सुरेश प्रताप की किताब ‘ उड़ता बनारस ’ हमसे वर्तमान शासन के कुछ कारनामों को गहरी निगाह से देखने की मांग करती है । पिछले लोकसभा चुनाव में बनारस की संसदीय सीट को जीतना प्रधानमंत्री के लिए बहुत आसान नहीं रह गया था। इसके लिए एक प्रत्याशी का पर्चा खारिज करवाना पड़ा और प्रचारकों की भारी फौज का प्रबंध समूचे मंत्रिमंडल को लगाकर और गृहप्रांत से कार्यकर्ता मंगाकर करना पड़ा था। हालत खस्ता होने की वजह बनारस के पारम्परिक स्थापत्य के साथ छेड़छाड़ थी। इस छेड़छाड़ का विरोध स्थानीय आबादी के एक हिस्से ने किया था।
हो सकता है कुछ लोगों को स्मरण हो कि इसी तरह अयोध्या में ढेर सारे मंदिर तोड़े गये थे। इस बार जमीन की खरीद बिक्री का घपला सुर्खियों में रहा। हाल में सूरत में भी एक मन्दिर तोड़ने की खबर आयी है। अचरज कि मन्दिरों को निर्लज्ज भाव से तोड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने आपको हिन्दू हितैषी पार्टी कहती है। कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा और उसकी मातृसंस्था का हिंदू धर्म की किसी परम्परा से कोई लेना देना नहीं है। उनकी समूची सोच और आचरण में धार्मिकता का रंच मात्र स्पर्श भी नहीं। उनके हाथ हिन्दू धर्म की दशा देखकर तो कबीरदास की कविता ‘ ठाढ़ा सिंह चरावे गाई ’ चरितार्थ होती नजर आती है। धर्म के साथ उनका यह आचरण अकारण नहीं है । इसके मूल में आर्थिक न्यस्त स्वार्थ देखे जा सकते हैं। इसे लोकप्रिय भाषा में धर्म का धंधा भी कहा जा सकता है जिसमें धर्म के मुकाबले धंधे की प्रमुखता होती है। वर्तमान शासक समुदाय इसे छिपाता भी नहीं है। खुलकर वे बताते हैं कि टूरिस्टों को आकर्षित करने के लिए वे ऐसा कर रहे हैं। इस तरह विकास नये चरण में पहुंच गया है जहां देश के निवासियों की सुविधा से अधिक ध्यान विदेशी टूरिस्टों का रखा जाना है।
बनारस में इस किस्म के विकास के लिए पक्कामहाल के जिन भी घरों को तोड़ने के लिए खरीदा गया या बिना खरीदे धमकाकर कब्जा कर लिया गया या घर के बगल में गहरा गड्ढा खोदकर गिरा दिया गया उनके लिए व्यावसायिक और व्यापारिक हितों का हवाला दिया गया। बनारस का ऐसा बुनियादी रूपांतरण करने के उपरांत जिस ढांचे को खड़ा किया जाना है उसका नक्शा जिस संस्था ने तैयार किया वह वही संस्था है जिसने गुजरात दंगों में मटियामेट कर दी गयी मस्जिदों, मकबरों और अन्य इस्लामी इमारतों की जगह पर बनने वाले स्थापत्य का नक्शा तैयार किया था। अचरज नहीं कि यही संस्था सेंट्रल विस्ता का भी नक्शा तैयार करने के लिए जिम्मेदार है। सबसे बड़ी बात कि इस परियोजना के लिए एक स्वतंत्र निकाय का गठन किया गया जो नगर की अन्य संस्थाओं के प्रति जवाबदेह ही नहीं है। इसीलिए कोई बताने को न तो तैयार है, न ही जानता है कि इस परियोजना का असली स्वरूप क्या है। मकान ढहाये जा रहे हैं और स्थानीय लोगों को पता भी नहीं कि अगला नम्बर किसका है ।
इस सरकार के प्रत्येक कदम के साथ गोपनीयता अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती है। नोटबंदी का फैसला किसने लिया इसके बारे में कोई नहीं जानता। बनारस में एक फ़्लाइ ओवर गिरने से बहुतेरे लोगों की जान चली गयी थी। उस निर्माण का ठेका किसको दिया गया था, यह भी रहस्य ही रह गया। प्रधानमंत्री रास्ते में अचानक उतरकर पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ़ से मिलने किसलिए गये, पता ही नहीं लगा । प्रधानमंत्री राहत कोष के रहते हुए भी पी एम केयर फ़ंड बनाने की जरूरत आखिर पड़ी क्यों इसके बारे में हवा को भी कुछ न मालूम होगा ! चुनावी चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए जो इलेक्टोरल बांड लाया गया उसके बारे में सरकार को तो सब कुछ पता है यानी उसे पता है कि विपक्षी दलों को कौन चंदा दे रहा है लेकिन सरकार पर काबिज पार्टी ने कितना धन लुटेरों से हासिल किया इसकी जानकारी आम जनता को नहीं हो सकती।
सबसे हालिया प्रकरण व्यापक जासूसी के लिए प्रयुक्त पेगासस नामक उपकरण के इस्तेमाल से जुड़ा हुआ है जिसके बारे में सरकार सर्वोच्च न्यायालय तक को सही बात बताने के लिए राजी नहीं है। लगता है जैसे धोखेबाजों का कोई गिरोह सत्ता पर काबिज हो और अपने पापों का भंडाफोड़ होने से डरा हो या घमंड में इतना चूर हो कि पूछने वालों को गुस्ताख समझता हो।
इस पहलू के साथ ही एक और बात जुड़ी हुई है। सरकार का नये संसद भवन के प्रति सनक भरा अनुराग बहुतों की समझ से परे है। इसे स्थापत्य के साथ विचारधारा के संबंध के आधार पर समझा जा सकता है। आम तौर पर सत्ता अपनी विचारधारात्मक मौजूदगी को स्थायित्व प्रदान करने के लिए स्थापत्य का सहारा लिया करती है। मंदिर, किले, मकबरे या मीनारें केवल कंकड़ पत्थर के ढांचे नहीं हुआ करते, वे अपनी समूची बनावट और बरताव के रूप में किसी न किसी विचार का व्यापक सामाजिक संप्रेषण करते हैं । तभी प्रत्येक शासक इनके बनाने और रखरखाव के मामले में इतनी रुचि लेता है।
किस्सा कोताह कि बनारस या नये संसद भवन के रूप में और उनके बनाने की समूची प्रक्रिया में जो भी नजर आ रहा है उसे ध्यान से देखना चाहिए क्योंकि उससे फ़ासीवादी विचार की झलक मिलती है। इस विचार में केवल हिंदू धर्म को खोजना नासमझी होगी। इसके साथ गहराई से पूंजी जुड़ी है। इसलिए भी इसे हिंदुत्व का नाम दिया गया जो हिंदू धर्म से भिन्न किस्म की चीज है। जिस तरह इस्लाम से नये कट्टर तत्वों को अलगाने के लिए उसे राजनीतिक इस्लाम कहा जाता है उसी तरह हिंदू से हिंदुत्व अलग है। कुछ पहले तक हिंदू धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल की बात की जाती थी लेकिन इस समय तो शुद्ध रूप से देशी-विदेशी पूंजी की ताबेदारी का रिश्ता धर्म की आड़ में छिपाया जा रहा है।
लेखक खुद स्थानीय पत्रकार रहे हैं, इसलिए उनकी प्रस्तुति में रपट जैसी निष्पक्षता है। उन्होंने सभाओं, गोष्ठियों, जलसों, जुलूसों और विज्ञप्तियों के हवाले से अपनी बात कही है। अपनी राय उन्होंने कहीं व्यक्त नहीं की है। पत्रकार होने से ही तथ्यों की सहज संवेदनशील प्रस्तुति पर भी उनको महारत हासिल है। बनारस की गलियों और घाटों, उसकी मस्ती और उसके आकर्षण को अपनी भौगोलिक जानकारी के साथ लेखक ने प्रस्तुत किया है। सदियों पुरानी बनारस की इस संस्कृति के साथ तुलसी, कबीर और रैदास का अभिन्न रिश्ता रहा है। इन सबकी रूढ़िभंजकता का प्रमाण देने की जरूरत नहीं। भक्ति के आवरण में उपजे उस विद्रोह की छाप बनारस की विशेषता है। इसी जीवन के आकर्षण में तमाम विदेशी बनारस आते हैं और उनमें से अनेक यहीं बस जाते हैं। बनारस की संकरी गलियों में समूचा जीवन धड़कता है। लेखक ने बताया है कि इनकी खास संरचना के कारण गलियों में तापमान सहनीय बना रहता है।
फ़ासीवादी दिमाग को यह टेढ़ी बात समझ नहीं आती । उसे लगता है कि विदेशी टूरिस्ट तभी आयेंगे जब उन्हें यहां अमेरिका नजर आये। वे आयेंगे तो विदेशी मुद्रा आयेगी । विदेशी मुद्रा के बिना देश की औकात कुछ नहीं। इसी सोच के साथ प्रशस्त विश्वनाथ कारीडोर और गंगा पाथवे के निर्माण का नक्शा तैयार किया गया। समझ नहीं आता कि अगर कोई बनारस आयेगा तो वहां बनारस खोजेगा या अमेरिका ही चाहेगा। विश्वनाथ कारीडोर और गंगा पाथवे तो फिर भी समझ आता है लेकिन गंगा को भी गहरा करने का उद्यम इतना खब्ती है कि उसकी धारा के पेटे से बालू निकालकर पानी के ही भीतर किनारे एकत्र किया गया ताकि बड़ी जहाजों के चलने लायक गहराई तात्कालिक रूप से पैदा हो। बहते पानी में ऐसा करने की सोच शुद्ध नौकरशाहाना दिमाग से ही पैदा हो सकती है जिसके लिए प्रदर्शन का ही अर्थ हो, उपयोग की दीर्घकालीन योजना की रत्ती भर भी चिंता न हो ।
तथाकथित विकास का यह हमला इतना जोरदार है कि हिंदू धर्म के पारम्परिक मंचों की ओर से भी विरोध शुरू हुआ है। असल में धर्म का यह कारपोरेटी स्वरूप धार्मिकों के लिए भी अबूझ है । लेखक ने इस तरह के विरोध को किताब में स्वर दिया है । इस विरोध की अगुआई स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने की । स्थानीय लोगों ने इस प्रचंड तोड़फोड़ की काट के लिए बनारस के पारम्परिक स्वरूप को धरोहर का दर्जा देने की मांग उठायी ताकि धरोहर के संरक्षण के तर्क से लोगों के रिहायशी मकान बच सकें। शायद वे सत्ता की वर्तमान नरभक्षी भूख को आंकने में नाकामयाब रहे जिसमें मकान तो क्या, हवाई अड्डे, सड़क और लाल किला जैसे लाभ देने वाली धरोहर भी बिक रही है। इस रथ के क्रूर संचालन के उत्साह में आम लोगों और उनकी जीवन पद्धति की बलि होनी तय है। सत्ताधीशों को किसी भी व्यक्ति की चीख सुनायी नहीं देगी ।
प्रधानमंत्री को संसद में भेजने वाले इस नगर को उन्होंने अपनी सौंद्रर्याभिरुचि की प्रयोगशाला बना डाला है। उनकी अभिरुचि के सबूत तमाम धरोहरों और कमाऊ जगहों को पूंजीपतियों के हाथ गिरवी रखने के उन्माद में निहित हैं। नवउदारवादी सौंदर्यबोध को हम पूंजी की आक्रामकता के अनुरूप ढलता हुआ देख रहे हैं। इसमें नव धनिकों के लिए ही सब कुछ उपलब्ध होगा। सड़कें उनकी कारों के चलने लायक होंगी, सभी आवास होटल होंगे और संस्कृति को लाभ देने की क्षमता से तौला जायेगा। अचरज नहीं कि इस परियोजना में बनारस की मशहूर कारमाइकेल लाइब्रेरी, गोयनका पुस्तकालय, गोयनका छात्रावास तथा एक वृद्ध आश्रम को भी चार सौ घरों के साथ जमींदोज किया जाना है । होटल, माल और हाइवे ही नये समय का आख्यान लिखेंगे । स्वाभाविक रूप से उनके साथ मुंद्रा बंदरगाह से आयी हेरोइन भी रहेगी।
जिन मार्मिक कहानियों को लेखक ने दर्ज किया है उनमें 87 वर्षीय केदारनाथ व्यास की व्यथा कथा सबसे गहरी है। इस बुजुर्ग का मकान गिराने के लिए नींव के साथ गहरा गड्ढा खोद दिया गया और उसमें पानी भर दिया गया। दीवारों में दरारें पड़ी और पूरा मकान भहराकर गिर पड़ा। मजबूरन उन्हें किराये के मकान में जाना पड़ा । जब वे प्रधानमंत्री के जन्मदिन के अवसर पर उनके वाराणसी आगमन के समय धरने पर बैठने को उतारू हुए तो प्रशासन ने 48 घंटे का समय मांगा। इससे भी साबित हुआ कि कोई निश्चित योजना बनाये बिना ही मकानात तोड़ने की शुरुआत कर दी गयी । इस विध्वंस का शिकार न केवल सामान्य जन बल्कि उनकी ही पार्टी के सबसे लम्बे समय तक विधायक रहे श्यामदेव रायचौधरी भी हुए और उन्हें भी प्रधानमंत्री ने कोई आश्वासन दिया। सभी पुराने नेताओं की तरह वे भी इस आश्वासन के शिकार बने रहे और सत्ता तक पहुंच थैलीशाहों की बन गयी। कहना न होगा कि थैलीशाहों के हाथ में अर्थतंत्र और राजनीति के साथ समूचा देश भी जा रहा है । किताब हमारे सामने वर्तमान सत्ता के कारनामों का एक खास पहलू पुरजोर तरीके से उजागर करती है ।