समकालीन जनमत
चित्र : सपना सिंह
ज़ेर-ए-बहस

महिला हिंसा और समकालीन स्त्री काव्य चेतना

शमशेर बहादुर सिंह की मशहूर कविता है ‘काल से होड़’। अपनी इस कविता में वे कहते हैं ‘काल तुझसे होड़ है मेरी – अपराजित तू/तुझ में अपराजित मैं वास करूं’। अपराजित होने का भाव कब पैदा होता है ? स्वाभाविक है ऐसा भाव काल से गुत्थम गुत्था होने, उससे मुठभेड़ करने से ही पैदा होता है। मुक्तिबोध भी कविता को ‘आवेग त्वरित/कालयात्री’ बताते हैं। कहने का अर्थ यह है कि कविता का रिश्ता अपने काल से होता है। वह तत्काल, समकाल और देश काल से निरपेक्ष नहीं होती। यही कविता और समय के बीच का द्वन्द्वात्मक रिश्ता है जिसमें समय कवि को है बनाता है, गढ़ता है, वहीं कवि भी अपने समय को रचता है। आज हम जिस दौर में हैं यह कैसा दौर है ? आलोचक मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी है ‘ऐसा समय है जब मनुष्य को समाज विरोधी बनाया जा रहा है, वही समाज को मनुष्य विरोधी’। समाज के वे हिस्से जो वास्तविक संचालक है और जिन्हें मुख्य धारा में होना चाहिए आज हाशिए पर हैं। स्त्री समाज उनमें प्रमुख है। जहां तक काव्य सृजन की बात है, मानव समाज की पीड़ा और बराबरी के समाज की उत्कट आकांक्षा हमेशा से स्त्री कविता का आधार रहा है।

हमारे यहां लोकगीतों की समृद्ध परम्परा रही है। स्त्रियों ने अपना दुख-दर्द, हंसी-खुशी, राग-विराग और भावों को लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त किया है। इसमें स्त्री की दशा व दुर्दशा का ही बयान ही नहीं है वरन इनमें सामंती और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति उनका क्षोभ भी व्यक्त हुआ है। यह सचेतनता से अधिक स्वतःस्फूर्त रहा है। लेकिन जैसे जैसे लोकतांत्रिक व समाजवादी आंदोलन तेज हुए, लैंगिक समानता की आवाज भी मुखर हुई है। दुनिया में स्त्री स्वतंत्रता और स्त्री मुक्ति का विमर्श सामने आया। एक तरफ जहां इसे अस्मिता विमर्श या स्त्रीवादी विमर्श के रूप में देखा गया, वहीं इस विचार ने भी आकार ग्रहण किया कि पीड़ित व शोषित समाज की मुक्ति में ही स्त्री मुक्ति संभव है। इस तरह नारीवादी और उसके बरक्स जनवादी – दोनों स्वर मुखर हुए। ये आपस में इस तरह घुले‘मिले हैं कि इन्हें यांत्रिक तरीके से अलगाया नहीं जा सकता है। यह स्त्री कवियों द्वारा लिखी जा रही समकालीन कविता का आधार बना है। उल्लेखनीय है कि स्त्री और उसका जीवन स्वयं कविता का विषय बना है।

देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। स्त्री और पुरुष को कानूनन समानता है। भारत का संविधान स्त्री और पुरुष में भेदभाव नहीं करता। इसके बावजूद क्या यह जमीनी हकीकत है ? क्या स्त्री समाज को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक समानता प्राप्त है ? वास्तविकता तो यह है कि समाज, साहित्य, कला से लेकर राजनीति तक वह पुरुषों और उनके द्वारा निर्मित संरचनाओं को अभिव्यक्त करने का उपादान मात्र है। स्त्री की प्रतिभा और उसका सौंदर्य भी पुरुषों की आकांक्षाओं को पूरा करने का साधन है। कवि रघुवीर सहाय के शब्दों में कहूं ‘स्त्री की देह उसका देश है’। अर्थात वह समाज, देश सभी से विस्थापित है और अपनी देह तक सीमित है। जिस राष्ट्र की कल्पना में उसे जीना और रहना पड़ता है, वह अपने चरित्र और व्यवहार में मर्दाना है। विडम्बना यह है कि यह मर्दाना राष्ट्रवाद स्त्री देह पर कब्जा करने तथा जीते जाने वाले शरीर के रूप में देखता है। उसके लिए वह यौन क्रीड़ा की वस्तु है, युद्ध का मैदान है। यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था का दोहरापन है जिसमें एक तरफ स्त्रियों को लेकर बड़ी ‘आदर्शवादी’ बातें की जाती हैं, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का शोर मचाया जाता है, वहीं बलात्कारियों का विजय रथ स्त्रियों की स्वतंत्रता से लेकर उनकी देह तक को रौंदता गुजर रहा है। वह आमतौर पर मादा मवेशी की तरह ही देखी और समझी जाती हैं। इसी आधार पर देह पर अधिकार का प्रश्न उभरा और देह मुक्ति को स्त्री मुक्ति के पर्याय के रूप में देखा गया।

स्त्री समाज आज जिस खास समस्या से पीड़ित है, वह है महिला हिंसा। इसके कई रूप है। थामसन राॅयटर्स फाउण्डेशन ने अपने सर्वे में महिलाओं के लिए मानव तस्करी, यौन शोषण और हिंसा के मामले में भारत को दुनिया का सबसे खतरनाक देश माना है। इस रिपोर्ट पर सवाल खड़े किये गये। लेकिन जो सच्चाई है, उसे झुठलाया नहीे जा सकता है। वर्तमान समय का सबसे दुखद व भयावह पहलू यह है कि इस बर्बरता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष राजनीतिक व सामाजिक समर्थन मिल रहा है। कई मामलों में हमने देखा कि बलात्कारियों और अपराधियों को सत्ताधारियों व राजनेताओं का संरक्षण मिला। पिछले दिनों कठुआ और उन्नाव में जो घटनाएं हुईं, उनमें यह देखने में आया। जम्मू के कठुआ में बात्कारियों के समर्थन में जुलूस निकला जिसमें सत्ताधारी दल के मंत्री भी शामिल थे। उस जुलूस में तिरंगा लहराया गया। उन्नाव में भी इसी प्रकार की कहानी दोहराई गई।

साफ है कि भले ही संविधान स्त्रियों को बराबरी का अधिकार प्रदान करता हों पर अभी भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था काफी मजबूत है। स्त्री सशक्तिकरण की चर्चा जोरों पर है। पर इसमें सबसे बड़ी बाधा हमारा सामाजिक ढ़ांचा, मर्दाना दृष्टिकोण और पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जिसके नीचे दबने-पिसने के लिए स्त्री समुदाय को बाध्य किया जा रहा है। यह भी देखा जा रहा है कि मौजूदा निजाम के दौर में मनुवादी संस्कृति की वकालत की जा रही और ऐसा विचार रखने वाली शक्तियों को प्रोत्साहन मिल रहा है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि स्त्रियों की बड़ी जमात घर में बैठने को तैयार नहीं। शिक्षा के प्रचार-प्रसार, राष्ट्रीय जीवन और समाज के विविध क्षेत्रों में उनकी बढ़ती भागीदारी और दावेदारी ने उन्हें अबला की स्थिति से बाहर निकाला है। संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण का विधेयक भले ही पारित न हो पाया हो लेकिन सत्रहवीं लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। अपने अधिकारों के प्रति उनमें सजगता दिख रही है। वे बाहर निकल रही हैं और सामूहिक पहल ले रही हैं। वे बलात्कारियों से लेकर इन्हें संरक्षण देने वाली व्यवस्था से लड़ने-भिड़ने को तैयार हैं। यौन उत्पीड़न और हिंसा की हरेेक घटना के विरोध में वे सड़कों पर उतर रही है। वे समानता व स्वतंत्रता का अधिकार कागजों में नहीं, अपने जीवन में और जमीन पर देखना चाहती हैं। वे बेखौफ आजादी चाहती हैं। निर्भया, आसिफा प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरी हैं।

यही सामाजिक व्यवस्था का द्वन्द्व है। स्त्री हिंसा की बढ़ती घटनाओं ने लोगों को काफी उद्विग्न और उद्वेलित किया है। अधखिले फूलों और कलियों को रौंदने का जो सिलसिला चल रहा है वह व्यथित कर देने वाला है। निर्भया के बाद ऐसी घटनाओं की तो जैसे बाढ़ आ गई। आसिफा के साथ हुई हिंसा की घटना ने मन-मस्तिष्क को इस कदर संवेदित किया कि स्त्री हिंसा और बलात्कार का प्रश्न आज केंद्र में है। इसकी अभिव्यक्ति कला के विभिन्न रूपों में हुई है, हो रही है। फूलों के कत्ल किये जाने पर संवेदनशील कवियों ने अपने गुस्से का इजहार किया है। इस विषय पर अनेक भाषाओं में कविताएं लिखी गई। ऐसी कविताओं की दो किताब पिछले दिनों आयी। पटना से निकलने वाली पत्रिका ‘कथान्तर’ ने ‘मुझे कविता पर भरोसा है’ शीर्षक से कविताओं का संग्रह निकाला। वहीं, नवारुण प्रकाशन की ओर से ‘आसिफाओं के नाम’ कविताओं की किताब आई । इन दोनों संग्रहों में कवियों के साथ कवयित्रियों की इस विषय पर केन्द्रित कविताएं हैं। चंद्रकला त्रिपाठी, सविता सिंह, शीला रोहेकर, सीमा आजाद, विमल किशोर, मृदुला शुक्ला, चंद्रा सदायत, सुमन केशरी, पार्वती नायर, अर्चना यादव, बंदना भट्ट आदि की कविताएं यहां संकलित है।ं हम यहां स्त्री हिंसा को केन्द्र कर लिखी गयी इन कविताओं तथा समकालीन कविता में व्यक्त स्त्री स्वर की चर्चा करेंगे।

स्त्री हिंसा की घटनाएं आईना है। इसमें भारत की सामाजिक व्यवस्था को देखा जा सकता है। कविताएं दर्पण का काम करती है। इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक संवेदित हुए बिना नहीं रह सकता। पार्वती नायर की कविता ‘मैं घोड़े को घर भेज दिया था मां!’ संवाद शैली में लिखी गई है और आप इसे पढ़ते हुए मर्माहत हुए बिना नहीं रह सकते। कविता एक तरफ उन दरिंदों से परिचित कराती है, उन्हें बेनकाब करती है और बताती है कि यह समाज कैसा बन गया है। यहां खूंखार जानवर और मनुष्य के बीच का भेद मिट गया है। हमारे बीच ऐसे मनुष्य हैं जिनके सिर पर जानवरों की तरह सींग नहीं है, खूनी पंजे नहीं है लेकिन ये खूनी पंजा और सींग वाले जानवरों से भी ज्यादा खतरनाक है:

‘मां, वो अजीब से दिखते थे
न जानवर, न इंसान जैसे
उनके पास कलेजा नहीं था मां
लेकिन उनके सींग या पंख भी नहीं थे
उनके पास खूनी पंजे भी नहीं थे
लेकिन उन्होंने मुझे बहुत सताया’

कविता मात्र स्थितियों का वर्णन नहीं करती है, वह सामाजिक व्यवस्था की तह में जाती है। भारत की महान सांस्कृतिक परंपरा की बार-बार दुहाई दी जाती है। उसकी शेखी बघारी जाती है। यहां स्त्री को देवी का स्थान मिला। ‘यत्र नारी पूजयन्ते, तत्र रमन्ते देवता’ जैसी आदर्शवादी बातें की जाती है लेकिन इस आदर्श के अंदर की सच्चाई क्या ह,ै इसे स्त्री कवियों ने सामने लाने का काम किया। कविता इसका पोस्टमार्टम करती है। कविता इतिहास की उन घटनाओं का संदर्भ देती है जिसमें स्त्री को छला गया। धर्म प्रचारकों की सभा में उसे विवस्त्र किया गया। स्त्री कविता धर्म और जाति की व्यवस्था को स्त्री के शोषण और दमन का कारण मानती है। उस पर चोट करती है। अर्चना यादव कहती हैं

‘सुनो, द्रोपदी शस्त्र उठा लो
अब गोपाल नहीं आयेंगे
छोड़ो मेंहदी खड्ड संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
कल तक केवल अंधा राजा
अब वह गूंगा बहरा भी है
सुनो, द्रोपदी शस्त्र उठा लो
अब, गोपाल ना आयेंगे।’

हम इक्कसीवीं सदी के दूसरे दशक में हैं पर आज भी मध्ययुग के मूल्य कायम हैं। वह दौर था जब स्त्रियों का दर्जा धन दौलत की तरह हुआ करता था। वह भोगने की वस्तु समझी जाती थी। एक राजा जब दूसरे राज्य पर चढ़ाई करता और उस पर विजय प्राप्त करता तो न सिर्फ वह धन दौलत पर कब्जा करता बल्कि औरतों को भी बंदी बनाता था। औरतों पर उसका यह कब्जा उसकी जीत की निशानी होती। आज यौन उत्पीड़न व बलात्कार जैसी घटनाओं से जो तथ्य सामने आया है उससे स्पष्ट है कि स्त्रियां न सिर्फ यौन क्षुधा की पूर्ति के लिए पुरुषों का शिकार बनती है बल्कि इसका एक सामाजिक पहलू भी है। किसी से बदला लेने, उसकी जमीन पर कब्जा करने, एक खास वर्ग विशेष के लोगों को प्रताड़ित करने, उन्हें बेदखल करने जैसे निहित उद्देश्य के लिए भी स्त्रियों को महिला हिंसा का शिकार बनाया जाता है। एक खतरनाक दृष्टि भी देखने में आ रही है। वह है महिला हिंसा को सांप्रदायिक चश्मे से देखा जाना। स्त्री कविता ने ऐसे विषय को अपने दायरे में लिया और सांप्रदायिक नजरिये का विरोध किया। उनकी नजर में ‘बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी होते हैं’। विमल किशोर अपनी कविता में कहती है: ं

‘एक स्त्री का स्त्रीलिंग होना ही
बलात्कारियों के लिए काफी है
उम्र का बंधन नहीं
कोई मर्यादा नहीं
रिश्तो से कोई वास्ता नहीं
धर्म या जाति की सीमा नहीं
बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी होते हैं
हिंदू या मुसलमान नहीं होते हैं
ये मुजरिम/सजा के हकदार
मानवता के शत्रु’

असमानता और हिंसा के जितने रूप हैं, स्त्री समाज को उससे गुजरना पड़ता है, भुूण हत्या से लेकर वृद्धा की हत्या तक। आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद को लेकर समाज जब भी हिंसा की चपेट में आता है, स्त्रियां सबसे पहले इसका शिकार बनती हैं। मौजूदा फासिस्ट हिंसा का एक विशेष रूप – माॅब लिंचिंग’ या ‘भीड़ हत्या’ देखने में आया है। देखा जाय तो स्त्रियों के संदर्भ में यह गैंग रेप और हत्या है। इस यथार्थ को नकार कर समकालीन स्त्री काव्य चेतना का निर्माण नहीं हो सकता। यह चेतना आज स्त्री संवेदना, अनुभूति, स्त्री जीवन की दशा-दिशा और देह के यथार्थ से आगे निकल चुकी हैं। कात्यायनी, अनामिका, सविता सिंह, शुभा, शोभा सिंह, अनीता भारती, निर्मला पुतुल, सरला माहेश्वरी, सीमा आजाद, वीणा भाटिया, प्रतिभा कटियार, उषा राय, संगसार सीमा, संध्या निवेदिता आदि ऐसी कवयित्रियां हैं जहां इस चेतना की अभिव्यक्ति मिलती है।

शोभा सिंह का चर्चित कविता संग्रह है ‘अर्द्ध विधवा’। उनकी अर्द्ध विधवाएं वे कश्मीरी औरते हैं जिनके पति के जिन्दा होने पर संदेह है। वे मार दिये गये या लापता हैं। इन औरतो की व्यथा ही नहीं, उनका संघर्ष भी इन कविताओं में व्यक्त हुआ है। शोभा सिंह की नजर में एसिड पीड़िता भी है। वे इस क्रूरता को उजागर करती हैं:

‘तेजाबी हमला/जलती चीखें
गलती मांस मज्जा
यातना के चरम में
फिर/स्पन्दनहीन -घुप्प अंधेरा….
इस तरह/उसके बहुत से सालों को
निगल गया/तेजाबी हमला’

एक बात जो इन कविताओं में दिखता है, वह है एक जिद। हार न मानने की जिद जैसे स्त्री जिद की पर्याय है। जिन पर तेजाब से हमला किया गया, उनकी जिन्दगी को बदसूरत बनाया गया, वे वापस लौटती हैं ‘लौट रहीं वे/अपने सामान्य जीवन में/बहुत कुछ हार कर भी/बहुत कुछ जीतती हुई/तोड़ नहीं पाए नपुंसक कायर/उनका उन्नत मनोबल।’

हालात जैसे हैं, उसे देखते हुए आक्रोश का भाव स्त्री कविता का स्वाभाविक भाव है। उषा राय में समूचे परिवेश को लेकर गुस्सा है। औरतें अतीत से जो भोगती चली आ रही है, उसे लेकर पागलपन की हद तक का गुस्सा है। वे इसे एक रूप देना चाहती है, मूर्त करना चाहती हैं:

ं‘बेचैन हो उठती हूं इससे पहले
कि गलत समझा जाए मुझे
पागलों की तरह ढूंढ रही हूं
अपना गुस्सा जिसे वर्षों पहले
तकिए के नीचे दबा दिया था मैंने’

जैसे आज स्त्रियां किसी से दया व करुणा की उम्मीद नहीं करती, वैसे ही स्त्री कविता में कहीं भी निरीहता का भाव नहीं आता है। सविता सिंह कहती हैं ‘इस क्रूरता पर हम रोयेंगे नहीं’। सदियों से स्त्रियों ने जो सहा है, भोगा है, कविता में जो आक्रोश है, वह उसी की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी खूबी कि कविता में यह साहस, हिम्मत और हौसले के रूप में व्यक्त हो रहा है। बल्तकृत होने या अत्याचार का शिकार होने के बाद भी वहां अपमान का भाव नहीं है बल्कि अत्याचारियों-बलात्कारियों के विरुद्ध उठ खड़े होने का भाव है। सविता सिंह की कविता में यह यूं आता है:

‘मरने के बाद जागकर शिल्पी ने
अपने बलात्कारियों से कहा –
तुम सबने सिर्फ मेरा शरीर नष्ट किया है/मुझे नहीं
मैं जीवित रहूंगी सदा प्रेम करने वालों की यादों में…..
आक्रोश बनकर/लाखों करोड़ों दूसरी लड़कियों के हौसलों में
वैसे भी नहीं बच सकता ज्यादा दिन बलात्कारी
हर जगह रोती कलपती स्त्रियां उठा रही हैं अस्त्र’

स्त्री रचनाकारों की लम्बी सूची बनायी जा सकती है परन्तु यहां महिला हिंसा के रूपों के साथ स्त्री कविता में प्रतिरोध के स्वर और जनवादी प्रवृति की पड़ताल मुख्य उद्देश्य है। यहां जिनकी चर्चा है, वे कवयित्रियां नारीवादी विमर्श से आगे जाती हैं। वे अपने दायरे को तोड़ती हैं। कुछ साहित्यिक चिन्तकों की अवधारण है कि कविता तात्कालिक होकर अपने प्रभाव को सीमित कर देती है। लेकिन इतिहास में अनेक बार ऐसे अवसर आये हैं जो समाज में बड़े मोड़ पैदा करते हैं। रचनाकारों से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने समय में हस्तक्षेप करे। आज के समय के बारे में कहा भी जा रहा है कि यह स्त्री विरोधी काल है। इसे नकार कर स्त्री कविता नहीं रची जा सकती।

कात्यायनी अपनी जनपक्षीय कविताओं के लिए जानी जाती हैं। उनके कोठार में ऐसी ढेर सारी कविताएं हैं जिनमें स्त्री हिंसा के विविध रूप देखने को मिलता है। उनकी कविता गहरी पीड़ा और आक्रोश से उपजती है और पाठक की संवेदना को सघन करती हैं। वे उन घटनाओं को समेटती हैं जो हाल के दिनों में घटी हैं। इन पर समाज की प्रतिक्रिया का न होना, चुपचाप बर्दाश्त कर लिए जाने से इस कदर आहत होती हैं कि कविता ललकार की मुद्रा अख्तियार कर लेती है। क्या समाज सब कुछ मौन देखता रहेगा, कायर बना रहेगा, बर्बरता को स्वीकार करता रहेगा ? उनकी कविता में विद्रोही स्वर सुना जा सकता है – ‘यह आर्तनाद नहीं, धधकती हुई पुकार है’। वे कहती हैं:

‘जागो मृतात्माओ!
बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक दे सकते हैं।
कायरो! सावधान!!
भागकर अपने घर पहुँचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत,
बीवी घर में महफूज तो है।
बहन के घर फोन लगाकर उसकी भी खोज-खबर ले लो!
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है
तुम्हारे घर और कुनबे की?’

कात्यायनी की कविताओं में मात्र स्थितियों का वर्णन ही नहीं है बल्कि हालात को बदलने की छटपटाहट भी है। हमारे राजनीतिज्ञों के उस सोच पर भी वे प्रहार करती हैं जो पुरुषवादी है और बलात्कार जैसी घटना को हल्के में लेते हैं और चलताऊ बयान देकर किनारा कर लेते हैं। जैसे सपा के वरिष्ठ नेता मुलायम सिंह ने यह कहा कि ‘लड़कों से तो गलती हो ही जाती है’। कात्यायनी का सांकेतिक प्रतिरोध में यकीन नहीं है जैसा आज चलन में है कि किसी भी घटना को लेकर महानगरों व शहरों में मोमबत्तियां जलाकर शोक प्रकट किया जाता है। कात्यायनी मोमबत्ती संस्कृति के विरुद्ध हैं। वे कहती हैं:

‘मोमबत्तियाँ जलाने और शोक मनाने से भी कुछ नहीं होगा।
अपने हृदय की गहराइयों में धधकती आग को
ज्वालामुखी के लावे की तरह सड़कों पर बहने देना होगा।
निर्बन्ध कर देना होगा विद्रोह के प्रबल वेगवाही ज्वार को।’

कात्यायनी का इस बात पर जोर है कि स्त्री समाज को अपनी आजादी और अधिकार का घोषणा पत्र जारी करना होगा। स्वाभाविक तौर पर यह अस्मिता विमर्श से आगे की बात है। अनामिका की कविताओं में कात्यायनी की तरह विद्रोही चेतना का दर्शन भिन्न तरीके से होता है। वे स्त्री जीवन की विडम्बनाएं सामने लाती है और उसे अपना विषय बनाती हैं। जैसे वे कहती हैं ‘आप लाघ सकते हैं सात समन्दर/बस अपनी परछाई नहीं लांघ सकते’ और ‘दो लोग जो नफरत करते हैं/एक-दूसरे से/सोने को मजबूर होते हैं साथ-साथ’। लैंगिक विषमता के विरुद्ध यहां प्रतिरोध का स्वर गहरा और संश्लिष्ट है। अनामिका पुरुषों द्वारा बनाए नियमों को मानने को बाध्य नहीं। वे उसे तोड़ना चाहती हैं। एक नयी दुनिया की संकल्पना उभरती है। वे कहती हैं:

‘हलो धरती, कहीं चलो धरती
कोल्हू का बैल बन गोल-गोल घूमें हम कब तक ?
आओ, कहीं आज घूमते हैं तिरछा
एक अगिनबान बनकर/इस ग्रह पथ से दूर……..
उन्होंने कोंच दिया काल कोठरी में
अपनी कलम से मैं लगातार
खोद रही हूं तब से/काल-कोठरी में सुरंग’

यही तो है स्त्री जीवन की सच्चाई। सदियों से वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा बनायी काल कोठरी से बाहर निकलने के लिए सुरंग खोद रही है। यह मुक्ति की सुरंग है। समाज जानता है स्त्रियों का महत्व। वह जानता है कि देश दुनिया चल रही है तो स्त्री की वजह से और सृष्टि का कारण भी स्त्री है। इसीलिए उसे अपने स्थान से बेदखल कर दिया जाय। उसे अधिकारों से वंचित कर दिया जाय। पर आज वह सब पाना चाहती है। स्त्री कविता में पाने का संघर्ष मुखर हो रहा है। प्रतिभा कटियार क्या कहती हैं, इसे अवश्य सुना जाना चाहिए:

ये जो तुम्हारी प्रिय स्त्रियां हैं न
जिन्हें तुमने उन तक, उनकी खुद की चेतना
उनके महसूसने तक
पहुंचने नहीं दिया अब तक
वो सब लाामबंद हो एक रोज
चक्का जाम कर देंगी जिन्दगी का
जब वे मौन होंगी तो धरती मुर्दा शान्ति से भर उठेंगी
और जब वे बोलेंगी तो आतताइयों के परखच्चे उड़़ा देंगी
और वो दिन अब दूर नहीं……

स्त्री कविता ने इस भाव-विचार को मजबूती से प्रस्तुत किया है कि स्त्री स्वयं एक इकाई है। उसे खांचों में नहीं बाांटा जा सकता है। स्त्री होना ही अत्याचार का शिकार होना है। औरत चाहे मणिपुरी हो या कश्मीरी, हिन्दू हो या मुस्लिम, आदिवासी हो या सवर्ण या दलित उसके साथ व्यवहार एक सा है। ‘अगर तुम औरत हो’ में सीमा आजाद कहती भी हैं कि वे कहीं सुरक्षित नहीं है घर हो या बााहर, पुलिस थाना हो या हवेली। वे कहीं भी बलत्कृत हो सकती हैं। महत्वपूर्ण बात है कि स्त्री कविता हिंसक, क्रूर और बर्बर स्थितियों के आगे समर्पण नहीं करती है। वह प्रतिरोध में खड़ी होती है। उसकी समझ है कि औरतों के लिए घरों सें बाहर निकलना, सड़कों पर उतरना और उस निजाम से भिड़ना जरूरी है जिसकी नजर में औरतें केवल शरीर हैं जिन्हें किसी कारण से या अकारण अपना शिकार बनाया जा सकता है।

सार रूप में कहा जा सकता है कि स्त्री कविता के केन्द्र में स्त्री और उसका जीवन अवश्य है और यह स्वाभाविक भी है लेकिन स्त्री काव्य चेतना यहीं तक सीमित नहीं है। वर्तमान वहां मुखर रूप से उपस्थित है। वहीं, अतीत की जड़ों की पड़ताल भी है जिसकी देन वर्तमान है। साथ ही स्त्री कविता में भविष्य की गूंज भी सुनी जा सकती है। भले ही बहुत स्पष्ट न हो, पर वहां भविष्य की संकल्पना भी मौजूद है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था से उसका प्रतिरोध मात्र प्रतिरोध के लिए नहीं है, वह एक नयी व्यवस्था के लिए है, जिसमें नये पुरुष की परिकल्पना है। जनवादी व समाजवादी व्यवस्था में जिस नये मनुष्य की अवधारणा है, यह पुरुष उसी का प्रतिरूप है। अनामिका अपनी कविता में कहती हैं:

जन्म ले रहा है एक नया पुरुष
मेरे पातालों से……
नया पुरुष जो अतिपुरुष नहीं होगा……
स्वस्थ होंगी धमनियां उसकी
और दृष्टि सम्यक
अतिरेकी पुरुषों की भाषा नहीं बोलेगा।

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