समकालीन जनमत
जनमत

पूनम वासम की कविताएँ सजग ऐंद्रिय बोध और वस्तु-पर्यवेक्षण की कविताएँ हैं

हिन्दी कविता में आदिवासी जमीन से आने वाली पहली कवयित्री सुशीला सामद हैं। उनका संग्रह “प्रलाप” नाम से 1935 में, सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा के संग्रहों के लगभग साथ ही छपा था। उस समय उनकी स्वीकार्यता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उनके इस पहले ही संग्रह की भूमिका सरस्वती पत्रिका के ख्यात संपादक देवीदत्त शुक्ल ने लिखी। उस छोटी-सी भूमिका में वे दो महत्त्वपूर्ण सूत्र प्रस्तावित करते हैं, जिनपर पुनर्विचार की ज़रूरत है। वे लिखते हैं कि “प्रलाप नामधारी इस करूण-रस-पूर्ण ‘अंतर्लाप’ को पढ़कर कौन नहीं कहेगा कि यदि लेखिका का कविता का अभ्यास ऐसा ही बना रहा तो हिन्दी की स्त्री-कवियों में वे भी आदर के साथ गिनी जाएँगी।” सुशीला सामद का अभ्यास बना रहा। उसके बाद भी उनके संग्रह प्रकाशित हुए। वे चाईबासा से “चाँदनी” पत्रिका का प्रकशन सम्पादन करती रहीं। लेकिन, प्रश्न है कि क्या हिन्दी के साहित्यिक समाज ने उन्हें किसी आदर लायक़ समझा ? और नहीं समझा तो क्यों ? हिन्दी आलोचना के इतिहास में सुशीला सामद का नाम कहीं पर इत्यादि में भी व्यंजित नहीं होता! और ऐसा क्यों हुआ, इसके कारणों को समझना बहुत कठिन नहीं है। दूसरा सूत्र, देविदत्त शुक्ल ने आशा व्यक्त किया कि हिन्दी समाज इस कवयित्री का सम्मान इसके कवीत्त्व के नाते करेगा, न कि ‘आदिम-निवासी’ होने के नाते। इसकी व्यंजना यह है कि कविता के विश्लेषण के लिए भले ही कवि के पहचान की जरूरत पड़े, लेकिन मूल्याँकन कविता की सार्वभौमिक जमीन पर ही किया जाना चाहिए। यहाँ, मैं जिस कवयित्री की कविताओं पर टिप्पणी करने जा रहा हूँ, उसके बारे में भी यही दोनों बातें दुहराना चाहता हूँ।
सुशीला सामद ‘सुराजी’ आन्दोलन से जुड़ी रहीं, लेकिन उनकी कविताएँ सुभद्रा कुमारी चौहान से अलग, राष्ट्रवाद के आत्यंतिक दबाव से मुक्त हैं। और स्त्री-अनुभवों को रचने की प्रक्रिया में संभव होती हैं। इसी तरह इस जमीन से आने वाली, बाद की काव्य-भाषा भी आधुनिकतावाद और हिन्दी कविता के सामान्य मुहावरों से अलग ही रही। आज भी है। इस बात को आप युवा कवयित्री पूनम वासम को पढ़ते हुए भी महसूस करेंगे।
पूनम वासम का वस्तु-पर्यवेक्षण और ऐंद्रिय बोध सजग है। जब कविताएँ बहुत स्मृति-मूलक और रूमानी हुई हैं, या फिर इसके ठीक उलट, प्राइम टाइम पर चलने वाले समाचार की तरह आक्रामक होती गयी हैं, तो ऐसे में, सजग ऐंद्रिय बोध और वस्तु-पर्यवेक्षण कविता के तईं वरेण्य मूल्य हैं। इस बात को ध्यान में रखकर पूनम वासम की कविताएँ पढ़िए, आप इस युवा कवयित्री के शुभेच्छु हुए बिना न रहेंगे।
इन कविताओं में दूसरी चीज़, जो प्रभावित करती है, वह है– कवयित्री के भाव-बोध का प्रकृति से जैविक तरह की संबद्धता। यहाँ वस्तु जगत लयबद्ध समष्टि की तरह दिखाई पड़ता है। कहना न होगा कि प्रकृति से यह जैविक संबद्धता जितना आदिवासी समाजों का वैशिष्ट्य है, उतना ही स्त्री मात्र के अनुभवों का वैशिष्ट्य भी है। दूसरे, यहाँ हिन्दी कविता के सामान्य मुहावरे की तरह प्रकृति सैलानी, रूमानी और स्मृतिमूलक नहीं है; यहाँ उसका विडंबनात्मक समकाल भी है। आदिवासी समाजों के इस जीवन-संदर्भ को चाट जाने पर आमादा वैश्विक पूँजी की त्रासद अनुगूँज है। बल्कि कविताओं में सिर्फ़ इसी की अनुगूँज नहीं है, अपितु इससे मुक्त होने की छटपटाहट में प्रकृति और मनुष्य के एकबद्ध होते जाने की व्यंजनाएँ भी हैं। तीसरी उल्लेखनीय बात, इन कविताओं में स्त्री का शोषण अस्मितामूलक, आक्रामक या व्यक्तिनिष्ठ सुख-दु:खात्मक नहीं है। यहाँ स्त्री का शोषण प्रकृति और शोषण के वृहत्तर परिदृश्य से जुड़ा हुआ है, इसलिए अस्मितावादी स्त्री-लेखन की अपेक्षा आपको भाषा और शैली में ताज़गी दिखाई पड़े तो इसे स्वाभाविक समझिएगा।
स्त्री प्रकृति को जानती है- यह एक दुहराई जाती हुई बात है। परंतु ‘सामान्य सी बात’ शीर्षक कविता में इसे दूसरी तरह व्यंजित किया जा रहा है। कई बार अनुकूलित दृष्टि को बताना ही पड़ता है कि ‘तुम धरती पर खड़े नहीं हो, हवा में गड़े हो’। यहाँ कहा जा रहा है कि नदी स्त्री को जानती है। पेड़ उसे जानते हैं। प्रकृति उसे जानती है। परंतु अपने अहंकार के चलते पुरुष उसे कभी नहीं जान सकता। लेकिन स्त्री पुरुष के इस अहंकार को भी जानती है! पाठक अगर ध्यान देंगे तो पता चलेगा कि इन कविताओं में कवयित्री लगभग नहीं बोलती। यहाँ व्यंजना वस्तु-सम्बन्धों से ही पैदा होती है। जैसे ‘मछलियों का शोकगीत’ शीर्षक कविता देखिए। जमीन के सैकड़ों फिट नीचे, अँधेरे में पड़ी हुई कुटुमसर की मछलियाँ, अपने देखने की क्षमता गँवा चुकी हैं। इन मछलियों को स्त्रियों के रूपक में बदलने और जनु-जानों-मनु-मानो के टाँके लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। सामान्यतः यहाँ चीजें संकेत और प्रतीक की तरह उपयोग नहीं होती हैं। कवयित्री उनकी वस्तुसत्ता का सम्मान करती है। कविता छोटे-छोटे मार्मिक विवरणों से एकाएक अपनी ऊँचाई पर पहुँचती है, जब कवयित्री लिखती है-“इनकी आंखों से टपकते आँसुओं की बूंद से चमकता है गुफ़ा का बेजान सा शिवलिंग!” इन पंक्तियों से कविता का अर्थ एकदम बदल जाता है- अंधी आँखों के आँसूओं से चमकता है गुफा का बेजान शिवलिंग ! इस एक पंक्ति से धर्म और स्त्री का संबंध अपनी तमाम व्यंजनाओं के साथ भासमान हो उठता है। धनुकुल के स्वर में कितने और स्वर, कितनी कितनी स्मृतियाँ मिली हुई हैं। ‘सोमारू के लिए’ शीर्षक कविता में प्रेमी के साथ संघर्ष का प्रतीक लोक नायक याद आता है और कविता वृहत्तर जीवन के संघर्ष और आनंद से जुड़ती चली जाती है।
इन कविताओं के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि इनमें सुगढ़ता, सघनता और संवेदनात्मक तनाव की कमी है। लेकिन मेरी समझ से हर चित्ररसिक को यह पता होता है कि कई दफे चित्र के अतिसुरेखित होने से उसके सौंदर्य और भाववाहिता में कमी भी आ जाती है। इस टिप्पणीकार का निवेदन है कि उसकी टिप्पणी से कविताओं का मूल्याँकन न किया जाए। बल्कि कविताओं से उसकी टिप्पणी का मूल्याँकन हो।

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पूनम वासम की कविताएँ-

मछलियों का शोक गीत

झपटकर धर नही लेती कुटुमसर की गुफा में दुबक कर बैठी अंधी मछलियां अपनी जीभ पर
समुद्र के खारे पानी का स्वाद
इनकी गलफड़ों पर अब भी चिपका है वहीँ
हजारों वर्ष पूर्व का इतिहास!
कि कांगेर घाटी में उड़ने वाली गिलहरी के पंखों पर
अक्सर उड़ेल आती है मछलियां,
संकेत की भाषा मे लिखी अपनी दर्द भरी पाती की स्याही ताकि बचा रहे गिलहरी के पंखों का चितकबरापन
बोलने वाली मैना को सुबक-सुबक कर सुनाती हैं
काली पुतलियों की तलाश में भटकती अपनी नस्लों के संघर्ष की कहानी.
ताकि मैना का बोलना जारी रहे पलाश की सबसे ऊंची टहनी से
मछलियां तो अंधी है पर,
लम्बी पूँछ वाला झींगुर भी नही जान पाया अब तक कुटुमसर गुफा के बाहर ऐसी किसी दुनिया के होने का रहस्य
कि जहाँ बिना पूँछ वाले झींगुर चूमते हैं सुबह की उजली धूप
और टर्र टर्र करते हुये गुजर जाते है
कई कई मेढकों के झुंड
गुफा के भीतर
शुभ्र धवल चूने के पत्थरों से बने झूमरों का संगीत सुनकर
अंधी मछलियां भी कभी-कभी गाने लगती है
घोटुल में गाया जाने वाला
कोई प्रेम गीत!
गुफा के सारे पत्थर तब किसी वाद्ययंत्र में बदल उठते है
हाथी की सूंड की तरह बनी हुई
पत्थर की सरंचना भी झूम उठती है
संगीत कितना ही मनमोहक क्यों न हो
पर एक समय के बाद
उसकी प्रतिध्वनियां कर्कशता में बदल जाती है
मछलियां अंधी हैं
बहरी नही,
कि मछलियां जानती है सब कुछ
सुनती है सैलानियों के पदचाप
सुनती हैं उनकी हँसी ठिठोली
जब कोई कहता है
देखो-देखो यहां छुपकर बैठी है
ब्रम्हाण्ड की इकलौती रंग-बिरंगी मछली.
तब भले ही कुटुमसर गुफा का मान बढ़ जाता हो
अमेरिका की कार्ल्सवार गुफा से तुलना पर कुटुमसर फूला नही समाता हो
तब भी कोई नहीं जानना चाहता
इन अंधी मछलियों का इतिहास
कि जब कभी होती है एकान्त में
तब दहाड़े मार कर रोती है मछलियां
इनकी आंखों से टपकते आँसुओं की बूंद से चमकता है गुफ़ा का बेजान सा शिवलिंग!
कोई नही जानता पीढ़ियों से घुप्प अंधेरों में छटपटाती
अंधी मछलियों का दर्द
कि लिंगोपेन से मांग आई अपनी आजादी की मन्नतें
कई-कई अर्जियां भी लगा आई बूढ़ादेव के दरबार में
अंधी मछलियां जानती हैं
उनकी आजादी को हजारों वर्ष का सफर तय करना
अभी बाकी है
इसलिए भारी उदासी के दिनों में भी
कुटुमसर की मछलियां
सायरेलो-सायरेलो जैसे गीत गाती हैं।
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सामान्य सी बात

नदी समझती है औरत के निर्वस्त्र होकर
उससे लिपट जाने वाली देह की भाषा
नदी के पानी के लिए यह सामान्य सी बात है
एक नन्ही चिड़िया जानती है
नदी में डुबकी लगाती औरत की देह का
प्रेम में टूटकर मकरन्द हो जाने की कथा
फूलों के लिए और भँवरों के लिए भी
यह एक सामान्य सी बात है
आस-पास गोते लगाती मछलियों के लिए
औरत का यूँ नदी से लिपटना कोई नई बात नहीं कि
औरत के लिपटते ही
नदी का पानी किसी पवित्र कुंड जैसा लगने लगता है
जहाँ डुबकी लगा कर मछलियाँ भी ले आती हैं
अपने हिस्से की पवित्रता
सूरज जानता है उसके उगते ही नदी गर्म हो जाएगी
नन्ही चिड़िया फुदकने लगेगी
मछलियाँ भी चहक उठेंगी
और औरत
नदी के पानी से निर्वस्त्र होकर
लिपट जाएगी हमेशा की तरह
जंगल के लिए औरत का नदी से यूँ रोज लिपटना
सामान्य सी बात है
पहाड़ को भी कोई आपत्ति नहीं
नन्ही चिड़िया ,मछली ,फूल तितली,भँवरे,जंगल,पहाड़ ,सूरज
सब मानते है
औरत का नदी से लिपटना सामान्य सी घटना है
औरत को निर्वस्त्र होकर नदी से लिपटते हुए
एक युग बीत गया
तब भी तुम्हारी आँखों मे औरत की देह मात्र का प्रतिबिंब उतर आना समझ से परे है
तुम कब समझोगे कि तुम्हारे गुरुर के तने हुए सागौन वृक्ष के नीचे से जड़ो को चूमते हुए
धरती के नीचे
बहुत बार चुपचाप गुजर जाती है नदी
तुम्हारा इतराना हमारे लिए एक सामान्य सी बात है
क्योंकि तुम नही जानते
तुम्हारा सारा हरापन हमारा दिया हुआ है!

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तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी

पूजा घर मे रखे ताँबे और काँसे के पात्र से
कहीं ज्यादा, यूँ कहे कि
रसोईघर के बर्तनों से भी ज्यादा प्रिय है
हमारे लिए तूम्बा
पेज, ताड़ी, महुआ और दारू
यहाँ तक की पीने का पानी रखने का सबसे सुगम व सुरक्षित पात्र के रूप में चिन्हाकित है तूम्बा!
तूम्बा का होना हमारी धरती पर जीवन का संकेत है
जब हवा नहीं थी, मिट्टी भी नहीं थी
तब पानी पर तैरते एकमात्र तूम्बे को
भीमादेव ने खींच कर थाम लिया था
अपनी हथेलियों पर
नागर चला कर पृथ्वी की उत्पत्ति का
बीज बोया भीमादेव ने
तब से पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां, घास-फूस
इस धरती पर लहलहा रहे है
वैसे ही तूम्बा हम गोंड आदिवासियों के जीवन में
हवा और पानी की तरह शामिल है
तूम्बा मात्र पात्र नही, हमारी आस्था का केंद्रबिंदु भी है
जब तक तूम्बा सही-सलामत
ताड़ी ,सल्फ़ी, छिंद-रस से लबालब भरा हुआ
हमारे कांधे पर लटक रहा है
तब तक हमारा कोई कुछ नही बिगाड़ सकता.

बचा रहेगा तूम्बा, तो कह सकते हैं
कि बची रहेगी आदि-जातियाँ
गोंड-भतरा, मुरिया
और वजूद में रहेगी जमीन और जंगल की संस्कृति
खड़ा ही रहेगा अमानवीयता के विरुद्ध बना मोर्चा
तूम्बा किसी अभेदी दीवार तरह
कि तूम्बा का खड़ा रहना प्रतीक है मानवीय सभ्यता का
दुनिया भले ही चाँद-तारों तक पहुँचने के लिए
लाख हाथ-पैर मार ले
पर हमारे लिए सबसे ज्यादा जरूरी है
तूम्बे को बचायें रखना
हर हाल में, हर परिस्थिति में
क्योकि तूम्बा का फूटना
अपशुकुन है हम सबके लिए!
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हमारी बच्चियाँ

हमारी बच्चियाँ बड़ी नहीं होती मासिक के बाद
शहर की बच्चियों की तरह
कि दबोच लिया जाता है उन्हें
उम्र के इस पड़ाव से कहीँ पहले
तेंदू,सरगी,साल के पेड़ों के पीछे
अपनी घुटती सांसो से चखती है
गदराये बदन के बिना ही यौवन का स्वाद
भूई नीम की पत्तियों की तरह
सिसकियों के बीच
टटोलते हाथों के मध्य तलाशती है
किसी प्रेमी के हाथों की गरमाहट
ताकि दर्द को बदल सके किसी ऐसी घटना में जो पूर्वनिर्धारित हो
हमारी बच्चियाँ नहीं देखती सपने
सफेद घोड़े पर सवार राजकुमार के आने का
कि सपना देखने वाली पुतलियाँ इनकी आँखों से
कब की हटा ली गई है
इनकी आँखें देखती है गारा ,मिट्टी, ईट, पत्थर ,रेत से भरी मोटी- मोटी वज़नदार तगाड़ियाँ
जिनकी भार से इनका कद उतना ही रहा
जितना इनकी पेट की लंबाई
हमारी बच्चियाँ पैदा होती है इंद्रावती की नदी में आई बारिश की बाढ़ की तरह
खिलती हैं तेजी से किसी जंगली फूल की तरह
चहकती है पहाड़ी मैना की तरह
हमारी बच्चियों के होने से ही
जंगल आज तक हरा भरा है
हमारी बच्चियाँ नहीं जानती ऐसा कुछ भी
कि समझ सके शहर की बच्चियों की तरह
योनि से रिसते सफेद स्त्राव और लाल खून में अंतर
बढ़ता हुआ पेट इन्हें किसी देवी प्रकोप की घटना की तरह लगता है
हमारी बच्चियाँ नहीं जानती शहर की बच्चियों की तरह
नीले आसमां के विषय में कुछ भी
नहीं जानती कि धूप का एक टुकड़ा
थोड़ी सी हवा और स्वाति नक्षत्र जैसी बारिश की कुछ बूंदे इंतज़ार कर रही है उनका,
यहीं इसी पृथ्वी पर
कि पृथ्वी को अब तक नहीं पता बच्चियों को दो भागों में विभाजित करने का फार्मूला ।

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मृतक स्तम्भ

पाषाण युग से चली आई परम्परा ने
बचायें रखा है हमे अब तक पाषण होने से
कि जन्म से लेकर मृत्यु तक धर्मभीरुता का कीड़ा
हमारी नसों में गर्म लहू सा दौड़ रहा है
तुम्हारा जाना पूर्वनिर्धारित था जिसे रोक पाना
हमारे वश में नहीँ पर तुम्हे जिन्दा रखना
किसी इतिहास की गाथा की तरह
हमारी पहली प्राथमिकता है
तुम्हारी समाधि पर महीनों तक
ठंडे पानी का घड़ा रखना हम नही भूलते
हमें पता है तुम्हारी प्यास को बुझाने का यही एक तरीका है
तुम्हे पसन्द थी न ताड़ी,सल्फ़ी
हर वह वस्तु जो तुम्हे बेहद प्रिय थी
रख दी गई है उकेर कर तुम्हारी स्मृति में लगे स्तम्भ पर
तुम्हारी प्रिय साइकिल जिस पर सवार होकर तुम
मीलों दूर जगदलपुर जाया करते थे
रोजी-रोटी की तलाश में
वह तुम्बा भी है वहीँ, जिसमे रखा पेज
तुम्हारी जीभ को मीठा लगता था
रस्सी की टूटी खटिया ,गेंदे का फूल
सम्भाल कर उकेर दिया है
धान काटने वाला हंसिया और
लकड़ी काटने वाला टंगिया भी

गुड़ाखू की डिबिया ,तम्बाखू की पुड़िया के साथ पड़िया और पान का पुड़ा
पत्थर तोड़ते तुम्हारी मांशपेशियों से निकलने वाले पसीने का आत्मीय मित्र तुम्हारा लाल गमछा भी रख छोड़ा है
हमारी ख़ैर-ख़बर लेकर तुम तक
संदेश पहुचानें वाले कौवों की तस्वीर भी
तुम्हारी मेनहीर में उकेर दिया है
तुम चिंता न करना बीज पंडुम में तुम्हे न्यौता भेज देगें तुम्हारी बिटिया के ब्याह का
तुम जाओ ख़ुशी-ख़ुशी
हमें पता है मेनहीर का आकार सालों साल बढ़ेगा तेजी से
कि तुम मरने के बाद भी
अपने गांव की मिट्टी के लिए शुभ संकेत छोड़ जाओगे मृतक स्तम्भ के रूप में
तुम्हारा जाना पूर्वनिर्धारित होने के बावजूद
हम तुम्हे जाने नही देंगे कभी हमारे बीच से ।
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धनकुल का सुर

तुम्हारे लौट आने मात्र से लौट आयेगा
गाँव का पुराना तालाब
हँसने लगेगा महुए का पेड़
तिरडुडडी भी अपना मौन व्रत तोड़कर
एक साथ छनक उठेंगी.
तुम लौटोगे तो लौट आयेंगी पोलई की खुशियाँ
एक बार फिर धोरई बाँधेगा बैलों को गोठान में
जेठा और चुई पहनाकर
तुम्हें पता है न कि सिंगोटी देखना शुभ माना जाता है.
धनकुल का सुर लग ही नहीं रहा
तुम्हारी उँगलियों के छुवन के बिना.
सारे देवी -देवताओं का जी उकता गया है तुम्हारे इंतज़ार में
चौपाल का सूनापन झेलते-झेलते नीम का पेड़ बुढ़ा रहा है.
उसके झुर्रीदार तने,
तुम्हारी खोई हुई हँसी के दानों को
स्मृति-चिन्ह के स्तम्भ में एक -एक कर चिपका रहे हैं
खलिहान को मस-डाँड से घेरने के बाद भी वहाँ
दुःख की पकी फसल का ढेर लगने लगा है.
पान -टुटानी का काम अधूरा है.
देव- डँगई का रंग भी फीका है एक तुम्हारे न होने से
‘नाँगर धरला भीम, पानी देला इँदर’
वाली कहावत में जान फूँकने वाले तुम अंतिम कड़ी हो.

मुझे यकीन है कि तुम आओगे लौटकर
जंगल की अँधेरी छाँव वाली गुफा के सारे
तिलस्म तोड़कर
तुम भेजोगें एक दिन अपने ‘बाबा ‘ को मेरे घर
फूल खोंचने
तुम्हे यह जानकर ताज्जुब होगा
कि आज भी पूरा गाँव मरमी पाटा गाने के लिए उत्सुक है
सिर्फ तुम्हारे लिए.
कि तुम्हारे लौट आने की खबर मात्र से
लौट आयेंगी कैलेंडर की सारी बीती तारीख़े.
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सोमारू के लिए

दण्डकारण्य के बीहड़ जंगलों से,
एक बार फिर लिखूँगी मैं तुम्हें
संबोधित करते हुए प्रेमपत्र…
भले ही तुम संवाद न कर सको,
मेरे लिखे हुए शब्दों से !
फिर भी मैं लिखूँगी तुम्हें
घोटूल की मोटीयारिन की तरह,
प्रेम में सब कुछ अर्पण करने वाली
चेली बनकर ।

मैं लिखूँगी तुम्हें
गुण्डाधुर मानकर…
एक नई क्रांति की शुरुआत जानकर,
मांदर की थाप, सल्फी,
ताड़ी की मिठास पर थिरकते
तुम्हारे पांवों की धूल को मांथे लगाकर ।

मैं लिखूँगी तुम्हें प्रेम-पत्र…
बस्तर की गौरवशाली
इतिहास की पुर्नरावृति के नाम,
महाराज प्रवीरचंद भंजदेव का
माई दंतेश्वरी के प्रति
आस्था के नाम …
तुम्हें इंद्रावती की संतान मानकर
ककसाड़ गेंड़ी की ताल पर…
संस्कृति, सभ्यता और परंपरा का
निर्वाह करने वाला सोमारू जानकर ।

मैं लिखूंगी तुम्हें प्रेम-पत्र…
लहूलूहान हो चुकी तुम्हारी आत्मा
तुम्हारे शरीर पर लगी चोटों के नाम ।

मैं सुन सकती हूँ तुम्हारी आवाज
जो पुकारती है मुझे…
दण्डकारण्य के बीहड़ों से
चीख़-चीख़ कर ।

सुनो…मैं जानती हूँ
तुम लौटकर जरूर आओगे,
जब पढ़ोगे गोंडी भाषा में लिखे
मेरे प्रेम-पत्र…
अपनी कोट की जेब से निकालकर
तब तुम देखना…
लहूलुहान हो चुकी बस्तर की भूमि पर
पलाश के सुर्ख लाल फूल
प्रेम बरसाने लगेंगे ।

हाँ, तब भी मैं लिखूंगी तुम्हें
प्रेम-पत्र…
बस्तर का आदिवासी सोमारू समझकर
क्योंकि मैं तुमसे प्रेम करती आयी हूँ
युगोयुगान्तर से…
सच्चा प्रेम… मेरे सोमारू —

शब्दार्थ–
*तिरडडुडी – दण्डामी-माडिया नृत्य के दौरान उपयोग की जाने वाली लोहे की छड़ी जैसा उपकरण जिसे नृत्य के दौरान धरती पर बार -बार पटकने से खनक पैदा होती है ।
*पोलई – धान की मिंडाई के बाद जब कुछ विशिष्ठ जातियों के लोग तथा चरवाहे खेत मालिक के घर जाते हैं तब उन्हें भेंट के रूप में धान दिया जाता है। बस्तर में हल्बी-भतरी परिवेश के बीच यह प्रथा प्रचलित है ।
*सिंगोटी – गाय बैलों की पूजा के बाद उनके सींग पर नया कपड़ा बांध दिया जाता है फिर उन्हें दौड़ा दिया जाता है, उस कपड़े को चरवाहे निकालते हैं इस प्रथा को सिंगोटी देखना कहते हैं।
*धनकुल वाद्य – हंडी, सूप, धनुष और बाँस का प्रयोग करके बनाया गया एक वाद्य यंत्र ।
*मस-डाँड – खलिहान में रखे गए धान को कोई चुरा न ले इसलिये कोयले से खलिहान के चारों तरफ पूजा करके लकीरें खींच दी जाती हैं ।
*फूल खोंचने – लड़की के घर वर पक्ष से घर के बुजुर्ग जाकर रिश्ता तय करते है ।
*मरमी पाटा – विवाह- गीत

पड़िया —लकड़ी की कंघी,मेनहीरस्मृति पाषाणबीज पंडुम—–स्थानीय त्यौहार

(पूनम वासम बस्तर संभाग की रहने वाली हैं. पूरा नाम पूनम विश्वकर्मा वासम। पूनम की कविताएँ समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. टिप्पणीकार आशीष मिश्र समकालीन कविता आलोचना में उभरता हुआ और चर्चित  नाम हैं.)

 

संपर्क:पूनम वासम

poonamvasam@gmail.com

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