समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

आपके पाँव देखे..बहुत हसीन हैं, इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा…क्यों?

रूपाली सिन्हा


उनके पाँव…..

आपके पाँव देखे..बहुत हसीन हैं….इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा…मैले हो जाएँगे…नायिका कागज़ के पुर्ज़े की लिखाई को बार-बार पढ़ती, सुर्ख़ होकर कभी अपने पाँवों को निहारती, कभी उनपर मुग्ध होती तो कभी लिखने वाले को बेचैन नज़रों से ढूँढती, पर वो तो कब का जा चुका था। एक बार फिर उसने अपने पाँवों पर प्यार भरी नज़र डाली और अबकी वह ऐसी मुग्ध हुई कि बस आज तक उसी मुग्धवस्था में पड़ी हुई है।

अभी भी वह डर के मारे पाँवों को ज़मीन पर उतारने से भरसक बचाती है कि कहीं वे मैले न हो जाएँ। पाँवों की पाकीज़गी की ललक में वह ऐसी फँसी कि आजतक ठीक तरह से अपने पाँवों पर खड़ी ही न हो पाई। जब-जब पाँवों ने ज़मीन पर उतरना चाहा कानों में गूँजती उस आवाज़ ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया और उसने अपने पाँवों को वापस समेट लिया।
उधर पाँवों को ज़मीन पर न रखने की सलाह देने वाले को वह हर पल, हर जगह ढूँढती रही। वे उसे कई रूपों में मिले। हर जगह, हर समय वे यही दोहराते और ताकीद देते हुए मिले कि पाँवों को ज़मीन पर न रखना, मैले हो जाएँगे। उसकी जैसी ढेरों चुपचाप बिना किसी शंका या संदेह के इसकी तामील करती रहीं। लेकिन जैसा कि हमेशा से ही होता आया है, हर दौर में कुछ ऐसे बाग़ी मिल ही जाते हैं जो हर फ़रमान की नाफ़रमानी करते हैं या कहे हुए की जड़ तक पँहुचने की कोशिश करते रहते हैं कि ऐसा क्यों कहा गया। सो यहाँ भी ऐसा ही कुछ हुआ। कुछ पाँवों को ज़मीन पर ना रखने की रूमानी सलाह के पीछे के रहस्यों के अनुसंधान में लग गईं। लेकिन अब भी ज़्यादातर उनके मैले होने के खौफ़ से ख़ौफ़ज़दा ही रहीं।
दूसरी तरफ़, कुछ ऐसी उत्साहिनें भी थीं जो  बिना किसी से सलाह-मशविरा किये पाँवों को ज़मीन पर उतार ख़रामा-ख़रामा बस चल ही पड़ीं यह देखने कि चलने में कैसा लगता है। अरे! ये तो अद्भुत है! चलना और वो भी अपने दम पर! चलने के इस सुख के लिए तो पाँवों के मैले होने की कीमत कुछ भी नहीं। फिर क्या था, धीरे-धीरे उनका ख़ौफ़ जाता रहा और उन्होंने अपने पाँवों पर चलना शुरू कर दिया। वे अब जहाँ चाहे जा सकती थीं, जिधर चाहें मुड़ सकती थीं। उनके पाँव अब पहिये थे। उनकी मदद से अब वे उन जगहों पर भी जा रही थीं जहाँ जाने की मनाही थी, जो जगहें उनके लिए निषिद्ध थीं या जहाँ जाना उनके लिए भला नहीं माना जाता था.
हालाँकि कुछ जगहों पर उनके पाँव कीचड़ में धँसकर बहुत गंदे हो जाते लेकिन अब वे उसकी परवाह नहीं करती थीं क्योंकि कीचड़ तो ज़मीन पर थी, इसलिए यह उसका दोष था, पाँवों का नहीं। इस तरह यह एक अनोखा अनुभव था। उनके गंदे, कीचड़ सने पाँव अनाकर्षक और भद्दे लगते थे, उन्हें घृणा से देखा जाता और तब पाँवों को ज़मीन पर न उतारने की सलाह और ज़ोर से दी जाती। कभी-कभी उनके पाँव उबड़-खाबड़, कंकरीली-पथरीली ज़मीन पर चलने से लहूलुहान भी हो जाते थे। तब उनसे यहाँ तक कहा जाता कि हम तुम्हें उड़ने को पंख देंगे जिसमें पाँवों को ज़मीन पर उतारने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, और वे गंदे भी न होंगे, न ही घायल होंगे। ज़मीन पर चलने से क्या मिलता है भला तुम्हें! पर वो ये बात छुपा जाते थे कि उन पंखों की डोर किसके हाथ में रहने वाली थी। कुछ उनके इस झाँसे में आ भी गई थीं लेकिन अपने पाँवों पर चलने वालियों की तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही थी। उनमें से कुछ तो उड़ने का विचार सुनकर अपने पंखों पर उड़ने का अभ्यास भी करने लगी थीं। ताकीदें, मशवरें, धमकियाँ अभी भी क़ायम थीं। लेकिन अपने पाँवों को मैला और लहूलुहान करने की क़ीमत पर चलने वालियों ने जो नज़र पाई थी, हिम्मत पाई थी वो अनमोल था। उन्हें अफसोस था तो सिर्फ़ इस बात का कि उन्होंने इतने दिन पाँव ज़मीन पर उतारे क्यों नहीं! जैसे-जैसे उनके हौसले बढ़ते जा रहे थे, ताकीदें भी उसी अनुपात में सख्त होती जा रही थीं।
अपने पाँवों पर दावा ठोकने के बाद अब दिमाग की बारी थी। इसका अधिग्रहण कुछ कठिन था। यह लड़ाई मुख़्तसर नहीं थी। यह कुछ लंबी और जटिल लड़ाई थी जो लंबे संघर्ष की दरकार रखती थी। अब चल भर लेना ही काफ़ी नहीं था। किधर को चलना है और कैसे चलना है, यह सोचना-जानना भी ज़रूरी था नहीं तो भटक जाने का डर था। हालाँकि अब पाँव साथ थे तो भटकने से उतना डर नहीं लगता था। रास्तों से भी उसकी अब कुछ-कुछ जान-पहचान होने लगी थी। लेकिन पाँवो को दिशा देने के लिए ज़रूरी था कि अब दिमाग को भी साथ ले लिया जाए। लेकिन वहाँ तो हालात कुछ और ही थे। एक तो वो कुछ ऐसी नीम बेहोशी में था कि जागता ही न था। दूसरे उसपर बहुतों का कब्ज़ा था, बहुतों की दावेदारी थी। उनकी गिरफ्त से उसे आज़ाद कराना इतना आसान न था। वह खुद भी उन्हीं का मुरीद था, उन्ही की तरफ़दारी करता था जिन्होंने उसे जागने न देने के सारे इंतज़ाम कर रखे थे। उधर ताकीदें न मानने के एवज़ में  चुनौतियाँ धीरे- धीरे गहन और जटिल होती जा रही थीं। कुल मिलाकर रास्ते मुश्किल होते जा रहे थे। लेकिन पाँवों के भी हौसले बुलंद थे। उन्हें भरोसा था कि एक दिन उनकी तरह ही जब  दिमाग भी जागेंगे तब अपनी बेड़ियाँ तोड़ उनके साथ चल पड़ेंगे। वाह, कितना हसीन और कितना रोमांचक सफर होगा यह सोच कर ही पाँव खुशी से उछल-उछल पड़ते थे।
(गोरखपुर में जन्मी और पली-बढ़ी रूपाली सिन्हा ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से त्रिलोचन की कविता पर 1998 में पी एच डी पूरी की । लगभग बीस वर्षों तक दिल्ली में अध्यापन करने के बाद 2017 -2019 तक इन्होंने अज़रबैजान यूनिवर्सिटी ऑफ़ लैंग्वेजेज़, बाकू में अध्यापन किया। सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों से गहरा सरोकार रखने वाली रूपाली छात्र जीवन में प्रगतिशील छात्र राजनीति में सक्रिय रहीं।  इनकी कविताएँ,लेख,समीक्षाएँ और अनुवाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में प्रकाशित होते रहे हैं। ‘असुविधा के लिए खेद नहीं है’ इनका सद्यः प्रकाशित कविता संग्रह है।)

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