समकालीन जनमत
स्वाद के बहाने

वाह रे जलेबी

‘स्वाद के बहाने’ श्रृंखला की दूसरी कड़ी

                                                                    वाह रे जलेबी

जलेबी मेरे स्मृति बैंक की सबसे पुरानी और प्यारी फाइल है. मैं तब से जलेबी खा रहा हूँ जबसे यह 3 रूपये किलो मिलती थी. हमारे शहर इलाहाबाद में एक आदमी कम से कम 100 ग्राम जलेबी खाता था. बहुत से लोग 100 ग्राम जलेबी गर्मागर्म यानी कढ़ाही से निकलने के तुरंत बाद ही खा लेते जिसमे कई बार हड़बड़ी करने पर जीभ भी जल जाती और कई बार जलेबी का मोटा हिस्सा गलत तरीके से खाने पर जलेबी का गरम शीरा फच्च से आपकी शर्ट की जेब पर भी गिर जाता. गनीमत है तब तक शादी हुई न थी और अभी हम बच्चे ही थे इसलिए घर पर इस हड़बड़ी के लिए डांट अलग से न मिलती. फिर घर पहुचने पर सबके साथ फिर जलेबी खायी जाती और जलेबी के ठोंगे को कूड़े के डब्बे में फेंकने से पहले उसकी अन्दूरनी परतों पर जमा चाशनी को चाटने के बाद ही जलेबी नाश्ते का उपसंहार होता.

जलेबी की दुकान का छोटा सा कोना हमारे बचपन की सबसे पसंदीदा जगह थी. कई बार खासतौर पर गर्मियों की सुबह में जल्दी उठ जाने पर जलेबी खाने के लालच में बहुत सवेरे ही इस ठीये पर पहुँच जाता और उसकी  ठंडी भट्टी को देखकर मन बहुत ठंडा हो जाता. इलाहाबाद में जलेबी हर रोज मिलती है. हाँ लेकिन सुबह ही,  शाम को सिर्फ इमरती ही, जिसकी कथा फिर कभी. और सुबह भी जलेबी बनने से शुरू होने के बाद अधिकतम तीन घंटे तक और कई जगह सिर्फ 2 घंटे ही. मैं सिर्फ़ जलेबी के लिए इलाहाबाद में बार-बार जन्म ले सकता हूँ. आमतौर पर सभी इलाहाबादी हलवाई ठेठ खमीर वाली जलेबी बनाते हैं यानि ऐसी जलेबी जिसे खाते हुए थोड़ी खटास भी मिठास के साथ मिले और पेट का हाजमा भी दुरुस्त रहे. अब जिन्हें इस खमीर वाली जलेबी का स्वाद लगा हो वो देशी घी में बनी बहुत नाजुक दिखने वाली केसर के रंग में लिपटी महंगी जलेबी को भी भाव नहीं देते अगर उसमे खटास न हो. महंगी शादियों में कई बार अमीर लोग बहुत शौक से जलेबी खाते दिख जाते हैं जैसे किसी गरीब को प्रोत्साहन दे रहे हों. हम तो लेकिन ठेठ खाने वाले हैं. इसलिए जलेबी सुबह ही खाते हैं. ऐसे ही गर्मागर्म कढ़ाई से तुरंत निकलने के बाद या गर्मियों की सुबह में दही में लपेट कर या फिर जाड़े में दूध के कुल्हड़ में डुबोकर जिसमे डब्ब से डूब गए हिस्से को नजर बचाकर ऊँगली में फंसाकर खाना होता और कभी-कभी दो ब्रेड के बीच जैम की तरह फंसाकर भी जिसमे कई बार जलेबी का शीरा फच्च से ब्रेड से निकलता हुआ गले के नीचे कमीज पर गिरता.

इलाहाबाद में जलेबी की कई क़िस्में मिलती हैं. अलबत्ता यह जरुर है कि हर किसी की जलेबी में खमीरियत जरुर मिलेगी. हमारे बचपन के मोहल्ले लूकरगंज में ही जलेबी की दो दुकानें और दोनों की ही जलेबी का अलग स्वाद. पहली दुकान अग्रसेन इंटर कालेज से सटे लूकरगंज की पहली तीन मंजिला इमारतों बिहारी कुटी और बिहारी पुरी के मैदान से लगे छोटे बाजार में और दूसरी नरेश मेहता के घर को जाने वाली गली से आगे बढ़कर खुल्दाबाद जाने के रास्ते को जो अब हटकर डा. बनर्जी के बंगले के सामने वाली सड़क पर आ गई है. पहली दुकान में जलेबी थोड़ी बड़ी और कम कुरकुरी मिलती. मतलब 100 ग्राम में सात –आठ ही चढ़ती जबकि दूसरी दुकान में छोटी और कुरकुरी और 100 ग्राम में 12 से 15 तक. लूकरगंज से सटे खुल्दाबाद बाजार में जलेबी की कई दुकानें थीं लेकिन ख्याति सबसे ज्यादा सिन्धी हलवाई की ही थी. सिन्धी की जलेबी जितनी बढ़िया होती वह खुद बहुत मनहूस था. उसकी दुकान सड़क से थोड़ी ऊंचाई पर थी जिसके कारण वह हमेशा लो एंगल में धीर गंभीर दिखता. उसके साथ बड़ी तोंद वाले दो बेटे और एक सहायक हमेशा कुछ न कुछ करते दिखाई देते. सिन्धी के ही यहाँ मैंने पहली बार जलेबा बनते देखा. जलेबा मतलब घी की कढ़ाई में लोहे के बड़े से गोले के बीच बनती बड़ी जलेबी. सिन्धी की दुकान के नीचे जलेबी के झूठे दोनों को फेंकने के लिए टीन का कनस्तर रहता जिसमे ही पत्ते डालने की हिदायत वह बार–बार कड़वी झिड़क के साथ देता रहता. कभी गलती करने पर वह जोर से डाटने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता और कभी जलेबी थोड़ी छोटी बनाने के अनुरोध को वह बदतमीजी से न सिर्फ़ नकार देता बल्कि किसी और हलवाई के पास जाने की सलाह भी पूरी रुखाई से देता. न जाने कितनी बार सिन्धी की दुकान पर झूठे पत्ते टीन के डब्बे में न फेंकने पर डांट खाई लेकिन उसकी जलेबी का स्वाद ऐसा था कि हर बार मौका मिलने पर वहीं जाते. उसकी मनहूसियत को झेलने की एक और वजह शाम को मिलने वाले पोदीने की पत्ती वाले खट्टे समोसे और छोटी इमरती भी थी शायद.

जलेबी हम सभी भाई –बहनों की पहली पसंद थी. 80 के दशक तक मधुमेह इतना चलन में नहीं था इसलिए भी जलेबी को लेकर हमारे घर में निरुत्साह कभी नहीं देखा गया. जलेबी की लोकप्रियता की यही वजह रही होगी कि लखनऊ से आने वाले हमारे ताउजी हमेशा जलेबी जरुर लाते और कालान्तर में हम भाई –बहनों के बीच जलेबी वाले ताउजी के नाम से जाने गए. संगम होने की वजह से अक्सर ही मेहमानों का आना –जाना घर में लगा रहता. संगम जाने पर पड़े हनुमान जी के मंदिर से नाव लेकर संगम जाना और फिर नहाने के बाद लौटते हुए नाव में पूड़ी और आलू की सब्जी के साथ वहीं से खरीदी जलेबी को खाने के मजे का स्वाद जीभ के किसी कोने में अब तक अटका पड़ा है. थोड़ा बड़े होने पर खुल्दाबाद की सब्जी मंडी से थोक में सब्जी खरीदने की जिम्मेवारी मुझपर आन पड़ी. तबतक महंगाई भी थोड़ी बड़ चुकी थी और तीन रूपये किलो वाली जलेबी अब दस रुपये किलो में मिलने लगी. कीचड़ वाली सब्जी मंडी से सब्जी खरीदने में मेरी कोई दिलचस्पी न थी. मेरा सारा रोमांच सब्जी के लिए मिली धनराशि में घोटाला करके एक रूपये का जुगाड़ करना था ताकि अपनी 100 ग्राम जलेबी की खुराक का इंतज़ाम हो सके. उन दिनों सस्ती बहुत थी इसलिए यह जलेबी घोटाला आसानी से चलता रहा और इसका खुलासा उस दिन हुआ जब घर में दस रूपये का हिसाब देते हुए कुल खर्च ग्यारह तक पहुँच गया. हमारे माँ –पिता भी मेरे जलेबी प्रेम से थोड़ा बहुत परिचित हो चले थे इसलिए अगली बार से बकायदा एक रूपये का जलेबी टैक्स देकर मुझे और घोटाला करने से दूर रखा गया.

बड़े होने पर शहर भी और दिखने लगा. अपने स्कूल राजकीय इंटर कालेज जाने के चक्कर में खुल्दाबाद के अलावा भी दूसरे मोहल्ले दिखे और इस कारण जलेबी की बहुत सी और दुकानें भी. लेकिन पुराने हीवेट रोड पर मिठाई की बड़ी दुकान इंडियन स्वीट मार्ट के बगल में एक बुड्ढे बुढ़िया द्वारा बनायी गई जलेबी और उससे आती केवड़े की खुशबू अब तक नासा पुटों में समाई हुई है.

बड़ा होने पर जब पहली बार साल 1989 में पहाड़ी शहर नैनीताल गया तो वहां की लोटिया जलेबी की बहुत ख्याति सुनी. तब तक लोटे से बनने वाली जलेबी की तल्लीताल और मल्लीताल में सिर्फ़ दो ही दुकानें बचीं थीं. कई बार बीच- बीच में नुकीले कोनों वाली ये जलेबी खाई भी लेकिन इलाहाबादी खमीरियत यहाँ न थी इसलिए इसकी तमाम ख्याति मुझे प्रभावित न कर सकी. शायद इलाहाबादी जलेबी की खमीरियत की ही बात रही होगी जिसने हिंदी के अद्वितीय कवि वीरेन डंगवाल से एक कविता जलेबी पर भी लिखवा डाली.

जलेबी

भारत को बचाकर रखेगी जलेबी

यों ही नहीं बन गया

वह ख़मीर

उसके पीछे है

हज़ारों बरस की साधना और अभ्यास

जिसे रात-भर में अंजाम दे दिया गया

इतनी करारी पूर्णता के साथ।

 

तपस्वी विलुप्त हो गए

घुस गए धनुर्धारी महानायकों के दौर

गांधी जी तक हलाक कर दिये गये

जलेबी मगर अकड़ी पड़ी है थाल पर

 

सिंककर खिलीं

किसी फूल की

वह सुंदर और गर्मागर्म

पेचीदा सरसता।

 

इसके ख़मीर की तरह से इसकी याद भी रह–रह महक उठती है. बस यही सोचता हूँ कि अब्दुल हलीम ‘शरर’ की किताब ‘गुजिश्ता लखनऊ’ में वर्णित किस्से के सिड़े खां की तरह एक दोना जलेबी अपन को भी हमेशा मिलता रहे.

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