पर्यावरण हमारे जीवन को प्रभावित करने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारक है। पर्यावरण के इस महत्व को ही स्वीकार करने और उससे समस्त विश्व को जोड़ने की पहल हुई संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा।
1972 में मानव पर्यावरण विषय पर स्टोकहोम में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की चर्चाओं की पृष्ठभूमि में 1974 में ‘सिर्फ एक विश्व’ (Only One World) थीम के साथ 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की परंपरा आरंभ हुई। 1972 के इसी सम्मेलन में भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने वह प्रसिद्ध वक्तव्य दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि गरीबी ही सबसे बड़ा प्रदूषक है।
उनका तात्पर्य यह था कि विकासशील देशों की पर्यावरणीय समस्याओं का संबंध गरीबी से है; अर्थात, विश्व में संसाधनों और संपत्तियों के असमान वितरण से है। यह विषय बाद की कई चर्चाओं में भी उठता रहा और आज उनका यह विचार सतत विकास की अवधारणा के रूप में शामिल है।
1987 से इस दिवस से जुड़ी गतिविधियों के वैश्विक वितरण के लिए मेजबान देश के चयन की अवधारणा आरंभ हुई।
यही देश उस वर्ष की थीम का चयन भी करते हैं। वर्ष 2018 के आयोजनों का मेजबान देश भारत था। इस वर्ष मेजबान देश चीन है और इसकी थीम है ‘वायु प्रदूषण को पराजित करो’ (Beat Air Pollution)।
भारत में पर्यावरण के प्रति चिंतन तथा इसके संरक्षण की एक सुदीर्घ परंपरा रही है।
वैदिक से लेकर आधुनिक काल तक इस पर आधारित सूक्तियों तथा प्रयासों ने हमारे धार्मिक तथा सामान्य जीवन को प्रेरणा दी है। किन्तु पर्यावरण से जुड़ाव की मात्र शास्त्रीय पहलें ही नहीं हुई हैं बल्कि लोक व ग्राम्य परम्पराओं में भी इसकी जड़ें गहरी व्याप्त हैं।
भारत में धर्म और आस्था की जड़ें काफी गहरी हैं। ऐसे में आम जनता को विज्ञान के क्लिष्ट सिद्धांतों की जगह रीति रिवाजों आदि के माध्यम से ही पर्यावरण से जोड़ने की राह अपनाई गई।
विभिन्न पूजा-पाठों, आयोजनों आदि में में वृक्षों की पूजा यूँ ही नहीं शामिल की गई। आज Air Purifier plants के बाजार केंद्रित दौर में प्राचीन काल से ही घर-घर तुलसी का चलन यूँ ही नहीं था। वट, पीपल, नीम, आंवला जैसे औषधीय वृक्षों की पूजा का उद्देश्य निश्चित रूप से इनका संरक्षण रहा होगा।
किन्तु कर्मकांड में उलझी रहने वाली आम जनता की प्रवृत्ति फिर आड़े आ जाती रही। आवश्यकता है कि इन आयोजनों के मूल रूप को समझते इन वृक्षों और पर्यावरण का संरक्षण करें।
वायु प्रदूषण आज एक वैश्विक समस्या बन गया है। मगर इस देश में इसकी समस्या एक अलग ही स्तर पर पहुँच गई है। छोटे बच्चों को मास्क लगा स्कूल जाते देखना एक हृदय विदारक अनुभव होता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसका संज्ञान लिया। यहाँ के प्रदूषण की यह स्थिति ही दिल्ली को 2014 एशियन गेम्स की मेजबानी न मिल पाने की बड़ी वजह रही। बाहर से आए कई पर्यटकों और अंतराष्ट्रीय खिलाड़ियों ने भी यहाँ के प्रदूषण की आलोचना की।
स्थिति इतनी विषम हो चुकी है कि सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के प्रदूषण पर एक सर्वेक्षण के अनुसार वायु प्रदूषण की वजह से दस हजार में से 8.5 लड़के पांच साल का होने के पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। जबकि लड़कियों में यह समस्या और भी ज्यादा गंभीर होती हुई अध्ययन के अनुसार दस हजार लड़कियों में से 9.6 पांच साल की होने से पहले वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु को प्राप्त हो रही हैं। आज वायु प्रदूषण देश में 12.5 प्रतिशत मौतों के लिए ज़िम्मेदार है।
इस वर्ष के मेजबान देश चीन की स्थिति भी वायु प्रदूषण के संदर्भ में कफी बुरी थी, परंतु उसने बीते कुछ वर्षों में अपनी इस स्थिति में काफी सुधार किया है। इसकी सराहना संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी की है।
आँकड़ों के अनुसार 2013 से चीन द्वारा उठाए गए प्रभावी कदमों के बाद चीन की वायु गणवत्ता में काफी सुधार आए हैं। 2018 में पेइचिंग में पीएम 2.5 आदि 4 प्रमुख प्रदूषक वस्तुओं के प्रदूषण स्तर में कटौती आई है।
2018 तक पेइचिंग में अति प्रदूषित दिनों की संख्या पहले के 58 से 15 तक कम हो गई, हपेई में अति प्रदूषित दिनों की संख्या पहले के 80 से 17 तक कम हुई है।
चीनी पारिस्थितिकी वातावरण के वायु वातावरण ब्यूरो के प्रभारी ल्यू पिनच्यांग के अनुसार चीन के समग्र प्रयास से 2018 में देश के 338 शहरों में पीएम 2.5 के औसत घनत्व में पहले की तुलना में 9.3 प्रतिशत कमी आई है।
जल संसाधन, ऊर्जा का कारगर प्रयोग, शहरों में हरियाली बढ़ाने और राष्ट्रीय पार्क का निर्माण आदि क्षेत्रों में चीन के प्रभावी कदम अन्य विकासशील देशों को भी मार्ग दिखा सकते हैं।
आवश्यकता है कि हम परिस्थिति की गंभीरता को समझें। अध्ययन चेता रहे हैं कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ जलवायु में गंभीर परिवर्तन पैदा कर मनुष्य के अस्तित्व के लिए ही आत्मघाती समस्या बन सकते हैं।
ऐसे में एक विचारक के तौर पर महात्मा गांधी की याद भी आना स्वाभाविक ही है। एक भविष्यवक्ता की भाँति गांधी जी ने आगाह किया था कि – “ऐसा समय आएगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने किए को देखेंगे और कहेंगे, ये हमने क्या किया?”
आज पर्यावरण एक वैश्विक समस्या है। निःसंदेह गांधी जी के समय में यह उतने गंभीर विमर्श का विषय नहीं बना था, किन्तु उनका यह कथन आज भी इस समस्या के मूल को इंगित करता है जिसमें उन्होंने कहा था कि – “पृथ्वी सभी मनुष्यों की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है, लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं।”
हम अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित करें। लोभ और जरूरत के मध्य के अन्तर को समझें और अपनी धरती, इसके पर्यावरण को एक विरासत के रूप में देखें जो हमें अगली पीढ़ी को सुरक्षित सौंपनी है।
उचित होगा कि बदलते पर्यावरण के संदर्भ में हम अपनी जड़ों से जुड़ें, अपनी परम्पराओं को पहचान पर्यावरण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाएँ।
अपनी जड़ों से कटते पर्यावरण के प्रति हम जिन पश्चिमी और किताबी धारणाओं को अपनाते जा रहे हैं, उनके बजाए सरल और निश्चल पारंपरिक परम्पराओं को अपनाएँ- जो पूरे विश्व में ही आपस में जुड़ी हुई मिलेंगीं।
चीन, भारत जैसे देश इस समस्या से काफी प्रभावित देशों में भी हैं और एशिया की बड़ी शक्ति होने के नाते इनकी जिम्मेदारी भी बड़ी है। अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकारते ये पर्यावरण संरक्षण की गंभीर पहल करें और आम जनता भी इसमें अपनी सार्थक हिस्सेदारी निभाए इसी में ऐसे आयोजनों की सार्थकता है।
(अभिषेक कुमार मिश्र भूवैज्ञानिक और विज्ञान लेखक हैं. साहित्य, कला-संस्कृति, फ़िल्म, विरासत आदि में भी रुचि. विरासत पर आधारित ब्लॉग ‘ धरोहर ’ और गांधी जी के विचारों पर केंद्रित ब्लॉग ‘ गांधीजी ’ का संचालन. मुख्य रूप से हिंदी विज्ञान लेख, विज्ञान कथाएं और हमारी विरासत के बारे में लेखन)
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