22 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि शिक्षकों की भर्ती में आरक्षण कोटा निर्धारण में विभाग को एक इकाई माना जायेगा, न कि विश्वविद्यालय को। नियुक्तियों के लिए विश्वविद्यालयों में विभाग को एक इकाई मानने का खेल अकारण नहीं है। इस इकाई के बहाने पिछले साल जो विश्वविद्यालयों में भर्तियां हुईं, उनमें 100 पदों में बमुश्किल 5 -6 पिछड़ों और 3-4 दलितों को जगह मिली। अब यह तथ्य भी सामने आ चुका है कि 70 सालों में केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक भी ओबीसी प्रोफेसर या अस्सिस्टेंट प्रोफेसर नहीं नियुक्त किया गया है जबकि तमाम हेड, तथाकथित प्रगतिशील भी रहे।
यह सारा खेल जाति वर्चस्व का है। शुद्र को नीचे रखने का है। प्रगतिशीलता तभी तक, जब हम आपके आगे नतमस्तक रहें। तो फिर आरक्षण का कितना अनुपालन हुआ, क्यों नहीं हुआ, इस पर कितने प्रगतिशील लेखक, संपादक सामने आकर लिखे ? अब जबकि यह आंकड़ा सामने आ चुका है कि विश्वविद्यालयों में आरक्षित कोटे के शिक्षकों की संख्या आठ फीसदी से भी कम है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि आरक्षण का निर्धारण विश्वविद्यालय के बजाय विभागवार हो, निश्चित तौर पर सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है। यह हाशिये के समाज को बाहर करने का खेल है।
अब यदि किसी विभाग में 14 पद रिक्त होंगे तो एक पद अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हो सकेगा। इसी प्रकार यदि किसी विभाग में 8 पद रिक्त होंगे तभी अनुसूचित जाति के लिए एक पद आरक्षित होगा। वहीं ओबीसी के लिए एक पद आरक्षित तभी हो सकेगा जब रिक्त पदों की संख्या कम से कम पांच होगी। यह सभी जानते हैं कि विभागवार पदों की संख्या दो से तीन होती है। ऐसा न भी हो तो वैकेंसी ही एक बार में दो, तीन पदों की निकाली जाएगी। ऐसे में तो किसी दलित और ओबीसी को जगह ही न मिलेगी ? अब आरक्षित पदों के निर्धारण में वर्तमान फैसले से विश्वविद्यालयों में हाशिये के समाज की इंट्री बन्द हो जाएगी। चिंता का विषय है और भी है।
सदियों से किनारे लगाया गया इस भूभाग का 80 प्रतिशत समाज, जातिवाद की अमानवीयता से प्रताड़ित रहा है। बामुश्किल 3-4 दशक पढ़ा ही कि निजी स्कूल खोल दिये गए। पेड सीटें सृजित कर दी गईं, निजी टेक्निकल कालेज खोल दिए गए जहां हाशिये का समाज जा ही नहीं सकता। यह पैसे वालों के लिए आरक्षण था। सरकारी नौकरियों को कम कर दिया गया और सब कुछ ऑउट सोर्सिंग से। जिस समय मंडल कमीशन लागू हुआ ठीक उसी समय सरकारी नौकरियों को कम किया गया, निजी टेक्निकल कालेजों को खोल गया।
इस तरह से हाशिये के समाज को शिक्षा से वंचित करने का खेल शुरू हुआ और सरकारी नौकरियों के आरक्षण को कम किया गया। विश्वविद्यालयों के तमाम हेड, तथाकथित प्रगतिशील कहे जाने वाले भी रहे लेकिन उन्होंने भी हाशिये के समाज से दूरी रखी। वहां भी उन्हीं की जाति- बिरादरी भरी गयी। तो जाति को खत्म करने की कोशिश कभी इसलिए नहीं हुई कि आरक्षण के नाम पर दलितों, पिछड़ों को छला जाए और असली मलाई दो चार जातियों के हिस्से में रहे। अब देखना यह है कि तथाकथित प्रगतिशील लोग, रोस्टर प्रणाली की कैसी व्याख्या करते हैं ? इस अनीति पर उनके क्या विचार हैं? दुम दबा लेते हैं या योग्यता, योग्यता रटने लगते हैं। लगे हाथ यह भी बता देना चाहिए कि ये 90 प्रतिशत योग्य, जो विश्वविद्यालयों में ज्ञान बांटते रहे, कितने आविष्कार किये, कितने नोवेल लाये ?
विश्वविद्यालयों में हाशिये के समाज के बहुत कम प्रतिनिधित्व पर भी, तमाम कविता, कहानी लिखने वाले चुप्पी साधे रहे। यानी अपने जातिगत लाभ का विरोध क्यों करें ? इसलिए मेरा मानना है कि जातिवादी समाज में बिना अनुपातिक प्रतिनिधित्व के, न्याय मिल ही नहीं सकता। हर जगह बेईमानी। या तो जाति – व्यवस्था खत्म हो, या जाति के अनुपात में सबको प्रतिनिधित्व मिले । विश्वविद्यालयों में जो जातिवाद बोई जा रही है, वह देश में सामाजिक न्याय व्यवस्था को खत्म कर रही है। वह हर संस्थान को हाशिये के समाज से भेदभाव करने की सीख दे रही है। ऐसे समाज में न्याय सम्भव है क्या माई लॉर्ड ? या न्याय एक परिकल्पित शब्द है। अंधा है।
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