• श्रम कानूनों को निरस्त करना – कॉर्पोरेट घरानों से चुनाव में लिया गया चंदा वापस करने का तरीका है_
• ऐक्टू ने श्रम कानूनों को खत्म किए जाने के खिलाफ देशभर में किया दो-दिवसीय प्रतिरोध_
• लॉक-डाउन का फायदा उठाकर, श्रम कानूनों को खत्म करने को मजदूरों को गुलाम बनाने की साजिश बताई_
• प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री केवल शब्दों का जाल बुन रहे – मजदूरों के लिए कुछ भी घोषणा नहीं की गई_
नई दिल्ली, 13 मई 2020 : आल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस (ऐक्टू) ने उत्तर प्रदेश, मध्य-प्रदेश, गुजरात समेत देश के अन्य राज्यों में श्रम कानूनों को खत्म करने के खिलाफ आज देशभर में प्रतिरोध किया. तमिल नाडु, कर्नाटक, उत्तराखंड, दिल्ली, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पुडुचेरी, छत्तीसगढ़, असम, गुजरात, महाराष्ट्र, केरल इत्यादि राज्यों/ प्रदेशों में ऐक्टू द्वारा आहूत विरोध में संगठित-असंगठित क्षेत्रों के कई मजदूरों ने हिस्सा लिया.
मजदूरों को गुलाम बनाने के लिए श्रम कानूनों को खत्म करना, केंद्र और राज्य की सरकारों द्वारा किए जा रहे बड़े-बड़े दावों की पोल खोल कर रख देते हैं. देश के अलग-अलग हिस्सों से भूख, लम्बी यात्रा से हुई थकान, दुर्घटना इत्यादि में लगातार मजदूरों के मरने की ख़बरें आ रही हैं. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिया जा रहा भाषण, इन परिस्थितियों में झूठे प्रचार से ज्यादा प्रतीत नहीं होता.
‘रिफार्म’ के नाम पर लगातार किए जा रहे श्रमिक-अधिकारों पर हमले के खिलाफ, दिल्ली के कई हिस्सों में भी निर्माण मजदूरों, स्वास्थ्य कर्मचारियों, डीटीसी कर्मचारियों, छोटे दुकानदारों, औद्योगिक मजदूरों इत्यादि ने अपना विरोध प्रकट किया.
दिल्ली के नरेला, कादीपुर, संत नगर, वजीरपुर, संगम विहार, ओखला, कापसहेड़ा, मंडावली, विनोद नगर, शाहदरा इत्यादि क्षेत्रों में मजदूरों ने प्रतिरोध के माध्यम से रोष प्रकट किया.
बिना किसी योजना के किया गया लॉक-डाउन : राशन-पानी तो पहले से बंद था, अब अधिकार भी छीन लिए
भूख, थकान, बेरोज़गारी से हो रही मौत की ख़बरों के बीच श्रम कानूनों को खत्म करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी बीमार व्यक्ति को ज़हर दे देना. उद्योगपतियों ने पहले तो लॉक-डाउन के दौरान वेतन का भुगतान नहीं किया, अब सरकार के साथ गठजोड़ करके श्रम कानूनों को खत्म करवा रहे हैं. केंद्र और राज्य की सरकारें, मजदूरों की समस्याओं को हल करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं दिखाई दे रही. चाहे लखनऊ से साइकिल पर घर जा रहे मजदूर की मौत हो, गुजरात में आंध्र प्रदेश के मछुवारे की मौत हो, बारह साल की पैदल चलती बाल श्रमिक की मौत हो या फिर पुलिस की हिंसा में युवक की मृत्यु – ये कहना गलत नहीं होगा कि ये ‘दुर्घटनाएं’ नहीं, बल्कि ‘सरकार द्वारा प्रायोजित श्रमिकों की हत्याएं’ हैं. गैर-संक्रमण जनित मौतों का सही आंकड़ा अभी तक जनता के सामने नहीं आया है – ऐसे में जब बिना श्रम कानूनों के फैक्ट्रियां चलेंगी तो औद्योगिक दुर्घटनाएं भी तेज़ी से बढ़ने लगेंगी.
भूख और गरीबी : मजबूरी में की जा रही लम्बी यात्राएं, महंगे रेल टिकट व बंधुआ मजदूरी की ओर धकेलती सरकारें
भाजपा ने पहल की, कांग्रेस की सरकारें भी पीछे नहीं हटी
केंद्र और राज्य में चल रही भाजपा-गठबंधन की सरकारें मजदूरों की समस्याओं को हल करने की जगह बढ़ा रही हैं. हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गुजरात इत्यादि राज्यों में मजदूरों की हालत बहुत खराब है – न तो उनको खाना मिल पा रहा है और ना ही राशन और पैसे. इन राज्यों में श्रम कानूनों को खत्म कर, काम के घंटे बढ़ाकर, मजदूरों की घर की यात्रा रोककर – बंधुआ मजदूरी जैसी स्थितियां पैदा की जा रही हैं. मजदूरों के ऊपर पुलिस द्वारा हिंसा की घटनाएं भी सामने आ रही हैं, सूरत में खाना मांग रहे मजदूरों के ऊपर प्राथमिकी तक दर्ज कर दी गई. गौरतलब है कि जहां भाजपा शासित प्रदेशों ने श्रम क़ानून खत्म करने में पहल ली है, वही कांग्रेस शासित पंजाब और राजस्थान भी काम के घंटे बढ़ाने में पीछे नहीं हैं.
रेल मंत्री पीयूष गोयल मजदूरों से टिकट का पैसा वसूल रहे हैं, गुजरात में एक भाजपा नेता द्वारा झारखंड के मजदूरों से तीन गुना भाड़ा लेने व मजदूर को पीटने की बात भी सामने आई है.
बड़े कॉर्पोरेट घरानों और बिल्डरों के साथ मिलकर कर्नाटक सरकार द्वारा मजदूरों को घर जाने से रोकने का काफी विरोध हुआ, जिसके बाद फैसले को वापस लेना पड़ा. मोदी सरकार कोरोना-संकट से लड़ने के नाम पर, केवल अपनी छवि बनाने हेतु टीवी-सोशल मीडिया पर प्रचार में जुटी है. खुले-आम संघ-भाजपा द्वारा द्वेष और नफरत फैलाया जा रहा है, सरकारी तन्त्र कोरोना से लड़ने की जगह छात्रों-सामाजिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने में लगा हुआ है. जगह-जगह मजदूरों-कर्मचारियों को काम से निकाला जा रहा है और वेतन काटा जा रहा है. लोगों को धर्म के नाम पर लड़वाकर, संघ-भाजपा मूलभूत मुद्दों से भटकाने और प्रतिरोध को कमज़ोर करने का काम कर रहे हैं.
अगर इसे उदाहरण देकर समझाया जाए तो – देशभर में कई औद्योगिक दुर्घटनाएं घटित होती रहती हैं, कई मजदूर फैक्ट्री और खदान से लेकर सीवर तक में मारे जाते हैं; लॉक-डाउन के दौरान काम से निकाले जाने के चलते हुए पैसे और खाने के किल्लत से कई मजदूरों ने आत्महत्या तक की – अगर श्रम क़ानून सख्ती से लागू किए जाते तो कई मजदूरों की जान बच सकती थी.
मजदूरों ने उठाई आवाज़ – कहीं पुतले तो कहीं नारों और ‘प्लेकार्ड’ के माध्यम से किया विरोध
प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री केवल शब्दों का जाल बुन रहे हैं – मजदूरों के लिए कुछ भी घोषणा नहीं की गई
कोरोना और लॉक-डाउन जनित त्रासदी को उद्योगपतियों-मुनाफाखोरों के लिए ‘अवसर’ बनाने में मोदी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी – 44 श्रम कानूनों को खत्म करने के खिलाफ पहले से ही काफी विरोध चल रहा था; लॉक-डाउन का फायदा उठाकर राज्य-सरकारों के माध्यम से कानूनों को अब खत्म किया जा रहा है.
दिल्ली के कई इलाकों में मजदूरों ने इस नाइंसाफी के खिलाफ अलग-अलग तरीकों से अपना विरोध प्रकट किया. उत्तरी दिल्ली में मजदूरों ने नेताओं और उद्योगपतियों के मुखौटों के साथ विरोध किया, वही दिल्ली के ही एक मजदूर इलाके में मेहनतकशों की व्यथा को दर्शाने के लिए एक पुतले को पेड़ से लटका दिया गया. कल प्रधानमन्त्री द्वारा की गई घोषणाओं से कुछ भी ठोस निकालता नहीं दिखाई दे रहा, आज वित्तमंत्री के द्वारा भी मजदूरों के तकलीफों को कम करने की कोई बात नहीं की गयी. कोरोना-काल में मजदूरों के प्रति बरती जा रही सरकारी-उदासीनता इस देश के इतिहास में सबसे काले-दौर के रूप में याद की जाएगी. प्रधानमन्त्री के भाषण ने ये साबित कर दिया है कि सरकार के पास केवल जुमलों के अलावा कुछ भी नहीं है.
ऐक्टू दिल्ली राज्य कमिटी के अध्यक्ष संतोष राय के अनुसार देश के मजदूरों की हालत पहले से ही खराब थी, लॉक-डाउन ने अब इन्हें मरने की स्थिति में ला दिया है. उद्योगपतियों के दम पर देश नहीं चलता, देश करोड़ों मजदूरों-किसानों के दम पर चलता है. मुनाफे की लालच के वजह से कभी विशाखापट्टनम गैस रिसाव तो कभी भोपाल त्रासदी जैसी घटनाएं होती हैं. सरकार द्वारा जारी ‘एडवाइजरी’ को मालिकों द्वारा खारिज कर दिया गया है, वो धड़ल्ले से मजदूरों की छटनी कर रहे हैं और वेतन काट रहे हैं. लोन में लाखों-करोड़ रुपये भी उद्योगपति ही लेकर भाग रहे हैं. इन परिस्थितियों को देखते हुए कंपनियों और मालिकों को छूट की नहीं, बल्कि सख्त कानूनों से रास्ते पर लाने की ज़रूरत थी. मगर कॉर्पोरेटो के चंदे पर चलने वाली सरकारों ने मजदूरों के साथ एक बार फिर विश्वासघात किया है.
ऐक्टू मांग करता है कि श्रम कानूनों पर हो रहे हमले तुरंत बंद हो. तमाम मजदूर विरोधी अध्यादेश/लेबर-कोड वापस लिए जाएं और बंधुआ मजदूरी शुरू करने के तमाम सरकारी प्रयासों पर रोक लगे. इसके अलावा दो-दिवसीय विरोध में अन्य भी मांगे उठाई गईं – लॉक-डाउन के दौरान मारे गए सभी मजदूरों के परिवारजनों को न्यूनतम 1 करोड़ का मुआवजा दिया जाए. केंद्र और राज्य सरकारों को सभी मजदूरों को – दस हज़ार रूपए प्रतिमाह गुज़ारा भत्ता या लागू न्यूनतम वेतन (इनमें से जो भी अधिक हो ), खाना, राशन व रोज़गार-सुरक्षा की गारंटी करनी चाहिए. ऐक्टू, भारतीय खाद्य निगम के सभी गोदामों को जनता के लिए खोलने की मांग करता है. मालिकों द्वारा कर्मचारियों को निकाले जाने की घटनाओं पर रोक लगाया जाना चाहिए. पूंजीपतियों के इशारे पर, घर जाने के इच्छुक मजदूरों के आने जाने पर रोक लगाना तुरंत बंद हो; सरकार द्वारा इन मजदूरों को मुफ्त और सुरक्षित तरीके से घर पहुँचाने का इंतजाम किया जाना चाहिए.