समकालीन जनमत
कविता

सुधा उपाध्याय की कविताएँ सत्ता के क्रूर प्रपंचों को उजागर करती हैं

अंशु चौधरी


समकालीन हिंदी कविता परिदृश्य में सुधा उपाध्याय परिचित नाम हैं। वे अपनी रचनाओं में अपनी विशिष्ट रचनात्मक तेवर, भाषा, और नवीन एवं सूक्ष्म दृष्टि की उद्भावना की वजह से विख्यात हैं। अपने समकालीनों से इनका मुहावरा अलग एवं विशिष्ट है और ये अपनी कविताओं में दृश्य-अदृश्य सभी विधान को संवेदनाजन्य और सम्मानजनक रेखांकन के साथ रचनारत होती हैं। इनको अपनी बात रखने के लिए किसी भी किस्म के बनावट अथवा रूढ़ बिम्बों का सहारा नहीं लेना पड़ता है। बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात साफ़-साफ़ कहने में विश्वास रखती हैं। सुस्पष्ट एवं प्रतिबद्ध राजनैतिक समझ के साथ-साथ गहन आलोचनात्मक दृष्टि भी इन रचनाओं में मौजूद है।

आलोचना में भी वे कृति के सौन्दर्य को बगैर नुकसान पहुँचाये रचना के तल तक को उद्घाटित करते हुए वे रचना के मूल स्वर को पकड़ती हैं। वे उन सभी मुद्दों पर आवाज़ उठाती हैं, जिनको तमाम लोग या तो अनदेखा कर देते हैं या उन पर चुप्पी साध लिया करते हैं। इनका सजग रचनाकार मन उन सभी विशिष्टताओं को; जो शिष्ट साहित्य का अभिन्न है; के साथ-साथ उन सभी जन-सामान्य घटनाओं को भी सम्बोधित है जो इनके अन्य समकालीनों के लिए अलक्षित और अलभ्य है। इनकी अनेक ऐसी कविताएँ हैं, जिनको पढ़ने से लगता है मानों हमारे मन की बात शब्दो में उकेर दी गयी हो, उनकी एक कविता इसी सन्दर्भ में है-
रोज़ रोज़ ख़ुद से ही की प्रतिज्ञा तोड़ देती हूँ,
नया, कुछ रचने की इच्छा छोड़ देती हूँ

उनकी यह कविता, हमारे मन में आये उन तमाम ख़यालों का प्रतिरूप है जो शब्दों में नहीं उतर पाते। किस तरह से हमारे ही ख़याल हमें बेचैन करते हैं और एक अजीब सी खलबली हमारे अंदर मचाये रखते हैं, उसे यह कविता बखूबी बताती नज़र आती है। इनकी कविता ‘आओ सुलह कर लें’ जीवन के उन पलों को हमारे सामने लाती हैं, जो हमने बड़े होते-होते काफ़ी पीछे छोड़ दिए होते हैं। उनकी इस कविता में जीवन के ख़ास अनुभवों को उजागर कर, उनके बंधन में फिर से बंध जाने की बात कही गयी है। जीवन में कुछेक बंधन ऐसे होते हैं कि उनमें बंधे रहने को ही जी चाहता रहता है। जैसे—
आओ सुलह कर लें
गहरी साँस भर लें
आओ मिलकर किताबों से धूल झाड़ें,
चलो, फिर से आईने को मुँह चिढ़ाएँ,
**********
गाँव की बूढ़ी अम्मा को सताएँ
आओ न मन को मुक्त करने वाले
उन सभी बंधनों में फिर से जकड़ जाएँ।

एक लेखक जब लिखता है तब उसके पाठक स्त्री और पुरुष दोनों होते हैं। एक स्त्री उन कविताओं को अधिक सहजता, संवेदना और अपनत्व के साथ पढ़ती है। स्त्री-संवेदना से युक्त कविताओं को एक पुरुष को अधिक संवेदना से पढ़ना और समझना चाहिए। पुरुषों को उन कविताओं के तलीय भावों का संज्ञान लेना चाहिए। कुछ कविताओं को अगर विमर्श से हटकर केवल एक व्यक्ति के रूप में देंखे या पढ़ें तो उसकी सुन्दरता और अधिक निखर कर सामने आती हैं।

सुधा उपाध्याय की कविताओं में जितनी सरलता है, उतनी ही गहनता भी मौजूद हैं। इनकी ऐसी ही एक कविता “खानाबदोश औरतें”—
“सावधान…इक्कीसवीं सदी की खानाबदोश औरतें
तलाश रहीं हैं घर,
सुना है वो अब किसी की नहीं सुनती”

सुधा उपाध्याय की कविता “खानाबदोश औरतें” की ये पहली पंक्ति ख़ुद में एक तीखा प्रहार करती है। एक ओर औरतें इक्कीसवीं सदी में आ गई हैं और दूसरी ओर उनका जीवन आज भी खानाबदोश है, और इसीलिए ठीक पहले उन्होंने “सावधान” शब्द का उपयोग किया है। सावधान शब्द शोषणकर्ता और शोषित दोनों को संबोधित करता है, साथ ही इस कविता की दूसरी पंक्ति “तलाश रहीं हैं घर, सुना है वो अब किसी की नहीं सुनती” से खानाबदोश का दूसरा अर्थ यायावर बखूबी देखने को मिलता है।
चीख चीख कर दर्ज करा रही हैं सारे प्रतिरोध,
जिनका पहला प्रेम ही बना आख़िरी दुःख
उनींदी अलमस्ती और
बहुत सारी नींद की गोलियों के बीच
तलाश विहीन वे साथी जो दोस्त बन सकें

एक औरत की चीख पुरुष के चीख से सदैव भिन्न रहती है। इस भिन्नता का अर्थ चीख के समाज में कितनी अहमियत है से जुडती है जो पितृसत्ता समर्थित है। कौन है जो इक्कीसवीं सदी में औरतों की रुकावट, बाधा और तिरस्कार की चीख सुनेगा? आज के समय में जो प्रतिरोध औरतें अपने जीवन में दर्ज करा रहीं हैं उसका निवारण क्या उसके जीवन में आया प्रेमी या पति अथवा कोई अन्य भी उसे दूर कर पाता है या वही उसके जीवन के दुःख का कारण बन जाता है। एक स्त्री के लिए पुरुष से एक साथी अथवा उससे बढ़कर एक संवेदनशील सहयात्री की उम्मीद होती है जहाँ बराबरी हो, निःस्वार्थ भावना हो, प्रेम हो। क्या यह इतना जटिल है कि सहजता की सभी संभावनाएँ शेष नहीं है। अथवा इस चाह के लिए उसे नींद की गोलियाँ खाकर उंघते हुए अपने स्वप्न में तलाशनी है? यहाँ पहला हो या न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। प्रश्न यह है कि प्रेम में स्वाभिमानी स्त्री को आज भी यह समाज कितना कुछ दे पा रहा है। कि उनकी आकांक्षाएँ, उम्मीद भी नीम-बेहोशी में पल रही हैं।

आज नहीं करतीं वे घर के स्वामी का इन्तेजार
सहना चुपचाप रहना कल की बात होगी
जाग गयी है खानाबदोश औरतें अब वे किस्मत को दोष नहीं देतीं
बेटियाँ जनमते जनमते कठुआ गयी है

इक्कीसवीं सदी की औरतें ‘यशोधरा’ नहीं हैं जो बुद्ध के चले जाने के बाद भी उनका इन्तजार करती रहें, न ही वे ‘सीता’ हैं जो चुपचाप रह कर सभी अपवादों को सुन लेंगी। ये सब कल की बातें हैं जो कई युग पुरानी हैं। आज की खानाबदोश औरतें अब अपने जीवन के दुखों का दोष किस्मत को नहीं देती हैं। बल्कि अब वे कठुआ गयी हैं—बेटिया जन्मते-जन्मते। अब उनपर किसी भी दुखों का प्रभाव इतनी आसानी से नहीं पड़ता है।

इनकी कविताओं में केवल दुःख या विमर्श के स्वर ही नहीं दीखते। बल्कि संताप और राजीनीति की आग भी दहकती हुई दिखती हैं। ‘नया साल मुबारक’ के संदर्भ से देखें—

जिस लोकतंत्र में रेंग रहें हों कुपोषित
बच्चे, बूढ़े और स्त्री
वहाँ आने वाला है नया साल।

कविता की आरंभिक पंक्तियाँ ही स्पष्ट कर देती हैं कि किस तरह के व्यंग्य बाणों का इस्तेमाल उनकी कविताओं में अभिव्यंजित होता है। ये कविताएँ एक करारे थप्पड़ की तरह समाज पर टिप्पणी करती हैं। यहाँ व्यंग्य जनता को जागृत करती हैं। लोकतंत्र के हाशिए पर जो पीड़ा और दुःख है उसका वहन समाज का अंतिम जन को ही झेलना पड़ता है, उस अंधकूप को मिटाने की चेष्टा सुधा की कविताओं में साफ़ दिखती हैं। वे उन्हें भी देखती हैं जो केंद्र पर नहीं हाशिए पर घटित होता है। विषयगत विविधता के शोर के बावजूद भी उनकी सम्वेदना शोषित, दमित और अलक्षित रह गए जन के प्रति है।
सुधा उपाध्याय राजनीति के दाँव-पेंच को ही नहीं उसके प्रप्रंच को भी बखूबी जानती हैं। इसलिए सत्ता की क्रूर मानसिकताओं को और लोकतंत्र के फरेब से ढँके उन चेहरों के ढेर में उन वास्तविक चेहरों को भी सामने लाती हैं, जो इस लोकतंत्र में अधिनायक बने हुए हैं।

धन धन धन अधिनायक जय हे
टोपी भाग्य विधाता

इन्होंने देश में फैली गरीबी, भ्रष्टाचार एवं अन्य सामाजिक कुरीतियों पर चोट किया है। वह पूंजीपति वर्ग के शोषण का विरोध करती हैं तथा मजदूरों, किसानों एवम् छात्रों के स्थिति की सच्चाई को उसके सभी आयामों के साथ संवेदना एवं तटस्थता के साथ समाज के सामने रखती हैं—
कैसी विडम्बना है…
जो रोज रोज मरते हैं,
उन्हें कानून भी खुद से मरने की इजाजत नहीं देता
मगर हत्यारे घूमते हैं खुलेआम

सुधा उपाध्याय की कविता अपने समय और समाज की विसंगतियों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं। ये सत्ता-पक्ष की क्रूरता से नहीं सहमती हैं, उनके आगे घुटने नहीं टेकती बल्कि उतनी ही मुखरता से उनसे प्रतिकार करती हैं। ये सोये हुए, डरे हुए जनता में सांस फूंकने का काम करती हैं। ये कविताएँ सत्ता से सामना करने के लिए साहस प्रदान करती हैं—

बहुत हो चुका कागज़ कलम का खेल
बहुत बैठाई हमने जुबानी कठबैती
बहुत सारी क्रांतियाँ तो कहासुनी में हो गई दफन
अब पेंसिलों की धार बनाने से पहले
हंसिये की धार बनानी होगी
दिमाग चलाने के साथ, चलाने होंगे हाथ
दूसरों को कहने से पहले
अब दिखाना होगा खुद करके

इसके अलावा सुधा अपनी कविता ‘शिक्षा बोले तो खल्लास’ में जीवन के उन पक्षों की सच्चाई को उजागर करती हैं, जो विषयगत दृष्टि से बहुत हद तक आमफहम है किन्तु इनकी भूमिका जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण, गहन और कीमती है। सुधा जीवन की इन सभी विशिष्टताओं एवं वैविध्य को रचती चलती हैं।

जिन्होंने लोरियों के स्थान पर
सुनी हों माँ-बाप की बहसें
रिश्तों की परवरिश से पहले
सुनी हो सिक्कों की खनक
छोटी-छोटी चीज़ों की कीमत
वे कैसे समझें

वास्तविकता के धरातल पर उगी यह कविता बहुत ही प्रभावपूर्ण है जो जीवन-यात्रा में मनुष्यों, सम्बन्धों, सहजीविता, नैतिक-मूल्यों, चीजों की मूल्यवत्ता और मूल्यहीनता इत्यादि को रेखांकित करती है।
सुधा उपाध्याय की कविताओं का वैशिष्ट्य है कि वे जितनी क्रोधित हैं अपने समय की विसंगतियों पर उतनी ही उनका ह्रदय समय की बेचैनियों, विसंगतियों पर ममत्व से भरा हुआ है। ये कविताएँ आग के सामने आग हैं और पानी के सामने पानी। इन कविताओं का दोनों पर सामान अधिकार हैं। ये तनने का विवेक और झुक कर अपना लेने के ममतालु स्पर्श से परिचित कविताएँ हैं। यह जितनी तीक्ष्ण दृष्टि से राजनितिक मुद्दों को देखती हैं उतनी ही सरल एवं सहज दृष्टि से प्रेम और जीवन को भी। इन कविताओं में जीवन के सभी रंग है। सहजीविता, प्रेम, ममत्व तो है ही तेज, औदार्य, साहस, विवेक और संघर्ष भी है। सुधा उपाध्याय की कविताएँ प्रेम की चाशनी में पगी भी है और जीवन के ताप में तपी हुई भी है।

 

सुधा उपाध्याय की कविताएँ

1. औरत

औरत
तूने कभी सोचा है
जिस परिधि ने तुझको घेर रखा है
उसकी केंद्र बिंदु तो तू ही है
तू कहे अनकहे का हिसाब मत रख
किए न किए कि शिकायत भी मत कर
तू धरा है धारण कर
दरक मत
तू परिधि से नहीं
परिधि तुझसे है

 

2. चिल्लर

समेट रही हूं
लंबे अरसे से
उन बड़ी-बड़ी बातों को
जिन्हें मेरे आत्मीयजनों
ठुकरा दिया छोटा कहकर।
डाल रही हूं गुल्लक में
इसी उम्मीद से
क्या पता एक दिन
यही छोटी-छोटी बातें
बड़ा साथ दे जाए
गाहे बगाहे चोरी चुपके
उन्हें खनखनाकर तसल्ली कर लेती हूं कि
जब कोई नहीं होगा आसपास
तब यही चिल्लर काम आएंगे।

 

3. टोपी भाग्य विधाता

धन धन धन अधिनायक जय हे
टोपी भाग्य विधाता …
यही स्वर अब सब जगह गूँजेगा
क्योंकि गली नुक्कड़ चौराहों पर बिक रही हैं टोपियाँ
न बेचने वालों को इसका मोल पता है
न ही खरीदने वालों को इसका भाव
फिर भी टोपियाँ पहनी ही नहीं पहनाई भी जा रही हैं
अब देशभक्त पैदा ही कहाँ होते हैं
इसलिए टोपी पहनकर बनाये जा रहे हैं देशभक्त
सब लाचार हैं इन्हीं टोपियों के तले
और भूलते जा रहे हैं राष्ट्रगीत
देश समय समाज भूलकर गाओ मेरे साथ
धन धन धन अधिनायक जय हे
टोपी भाग्य विधाता।

 

4. सच की हत्या

अब जबकि
हर बात के निकाले जाते हैं
कई मायने
हर बात के पीछे मंशा
और आगे जोड़ा जाता है स्वार्थ
ऐसे में कठिन है कही गई बात का
वैसे ही स्वीकृत होना,
हालात के साथ
आदमी बने रहना,
और सच के तमाम प्रयोगों पर
लंबी दूरी तक चल
एक समय ऐसा आएगा
मेरे बच्चे ही
गलत को सही समझना
समय की ज़रूरत बताएँगे।

 

5. मृगमरीचिका

महत्वाकांक्षाएँ
कर देती हैं आत्मकेंद्रित
मार देती हैं भीतर की सद्भावना
दुख सुख भी सहज होकर नहीं बाँट पाते
मृगमरीचिका सी स्वर्ग की सीढ़ियाँ चढ़ते
छूट जाते हैं बचपन के संगी साथी
जवानी का घर परिवार
बुढ़ापे में बाल बच्चे।
गहरी यंत्रणा की इन घड़ियों में
बदहवास भागते
हम समझ ही नहीं पाते
इस महत्वाकांक्षा को पालने पोसने में
हमें किस-किस की बलि चढ़ानी पड़ी।

 

6. हँसिए की धार

बहुत हो चुका कागज कलम का खेल
बहुत बैठाई हमने जुबानी कठबैती
बहुत सारी क्रांतियाँ तो कहासुनी में हो गई दफन
अब पेंसिलों की धार बनाने से पहले
हँसिए की धार बनानी होगी
दिमाग चलाने के साथ, चलाने होंगे हाथ
दूसरों को कहने से पहले
अब दिखाना होगा खुद करके।

 

7. बंधन

कई महीन धागों से बँधा है
जीवन
बचपन, संस्कार, परिवर्तन, परिपक्वता
और इन सबसे कहीं बढ़कर
खुद को टटोलने की अदम्य इच्छा
जब-जब खोजने निकलती है।
वह खुद को
बार-बार उलझती है उन्हीं धागों में
बेटी, बहन, पत्नी और माँ के
महीन धागे आपस में उलझे हैं
सुलझाने की कोशिश में
टूटने लगते हैं
क्या कभी वह खोज पाएगी
उस औरत को
जो इन बंधनों से अलग है।

 

8. कलातंत्र और लोक

अन्ना अफसोस है मुझे
तुम्हारी आवाज़ में आवाज़ शामिल नहीं कर पाया
आज़ादी की तुम्हारी दूसरी लड़ाई में
मैं ताउम्र जूझता रहा
आज़ादी की पहली लड़ाई में
उलझा रहा कलातंत्र और लोक को समझने में
पार पाना चाहा
डाल दिया मकबूल पर दलदल
जितना उठता उससे ज्यादा धँसता गया
और मैं फिदा हो गया
हुसैन नाउम्मीद नहीं हुआ
आज़ादी को लेकर।

 

9. क्यों करती हो वाद-विवाद

क्यों करती हो वाद-विवाद
बैठती हो स्त्री विमर्श लेकर
जबकि लुभाते हैं तुम्हें
पुरुषतंत्र के सारे सौंदर्य उपमान
सौंदर्य प्रसाधन, सौंदर्य सूचक संबोधन
जबकि वे क्षीण करते हैं
तुम्हारे स्त्रीत्व को
हत्यारे हैं भीतरी सुंदरता के
घातक हैं प्रतिशोध के लिए।
फिर क्यों करती हो वाद-विवाद।

 

10.आभार

उन सबका आभार
जिनके नागपाश में बंधते ही
यातना ने मुझे रचनात्मक बनाया।
आभार उनका भी
जिनकी कुटिल चालें
चक्रव्यूह ने मुझे जमाने का चलन सीखाया।
उनका भी ह्दय से आभार
जिनके घात प्रतिघात
छल छद्म के संसार में
मैं घंटे की तरह बजती रही।
मेरे आत्मीय शत्रु
तुमने तो वह सबकुछ दिया
जो मेरे अपने भी न दे सके।
तुम्हारे असहयोग ने
धीमे-धीमे ही सही
मेरे भीतर के कायर को मार दिया।

 

प्रो. सुधा उपाध्याय
दिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में महिला विकास केंद्र के लिए सक्रिय भूमिका। विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित और कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताएँ प्रकाशित।

कविता संग्रह- -‘इसलिए कहूँगी मैं’-राधाकृष्ण प्रकाशन-2013
-‘बोलती चुप्पी’-राधाकृष्ण प्रकाशन-2008आलोचना- – पाठ-पुनर्पाठ (के बी एस प्रकाशन)-2017- औपन्यासिक चरित्रों में वर्चस्व की राजनीति :छठवें दशक के बाद(साहित्य संचय प्रकाशन)-2014. महत्वपूर्ण कविता संकलनों में कविताएँ प्रकाशित-‘स्त्री होकर सवाल करती हो’(बोधि प्रकाशन)‘ यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री’(लोकमित्र प्रकाशन) ‘हिन्दी की चर्चित कवयित्रियाँ’ (कलावती प्रकाशन)

शिक्षा-बीए, एम ए(स्वर्ण पदक), एम.फिल, पीएचडी-दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्प्रति-असोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज(दिल्ली विश्वविद्यालय)
संपर्क- +919971816506

टिप्पणीकार अंशु चौधरी दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं और जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद हैं। सम्प्रति: प्रभाकर प्रकाशन में कार्यरत हैं। सम्पर्क: 9818863365

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