2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान चलाये गये प्रचार अभियान में नरेन्द्र मोदी ने हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार के अवसर सृजन करने का वादा किया था. इसके बजाय सरकार ऐसे मुकाम पर पहुंच गई है जहां हर साल एक करोड़ लोगों का रोजगार खत्म हो रहा है.
सन् 2018 में, जो मोदी सरकार के शासनकाल का चौथा साल था, भारत में रोजगार के 1 करोड़ 10 लाख रोजगार के अवसर खत्म हो गये, और बेरोजगारी की दर बड़ी तेजी से आसमान छू रही है.
अब, जब 2019 के लोकसभा चुनाव के बस चंद महीने बाकी बचे हैं, और हाल ही में उत्तर भारत के राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को शिकस्त का सामना करना पड़ा है, तब मोदी सरकार ‘‘विकास’’ और ‘‘रोजगार’’ के वादों को पूरा करने में चरम असफलता से लोगों का ध्यान भटकाने के लिये बड़ी बेताबी से कोशिशें किये जा रही है.
सरकार ने लोगों का ध्यान भटकाने के लिये जो ताजातरीन चालबाजी अपनाई है, वह है ‘‘सामान्य कोटि’’ के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिये सरकारी उच्च शिक्षण संस्थाओं एवं सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान वाला कानून संसद में लाना. यह कानून अभी अभी लोकसभा द्वारा पारित किया गया है.
मोदी सरकार का यह कदम कई कारणों से बुनियादी तौर पर बेईमानीभरा है. सर्वप्रथम, संविधान के अनुच्छेद 340 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एकमात्र सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ापन ही आरक्षण का मानदंड हो सकता है.
दूसरे शब्दों में, संविधान इस सिद्धांत को स्वीकार करता है कि आरक्षण आर्थिक वंचना का समाधान करने का कोई उपाय नहीं है – वह केवल प्रणालीबद्ध सामाजिक और शैक्षणिक भेदभाव और बहिष्करण का (एक हद तक) समाधान कर सकता है.
यह दावा कि सवर्णों को, यहां तक कि गरीब सवर्णों तक को, शिक्षा और रोजगार में प्रणालीबद्ध भेदभाव, बहिष्करण और अनुपात में कम प्रतिनिधित्व का दंश भोगना पड़ रहा है, सरासर झूठ है जिसको जांचने की जरूरत नहीं.
बेरोजगारी और गरीबी बिल्कुल अलग समस्याएं हैं जिन्हें रोजगार के अवसर पैदा करके तथा बेहतर वेतन देकर हल किया जा सकता है – और मोदी सरकार इस मोर्चे पर दयनीय रूप से नाकाम रही है.
लेकिन ऐसी बात नहीं कि अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग (एस.सी., एसटी. और ओबीसी) के बाहर आर्थिक रूप से वंचित लोगों के लिये रोजगार और शैक्षणिक सीटों में कोटा का विचार मोदी ने ही पहली बार पेश किया हो.
नरसिम्हा राव सरकार ने 1991 में इसी किस्म का एक कानून संसद से पारित कराया था, जिसके अनुसार ‘‘आरक्षण के किसी भी मौजूदा दायरे में न आने वाले आर्थिक रूप से पिछड़े अन्य तबकों के लोगों’’ के लिये सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का प्रस्ताव था.
सर्वोच्च न्यायालय की एक 9-सदस्यीय संविधान बेंच ने इस कानून को खारिज कर दिया और यह उल्लेख किया कि केवल गरीबी पिछड़ेपन का परिचायक नहीं हो सकती, और जोर देकर कहा कि केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन ही आरक्षण का एकमात्र संवैधानिक आधार हो सकता है.
इसके बाद से समय-समय पर कुछेक राज्य सरकारों ने इसी किस्म के कदम उठाने की कोशिश की है मगर उनको संवैधानिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. मोदी सरकार यह कदम 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की पूर्ववेला में अच्छी तरह से यह जानते हुए उठा रही है कि इस कदम को बाध्यतापूर्ण रूप से कानूनी और संवैधानिक बाधाओं के भंवरजाल में फंसना पड़ेगा. अगर मोदी सरकार आर्थिक मानदंड पर आधारित आरक्षण को संभव बनाने के लिये संविधान संशोधन विधेयक पेश करती है, तो लाजिमी तौर पर यह आशंका पैदा होती है कि यह कदम इसके बाद एस.सी., एस.टी. एवं ओ.बी.सी. के कोटा में कटौती के लिये दरवाजे खोल देने की परोक्ष चाल हो सकती है, जैसा कि आरएसएस लम्बे अरसे से मांग करता रहा है.
फिलहाल स्थिति यह है कि आरक्षण की प्रणाली में विलम्ब, ढेरों खामियां और उसे लागू न किया जाना उसकी खासियत बनता जा रहा है और अब तो शिक्षा और रोजगार में धड़ल्ले से घुस रहे निजीकरण से वह प्रणाली बिल्कुल चैपट ही हो गई है.
मोदी सरकार ने निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू को मंजूरी देने से साफ इन्कार कर दिया है, जो कि लम्बे अरसे से मांग रही है.
दूसरा सवाल आर्थिक वंचना की शिनाख्त करने के लिये इस्तेमाल किये गये मापदंड के बारे में है. मोदी सरकार ने जो मापदंड प्रस्तावित किया है वह है 8 लाख रुपये से कम सालाना पारिवारिक आय अथवा पांच एकड़ से कम कृषियोग्य भूमि.
यह इतना विस्तारित वर्गीकरण है कि इसमें एस.सी., एसटी. और ओबीसी के बाहर की आबादी का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा समा जायेगा, और इसके चलते ‘‘गरीबी’’ की परिभाषा ही अर्थहीन हो जायेगी, और यह सवर्णों के बीच भी गरीब और बेरोजगार लोगों को कारगर ढंग से लक्षित करने में बिल्कुल नाकाम साबित होगा.
8 लाख रुपये से कम सालाना आय वाले सवर्ण परिवारों के लोगों को पहले से ही कोटा के बाहर सरकारी नौकरियों के 10 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा मिला हुआ है – इसलिये सरकार द्वारा उठाया गया कदम किसी को भी कोई नया लाभ नहीं दे रहा है! चाहे जिस तरह देखें, यह भी मोदी का एक ‘‘जुमला’’ ही है – बस गप्पें हांकने और गर्मागर्म लफ्फाजी करने की चीज, जो बारीकी से जांचने पर खोखली और खाली ही नजर आती है.
इसके अलावा, यह कदम इसके लाभुकों को एक ऐसी रोटी का हिस्सा दे रहा है जो खुद ही तेजी से सिकुड़ती जा रही है. न सिर्फ मोदी सरकार रोजगार के नये अवसर पैदा करने में नाकाम साबित हुई है, वह सरकारी नौकरियों में मौजूद रिक्त पदों को भरने में भी नाकाम रही है. केन्द्र सरकार के मंत्रालयों एवं विभागों में होने वाली प्रत्यक्ष भर्तियों में सन् 2013 की तुलना में 2015 में 89 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी (आरक्षित कोटि की भरतियों में यह गिरावट 90 प्रतिशत तक पहुंच गई थी). 2018 में संसद में पेश आंकड़े दिखलाते हैं कि सरकारी स्कूलों में दस लाख पद रिक्त हैं, पुलिस बलों में रिक्तियां 5.4 लाख हैं, रेलवे में 2.5 लाख पद खाली हैं, प्रतिरक्षा सेवाओं में 1.2 लाख पद नहीं भरे गये, अर्ध-सैनिक बलों में 61,000 पद रिक्त हैं, अदालतों में 5,800 पदों पर बहाली नहीं हुई और स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्रा में 1.5 लाख पद खाली पड़े हुए हैं. प्रेस में केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी से मराठों के लिये आरक्षण कोटा के बारे में जब सवाल किया गया तो उन्होंने यहां तक स्वीकार कर लिया कि खुद ही पूछने लगे, ‘‘सरकारी भरती तो बंद है. नौकरियां हैं ही कहां?’’
जब यह सम्पादकीय प्रेस में जा रहा है, उस वक्त भारत के मजदूर वर्ग की लगभग समूची आबादी अपनी दो-दिवसीय हड़ताल में उतर पड़ी है, जिससे अर्थतंत्र के सभी क्षेत्र प्रभावित हुए हैं. हड़ताली मजदूर मांग कर रहे हैं कि 18,000 रुपये की न्यूनतम मजदूरी को लागू किया जाय और समान काम के लिये समान मजदूरी के प्रावधान को सख्ती से लागू किया जाय, जिसके लिये नौकरियों के अंधाधुंध ठेकाकरण को खत्म करना जरूरी होगा. इस हड़ताल में मजदूर खाद्य वस्तुओं समेत तमाम आवश्यक सामग्रियों की कीमतों में तीव्र वृद्धि तथा आसमान छूती बेरोजगारी की दर के खिलाफ भी प्रतिवाद कर रहे हैं.
अगर सरकार सचमुच गरीबी दूर करने और आर्थिक पिछड़ापन मिटाने की इच्छुक है, तो उसको शुरूआती कदम के बतौर प्रतिमाह 18,000 रुपये का न्यूनतम वेतन तय करना चाहिये और न्यूनतम मजदूरी तथा अन्य श्रम कानूनों को सर्वाधिक सख्ती के साथ लागू करने की गारंटी करनी चाहिये.
लेकिन वास्तविकता में मोदी सरकार ने गरीब जनता के लिये जीना कहीं और ज्यादा मुश्किल कर दिया है. वे वर्ष 2018 में एक करोड़ से ज्यादा रोजगार के अवसर खो बैठे हैं, जिसमें 84 प्रतिशत हिस्सा रोजगार तो ग्रामीण भारत में खोया गया है. इन खोये गये एक करोड़ दस लाख रोजगारों में 88 लाख रोजगार तो महिलाओं ने खोये हैं. खाद्य वस्तुओं एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छूती जा रही हैं. नोटबंदी और जीएसटी ने छोटे व्यवसाइयों को बुरी तरह चोट पहुंचाई है और गरीबों पर तो मरणांतक आघात किया है.
अब जिन लोगों के पास रोजगार है, वे जिन स्थितियों में काम कर रहे हैं उन्हें मोदी सरकार ने पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक और शोषणमूलक बना दिया है. अखिल भारतीय मजदूर हड़ताल की पूर्ववेला में मोदी सरकार के मंत्रिमंडल ने ट्रेड यूनियन्स (संशोधन) विधेयक 2018 को मंजूरी दे दी है, जिसमें केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों को स्वीकृति देने के लिये त्रिपक्षीय (कर्मचारी, मालिक और सरकार) सहमति की प्रक्रिया की जगह सरकार को विवेचनात्मक शक्तियां सौंप दी गई हैं. इसके अलावा विधेयक में उद्यम/प्रतिष्ठान के स्तर पर मजदूरों के गुप्त मतदान के जरिये बहुमत से स्थापित ट्रेड यूनियनों की स्वीकृति को अनिवार्य करने का कोई प्रावधान नहीं है, अथवा उसमें यूनियन बनाने की पहल करने वाले मजदूरों के खिलाफ मालिकों द्वारा प्रतिशोधात्मक कार्रवाई से बचाने का कोई कानूनी प्रावधान भी नहीं है.
इस वर्ष हुई ट्रेड यूनियनों की दो-दिवसीय अखिल भारतीय हड़ताल को न सिर्फ संगठित एवं असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों का अभूतपूर्व रूप से व्यापक समर्थन व भागीदारी मिली, बल्कि विश्वविद्यालयों, कालेजों एवं स्कूली शिक्षकों, छात्रों एवं युवाओं, और किसानों ने भी इसे समर्थन दिया और भागीदारी निभाई. हर दृष्टिकोण से इसे भारत बंद कहा जायेगा – यह समूचे देश की विशाल पैमाने पर कामबंदी है और मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है. ‘‘सामान्य वर्ग’’ के गरीबों के लिये 10 प्रतिशत आरक्षण का जुमला मोदी सरकार द्वारा जातिगत ऊंच-नीच भेद और पूर्वाग्रह को अपने पक्ष में गोलबंद करने तथा बढ़ती बेरोजगारी एवं आर्थिक वंचना के असली कारणों से सवर्ण मतदाताओं का ध्यान भटकाने, तथा देश भर में मोदी शासन के खिलाफ जनता के बढ़ते आक्रोश को येन-केन-प्रकारेण बेपटरी करने की हताशाभरी अंतिम कोशिश के सिवाय और कुछ नहीं है.