कवि केदारनाथ सिंह को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि
जनतांत्रिक मूल्यों की अकाल-वेला में केदारनाथ सिंह की कविता जनप्रतिरोध के सारसों की अप्रत्याशित आवाज़ थी. उनका संग्रह ‘अकाल में सारस’ 1988 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें इसी शीर्षक की एक कविता है. कविता इस तरह शुरू होती है-
“तीन बजे दिन में
आ गए वे
जब वे आए
किसी ने सोचा तक नहीं था
कि ऐसे भी आ सकते हैं सारस
एक के बाद एक
वे झुंड के झुंड
धीरे-धीरे आए
धीरे-धीरे वे छा गए
सारे आसमान में
धीरे-धीरे उनके क्रेंकार से भर गया
सारा का सारा शहर
वे देर तक करते रहे
शहर की परिक्रमा
देर तक छतों और बारजों पर
उनके डैनों से झरती रही
धान की सूखी
पत्तियों की गंध…”
अकालग्रस्त देस-देसावर से सारसों के शहर में इस तरह आने की किसी को उम्मीद न थी. शहर की एक बुढ़िया सहानुभूति के भाव से अपने आंगन में पानी का एक कटोरा रखती है. लेकिन सारस उसकी अनदेखी कर लौट जाते हैं. लौटते हुए उनकी आँखों में दया और घृणा का मिलाजुला भाव है.
सारसों की जगह किसानों को रख दें, तो यह समूची कविता हाल ही में मुम्बई में हुए पचास हज़ार किसानों के लॉन्ग मार्च का सशक्त रूपक बन जाएगी. किसानों के श्रम के शोषण से जगमागाते हुए शहरों में लॉन्ग मार्च करते हुए किसानों के अकस्मात आने और शहरी सहानुभूति को घृणा और दया की नजरों से देखते हुए लौट जाने में एक ठेठ किसानी प्रतिरोध है. इस प्रतिरोध की भाषा सारसों की भाषा है. या अकाल के विरुद्ध किसी सूखी नाली में शीशे के टुकड़ों के बीच उगी हुई दूब की भाषा है. या सड़क के किनारे बरसों से पड़े हुए ट्रक पर उग आई हरी लतरों की भाषा है. इस भाषा में गर्जन-तर्जन का आभास नहीं , लेकिन एक प्रचंड रचनात्मक प्रतिकार है.
प्रतिरोध की यह किसानी भाषा ओढ़ी हुई सहानुभूति की शहरी संस्कृति को समझ नहीं आती. लेकिन चम्पारण के सत्याग्रही गांधीजी को ख़ूब समझ में आती थी, जिन्हें केदार जी की एक कविता में किसी खलिहान में भिखारी ठाकुर का नाच देखने के लिए चुपचाप भीड़ के बीच बैठा देखा जा सकता है.
केदारनाथ सिंह एक ऐसे कवि हैं, जो भूमंडलीकरण के दौर की मेट्रोपोलिटन कविताई के बीच अचानक किसान के छूटे हुए कुदाल को एक प्रश्नचिह्न की तरह खड़ा कर देते हैं. ठीक इस समय जब जनविरोधी अर्थ-राजनीति का ‘दुकाल’ अपने नग्नतम निशाचरी रूप में प्रगट होने को बेताब दिखता है, और उसके विरुद्ध जनवेदना सत्याग्रही प्रतिरोध का नया आख्यान रचने को कटिबद्ध हो रही है, केदारनाथ सिंह का जाना अत्यंत क्षोभजनक लगता है. क्योंकि यही वह समय है जब जड़ता के विरुद्ध कविता की इस ललकार की सबसे ज़्यादा जरूरत है कि ‘वे क्यों चुप हैं, जिनको आती है भाषा’!
केदारनाथ सिंह का राजनीतिक प्रतिरोध कविता तक सीमित न था. एक सजग नागरिक के रूप में भी दमन के सामने चुप रहने का विकल्प उन्होंने कभी नहीं चुना.हालिया दौर को याद करें तो पुरस्कार-वापसी प्रतिरोध के दौर में लेखकों के पक्ष उनका प्रखर वक्तव्य याद आता है. एक सांझे बयान में देश में बढ़ती असहिष्णुता और साम्प्रदायिक फासीवादी उन्माद के विरुद्ध लेखकों के मुखर होने की उनकी अपील याद आती है.
केदारजी की कविता जीवन का राग अलपाने वाले आम कवियों की तरह हाहाकार की तरफ पीठ देकर खड़ी नहीं होती. ‘उठता हाहाकार जिधर है, उसी तरफ अपना भी घर है’ की घोषणा करने वाली उनकी कविता प्रतिरोध के लेखकों के सांझे बयान की तरह पढी जा सकती है. इसी हाहाकार में जीने की सुगंध भी है.’खुश हूँ आती है रह रह कर/ जीने की सुगंध बह बह कर.’ जीने की सुगंध के बिना हाहाकार प्रतिरोध की ललकार नहीं बन सकता. हाहाकार और जीवन सुगंध को विपरीत पदों के रूप में देखने के अभ्यासी केदारजी की कविता की धार को समझने में चूक जाते हैं.
जैसे कविता कहीं खत्म नहीं होती, वैसे ही कवि की भी कभी मृत्यु नहीं होती. केदारजी नहीं रहे लेकिन उनकी कविता ‘आदमी के उठे हुए हाथों की तरह’ हिन्दुस्तानी अवाम के संघर्षों को उसी तरह थामे रहेगी, जिस तरह उसने उनके प्रिय शहर बनारस को सदियों से थाम रखा है.
जनसंस्कृति मंच प्रगतिशील परंपरा के इस शीर्षस्थ समकालीन कवि के प्रति अपनी भावांजलि अर्पित करता है.