इलाहाबाद के लूकरगंज के जिस कंपाउंड में रहता हूं वहां मैं करीब 13 साल पहले आया था। तब कंपाउंड के सारे बच्चे काफी छोटे थे। 2010 के आसपास इनमें से एक बच्ची सौम्या ने बच्चों की पूरी टीम के साथ मुझसे एक दिन सवाल पूछा अंकल आप तो हिंदू हैं, मैंने कहा हां। और आंटी मुसलमान है ? मैंने कहा हां। उसने कहा यह कैसे ? एक क्षण को मैं ठिठका, लेकिन बच्चे का जवाब तो देना ही था। मैंने कहा क्या आंटी मम्मी जैसी नहीं लगती। उसने कहा लगती है। फिर मैंने पूछा जो दूध देने वाला सबेरे आता है उसकी गाय कहां रहती है ? उसने कहा उसके साथ उसके घर में। फिर मैंने उससे पूछा अच्छा यह बताओ तुम्हारा कोई दोस्त स्कूल में है जो मुसलमान है। उसने कहा हाँ है। मैंने पूछा साथ खेलते हो। बोली हां । तब मैंने कहा तो फिर मैं और आंटी एक साथ क्यों नहीं रह सकते। मुझे मालूम नहीं उस समय उसे कितना समझ में आया, क्या समझ में आया, नहीं जानता। लेकिन उसने फिर कभी यह सवाल मुझसे नहीं किया। वह अपने सारे भाई बहनों दोस्तों के साथ खेलने में लग गई । आज उसे शायद याद भी नहीं होगा कि कभी उसने मुझसे यह सवाल किए थे।
इस संकट के समय जब हम लोगों ने सोचा कि गरीब मजदूर साथियों के बस्तियों तक हम पहुंच सकें और ऐसी हालत में उनकी जो भी मदद कर सकते हैं, उसके लिए कोशिश करें । तब कुछ मित्रों से बात की। लोगों ने सहयोग का आश्वासन दिया और हम लोग इस काम पर निकल पड़े। अब हम सिर्फ दो लोग नहीं थे बल्कि धीरे धीरे एक टीम बनती चली गई जिसमें महाप्रसाद , दानिश और सैफ जैसे एडवोकेट, अन्नी भाई, नूर मोहम्मद जैसे पत्रकार, आशीष और मशकूर जैसे छोटे व्यापारी, बसंत त्रिपाठी, शर्ली, जोश, मीना जी, राही जी, डा कोमी थापा, डा भूमिका, डा अर्चना जैसे सहयोगियों के अलावा युवा कार्यकर्ता अंजुम , सायरा, फातिमा, फैजी, शिक्षिका इंतन , शशि और वीरेंद्र, आनंद, अश्विनी, राहुल, भानू, राजू सोनकर जैसे तमाम लोग मिलते गए।
हम लोगों ने अपने साथी कार्यकर्ता साथियों से अपने घरों के पास की गरीब मजदूर बस्ती के जरुरतमंद लोगों की लिस्ट बनाने को कहा। इस हिदायत के साथ कि महामारी के मद्देनजर सभी सुरक्षा उपाय करके ही इस काम को करें। अब हमारे पास तमाम मोहल्लों से सर्वे करके लिस्ट बनकर आने लगी। किसी भी मोहल्ले की लिस्ट हमें इन लोगों की मार्फत एक दिन पहले मिल जाती है। फिर हमलोग लिस्ट के हिसाब से लोगों के लिए राशन मंगवा कर पैक करना शुरू करते और अगले दिन उस मुहल्ले के स्थानीय लोगों के साथ मिलकर हर व्यक्ति तक राशन का पैकेट पहुंचा दिया जाता। कई क्विंटल अनाज को पैकेटों में भरना, अलग-अलग जगह के लिए अलग-अलग बोरियों में भरकर तैयार करना, काफी मेहनत का काम था। जब हम दो लोगों ने इसे करना शुरू किया, तभी यही लड़की सौम्या जो आज 15-16 साल की है उसने पूछा, अंकल क्या यह काम हम लोग कर सकते हैं। मैंने कहा बिल्कुल तुम लोग कर सकते हो। फिर क्या था उसने अपने भाई बहनों और दोस्तों ईशान के साथ इस काम की कमान संभाल ली।
अब हमारे हमारे पास पैकेजिंग करने की एक पूरी टीम थी जो पूरे उत्साह से भरी हुई इस काम में लगी हुई थी। देखते-देखते दो दिन के भीतर इस पूरी टीम ने सारा काम कर डाला। हम लोग और उनके माता-पिता भी इस टीम के सहयोगी थे। जिस दौर में मीडिया हिंदू-मुसलमान करने में लगा था इन बच्चों ने एक बार भी नहीं पूछा कि यह राशन किन समुदाय की बस्तियों में जाएगा। बल्कि एक और मजेदार घटना हुई। इस घर में रामनवमी की पूजा होती है और कन्याओं को घर बुलाकर खिलाया जाता है। बच्चों की बड़ी मां ने कहलवाया कि इस बार जो खर्चा कन्या पूजन में करते हैं वह पैसा मैं इस काम में देना चाहती हूं। हमारे लिए यह बेहद खुशी का क्षण था। शाम को पैकेजिंग खत्म होने के बाद सौम्या अपनी बड़ी मम्मी से पैसे लेकर आई और मुझे पकड़ा दिया। यह 2100 रुपया हमारे लिए एक नायाब तोहफे से कम नहीं था। इस पूरी प्रक्रिया में हमलोग अभी करीब 400 जरूरतमंद परिवारों तक पहुंच सके हैं।
ये जरुरतमंद दरियाबाद मोहल्ले के जोगीघाट, पीपल चौराहा दलित बस्ती, रसूलपुर, करैला बाग लाल कालोनी, गऊघाट की गरीब बस्ती, गुलाबबाड़ी फ़कीर टोला और दलित बस्ती, गौसनगर गड्ढा कालोनी, नेवादा कछार प्रवासी मजदूर बस्ती में रहने वाले लोग थे।
इस काम में लगे गऊघाट के औपचारिक शिक्षा केन्द्र चलाने वाले शिक्षक वीरेंद्र का अलग से जिक्र जरूरी है। कभी खुद वो भी कूड़ा बीनने वाले बाल मजदूर थे। अपने जैसे औपचारिक शिक्षा केंद्र में पढ़कर वे आगे बढ़े और अब उच्च शिक्षा के विद्यार्थी हैं और गऊघाट में ऐसे ही बच्चों और बड़ों के लिए आज भी शिक्षक के रूप में काम करते हुए एक शिक्षा केंद्र चला रहे हैं।
आपदा और आनन फानन में किए गए लाकडाउन ने जब हमारे शहर और पूरे देश में दैनिक मजदूरों, छोटे कामगारों के सामने भुखमरी का संकट पैदा कर दिया है और रोज ब रोज हो रहे तमाशों से नाकामियों को छुपाने की कोशिश जारी है। ऐसे वक्त में भी हिंदू-मुसलमान करने का घृणित जहरीला मीडिया प्रचार भी जारी है। पर लोगों की इस एकता का क्या करिएगा जो इन सबके बावजूद बची है। बच्चों से लेकर वयस्कों तक में। इस एकता से आशा भी बंधती है और सलाम करने को हाथ भी उठ जाता है।
इस दौरान कुछ ऐसे वाकए भी सामने आए जब हम सब एक-दूसरे से अपनी गीली होती आंखें छुपा नहीं सके। साथियों ने बताया कि कुछ घर ऐसे हैं जो भूखे रह जाएंगे पर मुफ्त राशन का पैकेट लेने नहीं आएंगे और न ही हम दिन में उनके घर पहुंचा सकते हैं, उन्हें ठेस पहुंचेगी। साथियों की संवेदनशीलता को सलाम करता हूं कि उन्होंने उनका हाथ ऐसे पकड़ा जैसे अंधेरे में अपना ही एक हाथ हमारे दूसरे हाथ को थाम ले।