मित्र जानते हैं कि अनिल सिन्हा के शरीर में उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह, थायराइड, लकवा जैसी कई बीमारियों ने अपना घर बना लिया था। लेकिन उन्होंने कभी भी इन बीमारियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। अपने काम में अवरोध नहीं बनने दिया। पन्द्रह साल पहले दाहिना हाथ टूट गया था। आपरेशन हुआ। लखनऊ मेडिकल कॉलेज की लापरवाही की वजह से बोन टी वी हो गया। नौबत हाथ काटने तक पहुँच गई। लिखना छूट गया तब बाँये हाथ से लिखने की कोशिश करने लगे जैसे लिखना जीने की तरह जरूरी है। आखिरकार दिल्ली में हुए इलाज से फायदा हुआ। पिछले साल 2010 के नवम्बर में लकवा का झटका लगा। चलना व बोलना मुश्किल था। पर जीवटता देखिए। चल नहीं सकते थे, पर चलना नहीं छोड़ा। पैर में फिर चोट लगी। हमलोगों ने मना किया। पर वे मानने वाले कहाँ ? हर बैठक व कार्यक्रम में पहुँचते, सीढि़याँ चढ़ते हुए साँस फूलता। बोलते हुए हाफने लगते। आवाज लड़खड़ाने लगती। पर सीढि़याँ भी चढ़ते और देर देर तक बतियाते भी। किसी साथी के बीमार होने की खबर मिलते ही तुरन्त पहुँच जाते। अनिलजी के मन में इस बात को लेकर अफसोस जरूर था कि स्वास्थ्य की वजह से वैसी गतिशीलता नहीं बन पा रही है जैसी होनी चाहिए। खासतौर से ‘गोरख स्मृति संकल्प’ समारोह में गोरख पाण्डेय के गाँव ‘पण्डित का मुंडेरवा’ न जा पाने का उन्हें दुख था। फिर भी अप्रैल में कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा के गाँव जोगिया जनूबा पट्टी में आयोजित ‘लोकरंग’ में जाने की उनकी पूरी योजना थी। इस कार्यक्रम में हर साल बिना नागा वे पहुँचते रहे हैं।
अनिलजी के दिमाग में कई योजनाएँ एक साथ चलती रहती थी। शरीर साथ नहीं देता था पर इच्छा शक्ति जबरदस्त थी। 27 फरवरी को लखनऊ में शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह का कार्यक्रम था। इसकी परिकल्पना व योजना अनिलजी ने ही बनाई थी। इस सम्बन्ध में उन्होंने मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र कुमार व बलराज पाण्डेय से बात कर सब तय किया था। किस विषय पर किसे बोलना है, संचालन से लेकर धन्यवाद ज्ञापन तक की पूरी रूपरेखा तैयार की थी। कौन किस ट्रेन से आयेगा, कहाँ रुकेगा, किस साथी पर किसकी जिम्मेदारी होगी आदि सब उन्होंने तय किया था। पर इस कार्यक्रम के दो दिन पहले ही अनिलजी ने हमारा साथ छोड़ दिया। हमारे लिए इससे बढकर दुख की बात क्या होगी कि हिन्दी संस्थान के जिस सभागार को जन्मशती समारोह के लिए आरक्षित कराया गया था उसमें हमें अनिल जी की स्मृति सभा करनी पड़ी।
अनिल सिन्हा 22 फरवरी 2011 को दिल्ली से पटना आ रहे थे। ट्रेन में ही उन्हें मस्तिष्क आघात ;ब्रेन स्ट्रोकद्ध हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझने के बाद 25 फरवरी को सुबह 11.50 बजे उनका निधन हुआ। अनिल सिन्हा की इच्छा मृत्यु उपरान्त देहदान की थी। लेकिन इतना जल्दी वे चल बसेंगे, इसका उन्हें भी आभास नहीं था। इसीलिए देहदान की कानूनी औपचारिकताएँ पूरी नही कर पाये थे। इस हालत में उनका अन्तिम संस्कार पटना के बासघाट विद्युत शवदाह गृह में कर दिया गया और क्रान्तिकारी वाम राजनीति व संस्कृतिकर्म का यह योद्धा ‘अनिल सिन्हा अमर रहे’ की गूँज के साथ हमारे बीच से चला गया। उनको अन्तिम विदाई देने वालों में आलोक धन्वा, अजय सिंह, भगवान स्वरूप कटियार, भाकपा ;मालेद्ध के कार्यकर्ताओं के साथ हम जैसे अनगिनत साथी तथा उनके परिवार के लोग थे। इस खबर से सब सदमें में थे। आलोक धन्वा ने कहा कि मैं हँसना चाहता हूँ ताकि अपनीे रुलाई और अन्दर के आँसू को रोक सकूँ। कमोबेश यही हालत हम सब की थी।
अनिल सिन्हा के असमय अपने बीच से चले जाने से जो सूनापन पैदा हुआ है, उसे महसूस किया जा सकता है क्योंकि वे ऐसे मजबूत और ऊर्जावान साथी थे जिनसे जन सांस्कृतिक आंदोलन को अभी बहुत कुछ मिलना था। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से नई पीढ़ी को बहुत कुछ सीखना था। अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार, कलाओं के अर्न्तसम्बन्ध पर जनवादी, प्रगतिशील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक थे। सिद्धान्तों के साथ कोई समझौता नहीं, ऐसी दृढ़ता थी। वहीं, व्यवहार के धरातल पर ऐसी आत्मीयता, खुलापन व साथीपन था कि वैचारिक रूप से असहमति रखने वाले भी उनसे प्रभावित हुए बिना, उनका मित्र बने बिना नहीं रह सकते। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से प्रगतिशील रचनाकर्म के बाहर के दायरे में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय थे तथा तमाम रचनाकारों को जन संस्कृति मंच से जोड़ने व उन्हें करीब लाने में सफल हुए थे। कई रचनाकारों के लिए तो जन संस्कृति मंच की मानी ही अनिल सिन्हा थे।
लखनऊ के पत्ऱकारपुरम वाले उनके निवास पर 6 मार्च 2011 को उनकी याद में स्मृति सभा का आयोजन था। शब्द व कर्म की दुनिया के लोग – बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी, कलाकार, बुद्धिजीवी, राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता, अनिल सिन्हा के परिजन, मोहल्ले के साथी, पास.पड़ोस के स्त्री.पुरुष सब इक्ट्ठा थे। अचानक अनिल सिन्हा के चले जाने का दुख तो था ही, पर सब उनके साथ की स्मृतियों को साझा करना चाहते थे। किसी के साथ दस साल का, तो किसी से तीस व चालीस साल का और कुछ का तो जन्म से ही उनका साथ था और सभी उनके साथ बीताये क्षणों की स्मृतियों, अपने अनुभवों को आपस में बाँटना चाहते थे। ऐसा बहुत कम मौका आया होगा जब उन्हें शब्दों के संकट का सामना करना पड़ा हो। पर हालत ऐसी ही थी। किसी को भी अपने विचारों.भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे। एक.दो वाक्य तक बोल पाना मुश्किल हो रहा था। हिन्दी कवि वीरेन डंगवाल की हालत तो और भी बुरी थी। सब कुछ जैसे गले में ही अटक गया है। यह कौन सी कविता है ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पर वह कविता ही थी। उसके पास शब्द नहीं थे पर वह वेगवान नदीे की तरह बह रही थी। इतना आवेग कि सीधे दिल में उतर रही थी। आँसूओं के रूप में बहती इस कविता को सब महसूस कर रहे थे। यह प्रकृति का कमाल ही है कि जब शब्द साथ छोड़ देते हैं, शब्दों का जबान से तालमेल नहीं बैठ पाता, ऐसे में हमारी इन्द्रियाँ विचारों.भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन जाती हैं। उस वक्त ऐसा ही दृश्य था। उनकी याद ने सबको रूला दिया।
उनके व्यक्तित्व की तमाम खूबियों से परिचित होने के साथ ही इस बात का भी पता चला कि अनिल सिन्हा संगीत खासतौर से लोकगीतों व शास्त्रीय संगीत के बड़े रसिया थे। उनके संगीत सुनने का अन्दाज भी निराला था। दातून करते हुए रेडियो या टेपरिकार्डर पर अपना पसन्दीदा गीत सुनना और उसमें डूब जाना। अनिलजी अक्सर अपनी जीवन साथी आशाजी से ‘हिरना.हिरनी’ वाला वह लोकगीत सुनने की फरमाईश करते थे और आशाजी की सुमधुर आवाज में यह गीत सुनते हुए हिरनी के उस दर्द में इतना खो जाते कि गीत तो खत्म हो जाता पर उनकी तन्द्रा नहीं टूटती। दर्द की इतनी गहरी अनुभूति व संवेदना से अनिल सिन्हा भरे थे। स्मृति सभा में अनिल सिन्हा की बेटियों ने वह गीत सुनाया।
अनिल सिन्हा बिहार के जहानाबाद के रहने वाले थे। पटना और गया के बीच बसे इस जहानाबाद से उनका गहरा लगाव था। वैसे तो पटना से भी उनका अनुराग कम नहीं था। हो भी क्यों नहीं ? आखिरकार इसी ने तो उन्हें बनाया था। रोजी रोटी ने लखनऊ में जाकर बसा तो जरूर दिया था और बच्चे दिल्लीवासी हो गये थे। बेटे को अमरीका में जाकर नौकरी करनी पड़ी। आशाजी के साथ अमरीका भी घूम आये। पर अपना मन तो बिहार और वह भी पटना में ही बसता था। परिवार व दोस्त तो बिहार के बाहर भी फैले थे लेकिन पटना में उन्हें अजीब सी सुख की अनुभूति होती थी। इसीलिए तो जब भी पटना जाने की बात होती, वे पुलकित से हो उठते। यह उनका परिवार और पटना के प्रति अगाध प्यार ही था कि जब छोटी बहन के सास के निधन की सूचना मिली तो अपने स्वास्थ्य की सुध.बुध छोड़, सबकी राय-सलाह को दरकिनार कर चल दिये पटना की ओर। यही उनका प्रयाण बन गया।
अनिल सिन्हा बहुत अच्छे संस्मरण लेखक रहे हैं। स्मृति सभा में ‘पहल’ में छपा उनका संस्मरण उनकी बेटियों ने सुनाया। इसे सुनते हुए यही लग रहा था कि हम अनिलजी के अतीत की यात्रा कर रहे हैं। हम उस जहानाबाद से गुजर रहे थे जहाँ अनिलजी का बचपन था। जहानाबाद के उस समाज से रु ब रु थे, जहाँ बहुत सी रूढि़याँ थी, सामाजिक बन्धन व जकड़न था पर रिश्तांे की अपनी मिठास थी। यहाँ कोई दिखावा नहीं था बल्कि आत्मीयता के चटक रंग वाले प्यार की सुगंध थी। इसी के बीच न सिर्फ अनिलजी ने करवट ली थी बल्कि जहानाबाद ने भी नई राह की खोज की थी। इसीलिए संस्मरण सुनते हुए यही आभास हो रहा था कि हम किसी नये जहानाबाद से होकर गुजर रहे हैं। सामंती जकड़न, अत्याचारों व रूढि़यों से संघर्ष करता यह अपनी पुरजोर दावेदारी जता रहा है। यह नया समाज व नया इन्सान बनाने की जंग ही नहीं है, यह तो नया जहानाबाद बनाने का संघर्ष है। जिन जुल्मों व अत्याचारों के घाव सहे हैं, उसमें ऐसा होना स्वाभाविक भी है। इसीलिए अनिल सिन्हा इस परिवर्तन को अपनी आशा के साथ बड़ी आशा भरी निगाहों से देखते हैं। इसमें वही कौतुहल है जो बचपन में ट्रेन की आवाज सुनते ही सब कुछ छोड़ अपने नन्हें-नन्हें पैरों से सीढि़याँ चढ़ते हुए छत पर पहुँच जाते और सामने से गुजरती ट्रेन को देखते और खुश होकर किलकारियाँ मारते।
इस मौके पर अनिल सिन्हा की बेटी ऋतु ने बताया कि मेरे पापा अपनी बात को हम पर थोपते नहीं थे। घर में भाई-बहनों को पूरी आजादी थी। हम उनसे माँग करते। कई बार जिद्द भी कर बैठते। पर कभी भी सीधे हमारी माँग या जिद्द को नकारते नहीं थे। वे हमसे बात करते, हमारी सुनते और अपनी बात रखते। वे अपनी बात थोपते नहीं थे। यह हमारे ऊपर था कि उनकी बात सुनने के बाद अपनी जिद्द छोड़ें या उन पर कायम रहें। घर में पूरा लोकतांत्रिक माहौल रहा जिसमें हम पले-बढ़े। पापा सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक व्यक्ति थे। अनुराग का कहना था कि वे हम जैसे युवाओं को बहुत स्पेस देते थे। हमारी उनसे बहस होती थी। कई बार मैं आवेश में भी आ जाता था लेकिन उन्हें कभी धैर्य खोते या निराश होते नहीं देखा। उनसे संवाद करने से कुछ न कुछ मिलता था। अनिलजी के बेटे शाश्वत ने कहा कि मेरे पापा बेटे.बेटियो के बीच कोई फर्क नहीं करते थे और हम सभी के साथ उनका रिश्ता दोस्तों जैसा था। सात साल से मैं अमरीका में हूँ। वे इतने संवेदनशील थे कि फोन पर ही वे मेरी समस्याओं को, यहाँ तक कि मेरी खामोशी को भी पढ़ लेते थे। पाप जिस पारिवारिक परिवेश से आये थे, वह सामंती व धार्मिक जकड़न भरा था। उन्होंने इस जकड़न के खिलाफ संघर्ष करके अपने को आधुनिक व प्रगतिशील बनाया था। उन्होने यही संस्कार हमें दिये। आज हमारे लिए बड़ी चुनौती है कि पापा ने सच्चाई, सहजता, आत्मीयता, मानवता व जनपक्षधरता के जो मूल्य सहेजे थे, उन्हें हम कैसे जियें, अपने जीवन में हम उन्हें कैसे सफलीभूत करें।
‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के सम्पादक आनन्द स्वरूप वर्मा से अनिल सिन्हा का करीब चालीस साल पुराना साथ था। उनका कहना था कि अनिल हर तकलीफ में मुस्कुराने वाला, उसे हँसकर झेलने वाला साथी था। वह कई बार असहाय या कमजोर सा दिखता था। लेकिन वह ऐसा था नहीं। वह अन्दर से बहुत मजबूत था। इसीलिए उसने कभी समझौता नहीं किया। उसने अपने जीवन के लिए जो उसूल बनाये, उसी पर वह कायम था।
यह बात सही थी। जो भी अनिल सिन्हा के करीब रहा है, उनके लिए जिन्दगी खुली किताब रही है। यहाँ कोई दोहरापन नहीं है। अक्सर यह देखने में आता है कि बहुत सारे लोग विचारों में तो बहुत जनवादी व प्रगतिशील रहते हैं लेकिन व्यवहारिक धरातल पर उनके यहाँ बड़ी फाँक रहती है। अनिल सिन्हा में इस तरह का फाँक हमें नहीं दिखता बल्कि वे विचारों को जीते हुए मिलते हैं। यह जीना भी कट कर नहीं बल्कि परिवार व समाज के साथ जीना है। मित्र जानते हैं कि अनिलजी की छोटी बेटी निधि ने अरशद को पसन्द किया था और उससे शादी की थी। यह उनकी रजामंदी से हुई थी। अनिलजी ने ही सभी को इस शादी का न्योता दिया था। अनिलजी जिस पारिवारिक परिवेश से थे, वहाँ इस तरह की शादियों के लिए बहुत कम गुँजाईश थी। लेकिन उन्होंने सबको शामिल किया। उनके प्रगतिशील मित्रों के लिए तो बहुत असामान्य जैसा नहीं था लेकिन नाते-रिश्तेदारों के लिए यह सब स्वीकार करना बहुत सामान्य नहीं था लेकिन वे आये और सभी ने सहर्ष सब स्वीकार किया। यही अनिल सिन्हा का खास गुण था। वे अपने विचारों को व्यवहार के स्तर पर जीते थे। यह चीज सबको अपील करती थी। उन्होंने अपने को धर्म व जाति की रुढि़यों से मुक्त किया था, अपने को बदला था। यह बदलाव कटकर नहीं, सबसे जुड़कर हुआ था। उसमें यह आशा थी कि लोग वास्तविकता समझेंगे, जीवन को वैज्ञानिक नजरिये से देखेंगे और अपने को बदलेंगे। इसीलिए विचारों में दृढ़ता के बावजूद व्यवहार में लचीलापन था। अपने इसी व्यवहार की वजह से उन्हें परिवार, समाज व मित्रों के बीच अपार स्नेह और आदर मिला।
अनिल सिन्हा सत्तर के दशक और उसके बाद चले सांस्कृतिक आंदोलन के हर पड़ाव के साक्षी ही नहीं, उसके निर्माताओं में थे। उन्होंने रचना, विचार, संगठन और आंदोलन के क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। इस समय वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उŸार प्रदेश के पहले सचिव के रूप में सांस्कृतिक आंदोलन का नेतृत्व किया था। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी जनवादी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। भाकपा ;मालेद्ध से उनका रिश्ता उस वक्त से था जब पार्टी भूमिगत थी। उनका घर पार्टी साथियों का घर हुआ करता था। अखबारी कर्मचारियों व पत्रकारों के आंदोलन में भी वे लगातार सक्रिय थे। कष्ट साध्य जीवन और जन आंदोलनों में तपकर ही उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था।
अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यावर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से भी वे जुड़े रहे।
1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ, वे यहाँ आ गये। वे अमृत प्रभात की उस सम्पादकीय टीम के सदस्य थे जिसमें मंगलेश डबराल, मोहन थपलियाल, अजय सिंह आदि थे। तब से लखनऊ ही उनका स्थाई निवास था। अमृत प्रभात लखनऊ के बन्द होने के बाद वे नवभारत टाइम्स में आ गये। लेकिन जब नवभारत टाइम्स बन्द हुआ तो जीवन ज्यादा ही कठिनाइयों भरा था। जिम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं और स्वतंत्र लेखन से उनका निर्वाह नहीं हो सकता था। इस हालत में उन्होंने दैनिक जागरण, रीवाँ ज्वाइन किया। यहाँ वेे स्थानीय संपादक रहे। इस अखबार के प्रबन्धकों से तालमेल बिठा पाना उनके लिए संभव नहीं हो रहा था और वैचारिक मतभेद की वजह से वह अखबार छोड़ दिया और लखनऊ वापस आ गये। बाद में ‘राष्टीªय सहारा’ के साहित्य पृष्ठ ‘सृजन’ का भी उन्होंने सम्पादन किया था। यह सिलसिला भी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया। देखा गया है कि हमारे साहित्य समाज में वैचारिक मतभेदों का व्यक्तिगत रंजिश व टकराहट में बदलते देर नहीं लगती। ‘सृजन’ के साथ भी ऐसा ही हुआ। अनिल सिन्हा के विरुद्ध जिस तरह लेखकों की गोलबन्दी हुई, उसे ओछी राजनीति का ही नमूना कहा जाएगा। इसका सर्वाधिक दुखद पहलू था कि उनके विरुद्ध इस मुहिम में कई महत्वपूर्ण प्रगतिशील लेखक भी शामिल थे या शामिल कर लिए गये थे। यह अनिल सिन्हा के विरुद्ध ही नहीं था बल्कि ‘सृजन’ के माध्यम से किये जा रहे बेहतर व प्रगतिशील सृजन कर्म के विरुद्ध भी था। यह सब होने के बावजूद अनिल सिन्हा के मन में इस ‘राजनीति’ को लेकर, उन लेखकों को लेकर कभी कटुता नहीं देखी गई बल्कि इसे उन्होंने वैचारिक मतभेद और सांस्कृतिक प्रश्नों पर असहमति व दो घाराओं के संघर्ष के रूप में ही देखा।
अनिल सिन्हा ने कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण, यात्रा वृतांत आदि कई क्षेत्रों में काम किया। फिल्म, संगीत व नाटक आदि में भी उनकी गहरी रुचि थी। लखनऊ में हुए तीनों फिल्म समारोहों की स्मारिका का उन्होंने सम्पादन किया था। ‘मठ’ नाम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। उनके द्वारा मशहूर लेखक आनन्द तेलतुमड़े की अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया। अनिल सिन्हा का रचना संसार पिछले पांच दशकों में फैला है, वह भी साहित्य की कई विधाओं में और इतना विविधतापूर्ण है कि उनकी प्रकाशित पुस्तकों को देखते हुए यही लगता है कि उनके लेखन का बहुत छोटा हिस्सा ही पुस्तक रूप में प्रकाशित हो सामने आया है। इसलिए हमारे लिए यह जरूरी है कि उनके रचना संसार को सामने लाया जाय, उसे पाठकों तक पहुँचाया जाय ताकि साहित्य व समाज की नई पीढ़ी उस उथल-पुथल व संघर्ष भरे दौर से परिचित हो सके जिसकी उपज अनिल सिन्हा जैसे प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी थे।
एक बात गौरतलब है कि अनिल सिन्हा जिस पारिवारिक व सामाजिक परिवेश से आये थे, वह सामंती व धार्मिक जकड़न भरा था। इस जकड़न से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने को आधुनिक व प्रगतिशील ही नहीं बनाया था बल्कि वामपंथ की क्रान्तिकारी धारा की राजनीति व विचार से अपने को लैस किया था। विचारहीनता के इस दौर में जहाँ तमाम वामपंथी लेखकों व साथियों का मार्क्सवाद व वामपंथ पर से विश्वास डगमगा रहा है, उन्हें मौजूदा धक्के में सबकुछ खत्म होता या डूबता.सा नजर आ रहा है तथा हताशा.निराशा के शिकार हैं, वहीं अनिल सिन्हा के लिए एकमात्र उम्मीद मार्क्सवाद और रेडिकल वामपंथ ही था। बेशक वामपंथ में आ रहे झोल, ढ़ीलाढालापन, समझौतापरस्ती व अवसरवाद उन्हें स्वीकार नहीं था और इन प्रवृतियों की आलोचना करने से वे कभी नहीं चूकते थे।
अनिल सिन्हा बाहर से जरूर शान्त से दिखते थे लेकिन उनके भीतर कितनी आग धधक रही है, इसका दर्शन उनके विचारों से रुबरु होने पर मिलता है। पिछले दिसम्बर यानी 2010 के दिसम्बर माह के तीन दिनों के अन्दर उन्होंने तीन वैचारिक लेख लिखे। रामकुमार कृषक की पत्रिका ‘अलाव’ के लिए नागार्जुन के गद्य पर लिखा। एन जी ओ के बढ़ते जाल व वामपंथ के एनजीओकरण पर ‘खौफनाक समय में सतर्कता’ में उन्होंने उन खतरों की तरफ इशारा किया कि किस तरह लेफ्ट पार्टियों के बुद्धिजीवी व एक्टिविस्ट भी एन जी ओ के मायाजाल में फँसते जा रहे हैं और सरकारी उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले अपने अभियान में सफल हो रहे हैं। इस सम्बन्ध में अनिल सिन्हा का लेफ्ट पार्टियों और उनके बंद्धिजीवियों से कहना था ‘सच को साफ.साफ कहें और विभ्रमों की ऐसी व्याख्या पेश करें जो जनता आसानी से समझे और विचार करे कि क्यों हमें एक नई व्यवस्था व सŸाातंत्र चाहिए। अपनी नाव की पतवार अगर खुद संभाली जाय तो नाव काबू में रहती है वर्ना नाव बहक जाती है, अक्सर भँवर में फँस जाती है। इसलिए आज एन जी ओ और वास्तविक वामपंथी पार्टियों के फर्क को सामने लाना जरूरी है पर दिखाई दे रहा है कि एन जी ओ तो अपने काम को अंजाम दे रहा है पर वामपंथी पार्टियाँ अपने उद्देश्य से चूक रही हैं। समय खैफनाक है। सतर्क रहने और जन गोलबंदी में जाने की जरूरत है।’ ( खौफनाक समय में सतर्कता, 10 दिसम्बर 2010 )
‘खौफनाक समय में सतर्कता’ लिखने के दूसरे दिन 11 दिसम्बर को उन्होंने लम्बा लेख लिखा ‘प्रतिरोध व संघर्ष की नायिका से सबक लें’। यह लेख उन्होंने इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के 11 साल पूरा होने पर लिखा था जिसका अन्त उन्होंने इस तरह किया – ‘शर्मिला जैसे योद्धा की मौत नहीं होती जैसे जूलियस फ्यूचिक जैसे योद्धा की मौत नहीं, पर जिन शारीरिक व मानसिक यातनाओं में शर्मिला के दिन गुजर रहे हैं उनमें उसका भौतिक शरीर कभी भी साथ छोड़ सकता है तो चर्चा में आये संगठनों ;लोकतांत्रिक व वामपंथीद्ध की राजनीतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने एक्शन द्वारा शर्मिला को यह अहसास करा दें कि उसके संघर्ष को बढ़ाने वाले लोग मौजूद हैं।…….. उनसे ‘‘चिन्तन का विवेक’’ नष्ट नहीं हुआ है।’
प्रतिरोध व संघर्ष के ऐसे ही जज्बे से भरे थे हमारे साथी अनिल सिन्हा। संघर्ष व सपने कभी नहीं मरते। इसीलिए अनिलजी जैसे सांस्कृतिक योद्धा भी कभी नहीं मरते और अपने काम और विचारों के साथ हमेशा हमारे बीच जिन्दा रहते हैं, प्रकाश स्तम्भ की तरह हमें आगे बढ़ने की राह दिखाते हैं। अपनी इस विरासत पर हमें गर्व है। अनिल सिन्हा को क्रान्तिकारी सलाम।