समकालीन जनमत
कविता

कल्पना झा की कविताएँ जो कुछ भी सुंदर है उसे बचा ले जाने की कोशिश हैं

आनंद गुप्ता


रंगकर्मी एवं अभिनेत्री कल्पना झा की कविताओं में स्त्री मन की गहरी समझ है. इनकी कविताओं से गुजरते हुए हम स्त्रियों के दुख दर्द, त्रासदी, यंत्रणा, विडंम्बना एवं उनके संघर्ष को हम आसानी से महसूस कर सकते हैं. आज के जटिल समय में स्त्रियों को एक साथ कई मोर्चों पर जद्दोजहद करनी पड़ रही है. यह जद्दोजहद घर परिवार से शुरू होकर सड़क से गुजरती हुई कार्य स्थल तक जारी रहती है. पितृसत्ता की जकड़न उसे हर कदम पर महसूस होती रहती है. बाजारवादी व्यवस्था ने उसकी देह को एक प्रॉडक्ट में बदल दिया है. परिणाम यह हुआ है कि उसे कदम-कदम पर शारीरिक एवं मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ता है. कवयित्री अपनी कविताओं में न सिर्फ हस्तक्षेप करती है बल्कि बदलाव की उम्मीद लिए उनके मुक्ति की कामना भी करती हैं.
चीखना चाहती है वह
इतनी जोर से
कि अनंत प्रकाश वर्षों के पार
उसकी पीड़ा विचलन पैदा कर दे

पौराणिक चरित्रों के मुँह नोच कर
उनके मुखौटे अपने घरों की दीवारों पर
टाँग देना चाहती है”

कल्पना जीवन में जो कुछ भी सुंदर है उसे बचा लेना चाहती हैं. जीवन के विविध रंग उनकी कविताओं में देखें जा सकते हैं. प्रकृति, पेड़-पौधे, बच्चे इनकी कविताओं में पूरी संवेदना के साथ मौजूद है. वर्तमान समय में पूरे विश्व में बच्चे आज तरह-तरह से प्रभावित हो रहे हैं. युद्ध, आतंकवाद एवं लचर स्वास्थ्य सेवाओं के कारण लाखों बच्चे कालकवलित हो रहे हैं. कवयित्री एक भी बच्चे की मौत इस दुनिया में नहीं देखना चाहती और उसके लिए व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं. वह व्यवस्था की लापरवाही से हुई हर मौत को एक हत्या मानती हैं.

“इस धरती और इस आकाश को सारे बच्चे ज़िंदा चाहिये।
हमें हत्याकांड लिखने पर,
हमारी कविताओं में माताओं को विलाप करने पर मजबूर न करो
वरना इस दुनिया की सारी कलमों की नोक तुम्हारी तरफ होंगी
और तुम्हें चीर कर रख देंगी।”

अच्छी कविताएँ पाठकों की संवेदना तक पहुंचकर स्तर दर स्तर खुलती है एवं उनमें गहरा असर छोड़ आती है. कल्पना महानगरीय जीवन के अनुभवों को बड़ी सूक्ष्मता एवं मार्मिकता के साथ कविता में अंगीकार करती हैं. अपने आसपास जो भी घटित हो रहा है उस पर उनकी पैनी निगाह है एवं उसे अभिव्यक्त करने की गहरी बेचैनी इनकी कविताओं में देखी जा सकती है. महानगरीय जीवन की जटिलताओं के बीच न्यूनतम जरूरतों के लिए संघर्ष करती एक स्त्री की संवेदना का मार्मिक चित्र निम्नलिखित पंक्तियों में देख सकते हैं.

“ऐसे में प्यार करना आसान नहीं होता साहब
सुंदर कविता लिखना तो और भी मुश्किल
जहाँ आईना भी टूटा हो और साढ़े साती कभी न खत्म हो
जहाँ सूरत निहारने को थाली भी टेढ़ी हो
वहाँ मुस्कुराना कठिन है साहब”

कल्पना के पास कई अच्छी प्रेम कविताएँ हैं. इनकी प्रेम कविताएँ हौले से मन को छूती है और मन के सारे तार झंकृत हो जाते हैं. उनमें पास मौलिक बिंब हैं एवं मर्म को छूती भाषा. इनकी कविताओं की सपाटबयानी ही दरअसल इन कविताओं की विशिष्टता है जिसके माध्यम से एक स्त्री के अन्तर्मन के भावों को बहुत ही सहजता के साथ शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं. इन प्रेम कविताओं में नॉस्टाल्जिया भी है और अतीत की सुखद स्मृतियाँ भी. वे अपनी कविताओं में अतीत के पलों को जीतीं हुई दिखती हैं. घृणा और द्वेष से भरे इस समय में प्रेम के कोमल अहसासों को वे बहुत ही संयमित ढंग से अभिव्यक्त करती हैं .ये कविताएँ विध्वंस और क्षरण के खिलाफ प्रतिरोध बनकर उभरती हैं.

“बहुत प्यार नहीं करूँगी …
बस इतना कि जीने से जी न ऊबे
उतना ही डूबूंगी आँखों में
कि जब जगूं
चाँद तब भी दुनिया की सबसे खूबसूरत शै लगे
माँ के माथे की लाल बिंदी में पृथ्वी दिखे”

रंगकर्म और अभिनय से जुड़ी होने के कारण इनके पास इन विषयों से संबंधित कई अच्छी और मार्मिक कविताएँ मौजूद है. जो हमें एक सहृदय रंगकर्मी कवि के नजरिये से इस दुनिया की अनुभूतियों को संवेदनशीलता के साथ रूबरू कराती हैं.

 

कल्पना झा की कविताएँ

 

1.औरतें

चीखना चाहती है वह,
इतनी जोर से
कि अनंत प्रकाश वर्षों के पार
उसकी पीड़ा  विचलन पैदा  कर दे

पौराणिक चरित्रों के मुँह नोच कर
उनके मुखौटे अपने घरों की  दीवारों पर
टाँग देना चाहती है

सदियों से लांछित नियति का रोष
निकालना चाहती है
पंडों और दलालों के चंगुल मॆं फँसे
ईश्वर की चमकती मूर्तियों पर कालिख पोत कर

विकृत शब्दों मे जडे  पंगु नियमों की
धज्जियां उड़ा  कर
चिपका देना चाहती है आसमान की स्लेट पर

बवंडर लाना चाहती है
प्रलय बरसाना चाहती है
लील जाना चाहती है कुरूपताओं को

और अंततः आदतन चुप हो जाती  है

एक लम्बे मौन पर चली जाती है
जैसे लोग लम्बी यात्राओं पर जाते हैं ।

 

2. उसी तरह

पर्दा फिर उठ चुका है
एक दुखांत नाटक खेला जायेगा अभी
रो देंगी सभी साक्षी आँखें
अपने जीवन से जोड़ लेंगी उसे
तालियों की गड़गड़ाहट में डूब जायेगा मृत्युशोक
और उसकी सबसे अच्छी बात पता है क्या होगी?
मरने वाला उठ खड़ा होगा हँसते हँसते
साथी पीठ थपथपाएँगे
धूल गर्द साफ कर वह फिर जुटेगा
कल फिर उसकी धमनियों में नया जीवन बहेगा
नई देह अपने भीतर गढ़ेगा
फिर मर जाने को वह ख़ूब सजेगा।

तुम्हें जाना था तो यूँही जाते न

कि फिर दूसरी तरफ से वापस आ जाते
मैं जाकर पीछे से आँख मूँद लेती
और कहती पहचान कौन!
नज़र का टीका लगा कर कह देती
कितना सुंदर मरे थे तुम
कितना अच्छा बिछड़े थे!
दिखाती, देखो मेरी आँखें अब भी नम हैं।
सुनो रूह अब भी काँप रही है
और गीली मुस्कुराहट वार देती तुमपर

तुम जाते तो वैसे जाते न!
कि लौट आते फिर उसी तरह

 

3. बस इतना ही

बहुत प्यार नहीं करूँगी ।
बस इतना कि जीने से जी न ऊबे
उतना ही डूबूंगी आँखों में
कि जब जगूं
चाँद तब भी दुनिया की सबसे खूबसूरत शै लगे
माँ के माथे की लाल बिंदी में पृथ्वी दिखे
आग सिर्फ रोशनी जलाता हुआ दिखे
रस्सियाँ सिर्फ कपड़े सुखाने के काम आये
पेट्रोल केवल सड़कों पर मेरी स्कूटी चलाने के काम आये
और चूल्हे की तपिश सिर्फ रोटियाँ सेंकने के
बिजली सिर्फ सूरज की अनुपस्थिति में रोशनी फैलाये
पंखे की ओर जब देखूं तो सिर्फ गर्मियों की दोपहर में
छुरियां सिर्फ सब्जी तरकारी काटने के काम आये
कलाइयों में चूड़ियां खनखनाती रहे
दुपट्टा सिर्फ सलवार कमीज़ की शोभा बढ़ाने को गले में पड़ा रहे
रेल की चमकीली पटरियों पर सिर्फ गाडियां दौड़े
रसोई में लाल धार सिर्फ टमाटर की बहे
अस्पतालों में माँ बाप की गोद मे सिर्फ सुंदर नवजात शिशु दिखें
पहाड़ और छत की ऊंचाइयां केवल
मनोरम आकाश पलकों से छूने के लिए हों
दवाई की दुकानों में सिर्फ
दुखती बिवाइयों का मलहम लेने जाऊँ
कभी जब थक जाऊँ
तो बेदाग सफ़ेद चादर ओढ़
खूब खूब सोऊँ

और जब कभी पैर ज़मीन से उठ कर हवा में लहराये
जब कभी साँस रुके
तो वो सिर्फ पृथ्वी को प्यार से चूमने के लिए हो

बस इतना ही प्यार करूँगी।

 

4. लेकिन धुआँ है कि….

उन दिनों हमारे लिए वही समृद्ध था
जिसके पास दो वक्त का खाना था
जिसको स्कूल जाने को कपड़े थे
जिसके पैरों को उसके अपने माप की चप्पलें थीं
दीवार पर तार से लटकती नहीं, बल्कि जगह पर लगाई हुई बत्ती थी
जिसकी रसोई में सुलगा हुआ चूल्हा था
जिसके पास पसीना पोछने को रुमाल थी
बिछाने और ओढ़ने को बिना फटी चादरें थीं
कपड़े टांगने को अलगनी थी, तहाने को अलमारी
जिसके नहाने को बाल्टी भर पानी था
जिसके पढ़ने को किताबें थीं, उन्हें सहेजने को झोला
जिनकी थाली में चावल के साथ थोड़ी दाल थी
जिसके रोने पर आने को झुनझुना था
पुचकारने को सर पर एक हाथ था
जिसको बुखार में पीने को दवाई थी, दूध था
दीवार पर सलामत समय दिखाती घड़ी थी
जिसकी मां सिलाई मशीन पर नहीं, बल्कि रसोई में छौंक लगाती दिखती थी
जिसके पिता बरामदे में आरामकुर्सी पर झूलते
जिन घरों से खट्टी मीठी खुशबू आती
उन दिनों हमारे लिए वही समृद्ध था।

इन दिनों परिभाषाएं बदल गई हैं
सीमाएं थोड़ी और विस्तृत हुई हैं
कुछ चीज़ें बिल्कुल बदल गईं बाहर,
कुछ बिल्कुल भी नहीं बदलीं हमारे भीतर।

पीछे आग का वह धधरा अब भी उठता है
काला गाढ़ा धुँआ दीवार पर चिपकता जा रहा है
उस पार अब भी कुछ बच्चे छूट गए हैं
गहरी आँखों वाले बच्चे
इस पार इशारा करते हैं
वो मुझे अपने जैसे लगते हैं
मैं उन्हें खींच कर इस पार ले आना चाहती हूँ

लेकिन धुँआ है कि और गहरा होता जाता है।

 

5. कोरस का आर्तनाद

वह जो समवेत स्वर लहरा उठता है
हवाओं में
उसमें बड़ा अभ्यास और अनुशासन होता है
वह कई होठों से निकलता हुआ दीवारों पर मुक्का मार आता है
पर्दों को हिला देता है

वह गूंज जो छलनी कर जाती है बहुतों को
जिसका आरोह और अवरोह एक धागे में पिरोया रहता है
जिसमें सबके होंठ एक साथ खुलते बंद होते हैं
जिसमें कोई एक आवाज़ अलग से नहीं पहचान में आती

दरअसल वह आर्तनाद भी होता है कुछ लोगों का
उस सुरीले समवेत में कुछ चीत्कार भी घुले मिले होते हैं

वे जो पैर साथ उठते और साथ गिरते हैं
उनमें से कुछ लीक से बाहर भी जाना चाहते हैं

जो आँखें एक साथ एक ही दिशा में देखती हैं
साथ उठती और झुकती हैं
उनमें से कुछ बिल्कुल उल्टी दिशा में देखना चाहती हैं कई बार

वे जो सबसे ज़्यादा मेहनत करते हैं
और सबसे कम पहचाने जाते हैं
जिन्हें अलग से कोई नहीं देखता
पर जो सबको देख पाते हैं

वे बहुत से सवाल ढोते हैं और
अपने ही प्रश्नों के भार से धीरे धीरे माला से टूटते जाते हैं।

 

6. खिड़कियाँ

मैं खिड़की से लग कर जब भी आसमान देखना चाहती हूँ
मुझे दिखती हैं कई कई खिड़कियां
और उनसे झांकती कई कई जोड़ी आँखें
जब शाम की लाली ढूंढती हूँ
तो दिखती हैं उन आँखों की रक्ताभ शिराएं
जिनके लिए खिड़की एक कोना है
आँख बचाकर बरसने के लिए

कई बेमौसम बरसातों में जब छई छपा करते हैं लोग
तो दरअस्ल कहीं भीग रहे होते हैं खिड़कियों से सटे कई वजूद

जब कई दफा बारिश अचानक थम जाती है
तो दरअसल उन आँखों को झट से पोछ लिया गया होता है
कि उन्हें कई आहटों पर संभलना होता है
कई पुकारों पर लौटना होता है
अपनी दिनचर्या में
मुस्कुराते हुए

खिड़की वहीं रहती है
उनके लौटने के इंतज़ार में
वह कहीं नहीं जाती।

 

7. सारे बच्चे ज़िंदा चाहिये

हमें अपनी कविताओं के लिए दुनिया के सारे बच्चे ज़िंदा चाहिये।
उनमें हँसेंगे खिलखिलायेंगे वे,
उनकी किलकारियां गूंजेंगी वहाँ।

पार्कों की घास पर दौड़ने के लिए,
बगीचों में फूलों के खिलने के लिए,
नन्हें हाथों से गीली मिट्टी में बीज बोने को,
आँगनों  की माटी में लोट लोट कर ज़िद मनवाने को
दुनिया के सारे बच्चे ज़िंदा चाहिये

किसी ज़िंदा कौम की किसी कविता में
किसी बच्चे की मौत का ज़िक़्र नहीं होना चाहिए,
कागज़ उनके ख़ून से लथपथ न हों
हम लिखें जीवन, हम लिखें संघर्ष
लिखें सुंदर या असुंदर,
पर मौत नहीं
नौनिहालों की हत्या तो हरगिज़ नहीं।

यह दिन कविताओं के लिए शोक का दिन है
ये तारीख़ें कैलेंडरों से मिटा दी जानी चाहिये
यह मनुष्यता की मौत की कालिख पुती रात है
धरती औंधी पड़ी है, आकाश गिरने को है।

इस धरती और इस आकाश को सारे बच्चे ज़िंदा चाहिये।
हमें हत्याकांड लिखने पर,
हमारी कविताओं में माताओं को विलाप करने पर मजबूर न करो
वरना इस दुनिया की सारी कलमों की नोक तुम्हारी तरफ होंगी
और तुम्हें चीर कर रख देंगी।

 

8. चिरशिशु

उन पर कविताएँ नहीं लिखी जाती
उन्हें तोहफे नहीं दिए जाते
उनसे किसी बात की माफी नहीं माँगी जाती कभी
उन्हें संपत्ति का हिस्सा नहीं दिया जाता
आगंतुकों के साथ नहीं बिठाया जाता
उन्हें न्योते नहीं दिए जाते
उनके सफ़र का कोई हमसफ़र नहीं होता
उनकी कमीज में जेब नहीं होती
उनकी पतलून में पर्स नहीं रहता
उन्हें कोई रोज़गार नहीं देता
उनकी खबरें अख़बारों और टेलीविज़न पर नहीं आती
उनकी कोई मांग नहीं होती
उनके मुद्दों पर संसद में चर्चा नहीं होती
उन्हें कैलेंडर के पन्ने पलटने आते हैं
पर दिन गिनने नहीं आते
उन्हें सिर्फ भूख लगती है
पेट की और स्नेह की
उन्हें आकर्षित करते हैं कागजों के रंगीन चित्र
उन्हें अचरज होता है देख कर
अपने हम उम्रों को किताबों में सर घुसाये
उन्हें अपने कान नाक मुंह गले का दर्द बताना नहीं आता
उन्हें दवाइयों के नाम नहीं आते
उन्हें आता है तो सिर्फ
बारिश की बूंदों को खिड़की से हाथ निकाल कर छूना
रंगों पर लोटना
आँधियों को अपलक निहारना
अनबोले शब्दों को आँखों से पढ़ना
उन्हें आता है हाथ मिलाना
आता है दया और प्यार में फ़र्क़ करना
आता है अंतहीन प्रतीक्षा करना
उन्हें जीवन के फलसफे नहीं मालूम होते
उन्हें पता होता है तो सिर्फ अपने खाने का वक़्त
और ये
कि अतिथियों के आने पर
उन्हें घर के किस कोने में जाकर बैठ जाना है।

 

9. उम्मीद के दिये में बूंद भर तेल

ट्यूशन पढ़ाकर लौटने पर देखती है वह
बिस्तर पर लेटे दुर्बल पिता
कपड़ों के ढेर के बीच सिलाई करती माँ
कमरे में यहाँ वहाँ छितरे ऑर्डर के कपड़े
ओने कोने में दुबके भाई बहन
उनके अनधुळे कपड़े
पहने कपड़ों की उघड़ी सिलाइयाँ
उनमें से झाँकती भूख

देखती है चौकी के नीचे उल्टे बर्तन
ईंट जोड़ कर बनाया चूल्हा
पुरानी कॉपियों से जलाई आँच
उसमें खदकाई बिना चीनी की काली चाय
राख में यहाँ वहाँ से चुनचुनाती लाल लाल प्यास
किसी बासी रोटी के टुकड़े पर लुधकी चीटियाँ

सुनती है खाली गुल्लक का रूदन
दीवार की सुराखों से पिघलता अवसाद
तिलचट्टों का उपहास
गिरगिटों का अट्टहास
सृष्टि के तमाम नकारात्मक मुहावरे

ऐसे में प्यार करना आसान नहीं होता साहब
सुंदर कविता लिखना तो और भी मुश्किल
जहाँ आईना भी टूटा हो और साढ़ेसाती कभी न खत्म हो
जहाँ सूरत निहारने को थाली भी टेढ़ी हो
वहाँ मुस्कुराना कठिन है साहब

वह रोज़ निकलती है घर से
स्लेट पर चिढ़ाते सारे हर्फ मिटाती है
ट्रेन के दरवाज़े पर झूलती है
बसों के धक्के खाती है

कुछ देर आँखें मूँद कर अपने अँधेरे भविष्य में दिया जला आती है
डूबती शाम की मुंडेर पर इच्छाओं की चिड़ैयों के चुगने को कुछ दाने रख आती है
वह कुछ देर कहीं मुस्कुरा आती है
बटुए के चिल्लर हसोथती है
किलो भर आटे का हिसाब लगा
रास्ते पर हाथ में हाथ डाले किसी प्रेमी युगल को एक नज़र देख लेती है

किसी कार के शीशे में ओढ़नी सँवार कर आगे बढ़ती है
रास्ते थक जाते हैं उसके कदमों से
हवाएँ पस्त होती हैं

वह प्यार नहीं कर पाती साहब
वह तोड़ भी नहीं पाती दीवारें
जब थक जाती है तो अंधेरे गुसलखाने में पूरे हौज का पानी ख़ुद पर उड़ेल कर
मुट्ठियाँ भींच कर, बेआवाज़ रोती है
बे…आ…वा…ज़
आँखें बंद करती है और
उम्मीद के दिये में थोड़ा और तेल डाल आती है
और उसकी टिमटिमाहट पुतलियों में बसा
पुरानी पिघली लिपस्टिक उंगलियों में लेकर
मुस्कुराहट पोत लेती है।

 

10. रहने दो पारिजात, तुमसे न होगा

रहने दो पारिजात
तुमसे न होगा
सूरज की पहली किरण तक तुमसे झेली नहीं जाती
उसकी आहट से पहले ही गिर जाते हो शाख से
बिछ जाते हो, क्यूँ हार जाते हो पारिजात

क्यूँ कृष्ण से रश्मि देखने का वर न माँगा तुमने
क्यूँ रुक्मिणी के द्वार पर पड़ रहे हर भोर से पहले
किस व्यथा की कथा है तुम्हारा चमकना रात को
और झड़ जाना कातर होकर अलसुबह

आखिर क्यूँ चाहा तुमने इस निष्ठुर सूरज को
जिस तक तुम्हारी मादक सुगंध का एक कतरा तक नही पहुँचता
क्यूँ फिर भी उसका चमकता रंग समेट रखा है तुमने अपनी आत्मा में

धरती गदराई है तुम्हारे स्वर्गीय सौरभ से
तुम्हारे प्रेम में पगी है भोर
और तुम पारिजात!
युग बीत गए, कई काल मर चुके
पर तुमने अभी तक हिम्मत नहीं दिखाई

अगर किसी दिन मुझे पारिजात बन जाने दो पारिजात
तो आँख मिलाउंगी उससे, खिलूँगी, टिकूंगी शाख पर देर तक
सिर्फ सुगंध बिखेरते खुद नहीं बिखरूँगी
जिऊंगी अपने समूचेपन में

मैं भोर बन जाउंगी
पारिजात हो जाउंगी ।

 

 

 

(कवयित्री कल्पना झा रंगकर्मी, अभिनेत्री एवं संस्कृतिकर्मी  हैं। कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, कुछ ब्लॉग पर भी प्रकाशन केन्द्र सरकार के एक विभाग में अनुवादक के पद पर कार्यरत
मोबाइल – 9836629539
ईमेल – kalpana1512@gmail.com

 

टिप्पणीकार आनंद गुप्ता
जन्म-19 जुलाई 1976, कोलकाता
शिक्षा – कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर। कई पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। कुछ आलेख एवं समीक्षाएं भी प्रकाशित।
कई कविता संकलनों में कविताएँ प्रकाशित
कई प्रतिष्ठित ब्लॉग एवं वेबसाइट पर कविताएँ प्रकाशित। कुछ भारतीय भाषाओं की पत्रिकाओं में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन कोलकाता केंद्र में कविता पाठ। देश के कुछ महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजनों में हिस्सेदारी। सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा कविता के लिए शिखर सम्मान
साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था नीलांबर के उपसचिव
संप्रति पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा संचालित विद्यालय में अध्यापन
संपर्क पता – गली न. 18, मकान सं.-2/1/1/1, मानिकपीर, पोस्ट – कांकिनारा, उत्तर 24 परगना ,
पश्चिम बंगाल – 743126
मोबाइल – 09339487500/ 7003046699
ईमेल पता – anandgupta19776@gmail.com)

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