डॉ. रेखा उप्रेती
सामान बाँध लिया है| वियना में बिताया यह दिन किसी नायाब तोहफे सा हमारी झोली में आ गिरा है और अब प्राग हमारी प्रतीक्षा में है| लम्बी, संकरी, खुरदरी गलियों में मध्ययुगीन इतिहास की सलवटों को समेटे प्राग की ख़ूबसूरती को निहारने का जितना आकर्षण मन में है, उतना ही निर्मल वर्मा के उस प्राग से मिलने की आतुरता है, जिसका वर्णन पढ़-पढ़ कर हम प्रेम में पड़ गए थे…यह तब की बात है जब हम विद्यार्थी थे और आर्ट्स फैकल्टी के बरामदों की मुंडेर पर बैठकर हमारी मित्रमंडली अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा की रचनाओं पर बहसती रहती थी|
उसके बाद कक्षाओं में ‘चीड़ों पर चाँदनी’ पढ़ाते हुए, वही प्रेम विद्यार्थियों की आँखों में उतरता देख लगता था, अध्यापकी सार्थक हो गयी..| आज भी याद हैं रश्मि, लतिका, हर्ष की आँखों में उतर आते छाया-चित्र और उनका बार-बार ये कहना… “ मैम, हमें तो निर्मल वर्मा से प्रेम हो गया है…”| सचमुच, प्राग के गिरजों की घंटियाँ अभी तक कानों में गूँजती हैं….
वियना से प्राग की ओर जाती बस खासी आरामदायक है पर एक छोटा-सा झटका दे चुकी है| हुआ यह कि बड़े इत्मीनान से अपना सामान डिक्की में रखवा कर हम उमगते हुए बस में चढ़े| टिकिट पर सीट संख्या 4 अंकित है, जो हमारे हिसाब से बस की ऊपरी मंजिल में होनी चाहिए| हम पीछे से सीट संख्या गिनते हुए आगे बढ़ रहे हैं..8..7..6..5 और 3..2…अरे यह क्या !!
सीट नंबर चार नदारद! अगल-बगल झाँकते हुए हम आगे की सीढ़ियों से नीचे उतर आते हैं, पूछने पर ड्राइवर साहब निर्लिप्त भाव से कह रहे हैं कि इस बस में यह नंबर नहीं है| अपनी तो थोड़ी-थोड़ी हवाइयाँ उड़ने लगीं हैं| ‘गरीबी में आटा गीला’.. बड़े अरमान लेकर, कुल एक दिन के लिए हम प्राग जा रहे हैं, अब ये बस छोडनी पड़ी तो..| बस में बैठे एक भारतीय सज्जन ने हमें इस झटके से उबारा है|
‘सीट नंबर की ज़रुरत नहीं, कहीं भी बैठ जाइए..’, फिर तो हमने भी लपक कर आमने-सामने की सीट घेर ली है, जो होगा देखा जाएगा| आखिर बस कंपनी के खाते में रुपए तो जमा किए ही हैं…| बस काफ़ी खाली है| नीचे के फ्लोर पर इक्का-दुक्का यात्री ही दिख रहे हैं|
हम भी दो-दो सीटें हथिया कर, बीच में लगी मेज पर अपना छुट-पुट सामान रखकर शाही अंदाज़ में सफ़र का आनंद लेने लगे हैं| न कोई हमारी सीट संख्या की जाँच करने आया, न हमने यह सोचने में समय गँवाया कि आखिर इस बस में चार नंबर की सीट क्यों नहीं है|
लगभग चार घंटे का सफ़र कुछ बतियाते, कुछ बाहर की झलकियाँ देखते बीत गया है और अब हम प्राग में हैं|
सेंट्रल रेलवे स्टेशन के बाहर हमें उतारकर बस आगे के सफ़र पर निकल गयी है| हमारा अपार्टमेंट दोपहर बाद ही हमारा स्वागत करेगा, पर तनया ने वहाँ के मैनेज़र से बात कर, हमारा सामान क्लाक रूम में रखवाने का इंतजाम कर रखा है| अब सवाल बस इतना कि वहाँ तक कैसे पँहुचा जाए? कुछ इधर-उधर भटकने के बाद टैक्सी मिल गयी है, जो हमें अपार्टमेंट के बाहर छोड़ रही है|
एक नौजवान हमारे अपार्टमेंट की चाभियाँ लेकर आ गया है| यह पॉल है, एकदम हँसमुख और फुर्तीला, अंग्रेज़ी जानता है तो उससे संवाद करना सहज है| अपार्टमेंट तक पहुँचने का रास्ता थोड़ा खुरदुरा है| हमारी पहिए वाली अटेचियाँ लुढ़क-पुढ़क कर चल रही हैं, जैसे कोई जिद्दी बच्चा बेमन से माँ का हाथ पकड़े उसके साथ चल रहा हो| लिफ्ट यहाँ भी नहीं है और हमें फिर तीसरी मंजिल तक चढ़कर जाना है|
इस बार पॉल हमारा संकट-मोचक बन गया है|भला मानुष, झट से हमारी दोनों अटेचियाँ उठाकर सीढ़ियाँ पार करा देता है| हमारे अपार्टमेंट में अभी सफाई चल रही है, पर हमें अपना सामान रखने और तारोताज़ा हो लेने की छूट मिल गयी है| यह ज़गह बेहद खूबसूरत है| छोटा-सा बैठक, साथ में रसोई और सोने का कमरा| खिड़की से सामने वाले घर का अहाता दिख रहा है, जिसमें फूलों से लदी एक सुन्दर बेल हवा में झूल रही है| ऊपर नीले आसमान का टुकड़ा टंगा है जिसमें बादलों की हल्की-हल्की लहरें काँप रही हैं| हमें एक ही दिन रहना है यहाँ, जबकि पूरी उम्र गुज़ारी जा सकती है|
प्राग के ‘ओल्ड टाउन स्कवायर’ तक पहुँचने के लिए अधिक भटकना नहीं पड़ा| पॉल ने मैट्रो की सीधी राह दिखाई और मेट्रो में हमें दो भारतीय लडकियाँ मिल गयीं, जिनसे बतियाते हुए हम नियत स्टेशन पर उतर गए|अब सही मायनों में हम प्राग का सफ़र शुरू कर रहे थे|
लिस्बन जाने के लिए एयर-इण्डिया की टिकिट बुक करवाते हुए हमारा ख़ास आग्रह था कि वियना में स्टॉप-ओवर ले सकें और वहाँ से प्राग की यात्रा कर सकें| यह जानते हुए भी कि प्राग को देखने-जानने के लिए एक दिन का समय बहुत बेमानी है, हम यह अवसर छोड़ना नहीं चाहते थे|
निर्मल वर्मा की रचनाएँ पढ़ते-पढ़ाते हुए इन शहरों से हमारा एक रूहानी रिश्ता कायम हो चुका है| हम अपने भीतर बसे किसी शहर के निशान ही यहाँ ढूँढने आये हैं| और अब वह चिर-परिचित शहर गर्मजोशी से हमारे स्वागत में खड़ा है, जीवित..सदेह… जागृत वर्तमान के साथ- साथ धड़कता हुआ इतिहास समेटे….|
हम सड़कों, गलियों, बाजारों को पार करते हुए स्क्वायर की ओर बढ़ रहे हैं, और देख रहे हैं चारों ओर पर्यटकों की चहल-पहल, छोटी-छोटी दुकानों में टंगे रंग-बिरंगे स्मृति-चिन्ह, और प्राग की लम्बी, संकरी, खूबसूरत गलियाँ| नज़र जिधर जाती है, वहाँ से लौटने को राजी नहीं है| जैसे हर कोना बुला-बुला कर उलाहना दे रहा है… इतनी प्रतीक्षा के बाद आये हो, नज़र भर देखोगे भी नहीं! और हम बेदर्दी से उनका आमन्त्रण ठुकरा, खुद से ही झूठा-सच्चा वादा करते हुए आगे बढ़े जा रहे हैं.. फिर आयेंगे…आना ही होगा..
‘ओल्ड टाउन हाल’ के भीतर जाकर हम जानकारी ले रहे हैं| पता चलता है कि टिकिट लेकर हम तीन से चार बजे के स्लॉट में, प्राग की इस सबसे पुरानी ऊँची इमारत की यात्रा कर सकते हैं, जिसमें गाइड हमारा पथ-प्रदर्शन कर, हमें अतीत के गलियारों की सैर कराएगा| उसके बाद हम टावर की छत पर चढ़कर पूरे प्राग का विहंगम दृश्य देख सकते हैं|
यह विचार हमें इतना भा गया है कि हम झट-पट अपनी टिकिट खरीदने चल दिए हैं|एक युवा, कमसिन, आकर्षक व्यक्तित्व वाली बातूनी लड़की हमारी गाइड है| विभिन्न देशों के पर्यटकों का एक छोटा-सा दल उसकी बतकही का आनंद लेता हुआ, प्राग के अतीत में झाँक रहा है|
इस टावर का सबसे अद्भुत आकर्षण है, वह ‘खगोलीय घड़ी’, जो स्वयं इतिहास की विभिन्न करवटों की साक्षी रही है| समय की मार झेलते हुए भी समय का सही पता देती यह घड़ी, प्राग के जीवट भरे चरित्र का प्रतीक भी है| मुझे भीष्म साहनी का ‘हानूस’ याद आ रहा है| यही वह घड़ी है, जिसके रचयिता को आधार बनाकर यह नाटक लिखा गया है| सोच रही हूँ, वापस जाकर फिर से पढूँगी, अब उसके सन्दर्भ जीवंत होकर सामने आएँगे| रचनाकार भी घड़ी साज़ ही तो होता है| बिगड़े समय को दुरुस्त करना ही उसका दायित्व है, फिर भले ही उसका हश्र हानूस की तरह क्यों न हो …
ओल्ड टावर की ऊपरी मंजिलों में प्राग का निकट अतीत संजों कर रखा गया है तो नीचे उतरती जाती सीढ़ियों में बारहवीं शताब्दी या उससे भी पहले के बसे हुए नगर के खंडहर साँस ले रहे हैं| इतिहास की धरोहर को कैसे सहेजा जाए, इसका रोचक नमूना है धरती में धँसा यह हिस्सा, जिसे भारतीय भावानुसार हम ‘पाताल लोक’ कह सकते हैं|
कभी बल्तोवा नदी के किनारे बसे हुए यह घर और दफ़्तर, नदी की बाढ़ से बचने के क्रम में, नदी से निकले मलबे को ही ढाल बनाते रहे और सतह ऊपर उठने के क्रम में यह बसावट नीचे फिसलती गयी…करीब घंटे भर तक इतिहास के अजब-गजब किस्से सुनते, उनकी बची हुई निशानियों को देखते हुए, हम बाहर निकल आए हैं|पातल-दर्शन के बाद स्वर्गारोहण तो बनता है अत: अब हम टावर की छत की ओर बढ़ रहे हैं|
वहाँ पहुँचने के लिए छोटी घुमावदार सीढ़ियाँ हैं और साथ ही एक पारदर्शी गोल लिफ्ट भी खड़ी है| अपनी क्षमताओं को नाप-तोलकर हम लिफ्ट का बटन दबा रहे हैं| शायद चल पड़े… और हमारी मुराद पूरी करने को आतुर लिफ्ट हमें इस तेज़ी से ऊपर ले जा रही है मानो ‘स्वर्ग’ पहुँचा कर ही दम लेगी|
टावर की गोल छत का दायरा बहुत छोटा है, एक आदमी के गुजरने भर का रास्ता चारों तरफ बना हुआ है, पर पूरे प्राग का जो दृश्य वहाँ से दिख रहा है, वह किसी स्वर्गीय अनुभव से कम नहीं| हम बहुत देर तक वहाँ से झाँकते हुए चतुर्दिक फैले प्राग की लालिमा निहारते रहते हैं… ‘जित देखूं तित लाल… ‘
प्राग आकर काफ्का से न मिलें, यह तो अपने साथ बेईमानी है, पर ईमान बचाने को अब समय नहीं बचा है| ओल्ड टावर से जुड़े अलग-अलग हिस्सों का परिचय देते हुए हमारी गाइड ने बताया था कि काफ्का भी इस टावर के एक हिस्से में कभी रुके थे, बस… हम तो इसी स्थल को उनका तीर्थ मानकर, उस हिस्से के नीचे बने रेस्तरां के बाहर बैठ गए हैं|
मन की उमंग में डूबे हैं, भूख-प्यास भी नहीं ब्याप रही, मानो शरीर भीतर की उर्जा से ही उर्जस्वित है.. पर अब बैठकर कुछ खाया-पिया जाए… तो ओल्ड स्क्वायर की मौजभरी सड़क का हिस्सा बन हमने पास्ता ऑर्डर कर दिया है| यहाँ सब फुर्सत में हैं| आवाजाही चल रही है और हम एक खूबसूरत से सपने में तिरते से बैठे हैं|
नगाड़े के धीमे-धीमे स्वर कानों में बज रहे हैं, आसपास कुछ हलचल-सी होने लगी है जो नगाड़े के तेज़ होते जा रहे स्वरों के साथ-साथ बढ़ रही है… अरे हाँ, सचमुच नगाड़े बजाते हुए कुछ लोग, पारंपरिक लिबास में यहाँ से गुज़र रहे हैं, और उनके पीछे-पीछे अनेक दल पूरी सज-धज के साथ चलते चले आ रहे हैं|
रास्ते के दोनों तरफ लोगों का हुजूम इकठ्ठा हो गया है, मुझसे रहा नहीं जाता, मैं जाकर उस भीड़ का हिस्सा हो गयी हूँ| तस्वीरें ले रही हूँ| सभी दल एक-एक कर आगे आते हैं और गीत नृत्य का मनोरम उत्सव शुरू हो गया है… ठीक वहीं जहाँ हम बैठे हैं… मुझे न उनके देश का पता है, न उनकी नृत्य-शैली का नाम जानती हूँ, अनाम देश के वे अनाम कलाकार मानों हमारी खुशी में शरीक होने आए हैं|
अब हमारे चारों ओर रंग, रस, रूप, गीत, संगीत, नृत्य की लहरें तरंगित हो रही हैं… कार्निवल धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है, पर वे तरंगें देर तक हवा में तैरती रह गयी हैं, कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेते हुए हम इत्मीनान में हैं… ‘और जीने को क्या चाहिए….’
स्क्वेयर से हर तरफ़ को अंतहीन-सी लम्बी गलियाँ निकलती हैं| अब हमें ‘प्राग-कैसल’ जाना है तो मैट्रो या ट्राम पकड़नी होगी| शायद किसी से सही दिशा पूछ कर हम एक गली पकड़ लेते हैं| गली इतनी मोहक है कि उसे पार कर जाने का दिल नहीं करता, हम कदम-कदम पर अटक जाते हैं.. शुक्र है कि ये गर्मियों के लम्बे दिन हैं, देर रात तक दिन ही विराजमान रहता है… ट्राम से कैसल की ओर बढ़ते हुए हम गलियों, सड़कों से गुज़र रहे हैं, अचानक मुझे एक दरवाजे के बाहर लिखा दिखता है ‘मालास्त्राना’… मानो कोई बरसों की खोई हुई प्रिय वस्तु दिख गयी हो… यूँ मुझे जगहों के नाम याद नहीं रहते, पर मालास्त्राना मेरी स्मृतियों में हमेशा टंगा रहा है|
‘बर्त राम्का : एक साँझ’ निर्मल वर्मा की यात्राओं में से यह एक साँझ सदा मेरे मानस पटल पर अटकी रही है| अपने प्राग प्रवास के दौरान मोज़ार्ट के इस घर की यात्रा का जो संस्मरण उन्होंने लिखा है उसे अपनी कक्षाओं में पढ़ाते हुए मैंने न जाने कितनी बार जिया है… उसी मालास्त्राना की गलियों से आज गुजरते हुए अगर मैं भावुक हो जाऊँ तो स्वाभाविक है|
रेखा दी को बता रही हूँ, ‘‘हम माला स्त्राना से गुज़र रहे हैं.. मुझे यहाँ उतरना है…’’ ‘तथास्तु’ वाले अंदाज़ में रेखा दी मुस्कुरा देती हैं| पर हम वापसी में यहाँ पर रुकेंगें| हमें ‘लेनन वॉल’ पर उकेरी गयी ग्राफिटी भी देखनी है, वह भी तो शहर के इसी हिस्से में है.
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चार्ल्स ब्रिज पर शाम गुजारने का इरादा भी इसी राह से होकर गुजरेगा… “कोई और इच्छा हो तो बताओ!!” प्राग मानो पूछ रहा है| कैसल के पास वाला ट्राम स्टेशन हमारी बेध्यानी में छूट गया है| अगले स्टेशन पर उतर कर हम पीछे की ओर चल पड़े हैं| यह स्थान पहाड़ी पर है, गूगल मैप से किले का अन्वेषण करते हुए हम दाहिनी ओर की सड़क पर मुड़ गए हैं| हरा-भरा पहाड़ी रास्ता मनमोहक है| दोनों तरफ खिली निखरी हरियाली, विविध रूप, रंग, आकार की वनस्पति और उसकी मिलीजुली गंध..मुझे अपना पहाड़ याद आ रहा है|
प्रकृति अपने मूल रूप में हर जगह एक सी है, निश्छल, निर्विकार.. हम थक नहीं रहे यह कहना गलत होगा पर हमारी ऊर्जा का स्रोत अविकल झरता हुआ हमें अग्रसर किए हुए है…एक और मोड़ हमारी बाई तरफ है, यह एक तिराहा सा है और दाहिनी ओर गहरे पीले रंग की सुन्दर इमारत…शायद चर्च है|हम कैसल की दिशा में मुड़ गए हैं| बहुत बड़े अहाते में फैला हुआ यह किला वाकई विशाल और अद्भुत है|
अनेक हिस्सों में बना और बटा हुआ… जैसा प्राग का हर हिस्सा है, नए और पुराने को सम भाव से अपने में समेटे हुए| हम इस किले के कई हिस्सों की परिक्रमा करते हुए दूसरी तरफ निकल आए हैं.. यहाँ एक कम ऊँचाई वाली दीवार है जिसके पास पहुँचकर प्राग का दिलकश नज़ारा आँखों को बाँध लेता है|
सूरज अब ढलान पर है, हालाँकि रात की कल्पना अभी कोसों दूर है, एक लम्बी साँझ अब हमारी हमसफ़र होगी और हमें आगे की राह दिखाएगी|.. पर अभी तो दूर-दूर तक फ़ैली प्राग की लाल छतों को नर्म धूप सहला रही है.. इस सारे स्वप्निल परिवेश को स्वर दे रहीं हैं अनवरत बजती घंटियों की मध्यम गूँज.., एक सिहरन में हमारा अस्तित्व विलीन हो रहा है… मन फिर से निर्मल-निर्मल हो गया है..
मालास्त्राना उतर कर हम ट्राम के स्टैंड पर बैठे कुछ टटोल रहे हैं| दरअसल रेखा दी को अपना वह टिकट नहीं मिल रहा जो हमने मैट्रो स्टेशन से लिया था| वैसे तो किसी ट्राम में टिकट दिखाने की ज़रुरत नहीं पड़ रही है, पर पास में होना तो चाहिए..लेकिन टिकिट जाने किस छोर पर छूट गया है|
मैं तो चीजों को खो देने के मामले में मशहूर हूँ, पर रेखा दी पर ये बात नहीं जमती.. दुनियाँ भर के झंझटों- झमेलों को सम्हालने की फितरत हो और टिकिट गुम हो जाए, यह स्थिति उन्हें गँवारा नहीं| “मुझ पर भी तेरा असर आ गया है” अपना हैण्ड बैग सहेजती हुई वे कह रही हैं| “अच्छा है, सुखी रहोगी” मैं मुस्करा देती हूँ| टिकिट नहीं है, अब पैदल राह नापनी है|
‘बर्त राम्का’ जाना नहीं हो सकेगा| हम लेनिन वॉल की तलाश करते हुए प्राग के इस हिस्से पर चहल-कदमी करते हुए बढ़ रहे हैं| प्राग का यह हिस्सा ओल्ड टाउन के दूसरी तरफ है| बल्तोवा के दूसरे छोर पर बसा यह शहर कभी नया शहर था, फिर नए-नए इलाकों के बसने से यह लिटिल क्वाटर्स या लेसर टाउन के नाम से जाना गया, हालाँकि सौन्दर्य में यह प्राग के किसी भी हिस्से से छोटा या कमतर नहीं है|
आख़िरकार हम लेनन वॉल पहुँच गए हैं| साठ के दशक में अपने गीतों से दुनिया भर को आंदोलित करने वाले ‘बीटल्स’ के संगीतकार जॉन लेनन की स्मृति में इस दीवार को यह नाम मिला है| ग्राफिटी और बीटल्स गीतों से रंगती रही यह दीवार, कला की अनवरत संघर्षशीलता और एक बेहतर दुनिया के स्वप्न का कोलाज बनाती रही है|
स्थानीय आन्दोलनों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर अपनी बेबाक टिप्पणी दर्ज करती यह दीवार, न जाने कितनी परतें अपने भीतर समेटे हुए है…. हम युवाओं की टोली से घिरी इस ऐतिहासिक दीवार के आस-पास टहल रहे हैं, एक युवक लगातार गिटार पर ‘बीटल्स’ की धुनों को अपनी धुन में गाए चला जा रहा है…कुछ युवक उन धुनों पर तालियों और कदमों से ताल देकर नाचने लगे हैं..
चार्ल्स ब्रिज पर काफी गहमा-गहमी है|
पर्यटकों की आवाजाही के बीच हम भी मालास्त्राना और ओल्ड टाउन को जोड़ते इस ऐतिहासिक पुल पर खड़े नीचे बहती वल्तावा को निहार रहे हैं… नदी किनारे खड़े स्टीमर पर हमारी नज़र जाती है, जो अभी खाली है| कर्मचारी उसकी खुली छत पर रखी मेज-कुर्सियों को करीने से सजाने में मशगूल हैं… “चल, हम भी क्रूज़ पर चलते हैं” रेखा दी लगभग मचल कर कह रही हैं| अभी-अभी पुल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए जो पैर बेदम हो रहे थे उनमें फिर से जान आ गयी है|
हम दोनों फिर मालास्त्राना की ओर लौट रहे हैं, सीढ़ियाँ उतरकर… नदी तट पर खड़े बड़े से स्टीमर में अभी कोई यात्री नहीं है, किनारे बने खुले रेस्त्रां में एक छोटा सा दल, शायद उसी की प्रतीक्षा में बैठा है… पर हमने आने में देर कर दी है, इस क्रूज़ में हमारे लिए कोई जगह नहीं बची है…धत!! इतना कष्ट उठाने के बाद यह रूखा-सा जवाब … बेमनी से आगे बढ़ते हुए हम नदी के किनारे-बने पथरीले टीले तक आ गए हैं, अब दोबारा सीढ़ियाँ चढ़ने का उत्साह नहीं है| हम वहीं बैठ गए हैं|
धूप पूरी तरह ढल चुकी है| शाम के साँवलेपन की छाया तले बहती वल्तावा, और दूर… दूसरे किनारे पर झिलमिलाती रोशनी में पुराना शहर एक नए आवरण में रूप बदल रहा है| हम जूते-मोज़े उतार वहीं पसर कर बैठ गए हैं….. प्राग में यह हमारी इकलौती, आखिरी शाम है, इस बात पर यकीन करना मुश्किल है| वल्तावा का पानी, जिसे हम बहता हुआ देख रहें हैं आगे निकल जाएगा, पर नदी यहीं रहेगी, ये क्षण भले बीत जाएँगे पर समय के अनवरत प्रवाह में हमारा यहाँ होना बचा रहेगा…हम जब-जब प्राग के मध्य बहती वल्तावा को याद करेंगें तो खुद को इसी किनारे बैठा हुआ पाएँगे… |
(डॉ. रेखा उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। )
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