भोजपुर की धरती सामंतवाद विरोधी किसान आंदोलन के लिए ख्यात है। वहीं, यह हिंदी कथा जगत में अपनी त्रयी के लिए भी जानी जाती है जो मधुकर सिंह, विजेंद्र अनिल और सुरेश काँटक जैसे कथाकारों से बनती है। ‘एक बनिहार का आत्म निवेदन’ से सुरेश काँटक ने कथा लेखन की शुरुआत की और वर्तमान में वह समाज की विडम्बनाओं व विसंगतियों, धर्म-जाति की विभाजनकारी संस्कृति, जनतंत्र के खोखलेपन तथा लगातार क्रूर, हिंसक और बर्बर होती व्यवस्था के ‘अनावरण’ तक पहुंचा है। ‘अनावरण’ शीर्षक से उनका नया संग्रह है. इनकी कहानियों का खास गुण है कि वे अपने समय के न सिर्फ सवालों से रू ब रू हैं बल्कि जनसंघर्ष की सबसे निच्छल, प्रखर और उच्च धारा से जुड़ती हैं। सुरेश काँटक की वैचारिकी और उनकी कथा-संवेदना इसी से निर्मित और उत्प्रेरित है।
आज कथा साहित्य से किसान, मजदूर, सर्वहारा वर्ग बाहर है या उनकी मात्र औपचारिक उपस्थिति है। वहां भाषा व शिल्प से चमत्कार पैदा करने की कोशिश है और आमतौर पर मध्यवर्गीय जीवन के मनोगत भाव की अभिव्यक्ति मिलती है। यह भूमंडलीकरण का प्रभाव और बाजारवाद का बहाव है कि जन जीवन के यथार्थ से कटी कहानियों की किताब ‘बेस्ट सेलर’ बनाई जा रही हैं। सुरेश काँटक के सृजन की जमीन इससे बिल्कुल अलहदा है। इसके केंद्र में किसान व आम उत्पीड़ित जन का जीवन, कशमकश, जद्दोजहद और आत्मसंघर्ष है। इसमें सामंतवाद व सत्ता विरोधी किसान आंदोलन से पैदा हुई उष्मा है। सुरेश काँटक की विशेषता है कि वे समाज के शोषित-दमित वर्ग के दृष्टि बिंदु से सामाजिक यथार्थ को देखते हैं।
प्रेमचंद के समय में भी किसान का जीवन संकट में था, वह आज भी है बल्कि विकराल हुआ है। यह यथार्थ सुरेश काँटक की कहानियों में सजीव रूप से व्यक्त होता है। ‘धनपत के बैल’, ‘पंचित’, ‘अग्नि-परीक्षा’ आदि ऐसी ही कहानियां हैं। किसान का सपना रहा है कि उसके पास खेत हो, हल-बल-ट्रैक्टर हो, अनाज पर अधिकार हो और खेती के अनुकूल व्यवस्था व वातावरण हो। यह सपना लगातार खण्डित होता गया है। उसे बाप-दादों से विरासत में कर्ज मिला और इसे उतारने में ‘भेड़िये की गुर्राती आवाज…’। यह ‘नई गुलामी’ है। मध्यम किसान की हालत भी खराब है। खेती के सहारे अपने अस्तित्व को बचाना संभव नहीं है। सुरेश काँटक की नजर गांव-देहात में आ रही नई चेतना पर भी है। यह वर्ग जो हमेशा दबा-कुचला रहा है, उसकी गर्दन झुकी रही है। वह सिर उठा रहा है। यह नये परिवर्तन की बयार है। कहानियों में यह द्वन्द्व पूरे आवेग के साथ उभरता है और तार्किक परिणति तक पहुँचता है।
सुरेश कांटक की कहानियां यथार्थ चित्रण से आगे जाती हैं। इनमें जन विरोधी शक्तियों तथा वर्तमान व्यवस्था की शिनाख्त है। ‘बकरी’, ‘अनावरण’, ‘बानगी’ आदि ऐसी कई कहानियां हैं जिनमें प्रतीकों के माध्यम से समय की सच्चाई सामने आती है। यहाँ नया प्रयोग और कहन की नई शैली है। ‘बकरी’ आम जन का प्रतीक है। ‘अनावरण’ में राजा तंत्र का प्रतीक है। ‘राजा’ की नकेल साम्राज्यवादियों के हाथ में है। जिसे विकास और नवउदारवादी व्यवस्था कहा जा रहा है, वह अपने चरित्र में अनुदारवादी और आमजन के लिए विनाशकारी है। विडम्बना है कि इसे ‘राष्ट्रवाद’ और ‘देशभक्ति’ के रूप में परोसा जा रहा है। ‘बकरी’ और ‘अनावरण’ भारतीय जनतंत्र के क्षरण के साथ उसके अनावरण की कथा है। सुरेश काँटक इसके वास्तविक रूप ‘धनतंत्र’ को सामने लाते है और इसके विरुद्ध संघर्ष के विकल्प पर उनका जोर है।
बात अधूरी रहेगी, यदि हम उन कहानियों की चर्चा न करें जो स्त्री जीवन और संघर्ष की है। ‘लाल फीते वाली’, ‘मेरा नाम रश्मि है’ और ‘पैसा’ ऐसी ही कहानियां है जो समाज में फैली अपसंस्कृति विशेष तौर से स्त्री विरोधी मानसिकता को सामने लाती है। इसका कारण पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। सुरेश काँटक औरतों पर होने वाले जुल्म और अत्याचार को विषय-वस्तु बनाते हैं, वहीं, अन्तर में करवट लेती बदलाव की चेतना पर भी उनकी नजर हैं। स्त्री समाज के अन्दर पैदा हो रही सजगता, स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरत और बराबरी की आकांक्षा इन कहानियों में उनके साहस, आत्मबल और प्रतिरोध के रूप में व्यक्त होती है। सुरेश काँटक की विशेषता है कि इनकी कहानियों का अन्त ऐसी चरम स्थिति में होता है जहां पाठक अपने को प्रश्नों के बीच पाता है। जैसे – ‘कहाँ होगी सीता, किस रूप में? किस तरह घुट रही होगी? कैसे मिलेगी उसको मुक्ति रावण के चंगुल से?’, ‘तो फिर क्या सोचते हैं, बकरी की मुक्ति के लिए? जब कानून के सारे दरवाजे बन्द हैं। सब पर धनपतियों का पहरा बैठा है।’ कहानियां फैसला नहीं देती वरन ‘इज्जत, रोटी, आजादी, न्याय-इन्साफ के लिए, हर मुसीबत से लड़ेंगे’ का फैसला लेने के लिए तैयार करती हैं। ये संवाद धर्मी हैं। इनकी भाषा सहज-सरल और संप्रेषणीय है। सुरेश कांटक की कथा-यात्रा का यह विकास है। मार्मिकता और पठनीयता इनकी अन्य विशेषताएं हैं।