रिंकू परिहार
उदयपुर. उदयपुर के महाराणा कुंभा संगीत सभागार में 28 दिसम्बर को छठे उदयपुर फिल्म फेस्टिवल का उदघाटन करते हुए युवा फिल्मकार पवन श्रीवास्तव ने सिनेमा माध्यम की महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा कि आज दुर्भाग्य से सिनेमा जैसे माध्यम पर चंद लोगों का कब्जा है जबकि सिनेमा को आम लोगों की समझदारी विकसित करने के लिए बड़े पैमाने पर मुक्त करने की जरूरत है।
उन्होने कहा कि आज बाज़ार – हम क्या खाएं, क्या पहनें ही नहीं बल्कि हम कैसे सपने देखें , यह भी तय कर रहा है. बाज़ार के इसी एकाधिपत्य से मुक्ति के लिए जरूरी है कि सिनेमा जैसे माध्यम को जन सहयोग से बनाने और दिखाने के माध्यम विकसित किए जाएँ. उन्होने कहा कि ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ ऐसा ही मंच है. पवन श्रीवास्तव ने मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा को सिर्फ शहर का सिनेमा कहा जिसमें गाँव और हाशिये का नाममात्र का प्रतिनिधित्त्व है.
पवन श्रीवास्तव की फिल्म ‘ लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट ’ ऐसे ही हाशिये के लोगों की कथा कहने वाली है जिसमें समाज में फैले जातिगत वैषम्य को दिखाया गया है. उद्घाटन समारोह के तत्काल बाद ये फिल्म दिखाई गई. फिल्म के बाद के सवाल-जवाब सत्र में एक दर्शक के सवाल के जवाब में उन्होने मंथरता के आयामों पर चर्चा की। ‘उसने रोज़ गाँव से लखनऊ तक साइकिल से दस किमी की यात्रा की’ यह पढ़ने में सिर्फ एक वाक्य है पर चाक्षुष माध्यम में मंथरता आपको इस दूरी की भीषण यंत्रणा का साक्षात्कार करवाती है.
‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने इस अवसर पर अच्छे सिनेमा को घर-घर पहुँचाने की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ दरअसल आप सबका यानि जनता का ही सिनेमा है. आज का युवा सिर्फ दर्शक नहीं है, सोशल मीडिया के विस्तार और तकनीक की सुलभता के इस दौर में वह प्रतिभागी है या होना चाहता है. यही कारण है कि उदयपुर फिल्म फेस्टिवल में हमेशा युवा वर्ग की सर्वाधिक भागीदारी होती है. ये युवा वे हैं जो एक नए भारत के निर्माण में अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते हैं. ये वे युवा हैं जो समता और प्रेम की नींव पर टिका नया भारत बनाएँगे। उन्होने देश में फैलाई जा रही नफरत और भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं का ज़िक्र करते हुए कहा कि जब मुख्यधारा का मीडिया इनके बारे में चुनी हुई चुप्पियाँ धारण करता है तब नए दस्तावेजी फ़िल्मकार इन कहानियों को कहते हैं. हमारा फेस्टिवल इन्हीं आवाज़ों का प्रतिनिधित्त्व करता है.
उदयपुर फिल्म सोसाइटी की संयोजक रिंकू परिहार ने पिछले छह सालों की यात्रा का संक्षिप्त परिचय देते हुए बताया कि यह फिल्म फेस्टिवल किसी भी स्पांसरशिप को नकारते हुए, सिर्फ जन सहयोग से चलता आया है और आगे भी जारी रहेगा. सह संयोजक एस एन एस जिज्ञासु ने आशा जाहिर की कि अगले तीन दिन फिल्मों पर होने वाली जीवंत बहसें शहर के बौद्धिक वर्ग के लिए एक वैचारिक आलोड़न का कार्य करेंगी. समारोह का संचालन शैलेंद्र प्रताप सिंह भाटी ने किया.
समारोह की दूसरी फिल्म उत्तराखंड की लोकगायिका कबूतरी देवी के जीवन पर केन्द्रित थी. कबूतरी देवी पचास वर्ष पूर्व की बहुचर्चित लोकगायिका थी जो शनैः शनैः गुमनामी के अंधेरे में चली गईं. बीते दशक में उत्तराखंड के कुछ जागरूक संस्कृतिकर्मियों की पहल पर पुनः उनके कार्यक्रम हुए और इस भूली हुई विरासत की ओर लोगों का ध्यान गया. फिल्म के निर्देशक संजय मट्टू ने प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को धन्यवाद देते हुए फिल्म के निर्माण से जुड़े किस्सों दर्शकों से साझा किए. एक युवा ने जब यह सवाल पूछा कि क्या आपको कबूतरी देवी में आत्मविश्वास लगा तो संजय ने पलटकर पूछा कि आपको फिल्म देखकर क्या लगा, जब युवा ने कहा कि कबूतरी देवी का आत्मविश्वास चकित कर देने वाला था तब संजय ने कहा कि इससे यही सीख मिलती है कि साक्षात्कारकर्ता को लोगों के परिवेश से उनके बारे में पूर्व धारणाएँ नहीं बनानी चाहिए।
पहले दिन की दूसरी दस्तावेजी फिल्म फातिमा निज़ारुद्दीन की ‘परमाणु ऊर्जा बहुत ठगनी हम जानी’ का सफल प्रदर्शन हुआ । यह फिल्म देश में चल रहे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों की व्यांग्यात्मक तरीके से समीक्षा करती है। इस फिल्म के बहाने परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल पर दर्शकों के साथ क्रिटिकल बात हुई। राष्ट्र और सुरक्षा की अवधारणा पर भी तीखी बहस हुई ।
समारोह की पहले दिन की अंतिम फिल्म प्रख्यात निर्देशक तपन सिन्हा की क्लासिक फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ थी।
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