अमेरिकी कला ने परम स्वतंत्रता के नाम पर एक तरफ अमूर्तन की भूलभुलैया खड़ी की तो दूसरी तरफ फोटो रियलिज्म ( सुपर रियलिज्म या हाइपर रियलिज्म) को भी खड़ा करने का श्रेय उसी को जाता है. 1960 के दशक के अंत और 1970 के शुरूआती दौर में लगभग पाॅप आर्ट के बाद के दौर में फोटो रियलिज्म नाम से एक सशक्त शैली आकार लेने लगी.
इस कड़ी में जब हम अपने यहाँ देखते हैं तो लगभग सत्तर – अस्सी साल के सफर के बाद हमारे देश का कला जगत वैश्विक कला जगत के साथ साझेदारी करने के स्थिति में लगभग पहुंच रहा है. निस्संदेह इसमें सूचना तकनीक की भूमिका तो है ही मगर उससे ज्यादा कुछ कलाकारों की असीम मेहनत घोर कला-साधना और वैचारिक प्रतिबद्धता भी है जिन पर कला बाजार के लुढ़कने या चमकने का फर्क नहीं पड़ता. बल्कि इनकी प्रेरणा वो मेहनत है जो कोयला खान , फैक्ट्री , खेत – खलिहान तक सोना बनाता तो है पर खुद बदहाल है. चित्रकार रणजीत सिंह एक ऐसे ही कलाकार हैं जिनका केन्द्रीय विषय कोयला खदानों से लेकर फुट – पाथ की चाय दुकानों तक बिखरी बाल – मजदूरी है.
रणजीत सिंह का जन्म 02 जनवरी 1984 में धनबाद, झारखंड में हुआ. यद्यपि इनका पैतृक गांव दलीपपुर , बिहार के भोजपुर जिले में अवस्थित है. पिताजी त्रिलोकी सिंह की नौकरी धनबाद में थी सो उनका जन्म, लालन-पालन , धनबाद में ही हुआ. माता लाल मुनी देवी गृहणी हैं. रणजीत का बचपन धनबाद के कोयला खदान के काले धूल भरे वातावरण में हुआ.
रणजीत सिंह ने अभिव्यक्ति के लिए, ‘ दृश्य रुप में ‘ सुपर यर्थाथ वादी तरीका अपनाया जो कि घोर साधना की मांग करता है. शायद इस कठिन श्रम के श्रोत वे श्रमिक हैं जिसे ” ब्लैक ट्रुथ” की संज्ञा रणजीत ने दी है. शैली की बात करें तो यह फोटो यर्थाथ वाद की तरह दृश्य रुप में भले है लेकिन यह बात उससे बहुत आगे तक जाती है. रणजीत के यहाँ वानगॉग सा सहानुभूति भी है और पिकासो सा प्रतिरोधी तेवर भी. इसमें सुपरियलिज्म की भी झलक है और जादुई यर्थाथवाद की तरह कल्पनाशीलता भी. और सबसे बड़ी बात यह सब पुर्वनियोजित व पुर्वनिर्धारित वैचारिकी के साथ हैं जो बहुत कम कलाकारों में देखने को मिलता है.
यहां उनकी कृति ” लुक ऐट मी ” श्रृंखला का सातवां चित्र देखने योग्य है जिसमें एक सुटेड – बूटेड मानव की पांव की आकृति और ढोलक का कुछ हिस्सा दिख रहा है जिस पर वह थाप दे रहा है. उसके पैरों उत्तम श्रेणी के मंहगे जूते और पैंट है और उसके आसपास करतब करती एक फूटपाथी बच्ची के ढेरों अक्स हैं. अक्सर हम रेलवे स्टेशन पर या फिर कहीं फूटपाथ पर उन करतब करने वाली बच्चियों का दृश्य देखते हैं. जो तरह-तरह के करतब दिखा चार पैसे भीख मांगने के अंदाज में कमाती हैं. इस दृश्य को लेकर रणजीत का यह प्रयोग अद्भुत है. यहां ऐसे लग रहा है जैसे अदृश्य ताकत है जिसकी थाप पर पूरा देश करतब दिखाने को मजबूर है. चित्र इतना यर्थाथ रुप में चित्रित है कि फोटो ग्राफी का भ्रम उत्पन्न करता है. वर्णयोजना कमाल का तो है ही दृष्टिक्रम का प्रयोग भी अद्भुत है. यह चित्र वैचारिकी और कलात्मक दक्षता का बड़ा ही सुंदर संयोजन है.
जैसा कि हर कलाकार के साथ कुछ सीमाएं रहती है रणजीत सिंह के साथ भी है और वह सीमा उनकी खुबी में ही निहित है. यद्यपि यह बहुत स्वाभाविक भी है. बावजूद इसके उनका चित्रण कौशल और साफ समझ उत्साहित करने वाला भी है और महत्वपूर्ण भी. खासकर इस दौर में तो और भी जब कला-बाजार निरर्थकता और भूलभुलैया की खोह बनता जा रहा है. रणजीत सिंह में इस दौर के एक महत्वपूर्ण कलाकार के रूप में स्थापित होने की भरपूर संभावना मौजूद है.