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‘ अनसुनी आवाज ’: एक जरूरी किताब

नगीना खान

एक अच्छा लेखक वही होता है जो अपने वर्तमान समय से आगे की समस्यायों, घटनाओं को न केवल भांप लेता है बल्कि उसे अभिव्यक्त करते हुए पाठक को सजग करता है। मास्टर प्रताप सिंह ऐसे ही लेखक व पत्रकार रहे हैं। वे ‘मास्टर साहब’ के नाम से लोकप्रिय रहे हैं। उधम सिंह नगर ;उत्तराखण्डद्ध से पिछले तीन दशक से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘प्रेरणा अंशु’ के वे संस्थापक संपादक थे। 18 मार्च 2018 को उनका निधन हुआ। उस वक्त उनकी उम्र साठ साल थी। 1989 से लेकर 2018 तक लिखे उनके सम्पादकीय लेखों का संकलन ‘अनसुनी आवाज’ किताब के रूप में प्रकाशित हुआ है।

जैसा नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें समाज के उस हिस्से के बारे में है जिनकी आवाज अनसुनी रह गयी है। इस किताब का सम्पादन पलाश विश्वास ने किया है। अपनी भूमिका में प्रसिद्ध लेखक पंकज बिष्ट ने कहा है कि ये लेख पिछले तीन दशक का आईना है। यह भूत, वर्तमान और भविष्य के राजनैतिक जीवन को समझने का उत्तम साधन है। इसे पढ़कर राजनीति की पेचीदगी और अंधेरी गलियों को देखा-समझा जा सकता है।

‘अनसुनी आवाज’ के अधिकांश लेख आज की राजनीतिक व्यवस्था पर कटाक्ष करते हैं। आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिबंध लगा है, पत्रकारिता को चाटुकारिता में बदल दिया गया है और राज्य व केन्द्र सरकार की नीतियों और मंशा पर सवाल करना राष्ट्रद्रोह मान लिया गया है, ऐसे में मास्साब के लेख प्रासंगिक हैं। इनके लेखों में शुद्ध देशज मुहावरों का इस्तेमाल देखने को मिलता है। लेखन में बेबाकीपन के साथ इसकी शैली व्यंग्यात्मक है। मास्साब के सम्पादकीय लेखों की खासियत हैं कि इनमें जल, जमीन, जंगल के साथ किसान से जुड़े मुद्दे और ग्रासरूट डेमोक्रेसी का समावेश मिलता है।

मास्साब के लेख आकार में छोटे हैं परन्तु प्रभाव में गहरे हैं। हम यहां उनके कुछ लेखों की चर्चा करेंगे। एक महत्वपूर्ण लेख है ‘इस राजनीति की उम्र कितनी है?’ इसमें राजनीति में बढते अपराधियों की संख्या पर सवाल उठाते हुए कहा गया है ‘पैसा, शराब, जातिवाद, सम्प्रदायिकता और बाहुबल – इन 5 तत्वों के मिश्रण से ही वर्तमान राजनीति में सफलता की आधारशिला रखी जाती है’। यह 2012 का लेख है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उस वक्त जब यह लिखा गया था। मौजूदा राजनीति ऐसे मोड़ पर है जहां अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। वे अपने राजनीतिक मुखौटे की आड़ में समस्त गोरख धंधों का संचालन आसानी से कर रहे हैं। हत्यारों से लेकर बलात्कारी तक की संसद तक पहुंच है। मास्साब ने इसी राजनीतिक षड्यंत्र का विरोध किया और आमजन तक इस परिदृश्य को पहुंचाने की कोशिश की।

अपने एक अन्य लेख में सरकार की उपलब्धियों व नाकामियों पर बेबाकी से कटाक्ष करते हुए मास्साब लिखते हैं कि ‘कांग्रेस और बीजेपी देश की दो प्रमुख पार्टियां हैं और खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दोनों ही मूलतः खिलाफ हैं।’ आज जिस तरह देश के लोकतान्त्रिक मूल्यों और सामाजिक न्याय व्यवस्था की धज्जियां उड़ाई जा रही है और मानवाधिकार का हनन खुलेआम हो रहा है, इन परिस्थितियों और समस्याओं की ओर मास्साब पहले ही इशारा कर चुके हैं। यह समझा जा सकता है कि हमारा देश किस दिशा की ओर अग्रसर है। इसी कड़ी का आलेख है जून 2014 में लिखा ‘विवाद नही, विकास करे श्रीमान’। मई 2017 में ‘कैसा हो कश्मीर हमारा ?’ इस लेख को पढा तो मौजूदा सरकार का अगस्त 2019 का मनमाना रवैय्या याद आ गया।

आजादी के इतने वर्षों बाद भी कुछ बदला है तो मात्र सरकारों के मुखौटे। मुद्दा कोई भी हो भ्रष्टाचार, कुपोषण, बदहाल शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा, किसानों की आत्महत्या के मामले, ईवीएम, महंगाई, भुखमरी, पर्यावरण, क्षेत्रवाद, भाषावाद, आतंकवाद, बेरोजगारी या राजनीति का अपराधीकरण इत्यादि इन सभी मुद्दों तथा इनका भविष्य में पड़ने वाले प्रभाव पर मास्साब ने लेखों के माध्यम से विचार किया है। 1986 के चुनावों का जिक्र करते हुए मास्साब ने राजीव गाँधी के कथन कि ‘सब ठीक है। पंजाब में आतंकवाद की कमर टूट चुकी है’, पर कटाक्ष किया है। इसी क्रम में मई 2011 का लेख ‘आतंकवाद की मां जिदा है’ को वर्तमान संदर्भ के साथ जोड़ कर पढा व समझा जा सकता हैं।

1992 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार आयी। मास्साब ने लिखा ‘छोड़ो मन की दुविधा सारी बस, राम राज्य की ओर चलो….’ साल बदले, सरकारें बदली पर सवाल वही पुराना कि क्या यही है वो राम राज्य जिसकी परिकल्पना आम आदमी ने की थी ? इंसान की कीमत जानवरों से बदतर है। इतने वर्षों में जो बदलाव हुए उसकी क्या कीमत थी, किसने चुकाई कीमत,,,, इसको समझना मुश्किल नही। अगस्त 1994 में लिखा ‘आशा के दीप’ और ‘क्या ऐसा ही था उनके सपनों का भारत’ में चुभते सवाल पाठक को जरूर सोचने पर विवश करते हैं। इन दिनों देश का राजनीतिक परिदृश्य भयानक है। भ्रष्टाचार, बेईमानी और गुंडागर्दी बड़प्पन की पहचान बन गई है। परिस्थितियाँ मानव समाज को निराशा के अंधेरे गर्त में ढकेलती हुई प्रतीत होती है। धर्म, समुदाय, जाति, भाषा, प्रांत आदि के आधार पर भारत का बंटवारा विचारणीय प्रश्न है।

मास्साब के लेखो में किसान मुद्दा अहम रहा है। हमारा देश कृषि प्रधान है जहां 70 प्रतिशत आबादी खेती-किसान पर आश्रित है। किसानों को भारत की ‘रीढ की हड्डी’ समझा जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि किसान आत्महत्या के लिए और बाकी सब मलाई लूटने के लिए है। देश में किसानों के हालात यह हैं कि लगभग 70 किसान हर माह आत्महत्या कर लेते हैं और सरकारों के कान पर जू भी नही रेंगती। देख कर अनदेखी कर पल्ला झाड लेने वाली फितरत सरकारी तंत्र की है।

जनवरी 2013 में लिखा निर्भया कांड पर आधारित मार्मिक लेख है जिसमे खुले शब्दों में कहा गया है कि हमारे समाज में आदि काल से ही बलात्कार को अपराध माना ही नहीं गया। पितृसत्तात्मक समाज की यही खूबी है कि पुरूष के अपराध की सजा स्त्री भोगती है। निर्भया से लेकर डाॅ पी रेड्डी हैदराबाद कांड तक कुछ बदला है तो बस कागजों पर नियम, कानून। राजनीतिक संरक्षण प्राप्त रसूखदार अपराध करके भी खुले घूम रहे हैं और बेटियों को जलाकर मार दिया जाता है। उनकी चीखो को हमेशा के लिए खामोश कर दिया जाता है। इसी कड़ी में महत्वपूर्ण मई 2013 का लेख है जिसमें 12 मार्च 1982 में गोंडा जिले के माधोपुर गांव में कुछ पुलिसकर्मियो द्वारा फर्जी मुठभेड़ जैसे जघन्य वारदात पर न्यायालय का फैसला आता है। इसे हैदराबाद एनकाउंटर से जोङकर भी पढा जा सकता है। फरवरी 2016 ‘ मैं इसे क्या नाम दूं ’ लेख चोरी, डकैती, लूट या विकास की कड़वी गोली,,,,,, साथ ही सितंबर माह 2017 का ‘ये कैसा विकास’ मौजूदा सरकार की कथनी व करनी पर तथ्यात्मक तौर से जबरदस्त प्रहार करता महत्वपूर्ण लेख है।

मास्साब आरक्षण जैसे मुद्दे पर विचार करते हुए कहते हैं कि सामाजिक समरसता को कायम रखने के लिए की गई आरक्षण व्यवस्था ही कठघरे में है। स्वतंत्रता के बाद से आज तक पिछड़ी जातियों के करोड़ांे लोगों से सामाजिक, आर्थिक समानता कोसों दूर है तथा आरक्षण जैसे सामाजिक न्याय की अवधारणा का ज्वलंत स्वरूप किस प्रकार जातीय संघर्ष का जनक बन गया है,,,,। कैसी है न्याय की व्यवस्था? इस पर ‘इतिहास में पहली बार’ लेख चार सीनियर जजों का प्रेस कॉन्फ्रेंस करना, जिसमें जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन वी लोकुर और जस्टिस कुरियर जोसेफ शामिल थे, के द्वारा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा पर गंभीर आरोप लगाया गया और फिर इसको जल्दी ही आंतरिक मामला बताकर शांत कर देना न्यायालय की साख पर प्रश्न चिन्ह इंगित करता है। हालांकि न्याय क्षेत्र में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं। वहीं, हम देखते हैं कि थाईलैंड के एक जज खानाकोर्न पियांचना ने अक्टूबर 2019 को खुद को गोली मार कर आत्महत्या करने की कोशिश की क्योंकि वो सबूतों के अभाव में पांच अभियुक्तों को बरी किए जाने व निष्पक्ष फैसला न ले पाने से आहत थे,,,,।,

मास्साब ने ने अपनी कलम के माध्यम से एक ऐसे जननायक की भूमिका निभाई है जो जीवनपर्यंत जमीन से जुङा रहा है और अंतिम समय तक अपने कलम को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया। साथ ही राष्ट्रीय एकता को राष्ट्रीय विकास के लिए अहम मानते हुए जनचेतना को एक नया आयाम दिया है। लेख सरल-सहज भाषा में लिखे गये हैं। इसके बारे में किताब के संपादक पलाश विश्वास का कहना है ‘भाषा में प्रवाह के अलावा अदभुत खिलंदड़ी मिजाज होने के कारण जटिल से जटिल विषय पर लिखे, यहां तक कि आर्थिक और विदेशी मुद्दों पर लिखे सम्पादकीय भी बेहद पठनीय हैं।’ करीब 300 पृष्ठों की किताब की कीमत मात्र रुपये 120/- है। इस तरह संभव प्रकाशन, कैथल, हरियाणा ने आम पाठकों के लिए किताब की पहुंच को संभव बनाया है।

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