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सूचना अधिकार कानून की अब किसे परवाह है

बात 2007 की है। सूचना अधिकार कानून लागू हो गया था और उसके बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए तमाम कार्यक्रम हो रहे थे। गोरखपुर में हम लोगों ने 15 दिन का ‘ घूस का घूंसा ’ अभियान के तहत कैम्प लगाया था। लोग तमाम विभागों में आरटीआई आवेदन लगा रहे थे और उन्हें उनके सवालों के जवाब मिल रहे थे। सरकारी महकमों में इस कानून को लेकर एक डर पैदा हो गया था और वे आरटीआई आवेदनों को गंभीरता से ले रहे थे।

हम लोगों ने एक और कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्त वीरेन्द्र कुमार सक्सेना को बुलाया। इस कार्यक्रम में आरटीआई एक्टिविस्ट मनीष सिसोदिया ( अब दिल्ली के उप मुख्यमंत्री ) भी शामिल थे। कार्यक्रम के पहले सूचना आयुक्त वीरेन्द्र कुमार सक्सेना ने जन सूचना अधिकारियों की एक बैठक ली। इसमें तबके गोरखपुर के डीएम रणजीत सिंह पंकज भी मौजूद थे। बैठक में श्री सक्सेना ने जन सूचना अधिकारियों को सूचना अधिकार कानून के बारे में बताया और इस कानून का पालन करने को कहा। जब अधिकारियों को अपनी बात कहने की आई तो वे इस कानून की खिलाफत करने लगे और कहने लगे कि लोग अंट-शंट सवाल पूछ रहे हैं और उन्हें परेशान कर रहे हैं। खुद डीएम रणजीत सिंह पंकज का भी कहना था कि इस कानून के वजह से काम करना मुश्किल हो गया। डीएम सहित अधिकारियों ने सूचना आयुक्त से कानून को ही बदलवाने की मांग कर डाली।

दो वर्ष बाद 30 जून 2009 को रणजीत सिंह पंकज उत्तर प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त बन गए। उनके कार्यकाल में उत्तर प्रदेश के सूचना आयोग की क्या हालत रही, इसे सब जानते हैं।

आज जब सूचना अधिकार कानून को लागू हुए 13 वर्ष हो गए हैं, अब लोगों में इस कानून को लेकर उत्साह खत्म होता जा रहा है। एक वक्त इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का सशक्त जरिया समझा गया। इस कानून ने आम लोगों को सशक्त करने और सरकार की जवाबदेही तय करने की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया। इस कानून के सहारे भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रहे 68 आरटीआई एक्टिविस्ट की हत्या हो गई लेकिन केन्द्र व राज्य सरकारों ने इस कानून को और मजबूती देने के बजाय इसे कमजोर करने की लगातार कोशिश की।

इस कानून को जिस मकसद से लागू किया गया, उसकी धज्जी उड़ाने में सरकारों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का दावा करने वाली मोदी सरकार तो इसे कमजोर करने में पूर्व की सरकारों से चार कदम आगे निकल गई। उसने इस कानून को और ताकत देने के लिए लोकपाल की नियुक्ति नहीं की और व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्टशन एक्ट को लागू नहीं किया। दिसम्बर 2013 में ही लोकपाल विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित हो गया लेकिन मोदी सरकार द्वारा अभी तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं किया जाना भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग के उसके खोखले दावे की पोल खोलता है।

मोदी सरकार ने आरटीआई कानून में संशोधन कर केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों की स्वायत्तता छीन लेने की कोशिश की लेकिन व्यापक विरोध के कारण उसे पीछे हटना पड़ा। मोदी सरकार वर्ष 2018 के मॉनसून सत्र में आरटीआई कानून में संशोधन का प्रस्ताव लेकर आयी थी। इस प्रस्तावित संशोधन में केंद्रीय सूचना आयुक्तों और राज्यों में सभी सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और अन्य सेवा शर्ते तय करने का अधिकार केंद्र सरकार को ही तय करने का अधिकार दिए जाने की बात कही गई थी। यही नहीं सूचना आयुक्तों की सेवा अवधि की निर्धारित करने का अधिकार केन्द्र सरकार को देने की बात इस प्रस्तावित संशोधन में की गई थी। आरटीआई कानून में सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, सेवाकाल, वेतन, भत्ते आदि चुनाव आयुक्त की तरह हैं। यदि यह संशोधन पास हो जाता तो सूचना आयुक्त की सेवा संबंधी सुरक्षा खत्म हो जाती। कुल मिलकार इस संशोधन का मकसद सूचना आयुक्तों को सरकार के रहमोकरम पर निर्भर बनाना था।

आरटीआई कानून में संशोधन की पहले भी कोशिशें हो चुकी हैं। सरकारी फाइल पर अधिकारियों या मंत्रियों की नोटिंग्स को सूचना के दायरे से हटाने, बेवजह के आरटीआई आवेदनों को खरिज करने, आवेदनों की संख्या सीमित करने जैसे संशोधन आरटीआई कानून में करने की कोशिश हुई लेकिन ये कोशिशें नाकामयाब रहीं।

आरटीआई कानून को कमजोर करने के लिए मोदी सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में सूचना आयुक्तों के रिक्त पदों को भरने का कोई प्रयास नहीं किया। गैर सरकारी संगठन ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार सूचना आयोगों में 30 प्रतिशत से अधिक पद खाली हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मुद्दे पर नाराजगी जताई थी. उत्तर प्रदेश में मुख्य सूचना आयुक्त डेढ़ महीने से अधिक समय तक अकेले काम देखते रहे क्योंकि 8 सूचना आयुक्तों का कार्यकाल सात जनवरी को समाप्त हो गया। दो सुचना आयुक्त पहले ही रिटायर हो गए थे. अब जाकर 10 सुचना आयुक्तों की नियुक्ति हुई है.

केंद्रीय सूचना का गठन 12 अक्टूबर, 2005 को सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून -2005 के तहत किया गया था. इस कानून के मुताबिक आयोग को आरटीआई से जुड़ी शिकायतों की जांच करने के साथ दोषी पक्ष पर जुर्माना लगाने का भी अधिकार दिया गया है. किसी मामले पर आयोग का फैसला आखिरी और बाध्यकारी होता है. यानी इसे आगे चुनौती नहीं दी जा सकती है. इसमें मुख्य सूचना आयुक्त के साथ कुल 10 सूचना आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है. लेकिन शिकायतों व अपीलों की संख्या बढ़ने के बावजूद सूचना आयुक्तों की नियुक्तियों में काफी देर की जा रही है.

मोदी सरकार ने मुख्य सूचना आयुक्त का पद करीब 10 महीने तक खाली रखा था। मुख्य सूचना आयुक्त राजीव माथुर 22 अगस्त, 2015 को सेवानिवृत हुए थे. इसके बाद उनकी जगह 10 महीने तक खाली रही। आरटीआई कार्यकर्ता लोकेश बत्रा, आरके जैन और सुभाष चंद्र अग्रवाल ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की. इस पर सुनवाई के बाद सरकार ने 10 जून, 2016 को मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर विजय शर्मा की नियुक्ति की.

द वायर में 12 अक्टूबर को छपी रिपोर्ट में कहा गया है कि मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान सूचना का अधिकार (आरटीआई) रैंकिंग में भारत की स्थिति में काफी गिरावट दर्ज की गई है. देश की रैकिंग नीचे गिरकर अब छठे नंबर पर पहुंच गई है. पिछले साल भारत पांचवें स्थान पर था. मनमोहन सरकार में आरटीआई रैंकिंग में  भारत दूसरे स्थान पर था.

मानवाधिकारों पर काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था एक्सेस इन्फो यूरोप (एआईई) और सेंटर फॉर लॉ एंड डेमोक्रेसी (सीएलडी) ने 28 सितंबर को इंटरनेशनल राइट टू नो (जानने का अधिकार) डे के दिन द्वारा यह रिपोर्ट पेश की गई है. वैश्विक स्तर पर एक सूची तैयार करने में 150 प्वाइंट स्केल का इस्तेमाल किया जाता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘ दुनिया के प्रमुख 123 देशों में आरटीआई कानून है और जिन देशों को भारत से ऊपर स्थान मिला है, उनमें से ज्यादातर देशों ने भारत के बाद इस कानून को अपने यहां लागू किया हैं.’

संस्था ने आरटीआई एक्ट से जुड़े तीन महत्वपूर्ण सेक्शन, मसलन 25 (2), सेक्शन 19 (1) और सेक्शन 19 (2) पर फोकस कर रिपोर्ट पेश की है.

ग्लोबल रैकिंग निकालने के लिए जिन पैमानों को आधार बनाया जाता है उसमें सूचना तक पहुंच, एक्ट का दायर, आवेदन की सहज प्रक्रिया, सूचना के दायरे से संस्थाओं को छूट अपील की प्रक्रिया, विभिन्न प्रकार की मंजूरी और संरक्षण कानून का प्रचार-प्रसार शामिल हैं.

इस रैकिंग में भारत से कहीं छोटा देश अफगानिस्तान 139 पॉइंट के साथ पहले स्थान पर है. खास बात है कि भारत ने आरटीआई कानून 2005 में बनाया था तो अफगानिस्तान ने नौ साल बाद यानी 2014 में इस पर अमल किया था. इसके बाद 136 पॉइंट के साथ मैक्सिको दूसरे स्थान पर है. फिर सर्बिया, श्रीलंका और स्लोवेनिया का स्थान है.

रिर्सच, एसेसमेंट एंड एनालिसिस ग्रुप, सतर्क नागरिक संगठन के एक अध्ययन के अनुसार आरटीआई के सुचारू रूप से क्रियान्वयन में कई बाधाए हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों में लंबित शिकायतों और अपील की संख्या बढ़ती जा रही है। आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले हो रहे हैं और उनकी सुरक्षा के लिए व्हिसल ब्लोअर सुरक्षा अधिनियम को लागू नहीं किया गया है। सूचना आयोग के आदेश की गुणवत्ता बेहद खराब है। सूचना न देने वाले जन सूचना अधिकारियों पर जुर्माना नहीं लगाया जा रहा है और यदि लगाया जाता है तो उसे वसूल नहीं किया जाता। सूचना आयोग में बड़ी संख्या में पद रिक्त हैं। अधिनियम की धारा चार का पालन नहीं किया जा रहा है और केन्द्र व राज्य सरकारें नोटिफिकेशन जारी कर कई विभागों को सूचना के दायरे से बाहर कर दे रही हैं।

केन्द्रीय सूचना आयोग में 48 हजार अपील लंबित हैं। आयोग के वर्ष 2017-18 के वार्षिक प्रतिवेदन के अनुसार केन्द्रीय सूचना आयोग में इस वर्ष 140810 अपील दाखिल हुई जिसमें से 92700 ही निस्तारित किया जा सका। केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों में इस वर्ष 12, 33, 207 आवेदन आए जिसमें से 4 फीसदी आवेदनों को अस्वीकार किया गया। इसके पूर्व के वर्षों में बड़ी संख्या में आवेदन अस्वीकार किए गए। वर्ष 2013-14 में 7.21, 2014-15 में 8.39 2015-16 में 6.62, 2016-17 में 6.59 फीसदी आवेदनों को अस्वीकृत किया गया।  उत्तर प्रदेश में भी 48 हजार अपील लंबित है. यह स्थिति कई वर्षों से बनी हुई है.

गृह मंत्रालय और वित्त मंत्रालय सूचना न देने वाले विभागों में सबसे आगे हैं। वित्त मंत्रलाय ने 14 फीसदी और गृहमंत्रालय ने 15 फीसदी आरटीआई आवेदनों का जवाब देने से इंकार कर दिया। यहां महत्वपूर्ण है कि जिन आवेदनों का जवाब देने से इंकार किया गया उसमें 54 फीसदी में अधिनियम की धारा 8 1 का सहारा लिया गया जिसमें देश की प्रभुता, अखण्डता, रणनीति, आर्थिक रूप से संवेदनशील मामलों में सूचना दिए जाने से छूट दी गई है।

इस प्रतिवेदन में कहा गया है कि अधिनियम की धारा 4 का पालन सरकारी महकमे नहीं कर रहे हैं। अधिनियम की इस धारा में सरकारी विभागों को अपनी सूचनाए स्वतः प्रकट करने को कहा गया है ताकि लोगों को आवेदन कर सूचना मांगने की जरूरत ही नहीं पड़े। अधिनियम की इस धारा को अधिनियम का केंद्र विंदु माना गया है और लंबित मामलों को कम करने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

 अपील और शिकायतों के निपटारे में काफी समय लगने से आरटीआई आवेदक निराश होते हैं और सूचना न देने वाले अधिकारियों और महकमों का मनोबल बढ़ता है। उत्तर प्रदेश में शिकायत और अपील के निस्तारण में महीनों लग जाते हैं। तमाम आवेदक सूचना प्राप्त करने के लिए एक वर्ष से अधिक समय तक इंतजार करते हैं। अधिनियम की धारा 20 के तहत सूचना आयोग को सूचना न देने वाले, गलत सूचना देने वाले या अपूर्ण सूचना देने वाल जन सूचना अधिकारियों पर अर्थदंड लगाने की शक्ति देता है लेकिन सूचना आयुक्त इस शक्ति का प्रयोग ही नहीं कर रहे हैं। जिन मामलों में जुर्माना लगाया गया है, सरकार उसे वसूल नहीं करती है। इससे अधिकारियों का मनोबल बढ़ रहा है कि यदि वे सूचना नहीं देते हैं तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा।

उत्तर प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त ने जुर्माना न वसूले जाने के संबंध में प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र भी लिखा था। इसके बाद भी स्थिति में कोई फर्क नहीं आया है।

सूचना अधिकार कानून में व्यवस्था है कि सूचना मांगने की प्रक्रिया को सहज रखा जाएगा। इसी कारण यह व्यवस्था दी गई थी कि कोई भी व्यक्ति सादे कागज पर आवेदन दे सकता है लेकिन राज्य सरकारों ने सूचना का अधिकार नियमावली बनाकर इस प्रक्रिया को जटिल बनाने का कार्य किया है। उत्तर प्रदेश में सूचना का अधिकार नियमावली 2015 में आवेदन को 500 शब्द की सीमा में सीमित कर दिया गया और आवेदन, शिकायत और अपील का प्रारूप तय कर दिया गया। इससे आम लोगों को आवेदन करने में और आयोग में अपील करने में काफी दिक्कत हो रही है। यह नियमावली, सूचना अधिकार कानून की मूल मंशा के खिलाफ है।

सूचना आयोगों में सूचना आयुक्त के रूप में सरकारों द्वारा अपनी पसंद के व्यक्तियों का चयन करना, इस कानून को कमजोर कर रहा है। आरटीआई कानून के अनुसार ‘ मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त को विधि, विज्ञान और प्रोद्योगिकी, समाज सेवा, प्रबंध, पत्रकारिता, जनसम्पर्क माध्यम या प्रशासन तथा शासन का व्यापक ज्ञान और अनुभव रखने वाले जनजीवन में प्रख्यात व्यक्ति होंगे।’

लेकिन सरकारें अपने मनपसंद नौकरशाहों और राजनीतिक दलों से नजदीकी रखने वाले लोगों को सूचना आयुक्त के पदों पर नियुक्ति कर रही हैं। ऐसे लोगों सूचना अधिकार कानून के बारे में न तो जानते हैं न कोई कार्य करने का अनुभव है। तमाम ऐसे सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की गई है जो इस कानून के ही विरूद्ध रहे हैं। लेख के प्रारंभ में जिस प्रसंग का उल्लेख किया गया है वह इसका बड़ा उदाहरण है। उत्तर प्रदेश में सूचना आयोग में सूचना आयुक्तों द्वारा अपीलकर्ताओं, शिकायतकर्ताओं से बदसलूकी किए जाने के मामले भी सामने आए हैं। ऐसे सूचना आयुक्त मनमाने तरीके से फैसले देते हैं और उनके आदेश की गुणवत्ता काफी खराब होती है।

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