कौशल किशोर
यह कैसा समय है कि साथ के लोग साथ छोड़े जा रहे हैं. कुंवर जी और दूधनाथ सिंह को हम ठीक से अभी याद भी नहीं कर पाये थे कि हमारे अत्यंत प्रिय कवि केदारनाथ सिंह के निधन की बुरी खबर मिली. कई बार लगता है कि हम पके आम के बाग में हैं. कब कौन टपक पड़े कहना मुश्किल है. अब तो अधपके और कच्चे भी गिर रहे हैं. सुशील सिद्धार्थ के दाह संस्कार की राख अभी ठण्डी भी नहीं हो पाई कि दूसरे ही दिन ही केदार जी इस दुनिया से कूच कर गये. जब से वे कोमा में गए तभी से यह आशंका हो रही थी कि क्या वे बाहर आ पायेंगे या नहीं. कहीं कवि कुंवर नारायण वाली कहानी न दोहराई जाय. और यही हुआ.
केदारनाथ सिंह जी से हमारा जुड़ाव कवि के रूप के साथ उस माटी से भी था. इसलिए उनके बारे में कुछ भी कह पाना, लिख पाना बहुत मुश्किल हो रहा. यही लग रहा है कि अंदर कुछ दरक गया. वे हमारे लिए वट वृक्ष की तरह थे. लगता है कि वह वृक्ष जिसके साये में हँसते, खेलते, कूदते साहित्य की दुनिया में हम बड़े हुए, टूट कर गिर गया. दूधनाथ जी और केदारनाथ जी दोनों बलिया के थे. सुरेमनपुर ही वह रेलवे स्टेशन है जहां से उतर कर केदारनथ सिंह जी को अपने गांव चकिया जमालपुर जाना होता था. मेरे गांव सुरेमनपुर और चकिया जमालपुर की दूरी महज कोस भर होगी. उनके गांव और मेरे गांव के बीच रेलवे लाइन थी. मेरा चकिया जमालपुर अक्सर जाना होता था. कई रिश्तेदारियां थीं.
जब हमने साहित्य में आंख खेली और 1972 में बलिया से ‘युवालेखन’ का प्रकाशन शुरू किया, वे गांव छोड़ चुके थे. पडरौना में उन्होंने अध्यापन किया. फिर जेएनयू आ गये. भले ही वे बनारस, पडरौना, दिल्ली में रहे हों पर कभी भी उन्होंने गांव को विस्मृत नहीं किया. साल बीतते वे अपने जिले की ओर आ ही जाते. वे गलियां ….पगडंडिया जो हर साल उनके आने का इंतजार करती रहती, अपने कवि को पाकर पूरा जिला जवार आह्लादित हो उठता. रामजी तिवारी, अजय कुमार पाण्डेय, आशीष त्रिपाठी जैसे साहित्यिक मित्रों को हमेशा उनका इन्तजार रहता कि कब केदार जी आते हैं. उनके आते ही बलिया में गंगा और घाघरा के मिलन के रूप में साहित्य की धारा फूट निकलती.
ऐसे ही उनके बलिया प्रवास के दौरान रामजी तिवारी और अजय कुमार पाण्डेय ने गुलजार के रचना कर्म को केन्द्र कर कविता और जीवन के गहन रिश्ते पर उनसे बातचीत की जिसे ‘रेवान्त’ में हमें प्रकाशित करने का मौका मिला. उनके जाने से सब सूना हो गया। अब न खत्म होने वाला इंतजार शेष है….बस इंतजार।
पडरौना से लेकर जेएनयू तक की बहुत सी यादें हैं जो धरोहर है. उनसे मिलना हिन्दी के बड़े कवि से मिलना कभी नहीं लगा. यह हमेशा एक बेहतरीन इन्सान से मिलना रहता, अपने जवार के मनई से मिलना होता. कवि के साथ एक विचारक व संगठक का भी उनका व्यक्तित्व था. उन्होंने जन संस्कृति मंच के कई सम्मेलनों में शिरकत की और विचारप्रवण व ओजपूर्ण व्याख्यान से उसे समृद्ध किया. गौर तलब है कि जसम के 1985 में हुए स्थापना सम्मेलन की स्वागत समिति के वे अध्यक्ष थे जिसके अन्य सदस्य थे : मैनेजर पांडेय, तपन बोस, महीप सिंह, हरिवंश मुखिया, शम्सुल इस्लाम, विष्णुचन्द्र शर्मा, शिवमंगल सिद्धांतकर, आनन्द स्वरूप् वर्मा और मंगलेश डबराल। उनका स्वागत भाषण आज 32 साल बाद भी मौजू व प्रेरक लगता है-
मित्रों
मुझे स्वागत समिति की ओर से बड़ा दायित्व सौंपा गया है कि मैं दूर-दराज से आये आप सभी साथियों का स्वागत करूं. मुझे इस बात की खुशी है कि इस सम्मेलन में असम, बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, पंजाब …सुदूर अंचलों से लेखक व संस्कृतिकर्मी आये हैं. हमलोग जन संस्कृति की अवधारणा, इससे जुड़े विभिन्न सवालों पर इस सम्मेलन में बहस करेंगे और किसी ठोस नतीजे तक पहुंचेंगे. यह विश्वास मैं बहुत शुरू में व्यक्त करना चाहता हूं.
मैं कहना चाहता हूं कि जन संस्कृति को आज सबसे बड़ा खतरा विराट अप संस्कृति से….इसके दुष्चक्र से है जो पूरे देश में चलाया जा रहा है. इसमें सत्ता द्वारा संचालित संचार माध्यम सक्रिय है, बहुत सी पत्र-पत्रिकाएं सक्रिय हैं. इस अपसंस्कृति के विरुद्ध सक्रिय हस्तक्षेप की जरूरत है. मैं मानकर चलता हूं कि यह सम्मेलन इस दिशा में पहल करेगा. मैं समझता हूं कि जनता की संस्कृति, जनता द्वारा लम्बे समय से पोषित संस्कृति पर इतने ज्यादा प्रहार, इतनी दिशाओं से प्रहार इससे पहले कभी नहीं हुए थे. और इसलिए इस संदर्भ में इस आयोजन की अपनी एक विशेष भूमिका है.
बहुत पहले दूसरे महायुद्ध के संदर्भ में मैंने कहीं पढ़ा था कि जब पनडुब्बियां समुद्र में संचालन करती थी, तो आने वाले खतरे का आभास देने के लिए उनमें खरगोश रखे जाते थे. जब खतरे सामने होते थे, जैसे दुश्मन ने सुरंगे बिछा रखी है, तो पनडुब्बी में रखा खरगोश मरने लगता था. खरगोश के रोंये की प्रतिक्रिया से यह अहसास होने लगता था कि आगे खतरा है. उसी तरह सामयिक संदर्भ में संस्कृति खरगोश की तरह है, जो आने वाले खतरे का आभास देती है. लेकिन मित्रों, आने वाले खतरे का आभास देने वाली यह संस्कृति खरगोश की तरह मर जाय, समाप्त हो जाय, आज कोशिशें इसी तरह की हो रही हैं. इसीलिए इन कोशिशों के विरुद्ध सक्रिय हस्तक्षेप की आज जितनी जरूरत है, उतनी पहले कभी नहीं नहीं थी.
मित्रों, मैं यहां एक बात का और उल्लेख करना चाहूंगा कि संस्कृति के विरुद्ध जो अभियान चल रहे हैं, संस्कृति को अपसंस्कृति में बदलने की जो कोशिशें हो रही हैं, इनके पीछे काम करने वाली शक्तियां बहुत ही सूक्ष्म व महीन तरीके से सक्रिय हैं. इन कोशिशों के विरुद्ध ज्यादा बड़ा, ज्यादा व्यापक मंच की आज जरूरत है. मैं यह विश्वास व्यक्त करता हूं कि जिस मंच का शुभारम्भ यहां हो रहा है, वह ऐसा ही व्यापक मंच बन सकेगा. स्थिति यह है कि संस्कृतिकर्म से जुड़े हुए लेखक, कलाकार विभिन्न जगहों में, बहुत से मंचों में व विभिन्न स्तरों पर सक्रिय हैं. मुझे याद आता है …आज से कोई बीस-पच्चीस साल पहले कुछ प्रगतिशील लेखकों ने संयुक्त मोर्चे की अपील की थी और मैं एक लेखक के नाते, एक सामान्य बुद्धिजीवी के नाते यह विश्वास दोहराना चाहता हूं कि आज इस प्रकार के संयुक्त मोर्चे की बहुत जरूरत है। (तालियां)
मित्रों, वामपंथी संस्कृति में आस्था रखने वाले बात कर सकें, विचार-विमर्श कर सकें, मिल सकें, ऐसा मंच आज दुर्लभ होता जा रहा है. मैं मानकर चलता हूं कि हमारा यह मंच – जन संस्कृति मंच – इस तरह का वृहतर मंच बन सकेगा. सभी समान सोच रखने वाले और जन संस्कृति की जो व्यापक अवधारणा है, उससे जुड़े हुए लोग इस मंच से जुड़ सकेंगे, इसे समृद्ध कर सकेंगे और विभिन्न संगठन व राजनीतिक दल से जुड़े बहुत से लोग हैं जो सही सोच रखते हैं और जिन्हें जन संस्कृति की जरूरत बेचैन करती है, वे एकजुट हो सकेंगे. जो मंच इस तरह का अवसर उपलब्ध करायेगा, वह मंच सचमुच में जन संस्कृति के विकास में उल्लेखनीय काम करेगा.
कोई लम्बा-चौड़ा वक्तव्य देना मेरा उद्देश्य नहीं था, आपका स्वागत करना मेरा उद्देश्य था. मेरे मन में जन संस्कृति को लेकर जो बेचैनी है, उसे अभिव्यक्त करना जरूरी समझा. मैं अपने हृदय के स्पन्दनों से यह विश्वास व्यक्त करना चाहता हूं कि अपसंस्कृति के विराट दुष्चक्र के विरुद्ध यह सम्मेलन सार्थक हस्तक्षेप कर सके, इस विश्वास के साथ, इस कामना के साथ मैं आप सबका हार्दिक अभिनन्दन करता हूं।
(25.10.1985)
[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]कौशल किशोर वरिष्ठ कवि एवं जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष हैं [/author_info] [/author]