स्मृति दिवस 29 अप्रैल
पिछले साल आज के दिन 29 अप्रैल को हमने अपना अग्रज साथी, सहयोद्धा, लोकधर्मी कवि और साहित्य चिन्तक विजेन्द्र को खो दिया। कोरोना का यह समय अत्यंत भयावह रहा है। हमने जो नहीं सोचा, वह इस दौर में देखने को मिला। अनेक लेखक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और हमारे परिजन शिकार हुए। हमसे जुदा हुए। विजेंद्र जी अपनी उम्र के 87 वें वर्ष में थे। उन्होंने इस उम्र को मात कर दिया था। अमूमन इस उम्र तक पहुंचते-पहुंचते लोगों की ज्ञानेंद्रियां शिथिल हो जाती हैं। शरीर के अंग काम नहीं करते। लेकिन विजेंद्र जी के साथ यह बात नहीं थी। वे अत्यंत सक्रिय थे। कई मोर्चों पर यह सक्रियता थी।
विजेंद्र जी मौजूदा समय में वरिष्ठतम और शीर्षस्थ रचनाकार थे। लॉकडाउन के दौरान उन्होंने अनेक कविताएं लिखीं। हमें उन कविताओं के पाठ का मौका मिला। कविता संवाद के तहत उनकी दो कविताएं हमने पढ़ी थी। एक कोरोना पर थी और दूसरी तानाशाही की व्यवस्था पर। हाल में ऐसी कविताओं का संग्रह ‘दर्द के काफिले’ नाम से प्रकाशित हुआ। उसकी शुरुआत ही विजेंद्र जी की कविता से होती है। उन्होंने कला, साहित्य, संस्कृति के विभिन्न क्षेत्र में काम किया। उनका फलक बड़ा था। साहित्य की सैद्धांतिकी विकसित की। लोकधर्मी साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत की। ‘ओर’ से ‘कृति ओर’ जैसी पत्रिका का करीब पांच दशक तक संपादन-संचालन किया। उसे आंदोलन का रूप दिया। विश्व के प्रगतिशील साहित्य का अनुवाद किया। उसे हिंदी के पाठकों तक पहुंचाया। इस तरह वे कई भूमिका में हमारे सामने थे। इन सब के बावजूद वे मूलतः कवि थे। उनके हृदय में कविता की सलिला प्रवाहमान थी। उनके विचारों में जन चिंता और जन सरोकार था। उन्होंने चित्र बनाएं। कला और उसकी बारीकियों को लेकर बातें की। ‘आधी रात के रंग’ उदाहरण है। इस तरह उनका व्यक्तित्व एक जन सांस्कृतिकर्मी का रहा है।
विजेंद्र जी संवादधर्मी रचनाकार थे। हर पीढ़ी के साथ उनका संवाद था। न सिर्फ हमारी पीढ़ी के साथ बल्कि अत्यंत युवा पीढ़ी के साथ भी। वे बहस करते, सलाह-सुझाव देते। सहमति और असहमति भी होती। वे जब भी कोई नया चित्र बनाते, फेसबुक के माध्यम से हम तक पहुंचाते। उन्हें हमारी प्रतिक्रिया का इंतजार रहता। वे सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय थे। जहां नई तकनीक को लेकर उनकी पीढ़ी के अनेक रचनाकारों के अंदर अरुचि या दूर रहने का भाव अमूमन रहता है, वहीं उन्होंने नई तकनीक के अनुसार अपने को ढाला, एडजस्ट किया।
बात अधूरी रह जाएगी यदि हम विजेंद्र जी की सत्तर के दशक में साहित्य को जनवादी और प्रगतिशील दिशा देने में उनकी भूमिका की चर्चा न करें। इस ऐतिहासिक और अविस्मरणीय भूमिका को हमें रेखांकित करना चाहिए। 70 के दशक में हिंदी साहित्य में आधुनिकतावादी-अराजकतावादी प्रवृत्तियां हावी थीं। जिन साहित्यकारों ने इनके खिलाफ मोर्चा लिया और हिंदी साहित्य को वैकल्पिक दिशा दी, खासतौर से वाम जनवादी दिशा, उनमें विजेंद्र जी अग्रणी थे।
नवलेखन के आंदोलन ने व्यवस्था विरोध की जमीन तैयार की थी। लेकिन उसे वाम और जनवादी दिशा देने का काम विजेंद्र जी जैसे रचनाकारों ने किया। इसमें वाम और जनवादी पत्रिकाएं जो उस दौर में निकलीं, उनकी बड़ी भूमिका थी। यही समय है जब विजेंद्र जी ने राजस्थान के भरतपुर से ‘ओर’ की शुरुआत की। यह उन पत्रिकाओं में शामिल थी जो उस दौर में निकली। भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में ‘समारंभ’, मारकण्डे के संपादन में ‘कथा;, विमल वर्मा और श्रीहर्ष के संपादन में ‘सामयिक’, सव्यसाची के संपादन में ‘उत्तरार्ध’, मोहन श्रोत्रिय और स्वयं प्रकाश के संपादन में ‘क्यों’, चंद्रभूषण तिवारी के संपादन में ‘वाम’, ज्ञानरंजन के संपादन में ‘पहल’, विष्णु चंद्र शर्मा के संपादन में ‘सर्वनाम’, कंचन कुमार के संपादन में ‘आमुख’, लाल बहादुर वर्मा के संपादन में ‘भंगिमा’ जैसी पत्रिकाओं की कतार में ‘ओर’ शामिल थी।
एक तरफ पत्रिका के द्वारा साहित्य को दिशा देना, वहीं ऐसी कविताओं का सृजन जो क्रांतिकारी बदलाव के लिए जनमानस को तैयार करें। विजेंद्र जी ने यह कार्य किया और बखूबी किया। ‘जनशक्ति’ उसी दौर की उनकी कविता है। इस दौर में अनेक लंबी कविताएं लिखी गईं। जनशक्ति भी उसी में शामिल है। जब सौमित्र मोहन ‘लुकमान अली’ और लीलाधर जगूड़ी ‘बलदेव खटिक’ जैसी लम्बी कविता लिख रहे थे, जहां एक व्यक्ति का दुख दर्द और उसका संघर्ष व्यक्त हो रहा था, वहीं विजेंद्र जनशक्ति की पहचान कर रहे थे। यह जनता की ताकत है जो कविता का मूल स्रोत हो सकती है, इस बात को विजेन्द्र जी ने रेखांकित किया। यहां नायक के तौर पर जनता को प्रतिष्ठित किया गया।
विजेंद्र जी जैसे कवियों और रचनाकारों के संघर्ष की देन है कि समकालीन कविता में प्रगतिशील जनवादी धारा ही उसकी मुख्यधारा है। आज इसके कई स्तर है। अनेक प्रवृतियां काम कर रही हैं। जिस लोकधर्मी कविता की बात उनके संदर्भ में की जाती है, वह वर्ग चेतना है। इसके मूल में वर्ग संघर्ष है। लोकधर्मिता का यह बीज उन्होंने त्रिलोचन से प्राप्त किया था, जो समय के साथ अंकुरित हुआ, पुष्पित व पल्लवित हुआ। काव्य यात्रा के आरंभ से ही उनकी प्रतिबद्धता श्रमिक वर्ग और किसान जनता से रही है। यह कविता में क्रांतिकारी बदलाव की भावना के साथ शोषित पीड़ित जनता की मुक्ति के स्वप्न में व्यक्त हुआ। वे कहते हैं
‘उसकी छायाएं अंकित है चट्टानों की पीठ पर/उसके वंशज अभी जिंदा हैं/हृदय में पचाये दहकती ज्वालाएं/वे जिंदा है विशाल भुजाएं/विष को मारता है विष ही/लोहा काटता है लोहे को/खनिज पिघलते हैं आंच से/वो जिंदा हैं देश की जागती जनता में/पूरे विश्व में जागता सर्वहारा/देखने को वह समय/जब-जब हो सुखी, मुक्त उत्पीड़न से/उनकी हो अपनी धरती, आकाश, जल/और वायु, समता हो शांति हो’।
अपनी विकास प्रक्रिया में विजेंद्र ने अपने को बदला। वे बदलते चले गए। ऐसा उस वर्ग के साथ भावनात्मक जुड़ाव से ही संभव हुआ। यह डी-क्लास की जटिल प्रक्रिया है। इसे हम प्रगतिशील कवियों में पाते हैं। नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन, शील आदि इसके अप्रतिम उदाहरण हैं। डी-क्लास की यह प्रक्रिया आज बाधित है। मध्यवर्गीय संस्कृति, आचार विचार हावी है। विचारों में मार्क्सवादी, प्रगतिशील और जनवादी लेकिन व्यवहार में पूंजीवादी और अवसरवादी होना, यह आम परिघटना है।
मार्क्सवाद मध्यवर्ग या बौद्धिकों से सर्वहारा दर्शन, उसकी विचारधारा के प्रति सहानुभूति, शाब्दिक-वैचारिक प्रतिबद्धता की मात्र अपेक्षा नहीं करता, वरन उनसे वर्गापसारण की भी मांग करता है। यह जीवन बदलने की मांग है। रचनाकार इसी प्रक्रिया में सर्वहारा वर्ग के बौद्धिक और रचनाकार में रूपांतरित होते हैं। विजेंद्र जी इस कठिन-कठोर प्रक्रिया से ताजिंदगी जूझते रहे। वे जिस मूल वर्ग से आते हैं, वह सामंती वर्ग था। उन्होंने इसे त्यागा। जनता की धड़कन को अपने अंदर महसूस ही नहीं किया, बल्कि उसे अपनी धड़कन बना डाला। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से वे समकालीन साहित्यिक दुनिया में अलग नजर आते हैं।