समस्याओं में से है लेकिन इस पर गम्भीर चर्चा कम ही होती है। युवाओं के लिए यह एक बहुत बड़ी समस्या है और यदि निदान की तरफ नहीं बढ़ा गया तो इसके गम्भीर सामाजिक परिणाम देखने को मिल सकते हैं। ताजा आंकड़ें तो उपलब्ध नहीं हैं मगर एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष लगभग सवा करोड़ युवा रोजगार पाने के लिए तैयार हो रहे हैं जबकि लगभग मात्र सवा लाख लोगों को ही औपचारिक रोजगार मिल पाते हैं। अर्थात 99% लोग अनौपचारिक क्षेत्र में संघर्ष कर रहे होते हैं और बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे लोगों की गिनती में इजाफा कर देते हैं।

उन्होंने कहा कि देश में 94% लोग अनौपचारिक रोजगार में हैं, मात्र 6% लोग ही औपचारिक रोजगार में हैं। सरकार रोजगार से सम्बन्धित आंकड़े न दे पाने के कारण विभिन्न प्रकार के दावे रोजगार सृजन से सम्बन्धित करती रहती है। जैसे कि दो करोड़ आटो बिकने को भी स्व रोजगार बताया गया। इसके पहले पकोड़ा रोजगार आदि भी खूब चर्चा में रहा है। जबकि स्वरोजगार की असलियत जानने के लिए जीएसटी के आंकड़ों को देखना चाहिए। आर्थिक सर्वेक्षण जारी होने के बाद बिजनेस स्टैंडर्ड में एक रिपोर्ट छपी थी कि 13% जीएसटी देने वाले संस्थान 93% टैक्स में योगदान टर्नओवर में रखते हैं। 0.6% फर्म 38% टर्नओवर करती हैं। अर्थात वहां भी बिजनेस का जबरदस्त केन्द्रीकरण हो चुका है जो रोजगार सृजन में उतना सहायक नहीं होता है क्योंकि बड़े स्तर पर व्यापार करने वाले लागत घटाने के लिए मशीनी श्रम को तरजीह देते हैं जो कि व्यापार के केन्द्रीकरण में और ज्यादा सहायक होता है। अतः जीडीपी बढ़ने के साथ – साथ उसी अनुपात में रोजगार नहीं बढ़ता है।

श्री त्रिपाठी ने कहा कि विश्व बैंक ने अपने अनुमान में बताया है कि आने वाले समय में 69% रोजगार ऑटोमेशन के चलते खत्म हो जाएंगे। सरकारों की गम्भीरता इसी बात से इंगित होती है कि भारत में कोई रोजगार पॉलिसी ही नहीं है, जो कि अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन का सदस्य होने के लिए आवश्यक है।

हसन उस्मानी ने कहा कि रोजगार की स्थिति पूरे देश में भयावह है और उसे लखनऊ के ही उदाहरण से समझा जा सकता है। एक बीपीओ के बन्द होने से 2000 नौकरियां गईं। 600 नौकरियां टीसीएस में कम हो गईं। वोडाफोन और आइडिया के विलय ने तमाम नौकरियां खत्म कर दीं। इन सबने मिलकर चक्रीय प्रभाव डालते हुए लगभग 20 हजार करोड़ के व्यापार का नुकसान किया। इसके अलावा तमाम कम्पनियों ने अपने यहां नई भर्तियों में वेतन घटा दिया कि अभी तो तमाम अनुभवी बेरोजगार बाजार में उपलब्ध हैं। सरकार भी खाली पदों पर जरूरी भर्तियां नहीं कर रही है। उदाहरण के लिए रेलवे में संरक्षा में अभी पचास हजार नौकरियां निकाली जा रही हैं जहां स्टाफ की कमी के गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं।

असगर मेहंदी ने कहा कि ताजे आंकड़ें सामने नहीं लाये जा रहे और पुराने आंकड़ों से बेरोजगारी की सही तसवीर दिखाई नहीं दे रही। देश की 40 प्रतिशत आबादी ऐसी है, जिसके पास कोई नियमित काम नहीं है। समस्त प्रकार के सर्वेक्षण एक ही सच्चाई को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि बेरोज़गारी अपने विकराल रूप में सामने है जबकि सर्वेक्षणों, आँकड़ों के मानक और तथ्यों में हेरा फेरी किया जाना भी एक सच्चाई है। यदि हम रोज़गार को परिभाषित करें तो ऐसा कार्य जिसमें एक इंसान इज़्ज़त क साथ जीवन जी सके और अपने पर निर्भर व्यक्तियों को आवास, अच्छी शिक्षा और स्वस्थ सेवाएँ उपलब्ध करा सके।

उन्होंने कहा कि सेंटर फ़ोर मोनीटीयरिंग इंडियन एकनामी कि अनुसार 2016 से 2018 के बीच एक करोड़ लोग रोज़गार से वंचित हुए। अज़ीम प्रेम जी विश्वविधलाय के सेंटर फ़ोर सस्टेनेबेल डेवलपमेंट के अनुसार बेरोज़गारों में 60% की संख्या युवा वर्ग की है।बेरोज़गारी मापने का मानक भी अजीब है कि यदि वर्ष में केवल 30 दिन भी किसी प्रकार का कार्य किया तो वह आँकड़ों में शुमार नहीं होगा। बेरोज़गारी की समस्या विश्वव्यापी है किंतु साम्राज्यवादी देशों में यह नियंत्रित है जहाँ अन्य देशों से विभिन्न प्रकार से लूट के ज़रिये दिखावे के तौर पर कल्याणकारी योजनाएँ चलाई जाती हैं। यह ज़रूर है कि वित्तीय प्रबंध के कारणफ़्रांस जैसे कुछ देशों में आन्दोलन दिखाई दे जाते हैं। बेरोज़गारी के अनेक कारण हैं जिसमें मुख रूप से सरकार का स्वरूप में परिवर्तन होना है। वर्तमान में सरकार का अब कल्याणकारी स्वरूप लगभग ख़त्म हो चुका है और सरकार केवल डंडे के ज़ोर पर टैक्स वसूलने का कार्य कर रही है और वित्तीय पूँजीवाद को विशेष रूप से लाभ पहुँचाने का कार्य कर रही है।

असगर मेहंदी ने कहा कि  सरकार ऐसे क़ानून को ख़त्म या संशोधन कर रही है जो पूँजीवादी व्यवस्था के हित में हैं। हर क्षेत्र में निजीकरण या विनिवेशिकरण की नीति भी बहुत घातक सिद्ध हो रही है किंतु रजनैतिक व्यवस्था की अब कोई विचारधारा नहीं रह गई है बल्कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जो कि साम्राज्यवादी ताक़तों के शिकंजे में हैं, द्वारा निर्धारित नीतियों का अनुसरण करना मजबूरी हो गई है। ट्रेड यूनीयनों का कमज़ोर हो जाना या किया जाना भी महत्वपूर्ण करण है इसका मुख कारण पूँजीवाद का नया स्वरूप है जो आर्थिक और वित्तीय साम्राज्यवाद के रूप में सामने है। हमारी समस्या यह है कि हम समस्या ही नहीं समझ पा रहे हैं। जब हम पूँजीवाद के अमानवीय चेहरे को जान जायेंगे तो शायद कुछ निदान हो सके गा। वर्तमान में हम इसके एजेंट्स को धर्म, जाति और अंध-देशभक्ति के वशिभूत होकर समर्थन देने में लिप्त है।

बतकही में लाल बहादुर सिंह जी ने जरूरी हस्तक्षेप करते हुए कहा कि बेरोजगारी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की स्वाभाविक विशेषता है क्योंकि मजदूरी को निम्नस्तर पर बनाये रखने ( ताकि मुनाफा उच्च स्तर पर बना रहे) के लिए पूंजीवाद में बेरोजगारों की reserve army का बने रहना जरूरी और उपयोगी भी है । भारत में स्थिति और जटिल इसलिए हो गयी क्योंकि यहां मुकम्मल भूमि सुधार लागू नहीं किया गया और पूंजीवादी विकास मॉडल में , किसान रास्ते के बजाय जोतदार रास्ता अपनाया गया । फलतः न घरेलू बाजार बना, न पूँजी निर्माण हुआ। इसलिए बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण को आवेग न मिल सका । सरकारी प्रोत्साहन के आभाव में न कृषि क्षेत्र में खुशहाली आयी और न optimum productive employment मिला, न ही एग्रो बेस्ड इंडस्ट्रीज, छोटे, मझोले उद्यमों का वांछित विस्तार और रोजगार सृजन हो सका । विराट आबादी जब क्रयशक्ति से वंचित रह गयी तब बड़े औद्योगिक विनिर्माण क्षेत्र तथा सेवा क्षेत्र का भी संकुचित विकास और सीमित रोजगार सृजन ही संभव था ।

उन्होंने कहा कि सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, skills, की उपेक्षा करके उत्पादक शक्तियों के विकास को भारी क्षति पहुंचाई और रोजगार की मात्रा और गुणवत्ता, दोनों को चोट पहुंचाई। नीतिगत स्तर पर रोजगार के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं दिया गया । मनरेगा जैसी योजना भी आधे अधूरे ढंग से, केवल ग्रामीण क्षेत्र में मात्र कुछ लोगों को उपलब्ध हो सकीं ।

आवश्यकता इस बात की है कि बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश बढ़ाते हुए चौतरफा कृषि विकास की गारंटी की जाय, कुटीर, लघु, माध्यम उद्यमों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन व् संरक्षण दिया जाय तथा इस तरह एक विराट घरेलू बाजार का निर्माण करते हुए शिक्षा , स्वास्थ्य सेवाओं अदि में सरकारी निवेश कई गुना बढ़ाते हुए औद्योगिक विनिर्माण व् विराट सेवा क्षेत्र के विस्तार की ज़मीन बनायी जाय । इसके लिए आवश्यक धन, कारपोरेट घरानों पर उत्तराधिकार कर, संपत्तिकर, टर्नओवर टैक्स लगाकर तथा उन्हें दी जाने वाली टैक्स छूट खत्म कर जुटाया जा सकता है । इसे इस चुनाव में एजेंडा बनाने की ज़रुरत है ।

आशा कुशवाहा ने कहा कि बेरोजगार युवकों का इस्तेमाल, मूर्ति विसर्जन, दंगा ,फ़साद कराने में किया जा रहा है। अधकचरी शिक्षा की वजह से वे न तो शहर के होते हैं और न घर पर खेती ही कर पाते। एक प्रकार से वे निट्ठल्ले बन अपराध में संलिप्त हो रहे हैं। जरूरत है इस युवा पीढ़ी को बचाया जाए। उन्हें उचित शिक्षा और रोजगार गारंटी दिया जाए।

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