समकालीन जनमत
कहानी

एक राजा था जो सीताफल से डरता था: प्रवीण कुमार

योगेंद्र आहूजा


हिंदी कहानी के लिये पिछले तीन दशक रोमांचक रहे हैं । इस दौरान कहानी की दुनिया में ऐसी खलबली, उत्तेजना और बेचैनी देखी गयी जो शायद अभूतपूर्व थी।

इसी अरसे में हमारा समकाल और जीवन जटिलतर, भयावहतर होते गये । यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। दुनिया अधिकाधिक आशाहीन, हिंसक और क्रूर होती जाती है, सचाई, मुक्तिबोध के शब्दों में, ‘‘विराट झूठ के अनंत छंद सी’’।

अब यह रोज का सिलसिला है कि कुछ ऐसा घटता है जो हमें चिंतित, उदास और विक्षुब्ध करता है । संचालक ताकतों के पास अब विराट ताकत है, वे हर पल, हर घड़ी एक छद्म चेतना गढ़ रही हैं।

सत्तानुमोदित ‘उत्तर सत्यों’ ने हमें चारों ओर से घेर लिया है । लेकिन इन प्रतिकूलताओं के बीच और बावजूद हिंदी की कहानी निरंतर गतिमान है । अपने वक्त से उसकी मुठभेड़ लगातार जारी है।

वह न पीछे हटी है न शिथिल हुई है । हिंदी के युवतम कथाकारों में प्रवीण कुमार ने पिछले कुछ वर्षों  में अपनी कहानियों से एक विलक्षण पहचान बनायी है । उनकी कथाभाषा, कहन का अंदाज, दृश्यों का रचाव, कहानी का कुल ताना बाना सब कुछ नया, निजी, नवोन्मेषी  जान पड़ता है।

लेकिन उनकी कहानियों का असली महत्व तो उस विश्लेषणात्मक चेतना में है जो कथा और विवरणों  के पीछे हमेशा सक्रिय रहती है।

वस्तु और शिल्प के इलाकों में प्रचलित सरलीकरणों की चपेट में आये बिना वे जिस तरह समय की धड़कनें दर्ज करते, समकालीन राजनीति और विसंगतियों की एक मर्मी आलोचना करते हैं, वह देखने की चीज है । ‘वर्तुक’ नाम के एक नगर में एक पारदर्शी राजमहल में रहने और कददू (सीताफल) से डरने वाले राजा ‘प्रजाप्रिय’ की यह रोचक कहानी भी उनकी इसी सामर्थ्य का सबूत है।

आइए पढ़ते हैं कहानी

एक राजा था जो सीताफल से डरता था

कहते हैं कि उस राजा के नगर जैसा नगर दसों दिशा ,आठों कोण और चौदहों भुवन में कहीं नहीं था . उस राजा के शासन में रातभर धूप खिली रहती थी . रात में धूप इतनी खिली रहती कि छाया का नामोनिशान नहीं मिलता .दिन के उजाले में तो कभी कोई छाया दिख भी जाती पर रात में तो वह ढूंढे भी नहीं मिलती. लोग हमेशा ही काम करते हुए मिलते . जिसका जो भी पेशा रहता वह उसमें अथक जुनून से डूबा रहता . तमाम तरह की दुकानें आठों पहर खुली रहतीं.बहुत दूर-दूर के व्यापारी व्यापार करने आते और बेशकीमती चीज़ें ख़रीदते-बेचते .यहाँ तक कि जिन्हें अजीबोग़रीब चीज़ों की ख़रीद-फरोख्त करनी होती वे भी चुपचाप अपना काम बड़ी शालीनता से कर जाते ,कभी कोई शोरगुल नहीं सुना गया . बाज़ार हमेशा गुलज़ार रहता था. व्यापारियों के साथ-साथ देश-विदेश के जादूगर ,नर्तक ,कलाकार , करतबबाज़ , आतिशबाज़ और मसखरे आते और लोगों का भरपूर मनोरंजन करते रहते . आतिशबाजियां अक्सर औचक होतीं रहतीं . उस राज्य में कला और संगीत के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ था .लोग उस दौर को कला और संगीत का स्वर्णयुग कहते . सितारवादन का तो चरम विकास हुआ था .नगर के किसी भी सितारवादक से कोई भी बाहरी मुकाबला नहीं कर सकता था . घर-घर में सितार था.गन्धर्व कुमार इस नगर के सबसे बड़े सितारवादक थे . यह उन्हीं की ख्याति का परिणाम था कि सितार एक उद्योग में तब्दील हो गया था . बहुत दूर-दूर के सौदागर इसे खरीदने आते . प्रजा ख़ूब मनोरंजन-प्रिय थी. लोग कहते हैं कि उस नगर की प्रजा के सुख का मुकाबला समस्त भूमंडल की सभ्यताएं एक साथ मिलकर भी नहीं कर सकती थीं .
क्योंकि राजा भी मन से प्रजाप्रिय थे , और हो भी क्यों न ? कई दशकों से वे इस नगर पर निष्कंट शासन करते आये थे . राजा ने प्रजा का और प्रजा ने राजा का कई-कई बार अग्नि-परीक्षाओं में साथ दिया था .आज यह नगर जिस ऐश्वर्य से जगमग कर रहा था उसके पीछे राजा का ही अथक परिश्रम रहा जिसकी साक्षी ख़ुद प्रजा थी . नहीं तो विरासत में राजा को मिला ही क्या था ? एक टूटाफूटा जर्जर और असुरक्षित राज्य !! राजा ने अपनी जवानी में सत्ता संभालते ही आमूलचूल परिवर्तन शुरू कर दिया था . उन्होंने कई साल तक दिनरात मेहनत की और देखते ही देखते यह समूचा ‘राज्य’ एक आलीशान ‘नगर’ में बदल गया .कालांतर में ‘राज्य’ जैसे घिसेपिटे शब्द को शब्दकोष से बाहर फेंक दिया गया और उसके समांतर ‘नगर’ जैसे चमकदार और जोशीले शब्द ने जगह बना ली . अब इस राज्य को कोई राज्य नहीं कहता , सब इसे नगर कहते हैं .इस नगर का पुराना नाम वर्तुल था .
वर्तुल के इस राजा की अथक मेहनत और प्रजाप्रियता के क़िस्से दूर दूर तक यश फैला रहे थे . हाल ही में राजा ने ‘प्रजाप्रिय’ की उपाधि धारण की थी.समूचे नगर में डुगडुगी पिटवा कर यह राजकीय घोषणा कर दी गई थी कि अब भविष्य में राजा जी को केवल ‘प्रजाप्रिय’ के नाम से पुकारा जायेगा . घोषणा में इस बात की ताकीद भी की गई कि जो भी प्रजाप्रिय को राजा , महाराजा ,राजाधिराज , भूमिपति, अधिपति या अन्य किसी नाम से पुकारेगा वह महादंड का भागी बनेगा . उस राज्य में बस एक ही चीज कठोर थी -महादंड . सामान्य दंडों का वहां कोई प्रावधान न था . किसी भी प्रकार के अपराध का एकमात्र दंड बस यही था. न्यायप्रिय राजा औचक नगर-भ्रमण किया करते . ऐसा वे कई दशकों से करते आ रहे थे . राजा के बारे में यह बात सरेआम थी कि वह ना थकते हैं और ना सोते हैं . प्रायः प्रजा राजा के औचक नगर-भ्रमण की बाट जोहती थी.बाट जोहने की एक और बड़ी वजह थी. वैसे यह वजह बहुत जानी हुई और राजा के युवा अवस्था से चली आ रही थी .
इसकी भी एक कहानी है . तब नगर के हालात आज की तरह रोशन ना थे . कई वर्षों का अकाल पड़ा था , देखते देखते एक बड़ी आबादी को काल निगल गया . खाद्यान का संकट गहराता गया , कर्मचारियों की तनख्वाह महीनों रुकी रही , नागरिकों तक में भ्रष्ट-आचरण इतनी बलवती हो गई कि आज कोई उसकी चर्चा भी नहीं करना चाहेगा .और ऐसे कठिन समय में पुराने राजा का हृदयाघात हो गया . तब प्रजाप्रिय ने गद्दी संभाली . उन्होंने ख़ूब मेहनत की . कुछ अरसा बीता तो तमाम तरह के संकटों को झेलते हुए राज्य की गाड़ी कुछ पटरी पर लौटने लगी . पर हालात पूरी तरह नहीं सुधरे .प्रजा की दरिद्रता सुरसा का मुंह बनी हुई थी. इसी बीच दूर-दूर के व्यापारी जत्थे के जत्थे राजा से मिलते रहते .कई-कई पहर तक मंत्रणा चलती. कुछ बड़े व्यापारियों और श्रेष्ठियों ने राजा की व्यक्तिगत मदद की . कुछ ने राजकोषीय घाटा कम करने में सहयोग दिया .बदले में राजा ने उनमें से चुनिंदा व्यापारियों के लिए ‘राज्य’ का पश्चिमी द्वार आंशिक रूप से मामूली कराधान के साथ खोल दिया . तब भी राज्य ‘नगर’ का रूप नहीं ले रहा था . आख़िरकार प्रजाप्रिय ने एक दिन बड़े बड़े देशी-विदेशी व्यापारियों की एक महा-बैठक की घोषणा की . बैठक एक मास तक चली.इसी दौरान प्रजाप्रिय दो बार दूर देश की यात्रा भी कर आये और फिर बैठक की .वह बैठक भी कई दिनों तक चली .उस मंत्रणा के बारे में आजतक कोई कुछ भी नहीं जान पाया . प्रजा को इस दौरान बस यही बताया जा रहा था कि कुछ ऐसा बदलेगा जो इतिहास में कभी संभव नहीं हुआ था . इससे ज्यादा प्रजा कुछ नहीं जान पाई सिवाय इसके कि उस मंत्रणा के तुरत बाद राजमहल में सूर्य उपासना के लिए इक्कीस दिन का अनुष्ठान किया गया और बाईसवे दिन सूर्य को राष्ट्र-देवता घोषित करते हुए उसकी पूजा प्रत्येक नागरिक के लिए अनिवार्य कर दी गई .
इसी बीच प्रजा ने अचानक एक दिन सैकड़ों डुगडुगियों की आवाज सुनी , आवाज़ राजमहल के मुख्य द्वार से आ रही थी ” सुनो सुनो सुनो …प्रजाप्रिय ने एक सपना देखा है… सुनो सुनो सुनो !!” उस घोषणा में राजा द्वारा देखे गए स्वप्न और उस स्वप्न पर कुलगुरु वान्दीक की व्याख्या अब तो प्रजा को जुबानी याद है. कहा जाता है कि राजा ने सपने में एक बहुत ही काले आदमी को देखा जिसके हाथ में वज्र था और वह राजा के सीने पर पाँव रखकर बार बार चीख़ रहा था ‘तीन द्वार ..तीन द्वार …तीन द्वार’. जब राजा घबराकर स्वप्न से जगे तो तुरत कुलगुरु वान्दीक को बुलाया और सपने का रहस्य पूछा . कुलगुरु ने बहुत सोचने के बाद बताया कि इस राज्य पर शनि का प्रकोप था . शनि ने यहाँ सात साल राज किया है , बस अब छः माह बच गए हैं . साढ़ेसाती पूरी होने वाली है ,अतः शनि अब राज्य छोड़ना चाहते हैं. लेकिन जिन दरवाजों से उन्हें जाना है वह बंद पड़ा है , इसलिए राज्य के शेष तीनों सिंहद्वार भी खोलने होंगे . देखते देखते पूर्व , उत्तर और दक्षिण तीनों दिशाओं के दरवाजे पूर्णतः खोल दिए गए . पश्चिमी -द्वार आंशिक रूप से बहुत पहले ही खुल गया था, अब वह पूर्णतः खोल दिया गया .लोगों का मानना है कि जाते जाते शनि ने फिर राजा को स्वप्न दिखाया ‘ जा ! तू और तेरी प्रजा दिन और रात के भेद से मुक्त होंगे, सूर्य -अनुष्ठान कर !!”
फिर वह इक्कीस दिन वाला अनुष्ठान हुआ था जिसका रहस्य नागरिक बाद में जान पाए और उन्होंने मन ही मन राजा के दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया .इधर स्वप्न की बहुत सारी बातें धीरे धीरे सच सिद्ध होने लगीं . चारों सिंहद्वारों के खुल जाने से एक और फायदा हुआ . वहां से जत्थे के जत्थे व्यापारी आने लगे . वे इधर व्यापर करते और उधर से निकल जाते .उनकी रोकटोक की मनाही थी. ऐसे में बस नगर की सुरक्षा के लिए प्रहरियों की संख्या दुगनी कर दी गई . देखते देखते राज्य रंगबिरंगे सामान और व्यापरियों से भरने लगा . हाट-बाज़ारों की रोशनी से नगर जगमग करने लगा . फिर भी राजा को ये रोशनियाँ संतुष्ट ना कर पाईं .आधी रात होते होते शहर की सारी रोशनियाँ मंद पड़ जातीं और नगर थक कर सो जाता . पूरी रात प्रहरियों के सिवाय केवल प्रजाप्रिय जगे रहते . उनके बेचैन पैरों की आहट रात के सन्नाटे में पूरे राजमहल में सुनी जातीं . वैसे तो वे कभी नहीं थकते-सोते थे पर रात के सन्नाटे में उनकी बेचैन पदचाप की ध्वनियाँ हालफिलहाल में बहुत बढ़ गई थीं. उन्हें किसी चीज का बेसब्री से इन्तजार था . वह घड़ी बहुत पास आती जा रही थी . वे उस क्षण के इंतजार में थे जब पूरा नगर ही नहीं ब्रह्मांड हतप्रभ होने वाला था . कई महीनों तक चली उनकी साधना सफल होनेवाली थी ,बस नागरिक मन से सूर्य उपासना करते रहे . शनि का दिया हुआ वरदान ख़ाली नहीं जा सकता था .

१- पञ्चांग में स्थित सूर्य
और एक रात सैकड़ों शंखनादों के बीच हज़ारों सूरज वर्तुल के आसमान पर उग आये . प्रजाप्रिय की साधना सफल हुई .कहते हैं कि उन रोशनियों से यम ,देवता , दानव ,मानव ,राक्षस ,किन्नर और पशु-पक्षी सब के सब चकित हो गए .प्रजाप्रिय ने एक जयघोष के साथ ख़ुद उन सूर्यों की सांकेतिक परिक्रमा की . रोशनियों ने दिन और रात के सारे भेद मिटा डाले . घर घर में शनि और सूर्य की मूर्तियाँ स्थापित होने लगीं , उनके नाम पर यज्ञ होने लगे .अब नगर की प्रजा अँधेरे के मातहत नहीं थीं .व्यापर चौगुनी गति से फलने लगा . दूर-दूर के व्यापारी अपने अपने राज्यों से दिन में चलते या रात में , इस नगर में वे हमेशा उजाला पाते थे.इस दौरान बस एक ही दुखद घटना घटी . कुलगुरु वान्दीक नहीं रहे .प्रजा के कल्याण हेतु उन्होंने शनि को अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी . कहते हैं कि राजा नहीं चाहते थे कि कुलगुरु यह काम करें . प्रजाप्रिय ने बहुत मिन्नत भी की थी पर कुलगुरु नहीं मानें . बोले कि “बलि के लिए शुद्धता चाहिए , नहीं तो शनि लौट भी सकते हैं.” प्रजा के कल्याण हेतु एक महात्मा ने ख़ुद की बलि दे दी . प्रजा ने वान्दीक को प्रजा-पिता का दर्ज़ा दिया . शोकाकुल प्रजाप्रिय ने इक्कीस दिन का उपवास रख लिया .
फिर भी प्रजाप्रिय की परीक्षा थी कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी . भाग्यदेवी ने उनके हिस्से में नींद पहले ही नहीं लिख रखी थी ऊपर से नगर में नित नयी समस्याएं उठ जातीं. कहते हैं कि जब नगर में रात और दिन का भेद ख़त्म हुआ तो प्रजा में ख़ुशी की लहर दौड़ गई . पर कई बार कुछ मूर्ख नागरिकों ने दिन को रात और रात को दिन कहना शुरू कर दिया . प्रजाप्रिय ने महादंड के भय का उपयोग किए बिना ही इस विपत्ति का नाश तो करवा दिया पर असली चुनौती प्रकृति से थी .इसकी वजह से सोने और जागने का एक संकट अब भी बना हुआ था . पशु और पक्षी अपनी नैसर्गिक हरकतों से रात और दिन का भेद बनाये रहते थे . इससे व्यापार में बाधा आती . कुछ दुकानें बंद हो जातीं तो कुछ खुली रहतीं . बाहर के कई व्यापरी जल्दी में होते और बंद दुकानों से निराश होकर लौट जाते. प्रजाप्रिय ने एक राजकीय निर्देश ज़ारी कर दुकानों को हमेशा के लिए खुला रखने का आदेश दे डाला . यह बात सभी जानते थे कि प्रजाप्रिय ना थकते थे और ना सोते थे . इस बात का एक हल्का नैतिक दबाव प्रजा के सिर पर हमेशा बना रहता था इसलिए प्रजा ने इस निर्देश को सहर्ष स्वीकार किया .वर्तुल में सोने की मनाही नहीं थी , जब जिसे जहाँ नींद आती वह रोशनियों के बीच कहीं भी आँख पर पट्टी बाँधकर सो जाता था .वैसे भी यहाँ की प्रजा अब कम ही सोती थी , उसे जब नींद आती थी तब वह मनोरंजन में शामिल हो जाती थी या मेला चली जाती थी जहाँ जादूगरी और करतबबाजी जैसी चीजें होती रहती थीं . उनके विशेष आकर्षण का केंद्र मसखरे और भांड होते . प्रजा मनोरंजन करती और जगी रहती . आराम को उस नगर में अब थोड़ी हिक़ारत की नज़र से देखा जाने लगा था.यहाँ तक कि यहाँ आनेवाले व्यापारी भी आराम करने और सोने से भरसक परहेज करते . लेकिन नैसर्गिक आदतें जल्दी नहीं बदलतीं . दिन और रात के भेद से पशु रंभाने लगते और पक्षियों के चहचह से आसमान गूंज उठता . इसका असर निःसंदेह प्रजा और व्यापर पर पड़ता रहता .तब प्रजाप्रिय ने जन कल्याण हेतु हृदय कठोर करके दो बड़ी घोषणायें कीं . इन घोषणाओं के पहले राजमहल में एक दिव्य शांति अनुष्ठान किया गया और दसों विकारों की काल्पनिक बलि दी गई . कहते हैं कि इस बलि के अगले पहर दूर देश के सैकड़ों व्यापारी जत्थे के जत्थे नगर में प्रवेश कर गए .
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दरअसल हुआ यह था कि व्यापारियों और श्रेष्ठियों ने प्रजाप्रिय के आग्रह पर दूर देश से कुछ ऐसी औषधियाँ मंगवाई जिन्हें पिलाने से पशुओं को आवाज़ ही ख़त्म हो जाती थी . औषधि महँगी थी परन्तु प्रजा-कल्याण जहाँ लक्ष्य हो वहां राजकोषीय घाटा नहीं देखा जाता और फिर देखते ही देखते नगर के सभी पशुओं की जिह्वा पर वह औषधि विदेशी व्यापारियों ने मल दी . इस पूरी प्रक्रिया को महामंत्री के संरक्षण में पूरा किया गया .वैसे भी उन पशुओं की आवाज़ का कोई वाणिज्यिक-मूल्य नहीं था . हालाँकि इससे पहले पहल तो पशुधन की कुछ क्षति हुई और कई मवेशी मरने लगे . पर इस समस्या का भी राजकीय-युक्ति से हल निकाल दिया गया और कर-विहीन चमड़ा व्यापार के लिए राजकीय-ऋण की व्यवस्था की गई . इधर नवजात पशुओं की भी जिह्वा पर भी यह औषधि मली जाने लगी और देखते ही देखते नगर के वे पशु दिन और रात के भेद से कम से कम ध्वनि के स्तर पर मुक्त होकर अनुकूलित हो गए . फिर ऐसे तमाम आवारा पशुओं को नगर-बदर कर दिया गया जिनका किसी भी हाल में कोई उपयोग ना था . राज्य से नगर बनने के क्रम में जंगलों को पहले ही प्रजा-कल्याण हेतु हाटों में बदल दिया गया था अतः जंगली जानवरों की कोई समस्या ना थी.केवल गिलहरी ,सांप ,चूहे और नेवले जैसे अनेक छोटे जीव ही बच गए थे जिनकी ध्वनियों का रातदिन से कोई बाबस्ता ना था . मेंढ़कों को छोड़ दिया गया क्योंकि उनकी धर पकड़ किसी भी सूरत में संभव न थी; वैसे भी वे केवल बरसात के आगमन की सूचना देते थे .
पर राजकीय आदेश को सबसे ज्यादा चुनौती पक्षियों के प्रातः कलरव से मिल रही थी . सबसे पहले तो नगर में कुक्कुट-पालन प्रतिबंधित किया गया. कुक्कुट दिन और रात के सबसे बड़े भेदिय थे . फिर शेष पक्षियों की बारी आई . पर यह छोटा और आसन काम न था .उनकी भी बड़े पैमाने पर राजकीय नीलामी हुई .इस काम में सभी देशी-विदेशी व्यापारी शामिल किये गए . यहाँ तक कि नगर के कई नागरिकों ने स्वेच्छा से सहयोग दिया . नगर में पक्षियों की संख्या असंख्य थी जो हज़ारों-लाखों पेड़ों , कंदराओं ,अटारियों और लोगों के घरों तक में फैले हुए थे . पर प्रजाप्रिय क्रूर ना थे .उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि केवल वही पक्षी पकडे जाएँ जो दिन और रात का भेद पैदा करते हुए नगर को संकट में डालते हैं . तब बहेलियों की चौरासी फ़ौजें बनाई गई . बहुत सारे बहेलिये भी बाहर देश से बुलाये गए जो पक्षी पकड़ने का नायाब यंत्र साथ लाये थे.चमगादड़ , टिटहरी ,तोता, मैना ,बगुलों,गौरैय्या,कोयलों और कौव्वों की विशेष रूप से खोज हुई . पूरी प्रक्रिया महीनों चली . जो पक्षी पकड़ में ना आये उन्हें उड़ा उड़ा कर नगर-बदर किया गया . अब बाग़-बगीचों पर ही नहीं बल्कि नगर के बाहरी परकोटों और सिंहद्वारों पर भी सैकड़ों की संख्या में नायाब यंत्रों से लैस बहेलियों का कड़ा पहरा बैठाया गया.चुन चुन कर निशाना साधा गया . बैलगाड़ियों ,ऊँटों ,घोड़ों ,खच्चरों और हाथियों तक पर लाद लाद कर व्यापारी चिड़िया-चुरुंग ले गए .हालाँकि झींगुरों की समस्या बराबर बनी रहती पर समय समय पर खेतों के बचे डंठलों में आग लगा कर उन्हें नियंत्रित भी किया जाता और पुराने और सड़ रहे पेड़ों को फ़ौरन काट दिया गया. इन तमाम घटनाओं से वैसे तो राजा और प्रजा का मन कुछ न कुछ ज़रूर दुखा होगा पर नगर-कल्याण हेतु बस यही उपाय था . नागरिकों की सम्पन्नता अधिकाधिक होती चली गई तो उनका विषाद भी जाता रहा . पक्षियों के बदले स्वर्ण-मुद्राओं की चमक ने इस बात की ओर ध्यान ही नहीं जाने दिया कि धीरे-धीरे पक्षियों के सभी कलरव मंद पड़कर एकदम ख़त्म हो गए . नगर की सम्पति में बेहिसाब वृद्धि हुई और नगर की ख्याति भूमंडल के सभी हिस्सों में फ़ैल गई . इसी बीच प्रजाप्रिय ने अपनी निजी सम्पति ख़र्च करके लाल ,पीले ,हरे ,सुरमई अनेक टहकते रंगों के पक्षियों का जोड़ा बहुत दूर देश से मँगवाया और एक-एक जोड़ा प्रत्येक घर को निःशुल्क भेंट किया. इन जोड़ों की दो बड़ी ख़ूबियाँ थीं . एक तो ये जोड़े प्रजननहीन थे पर आठों पहर फुदकते रहते थे और दूसरे कि ये मल-त्याग नहीं करते थे . इनकी एक विशेषता यह भी थी कि प्रजाप्रिय के आगमन के ठीक पहले ये ज़ोर ज़ोर से चहकने लगते थे .इनके कलरव से घर-आंगन , धरती-आकाश ,नगर का कोना कोना गुंजायमान हो उठता था . नगर की नयी संतानों को ये पक्षी बहुत पसंद थे.
समय बीतता गया पर प्रजाप्रिय इससे भी संतुष्ट ना थे .वे अफ़वाहों से बेहद घृणा करते थे . नगर की बढ़ती समृद्धि से कई दुश्मन देश के राजाओं के आँखों में लालच उतर आया था . नगर नए समय में प्रवेश कर चुका था और एक हल्की-सी झूठी अफ़वाह पूरी नगर-व्यवस्था के चरमराने का खतरा पैदा कर सकती थी और ऐसे में अर्थ-संकट फिर गहराने लगता . राजा और प्रजा ग़रीबी से बहुत घबराते थे. अब ज़रूरत थी कि नगर को हर मामले में शेष सृष्टि के बचे हुए सांसारिक नियमों से अलग कर दिया जाए .इसलिए प्रजाप्रिय ने सबसे पहले पुराने पञ्चांग की सामूहिक होली जलवाई और नया राजकीय पञ्चांग बनवाया .माना गया कि इस पञ्चांग का अनुकरण करने वाली प्रजा दरिद्रता पर हमेशा हमेशा के लिए विजय प्राप्त कर लेगी . यह पञ्चांग इतना बारीक़ और अद्वितीय बनाया गया कि भूमंडल के किसी भी पञ्चांग से इसका मेल नहीं था. इस नए पञ्चांग में सूर्योदय की कोई घड़ी निश्चित ना थी , सूर्योदय कभी भी हो सकता था .दरिद्रता-नाषक इस पञ्चांग का जनता ने जयघोष के साथ स्वागत किया .इस पञ्चांग के अनुपालन के लिए प्रजाप्रिय को एक और राजकीय घोषणा करनी पड़ी. जिसमें कहा गया कि प्रजाप्रिय नगर का औचक भ्रमण करते रहेंगे , जिस भी पहर या समय उनका भ्रमण होगा उस पहर या समय को राजकीय सूर्योदय और उस पहर से शुरू होने वाले अगले सभी पहरों को राजकीय दिन समझा जाए, और तब तक समझा जाए जबतक प्रजाप्रिय दूसरा भ्रमण ना करें .उनके प्रत्येक नगर-भ्रमण को प्रत्येक नए दिन की शुरुआत मानी जाए . नए पञ्चांग की गणना में ऐसे किसी पहर का वर्णन ना था जिसमें साँझ या रात या अँधेरा जैसा कोई शब्द आये . सूर्यास्त के लिए उसमें कोई जगह ही न थी और भोर की अवधारणा एक दकियानूस शब्दावली का हिस्सा भर रह गई थी. कोई-कोई दिन तीन पहर का होता तो कोई-कोई दिन सात या सत्रह पहर का .प्रजाप्रिय ही सूर्य थे और उनका नगर-भ्रमण ही सूर्योदय . अब यहाँ नए वर्ष का आगमन किसी विशेष अतिथि जैसे दूर देश के सम्राटों या अधिपतियों के आगमन के साथ माना जाता . प्रजा प्रत्येक पहर में भरपूर जीवन जीने लगी और तीन सौ पैंसठ दिनवाले उस पुराने पञ्चांग पर हँसती . प्रजा अब दिन-रात में नहीं पहरों में अमर थी . धीरे धीरे नगर के हाट-बाज़ार की रोशनी ने पुराने सभी त्योहारों को गलाकर उन्हें शाश्वत उजाले की लड़ियों में पिरो लिया .कालांतर में प्रजा दिन और रात या भोर और साँझ के नैसर्गिक नियम से बिलकुल आज़ाद हो गई .वह केवल रोशनी की उपासक थी और रोशनी का क़ुदरत से अब कोई नाता नहीं था .बहुतायत आबादी तो खुश थी.
प्रजापति तो अब ऋतु-चक्रों पर अनुसन्धान करवा रहे थे .अत्यधिक गर्मी या शीत से कई नागरिक कालकलवित हो जाते . प्रजाप्रिय का हृदय इन मौतों पर जार जार रोता .उनकी चलती तो प्रत्येक नागरिक को अमर-जड़ी ढूंढ कर पिला देते . इसी चिंता में प्रजाप्रिय ना थकते थे ना सोते थे . प्रजाप्रिय जानते थे कि जिस राजा के राज्य में प्रजा दुःख झेलती है वह राजा मरने के बाद नरक का भागी बनता है . अतः औचक नगर-भ्रमण कई दशकों से वे बदस्तूर करते आ रहे थे . प्रजापति के आने के ठीक पहले रंग-बिरंगे पक्षियों का जोड़ा घरों दुकानों में चहकने लगता .सारा नगर उनके कलरव से गूंज जाता . राजा की सवारी के आगे-पीछे कई तमाशबीन , मदारी ,भांड ,नर्तक, गायक और संगीतकारों का जुलूस चलता. आतिशबाजियों से सफ़ेद धुला हुआ आसमान लाल हो जाता . प्रजाप्रिय जिस राह से निकलते वह ढ़ोल-नगाड़ों,झाल-मंजीरों और दुदुंभियों से झनझना उठता .पूरा माहौल इतना उत्तेजक और रोमांच से भर जाता कि मरी हुई देह तक में जान आ जाती .ऐसे में सोना तो दूर आराम के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था.
तो यह एक ऐसे राजा और प्रजा की कहानी है जिनका ऐश्वर्य ऐसा था कि दसों दिशा , चारों कोण और चौदहों भुवन में उनका कोई सानी न था. कहते हैं कि तब भी प्रजाप्रिय संतुष्ट न थे .

२-वर्तुल का ख़बरी
प्रजाप्रिय से कोई भी कभी भी आकर मिल सकता था .उनका राजमहल नगर के बिलकुल मध्य में ऊँची पहाड़ी पर स्थित था . उस राजमहल तक जाने के लिए लगभग तीन कोस तक ऊँची सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता था .उन सीढ़ियों को चाँदी के पत्तरों से मढ़वाया गया था .राजमहल ऊँचा ज़रूर था पर पारदर्शी था . हर चीज पारदर्शी थी और परदों की मनाही थी .राजमहल ही नहीं और नगर की भी सभी इमारतों की दीवारें और दरवाजे पारदर्शी थे . बस स्नानागार और शौच-गृह कमर तक अपारदर्शी थे. राजा का मानना था कि पारदर्शी इमारतें -चाहे राजमहल हो या साधारण घर , दुकान हो या बैठकखाना – वह पारदर्शी हृदय और व्यक्तित्व का मानक होती हैं . नगर चारों ओर से जिन परकोटों से घिरा था वह भी पारदर्शी बनाया गया .पुराने सिंहद्वार तोड़ कर उन्हें पुनः इस विधि से बनाया गया कि वह पारदर्शी होने के साथ साथ बेहद मजबूत हों .
राजमहल आठों पहर रोशनी से इतना जगमग करता कि लगातार चार पहरों तक नीचे से राजमहल निहारने वाले नागरिकों को वह लपटती आग के भव्य गोले जैसा दिखता जिसकी तीन कोस लम्बी चमकती हुई एक चाँदी की पूंछ थी.प्रजाप्रिय भी जब अपने राजमहल की मुंडेरों से नीचे वर्तुल को देखते तो लगता कि किसी बड़े ज्वालामुखी का लावा चारो ओर पसरा हुआ है . अद्भुत चमक होती थी उस लावे की रोशनियों में . प्रजाप्रिय की आँखें चौंधिया जातीं और ख़ुशी के मारे उनमें आंसू भर आते .
ऐसे प्रजाप्रिय के राज में किसी पहर एक ऐतिहासिक हादसा हुआ . किसी ने ख़बरी की हत्या कर दी .ऐसा नहीं था कि उस नगर में कोई मरता नहीं था .नए पञ्चांग के बावजूद लोग जानते थे कि नियति क्रूर होती है और वह एक दिन सबको ले जाती है. पर हत्या जैसा जघन्य अपराध दशकों से सुनने में नहीं आया , कम से कम इस नए राजा के शासन में तो बिलकुल नहीं . और हत्या हुई भी तो किसकी ? ख़बरी की ? वही ख़बरी ? अपना मसखरा ख़बरी ? प्रजाप्रिय के प्रिय ख़बरी की ? किसने की होगी ? वह ख़बरी तो महल की सूचनाएँ देता था , ख़ूब मनोरंजक ख़बरें !!
उस ख़बरी का वैसे तो मुख्य पेशा नाई का था और वह राजा के अतिरिक्त किसी की सेवा नहीं करता था , महामंत्री की भी नहीं , क्योंकि वह प्रजाप्रिय का मुँहलगा था . ख़बरी प्रजा के बीच प्रजाप्रिय के गठीले बदन और बदन में कैद बिजली की चमक की बातें बतलाता , उनके वृषभनुमा कन्धों और मजबूत मांसपेशियों की तुलना इंद्र के वज्र से करता .ख़बरी मुख से प्रजाप्रिय के घुंघुराले काले बाल, सुनहले नाखूनों और चौड़े सीने का वर्णन सुनकर नगर की कुंवारी लड़कियां आहें भरतीं . वह कहता कि प्रजाप्रिय पर उम्र का कोई असर नहीं , दसको पहले युवराज जब राजा बने थे अभी भी वैसे ही हैं , बाल बराबर अंतर नहीं आया था . प्रजाप्रिय चरित्रवान भी थे . ख़बरी कहता कि राजमहल में एक से बढ़कर एक सुंदरियाँ और दासियाँ हैं जो हमेशा प्रजाप्रिय के लिए चंवर डुलाती रहती हैं ,पर प्रजाप्रिय राजकाज में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे उन सुंदरियों को आँख उठाकर भी नहीं देख पाते .यहाँ तक कि प्रजाप्रिय रनीवास में भी जाना भूल गए हैं .रानियाँ ही कभी कभी उनका हालचाल लेने आ जाती हैं .इस पर प्रजाप्रिय नाराज भी होते हैं पर वे क्रूर नहीं . पटरानियों को उचित मान देते हैं .पटरानियाँ भी जानती थीं कि प्रजाप्रिय ना थकते थे ना सोते थे . ये सारी बातें ख़बरी के ही मार्फ़त वर्तुल के नागरिक जान पाए थे .कोई चतुर नागरिक खबरी से कोई कूटनीतिक प्रश्न पूछता तो ख़बरी टाल जाता . मसखरा तो था ही ,महल की और और बातें करने लगता , फिर भी जनता में उसका बहुत मान था , वह लगे हाथों कुछ बड़ी राजकीय घोषणाओं का इशारा भी कर देता .अक्सर यह होता कि ख़बरी की इशारेवाली सूचना के तुरत बाद राजकीय डुगडुगी की आवाज़ सुनी जाती और उसके ठीक अगले पहर प्रजाप्रिय की झाँकी निकलती . यह क्रम इतना सधा हुआ था कि लोग ख़बरी का बेसब्री से इंतजार करते . ख़बरी चुने हुए लोगों के बीच ही बैठता था पर एक पहर के भीतर उसकी ख़बरें पूरे नगर में जंगल की आग की तरह फ़ैल जातीं . उसी ख़बरी की हत्या हो गई ?
प्रजाप्रिय शोक-संतप्त थे , पूरे राजमहल में सन्नाटा पसरा था . ऐसा इन दशकों में पहली बार हुआ है . वैसे दो दशक पहले भी किसी ने राजा के नाई की हत्या करने की कोशिश ज़रूर की थी , पर राजा इतने विचलित ना हुए थे , ऐसा विचलन तो बस एक बार ही हुआ था वह भी बहुत पहले ,जब नए पञ्चांग के अनुरूप चलने में वर्तुल के कुछ नागरिक असमर्थ हुए थे .उसमें से कुछ कालकवलित हो गए या कुछ ने स्वेच्छा से नगर छोड़ दिया . प्रजाप्रिय स्वतंत्रताप्रिय तो थे , ही उन्होंने उन नागरिकों को नगर-त्याग से नहीं रोका बल्कि जाते हुए कुछ शगुन भी दिया . नगर की प्रजा साक्षी है कि उन नागरिकों की विदाई के बाद प्रजाप्रिय बहुत फूटफूट कर रोये थे. ठीक वैसी रुलाई ख़बरी की हत्या पर राजमहल में सुनी गई .राजमहल भीतर से हिला हुआ था .

महामंत्री , सेनापति ,अंगरक्षक , गुप्तचर और तमाम कोतवाल यहाँ तक कि राजमहल के नर्तक ,संगीतकार और भांड उस रुलाई को सुन रहे थे और डर के मारे पत्थर हुए जा रहे थे . ऐसा लगता था कि प्रजाप्रिय का क्रोद्ध और दुख दोनों दिखाई नहीं देते थे ,बस असर करते थे . बूढ़े महामंत्री अमात्यश्री दो बार मूर्छित होते होते बचे . बहुत पहले अमात्य ने एक बात कही थी कि राजा की शक्तियाँ अमूर्तन के वर्चस्व जैसी होनी चाहिए जो दिखाई ना दें पर अपने अस्तित्व का असर बनाए रहें. . अमात्यश्री उसी वजूद को आज महसूस कर रहे थे और उदार प्रजाप्रिय के सामने बेवजह काँप भी रहे थे . अमात्य ही क्या सेनापति तक की दाईं कनपटी से एक हल्की पानी की लकीर लगातार नीचे बह रही थी जिसे देखकर वहां उपस्थित नगर के सभी कोतवालों की दोनों कनपटियाँ रह रह कर चूने लगीं . राजा की दारुण अवस्था देखकर अरसे बाद राजभवन के समस्त कर्मचारी एकसाथ पसीने में लथपथ हुए थे . ऐसे में प्रजाप्रिय को पसीना नहीं आता था बस आँखों का रंग बैल के ताज़े खून की तरह लाल हो जाता था . यह भी विधि का क्रूर विधान ही था कि प्रजाप्रिय की ऑंखें जन्मना लाल थीं , फिर धीरे धीरे वे सामान्य भी हो गईं , अब केवल दुःख या क्रोध के समय में वे लाल हो जाती हैं जबकि प्रजाप्रिय का व्यवहार सदा से विनीत रहा .शायद ही किसी ने प्रजाप्रिय को क्रोध में देखा हो . निश्चित रूप से यह दुःख ही था. दुखी प्रजाप्रिय ने बस एकबार अपने निचले होंठ को ऊपर के दांतों से दबाया और अमात्य की ओर अपनी लाल आँखों से देख लिया . सभा विसर्जित हो गई .
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कई दर्जन पहरों तक राज्य के असंख्य भेदिये ख़बरी की हत्या के विषय में छानबीन करते रहे पर किसी को कुछ हाथ नहीं लगा . महादंड के अलावा कोई दंडविधान था नहीं पर महादंड का भागी मानें किसे ? नगर की प्रजा तो सहयोग ही कर रही थी . तभी राज्यादेश पर अचानक नगर के सारे भेदियों को दूसरे और तीसरे काम में लगा दिया गया और निर्देशित किया गया कि खबरी की हत्या के सिलसिले में अब कोई गुप्तचरी ना हो , जिस भी भेदिये के पास हत्या से सम्बंधित अब तक जो भी प्रमाण मिले हैं उन्हें सेनापति के हाथों सौंप कर भुला देने की ज़रूरत है . दरअसल इस आदेश की वजह एक पीपल का पेड़ था शायद . भेदियों को बस इतना पता था कि ख़बरी शापित हो गया था . वह जहाँ शापित हुआ वहाँ एक बूढ़ा पीपल का पेड़ है . उन्हें यह भी खबर थी कि इन दिनों उस पेड़ के नीचे एक बूढ़ा संत भी बैठने लगा था . शायद ख़बरी उससे उलझकर शापित गया हो ??
वैसे संपन्न नगरों की एक ख़ूबी होती है कि वह हादसों को जल्दी भुला देते हैं , वर्तुल अब संपन्न नगर था , अत्यधिक संपन्न . पर प्रजाप्रिय की बेचैन पदचाप नगर के कानों में आती रहती थीं . प्रजाप्रिय ने कई गुप्त बैठके कीं और ख़बरी के सम्बन्ध में जो कहानी निकल कर आई वह बेहद उत्तेजक थी . सबसे विश्वासी भेदिये सुंग की बात पर प्रजाप्रिय भला कैसे ना भरोसा करते !! सुंग ने बताया कि ख़बरी जब प्रजाप्रिय के कहने पर पश्चिमी द्वार का जायज़ा लेकर लौट रहा था तब बूढ़े पीपल की छाँह में एक संत को सोते हुए देखा. संत के कंधे पर निश्चिन्त भाव से बैठी एक गिलहरी शायद सीताफल के दाने कुतर रही थी . सोये हुए संत के पैर पगडंडियों के बीचोंबीच पसरे हुए थे . ख़बरी बड़बोला होने के साथ साथ थोड़ा दुष्ट भी था.उसने सोये संत के पैर जानबूझ कर कुचल दिए और हँसते हुए माफ़ी मांगी “क्षमा करें महात्मन , आपका पैर दिखा नहीं “. संत औचक जग गए पर कोई प्रतिवाद नहीं किया , उल्टे मुस्कुराकर जवाब दिया “कोई बात नहीं बच्चे , रात में अक्सर कुछ दिखाई नहीं देता”. ख़बरी जवाब सुनकर ठिठक गया “रात ? तुम परदेशी हो क्या ? कहाँ रात है ? क्या तुम नहीं जानते महात्मन कि इस नगर में रात और दिन का भेद नहीं , क्या आसमान में उगे हुए ये सैकड़ों-हज़ारों सूर्य तुम्हे दिखाई नहीं दे रहे “? सुंग ने राजा को बताया कि यही संवाद बाद में तीख़ी बहस में तब्दील हो गया और संत बार-बार बके जा रहा था कि यह रात है रात, कि बचे हुए पक्षी शोर नहीं कर रहे , कि बेआवाज पशु हिलडुल नहीं रहे ,कि तितलियाँ ,भौंरे और सारे फूल शांत हैं , कि चींटियाँ बिलों में जा चुकी हैं और सर्प निकल आए हैं , कि सैकड़ों तथाकथित सूर्यों के बीच एक मद्धम रौशनी का जो गोला दिख रहा है चाँद है , कि देखो पीपल से झींगुरों की आवाज आ रही है और यहाँ तक कि संत के कंधे पर बैठी हुई गिलहरी वस्तुतः सीताफल के दाने हाथ में लिए हुए, पर दांत गडाए ऊँघ रही है . ख़बरी को ये सारे तर्क राजाज्ञा के विरुद्ध लगे और उसने आवाज देकर सिपाहियों को बुला लिया . ख़बरी और प्रजाप्रिय के रिश्ते किसी से छुपे ना थे और ख़बरी के कहने पर सिपाहियों ने संत को ठोकरें मार मार कर लहूलुहान कर दिया . क्रोधित संत ने ख़बरी को शाप दे दिया “हे मूर्खः युष्माकं बुद्धिः लोभखंजरे समाविष्टः”. सुंग ने यह भी बताया कि उस संत ने और भी कुछ शाप दिए और शाप चूँकि वैदिक भाषा में दिए गए थे इसलिए गंवार सिपाहियों को वह याद नहीं ,उन्हें जितना याद था वह बताया जा चुका है .
प्रजाप्रिय सबकुछ निःसंग भाव से सुनते रहे , पर प्रजाप्रिय की भीतरी चिंता केवल इतने भर ना थी. सुंग ने सौगंध खाकर कहा कि इस घटना के सत्रहवें पहर ही ख़बरी मरा था और जिस पहर वह मरा था उसके डेढ़ पहर पहले वह बूढ़े अमात्य से मिला भी था . प्रजाप्रिय इसी बात से थोड़े विचलित हुए पर किसी को पता ना चला . फिर बूढ़े अमात्य को बुलाया गया. बूढ़े अमात्य अब हाथ बाँधे प्रजाप्रिय के सामने खड़े रहे . प्रजाप्रिय बिना किसी संवाद के एक पहर तक राजमहल के परकोटे पर टहलते रहे और अमात्य वही परकोटे पर एक पहर तक खड़े रहे , उन्हें पता था कि प्रजाप्रिय ना थकते हैं और ना सोते हैं . फिर प्रजाप्रिय अचानक ठिठक गए . क्षणभर बाद धीरे से मुस्कुराते हुए महामंत्री को संबोधित किया “अमात्य श्री ! आप मेरे जन्म से लेकर अबतक का सबकुछ जानते हैं , राज्य के किसी भी भेदिये से ज्यादा मुझे आप पर विश्वास है .मुझे यह सूचना मिली है कि ख़बरी अंतिम बार आपसे मिला था “.
अमात्य संभवतः इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए ही आये थे , वैसी ही जड़ मुद्रा में उत्तर दिया ” जी प्रजाप्रिय , वह आया था , मैं आपको सूचित करने ही वाला था कि यह हादसा हो गया . वह आया था प्रजाप्रिय ,वात-कफ़ और पित्त से जर्जर देह लेकर . उसने कहा कि वह शापित हो चुका है और शाप यह था कि कोई ऐसा सत्य जिसे वह जानता हो और जिसे वह किसी को भी बताने से डरता हो, वही सत्य उसकी आंत को तब तक छेदता रहेगा जब तक वह किसी ऐसे को वह सत्य ना बता दे जो उस सत्य को नहीं जानता “. प्रजाप्रिय की आँखें अमात्य पर टिकी रहीं , अमात्य बोलते गए , पर थोड़ी धीमी आवाज से ” मैंने उसे कहा कि मैं राजधर्म से बंधा हूँ , कोई ऐसा सत्य ना कहो जिसे सुनकर तुम और मैं महादंड के भागी बने. फिर मैंने उसे कहा कि हो सके तो उस शाप देने वाले संत से क्षमा मांगो .संभवतः कोई निदान हो — कुल इतना ही संवाद हुआ था प्रजाप्रिय , आप विश्वास करें”. इस बार प्रजाप्रिय पहले से ज्यादा मुस्काए और अपने मन का बोझ हल्का करते हुए अमात्य को निश्चिन्त भाव से विदा कर दिया . वे पुनः फिर टहलने लगे .
इस नगर में संतो को सजा देने का कोई प्रावधान ना था जबकि कई भेदियों का मानना था कि पीपल वाला संत कोई विदेशी भेदिया ही है ,पर इसकी पुष्टि ना हो पाई थी . वर्तुल के नागरिकों में यह बात फ़ैल गई थी कि ख़बरी की मृत्यु की वजह संतनुमा वह अजनबी है और ख़बरी के चाहने वालों में इस बाबत रोष भी था. पर प्रजाप्रिय के हाथ नियमों से बंधे थे , महादंड के लिए अपराध की पुष्टि होनी चाहिए . सबसे बड़ी बात कि कोई साक्ष्य चाहिए था और वह मिल नहीं रहा था .इस घटना के बाद संत भी गुमसुम रहने लगे थे . इसकी एक वजह यह भी थी कि नागरिकों ने उस संत को भीख देना बंद कर दिया था और संत कई दिनों से भूखा रहा . यहाँ तक कि एक बुढ़िया और उसका बच्चा जो गाहेबगाहे संत के लिए भोजन लेकर आते थे , डर के मारे वहां आना-जाना बंद कर चुके थे .कई पहरों के बाद किसी एक पहर संत पानी-पानी की रट लगाने लगा पर किसी ने उसे पानी नहीं पिलाया ,अगले कई पहरों तक तड़पने के बाद संत के रुंधे हुए गले और सूखे हुए होंठों से फिर एक श्लोक फूटा “गच्छत! गच्छत !!यद्गीतं खबरी गास्यति तदेव युष्माकं भविष्यति! गच्छत ! गच्छत !” जाओ ! जो गति ख़बरी की हुई वही गति तुम लोगों की भी होगी.
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लेकिन संत की मृत्यु में प्रजाप्रिय का क्या दोष ? वे तो देवता और विधि दोनों के सताए हुए पहले से ही हैं . प्रजा कल्याण के लिए उन्होंने अपना सबकुछ त्याग दिया था , नींद-चैन तक और इधर कुछ धृष्ट नागरिकों की लामबंदी से एक संत मर गया . उन कुछ ‘धृष्ट’ नागरिकों की पहचान भी तो मुश्किल थी , अब उनकी कीमत समूचा नगर और उसकी प्रजा तो चुकाएगी नहीं . प्रजाप्रिय की करुणा से भला कौन परिचित नहीं था. नगर के ऐश्वर्य को बनाये रखने के लिए प्रजाप्रिय फिर अथक परिश्रम करना चाहते थे , इसलिए ज़रूरी था कि ख़बरी प्रकरण का पूरी तरह से पटाक्षेप हो जाये परन्तु यह मामला तूल पकड़ता जा रहा था . कुछ भेदियों ने सूचना दी कि पीपल के कोटर से एक अजीब आवाज आ रही है . प्रजाप्रिय ने तुरत सुंग को तलब किया . सुंग कुछ ही पहर बाद आ धमका, उसके पीत-वर्णी चेहरे पर जैसे राख़ गिरी थी .वह प्रजाप्रिय को एकांत में ले गया और बताया कि यह सत्य है कि पीपल के कोटर से आवाज आ रही है , पर वह केवल अबूझ आवाज़ है , शायद कोई ध्वनि है जो किसी शब्द को बार-बार आकार देना चाह रही है . सुंग ने इन ध्वनियों को स्वयं सुना था .इतना सुनते ही प्रजाप्रिय का चेहरा कस गया . आँखों का रंग कुछ गुलाबी भी हो गया . प्रजाप्रिय ने सुंग की छोटी आँखों को घूरते हुए संयत भाव से पूछा ” सुंग , उन ध्वनियों को यदि शांत मन से सावधानीपूर्वक जोड़ा जाये तो कौन-कौन से शब्द बनते हैं ? बता सकते हो ?” सुंग जडवत ही रहा पर उसकी साँसे फूल चुकीथीं , उसने हाथ जोड़ कर कहा ” हे प्रजाप्रिय , मैंने बहुत जोड़ा पर कोई शब्द आकार नहीं ले रहा था , बस सिंग-सिंग-सिंग ,घिन्न-घिन्न जैसे शब्द बने जिनका कोई अर्थ ही नहीं “. इतना सुनते ही प्रजाप्रिय लड़खड़ा गए . सुंग ने उन्हें संभाला जरूर पर अधिपति की आँखों का बदला हुआ रंग देख कर सुंग जैसे साहसी गुप्तचर का भी कलेजा दहल गया .उसे विश्वासी भेदिया बने अभी दिन ही कितने हुए थे . इधर प्रजाप्रिय की आँखें एकदम लाल हो चुकीं थीं जैसे उनमें किसी बैल का ताज़ा खून हिलोर मार रहा हो . दहशत में डूबा हुआ सुंग अपने राजा से कुछ और कहना चाह रहा था पर प्रजाप्रिय अपना चेहरा घुमा कर परकोटे से बाहर आसमान निहारने लगे .थोड़े संयत होकर उन्होंने उसी मुद्रा में सुंग को संबोधित किया “कुछ और कहना है सुंग ?”
“जी प्रजाप्रिय ”
“कहो”
“उस संत के संपर्क में एक गरीब बुढ़िया और उसका किशोर वय का बालक रहते थे . वे ही संत को कभी-कभार भोजन इत्यादि देते थे . गहरी छानबीन के बाद मैंने बुढ़िया से कुछ सूचनाएं प्राप्त कीं .”
“क्या मुझसे सम्बंधित ?”
“नहीं प्रजाप्रिय , ख़बरी से सम्बंधित .. उस रात ख़बरी अमात्यश्री से मिलने के बाद वहाँ संत के पास गया .बुढ़िया और उसका पुत्र दोनों वही पर संत को भोजन करा रहे थे . ख़बरी आते ही संत के चरणों में लोट गया और क्षमा माँगने लगा. वह पेट दर्द से कराह रहा था और एक पहर तक शापमुक्ति की मिन्नतें करता रहा . संत पहले मुस्कुराए फिर थोड़े गंभीर होकर बोले कि जो सत्य तुम जानते हो और जिसे दुनिया नहीं जानती है उसे किसी को कह डालो .इस पर ख़बरी दहाड़ मार कर रो पड़ा . वह बोला कि उस सत्य के खुलासे के बाद उसका समूल नाश हो जायेगा . तब संत ने कहा – तो जाओ, इस पीपल के पीछे एक कोटर है, उस कोटर में मुँह डाल कर वह सत्य कह दो . बुढ़िया का कहना है कि ख़बरी ने कोटर में मुँह डाल कर कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ निकालीं जिसे किसी ने नहीं सुना, संत ने भी नहीं और कुछ ही देर बाद ख़बरी पीड़ा से मुक्त होकर शांत हो गया . उसके चेहरे पर वही शरारती मुस्कान लौट आई थी .उसने संत की चरण-वंदना की और नगर की ओर चला गया प्रजाप्रिय “.
“फिर क्या हुआ ?” प्रजाप्रिय ने बड़ी कठोरता से पूछा .
सुंग चौंक गया “जी प्रजाप्रिय ?”
“अरे फिर क्या हुआ …”
“जी प्रजाप्रिय ….”
“सुंग तुम होश में तो हो ? फिर क्या हुआ मैं पूछ रहा हूँ ”
“जी”
“क्या हुआ फिर वहाँ ?”
“जी प्रजाप्रिय .. आप ..का ”
सुंग के उत्तर के बीच में ही प्रजाप्रिय जबड़ा पीसकर चीख़ पड़े “मैं उस बुढ़िया के बारे में पूछ रहा हूँ मूर्ख ?”
अब जाकर सुंग की आवाज़ ठीक से निकली ” जी प्रजाप्रिय… बुढ़िया बहुत डरी हुई थी प्रजाप्रिय . मैंने उसे आश्वासन दिया कि यदि वह सत्य की राह पर है तो प्रजाप्रिय उसे इनाम देंगे . गरीब बुढ़िया जब निश्चिन्त हुई तो बताने लगी कि ख़बरी के जाने के एक ही पहर बाद वह पीपल का पेड़ आपदमस्तक तीन बार ज़ोर ज़ोर से हिला और उसमें से उसी तरह की ध्वनियाँ आने लगीं जैसी ध्वनि ख़बरी ने कोटर में मुँह करके निकाली थीं “. यह सुनते ही प्रजाप्रिय किसी प्रस्तर की मूर्ति जैसे स्थिर हो गये . बस उनका अंगवस्त्र तेज हवा के झोंके से फड़फड़ाता रहा . पहरों वे वैसे ही जड़वत खड़े रहें और सुंग हाथ बाँधे नत-मस्तक उनके पीछे देर तक खड़ा रहा .
राजमहल से लौटता हुआ सुंग अब भी काँप रहा था . प्रजाप्रिय ने कठोर हिदायत दी थी कि उस बुढ़िया और उसके बच्चे की विशेष देखभाल हो और उनके साथ किसी तरह की अनहोनी ना हो . प्रजाप्रिय संभवतः कुछ जागीरें भी दें उन्हें . प्रजाप्रिय मानते थे कि नगर के प्रत्येक छोटे बड़े नागरिक में देवता का वास है . नागरिकों को कष्ट देना देवता को कष्ट देने के बराबर है . सुंग ने अपने अंगवस्त्र से माथे का ढेरों पसीना पोंछा और तीन कोस तक फैली चाँदी की सीढ़ियों को नापता हुआ नगर में गुम हो गया.
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इधर उसी पीपल के कोटर में गिलहरी के तीनों बच्चे उधमकूद मचाये हुए थे . उनकी माँ थी नहीं सो उनकी लापरवाह धमाचौकड़ी अपने उफ़ान पर थी . गिलहरी का चौथा बच्चा अपंग था ,उसके पिछले दोनों पैर किसी सूखे हुए तिनके जैसे थे पर उसके कान बहुत तेज थे .वह अपने भाइयों की बंदरकूद से अलग कोटर के एक कोने में चुपचाप सीताफल के दाने कुतर रहा था . तभी उसने कोटर के बाहर से कुछ आवाज़ें आती हुई सुनीं पर भाइयों की उछलकूद के बीच वे आवाज़ें मंद पद गईं . शायद उसे भ्रम ही हुआ होगा . अपंग बच्चे ने सीताफल का दूसरा दाना उठाया जो एकदम ताज़ा और रस-सिक्त था . सीताफल के दानों को शायद उनकी माँ ने कई दिनों के अथक परिश्रम से संग्रह करके रखा था . उस बच्चे ने अभी सीताफल के दाने में अपने नन्हें दांत गड़ाए ही थे कि पीपल की जड़ों से तड़-तड़ की आवाज़ें आने लगीं और देखते ही देखते कोटर लाल धुएँ से भर गया .इससे पहले कि सारे बच्चे कुछ सोच पाते कोटर आग की लपटों से घिर गया . तीनों फुर्तीले भाइयों ने कोटर से छलाँग लगा दी पर चौथा चींचीं-किटकिट चीख़ता हुआ आग की लपटों से घिर गया. बच्चा देर तक चीखता रहा और ऐसे में उसकी माँ गिलहरी प्रकट हुई . वह बड़ी फुर्ती से अधजले बच्चे को अपने जबड़े में दबा कर कोटर से बाहर फाँद गई , उस बच्चे के हाथ में अभी भी सीताफल के वे दाने थे जिसे वह थोड़ा-सा कुतर गया था .
जलते पीपल से दूर किसी खेत में माँ गिलहरी ने अपने अधजले बच्चे को लिटाया और उसे नींद से जगाने की भरसक कोशिश करने लगी . माँ ने बार-बार प्यार से उस बच्चे में दांत गड़ाया , बच्चे की देह को उलटा-पलटा पर बच्चा जगा ही नहीं, सीताफल के दाने को अपने दोनों हाथों से अपनी गोद में छिपाए वह ऐसे सो रहा था जैसे उसके छीन जाने का डर हो . थक कर गिलहरी जारजार रोने लगी .उसके आँसुओं से बच्चे की सारी देह भींग गई पर बच्चा जगा नहीं . वह तब तक रोती रही जब तक बारिश ना होने लगी .पानी की तेज़ बौछारों ने बच्चे की देह को धीरे धीरे माटी में मिलाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते बच्चा सीताफल के दाने अपनी गोद में छुपाए धरती में समा गया .

३-वर्तुल में सीताफल
वर्तुल नगर के खेतिहर कहीं से भी किसान नहीं लगते थे यह बात सभी सभ्यताएँ जानती थीं . नदी का पानी नहरों से होता हुआ खेतों को सैकड़ों-हजारों पहर उपलब्ध रहता था . जो किसान कुछ विशिष्ट किस्मों के अनाज या फल-सब्जियाँ उगाते थे उन्हें प्रजाप्रिय सामूहिक रूप से पुरस्कृत करते थे . हल चलाते हुए किसी किसान को एक अजीब-सा सुनहरे रंग का पत्ता उसके खेत में दिखा जो ठीक जले हुए पीपल से आधे कोस की दूरी पर था. किसान ने हल रोककर उस पौधे को छुआ और छूते ही वह पौधा थोड़ा और बड़ा हो गया , हैरत से किसान की ऑंखें चमक गईं “क्या यह सोने का कोई जादुई पौधा है?” उसने बहुत सहेजकर उस पौधे को धरती से निकाला और मटके में रख दिया . मटके में रखने के साथ ही वह पौधा थोड़ा और बड़ा हो गया . अब किसान रहस्य , रोमांच और डर से भर गया “क्या बला है यह?” किसान जबतक अपने घर पंहुचा वह पौधा मटका तोड़ते हुए बाहर आ गया था . पौधे में से अब सुनहले रंग का एक फूल निकल आया था ,”अरे ये तो सीताफल का पौधा है .पर इतना सुनहला कैसे ? “. किसान यह सोच कर खुश हुआ कि उसके अच्छे दिन आ गए . राजभवन से पुरस्कृत होने का सपना लिए उसने आठवें पहर तीन कोस ऊँची चमकती पूंछ पर अपने कदम रख दिए .
अब वह सीधे राजभवन में था . प्रजाप्रिय सभा बुलाये बैठे थे. रास्ते भर लोग उस किसान को हैरत से देख रहे थे जिसके हाथ में एक बहुत बड़ा सोने का सीताफल था . उत्साह और हड़बड़ाहट में किसान बिना इजाज़त सीताफल लिए सीधे सभा के बीचोबीच जा पहुंचा और सभासदों का ध्यान राजकीय विमर्श से हटकर उस सोने के सीताफल पर जा टिका . प्रजाप्रिय भी सीताफल को ध्यान से देखने लगे तो किसान ने सीताफल को उन्हीं के सिंहासन के सामने जाकर रख दिया और प्रार्थना की मुद्रा में खड़ा हो गया .
प्रश्न अमात्यश्री ने ही किया ” क्या यह सोने का है खेतिहर ?”
“जी नहीं महामंत्री जी, मैं भी हैरान हूँ . यह चमकता तो बिलकुल सोने की तरह है ,पर है यह असली सीताफल . पर यह मैंने नहीं उगाया है प्रभु , यह स्वयंभू है “. किसान कैसा भी हो उसमे सच की मात्रा ज्यादा होती है .किसान प्रजाप्रिय की ओर मुड़ा ” किन्तु हे प्रजाप्रिय ! मैं डरा हुआ हूँ , यह पौधा कल ही धरती फोड़ कर उगा था और आठ पहर के भीतर इसमें से इतना बड़ा फल निकल आया . यह बहुत तेजी से बढ़ता है और इसे जितनी बार छुआ जाए उतनी बार बढ़ता है . इसका स्थान परिवर्तित करने पर तो यह दूनी गति से बढ़ता है “.
“इतनी तीव्र गति से…?” प्रजाप्रिय चकित थे .
प्रजाप्रिय के हैरान होते ही राजवैद्य समेत कई औषधि विज्ञानियो ने तुरत उसका निरीक्षण शुरू कर दिया . कुछ क्षण के बाद राजवैद्य ने प्रजाप्रिय को आश्वस्त किया कि कहीं कोई बीमारी नहीं है इसमें , किन्तु यह भी कहा कि इस सीताफल को एक बार बीचोबीच काट कर इसके बीजों के अनुसन्धान की आवश्यकता है .
काफ़ी देर से सितार वादक गन्धर्व कुमार यह सब देख रहे थे . उनकी आँखें चमक रही थीं और मन उस सीताफल को देखते ही पाने के लिए लालायित हो गया था , उनसे रहा न गया और वे अपनी जगह से उठकर प्रजाप्रिय के सामने आ खड़े हुए ” हे प्रजाप्रिय ! आपसे एक आग्रह है , इस सीताफल को अनुसन्धान के लिए मेरे घर पर ही मेरे हिसाब से काटा जाए . मैं इस सीताफल से अपने नए सितार के लिए तुम्बा बनाना चाहता हूँ . इस सीताफल का आकार वही है जैसा मैं कई सौ पहर से खोज रहा था पर आज तक मिला नहीं था .प्रजाप्रिय की अनुमति से मैं चाहूँगा कि राजवैद्य और समस्त औषधि विज्ञानी अपने तमाम अनुसन्धान मेरे घर में अतिथि बनकर तब तक करें जब तक उनका काम पूरा न हो .”
महामंत्री अमात्यश्री के सलाह-मशवरे के बाद प्रजाप्रिय ने इसकी आज्ञा तो दे दी किन्तु अगले कुछ पहरों में इस सीताफल पर अंतिम अनुसंधानिक निष्कर्ष प्रस्तुत करने के लिए भी कहा . सीताफल के वजन के बराबर स्वर्ण-मुद्राएँ लेकर किसान भी विदा हुआ . यही तो विशेषता थी प्रजाप्रिय की , उनका प्रत्येक कार्य जनता में चर्चा का विषय बना रहता था. प्रजाप्रिय दीर्घायु हों .

गन्धर्व कुमार के आतिथ्य से समस्त विज्ञानी और राजवैद्य प्रसन्न थे , अनुसन्धान ज़ारी रहा . हालाँकि सीताफल के सुनहले बीजों का जादुई रहस्य अब भी बना हुआ था फिर भी राजवैद्य यह पता करने में सफल रहें कि सीताफल ज़हरीला नहीं है . चूहों ,गिलहरियों और बकरियों को सबसे पहले सीताफल चखाया गया फिर गायों ,उनके बछड़ों और भैंसों को . कई पहर तक उनका सूक्ष्म निरीक्षण हुआ और वे सामान्य पाए गए , उनके गोबरों में भी किसी प्रकार का संक्रमण नहीं पाया गया था अलबत्ता उनके गोबर ज़रूर हल्के सुनहरे रंग के हो गए थे जिनमें से सुगन्ध फूट रही थी . राजवैद्य का फिलहाल तो यह मानना था कि यह सीताफल तमाम औषधीय गुणों से भरा है लेकिन इस मत का कोई तार्किक साक्ष्य उन्हें नहीं मिल पा रहा था . एक औषधि विज्ञानी ने अपने निजी शोधपत्र में यह टिप्पणी ज़रूर लिख दी थी कि जिन जीव-जंतुओं को इसे खिलाया गया था उनपर तत्काल कोई बुरा असर नहीं दिख रहा है ; लेकिन इसके शायद कोई दूरगामी परिणाम दिखें जैसे कि सत्य के दिखते हैं , पर क्या , यह शोध का विषय है . वह विज्ञानी सबसे युवा था और उसके विशेष आग्रह पर प्रजाप्रिय ने निरीक्षण कार्य की अवधि कुछ पहर और बढ़ा दी .
इधर सीताफल का आधा हिस्सा गन्धर्व कुमार को दे दिया गया कि वे अपने नए सितार का तुम्बा बना लें .वैसे भी सितारवादक कुमार इसे पाने के लिए कुछ ज्यादा ही व्यग्र हो गए थे और आठ पहरों की कड़ी मेहनत के बाद एक सुनहला सितार तैयार हो गया .पर राजवैद्य और उनकी मंडली अभी तक सीताफल के सन्दर्भ में कोई विशेष जानकारी इकट्ठी नहीं कर पायी थी. विज्ञानियों ने तय किया कि इन बीजों को सभी विज्ञानी अपने अपने घरों के आँगन में अब रोपें और अगले आठ पहर तक इसकी गतिविधियों पर नजर बनाये रखे, फिर सब उस पर अपने स्वतंत्र प्रयोग करें एवं अपनी-अपनी टिप्पणी तैयार करके राजभवन में अंततः प्रस्तुत हों . निरीक्षण-कार्य की बढ़ी हुई अवधि अगले आठवें पहर को समाप्त हो रही थी.

राजभवन को उस पहर विशेष ढंग से सजाया गया. असंख्य रोशनियों की झालरों से राजदरबार दैदीप्यमान हो उठा .राजमहल में रोशनी इतनी थी कि चीटियों तक को दूर से चलते हुए देखा जा सकता था . प्रजाप्रिय अभी अभी नगर-भ्रमण कर के लौटे थे और यह पहर सूर्योदय का पहर माना गया था . प्रसन्न प्रजाप्रिय सिंहासन पर बैठे और राजवैद्य ने सभी विज्ञानियों को प्रस्तुत किया . सबके हाथों में रंग बिरंगे सीताफल थे , ज्यादातर के पास सुनहले रंग का सीताफल था .सब ने सीताफल को लेकर अपने अपने तर्क दिए – कि सीताफल के बीज पर यदि इत्र डाल कर रोपा जाए तो फल पूरी तरह इत्र जैसा सुगन्धित हो जाता है और इसके अर्क की बिक्री से निश्चित रूप से व्यापार में वृद्धि होगी , कि जिस रंग में मिला कर इसके बीज को रोपा जाये सीताफल उसी रंग का हो जाता है . एक ने कहा कि हमने सीताफल को एक पहर मदिरा में डूबा कर रोपा और आठवें पहर जो सीताफल निकला उसमें मदिरा ही मदिरा भरी हुई पाई . एक स्तर पर यह एक बनी बनाई मदिरा थी ,बस इसे निचोड़ने की ज़रूरत थी . प्रजाप्रिय ने स्वयं उस विज्ञानी के गुलाबी सीताफल को सूंघा जिससे स्वादिष्ट मदिरा की खुशबू आ रही थी . एक ने सीताफल के दानों को सेब के अर्क में डुबाया था और उन दानों को बीच से फाड़ कर उसमें सेब के दाने डाल दिए थे . जब वह बीज फल बना तो सेब का फल बना जिसका आकर हुबहू सीताफल जितना ही बड़ा था किन्तु उससे सीताफल की नहीं सेब की ख़ुशबू आ रही थी . राजभवन ने ही नहीं बल्कि स्वयं प्रजाप्रिय ने सीताफल जितना बड़ा सेब जीवन में पहली बार देखा था . सारी सभा हैरान थी ..लगभग दो दर्जन विज्ञानियों अपने-अपने प्रयोग बताए . एक से बढ़कर एक खोज सामने आती गई . नगर श्रेष्ठियों के तो चेहरे ख़ुशी के मारे सेब की तरह लाल हो गए थे. इन महान खोजों से होने वाली व्यापारिक उपलब्धियों के बारे में सोच कर उनकी आँखें हीरे की तरह चमक गईं थीं . उस सभा में जो जहाँ भी उपस्थित था वह मौन भाव से ‘साधु-साधु’ कह रहा था .लेकिन प्रजाप्रिय अब भी गंभीर ही थे . उन्होंने राजवैद्य से प्रश्न किया “मात्र आठ पहर में बीज से फल बन जाने वाले इस पौधे का रहस्य बताएं राजवैद्य ?”
सभा एकदम सन्न हो गई .राजवैद्य बस इसी रहस्य को नहीं सुलझा पाए थे . वे हाथ बाँधे नतमस्तक खड़े रहे .प्रजाप्रिय समझ गए . सभा में सन्नाटा पसर गया . सन्नाटा तबतक पसरा रहा जब तक प्रजाप्रिय मुस्कुराए नहीं. एक हल्की मुस्कान के साथ प्रजाप्रिय ने राजवैद्य को संबोधित किया ” हमें विश्वास है राजवैद्य कि आप और आपके वैज्ञानिक साथी इस रहस्य को ज़रूर उजागर करेंगे . आप पूरा समय लें . वैसे भी आपकी और आपके साथियों की शोध-उपलब्धियाँ कम नहीं . नगर के व्यापारिक उत्थान में आपलोगों का यह सहयोग इस पहर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हुआ”. सभा में उपस्थित श्रेष्ठियों के कंठ सामूहिक रूप से फूटे ” साधु-साधु”.फिर पूरी सभा प्रजाप्रिय को बधाइयाँ देने लगी . तमाम विज्ञानी ख़ुशी के मारे दोहरे हो गए .
ऐसे में गन्धर्व कुमार कहाँ शांत बैठनेवाले थे . वे ना जाने कब से अपने सुनहले रंग का सितार किसी नवजात शिशु की तरह गोद में दबाए बैठे थे . वे हाथ जोड़कर बड़ी शालीनता से खड़े हुए .प्रजाप्रिय ने आँखों से अनुमति दे दी . देखते ही देखते स्वर्ण-चौकी दरबार में लाई गई जिसपर मयूर-पँखों की चादर बिछी थी .मयूर-पंखी चादर पर गुलाब की पंखुडियों को पान के पत्ते के आकार में सजाया गया था . गन्धर्व कुमार ने सर्वप्रथम प्रजाप्रिय को प्रणाम किया, फिर शेष सभा को और सितार लेकर उस आसन पर विराजमान हो गए . सभा में एक आध्यात्मिक शांति फ़ैल गई .
गन्धर्व कुमार ने सितार के तार कसे. हाथ जोड़कर कला की देवी की वंदना की और अपने गुरु का भी स्मरण किया . दोनों हाथ की उँगलियों ने सितार को ऊपर और नीचे से छेड़ना शरू किया . किन्तु कोई ध्वनि नहीं फूटी . यह क्रम कुछ क्षणों तक चलता रहा परन्तु ध्वनियों का आगमन नहीं हुआ .
कभी इतनी देरी तो नहीं की थी कुमार ने ! कुमार थोड़े परेशान भी हो गए . महामंत्री के चेहरे पर कुछ शिकन आ गई . इधर गंधर्व कुमार ने सितार पर थोड़ी कठोरता बरती तो सितार ने अचानक ध्वनि फेंकी “सिंग्ग्ग’. काफ़ी तीख़ी ध्वनि निकली , उस ध्वनि को राजमहल के तीन कोस लम्बी सीढ़ियों पर तैनात प्रहरियों तक ने सुना . गन्धर्व कुमार ख़ुद चकित थे , उन्होंने फिर ज़ोर लगाया . सितार ने फिर ध्वनि छोड़ी “सिन्न्ग्ग सिंग्ग्ग सिंग्ग्ग”. महामंत्री ने तत्काल डपटा ” क्या हुआ कुमार , कहीं तुम्हारे ऐश्वर्य ने तुम्हारी कला को गला तो नहीं दिया ?” किन्तु यह हस्तक्षेप प्रजाप्रिय को अच्छा नहीं लगा , उन्होंने महामंत्री को चुप कराया “नहीं अमात्यश्री नहीं , कला के क्षेत्र में राजकीय हस्तक्षेप ठीक नहीं . कुमार बहुत पुराने कला साधक हैं , उनकी साधना में विघ्न न डालें “. समूची सभा देख रही थी , बूढ़े महामंत्री कसमसाकर बैठ गए . गंधर्व कुमार फिर साधनारत हुए . इस बार फिर ज़ोर लगाया . सितार से एक तेज स्वर लहरी उठी , बहुत ऊँची ” सिंग्ग्ग सिंग्ग्ग सिंग्ग्ग घिन्न्न घिन्न घिन्न “. कुमार ने एक बार फिर उन ध्वनियों को साधना चाहा किन्तु “सिंग्ग सिंग्ग्ग सिंग्ग्ग “. अमात्य का चेहरा स्याह होता चला गया . तब सभा में उपस्थित सुंग की सीधी भृकुटियों में भी मरोड़ आ गया . सितार से निकलने वाली उन अजीब ध्वनियों को रूपांतरित करके सुरबद्ध करने का एक और कठोर प्रयत्न किया गन्धर्व कुमार ने और सितार से ” सिंग्ग्ग सिंग्ग्ग सिंग्ग्ग ” की इतनी तीख़ी आवाज निकली कि प्रहरियों तक ने तलवारें फेंककर अपने कान ढक लिए . अचानक महामंत्री सितार वादक कुमार पर बहुत व्यग्रता से चिल्लाये ” बंद कर इन घृणित ध्वनियों को . बंद कर मूर्ख- बंद कर “.
सेनापति , विशिष्ट मंत्री ,सामान्य मंत्रियों और अधिकारियों का समूह ,श्रेष्ठी, गणमान्य अतिथि ,गुप्तचर , देशी-विदेशी भांड, नर्तक ,संगीतकर , नगर के मुख्य कोतवाल और सम्मानित नागरिक समूह सब के सब सदमे में थे . ये क्या हो गया है कुमार और सितार को ? गन्धर्व कुमार की देह से पसीना और आँखों से आँसू मुसलाधार निकल रहे थे . प्रजाप्रिय इस पूरे प्रकरण में कुछ भी नहीं बोले . एकदम मौन . बस उनकी लाल ऑंखें उस भरी सभा में अपने सिंहासन की सबसे अंतिम सिढ़ी पर टिकी हुईं थीं . शायद उनके कान में बहुत तेज दर्द हो रहा था . महामंत्री के आदेश पर सभा-प्रबंधक ने शंख फूंक दिया . सभा समाप्त हुई .
कुछ ही पहर बाद महामंत्री ने अपने निवास से सेनापति और सुंग को बुलावा भेजा . क्षणभर में दोनों उपस्थित थे . सेनापति हैरान था कि स्वयं प्रजाप्रिय महामंत्री के घर पधारे हुए थे . यह पहली बार हुआ कि कि कोई अधिपति अपने मातहत के घर आया हो . पर सेनापति बहुत गूढ़ बातें नहीं समझ पाता था .वह केवल आदेश लेता था और उसका अक्षरशः पालन करता था . महामंत्री ने सेनापति को संबोधित किया ” नगर श्रेष्ठियों को तुरत आदेश दो कि समूचे नगर को रंगने के लिए पिसी हुई हल्दी का भण्डारण करें , रातोरात .” आदेश सुनकर सेनापति प्रजाप्रिय के इशारे की प्रतीक्षा करने लगा . जहाँ प्रजाप्रिय स्वयं उपस्थित हों वहां महामंत्री के आदेश का कोई मोल नहीं होता है , वह यह जानता था . प्रजाप्रिय ने मद्धम स्वर में बात दुहरा दी जिसका आशय था कि जैसा अमात्यश्री कह रहें हैं वैसा करो और अगले आदेश की प्रतीक्षा भी . बहुत जल्दी ही बहुत सारे कार्य करने होंगे , सेना को तैयार रखो पर ध्यान रहे प्रिय प्रजा को एक हल्की खरोंच ना आये .
सेनापति की विदाई के बाद शांति पसर गई , कुछ क्षण ठहर कर सुंग ने अपनी शंका जाहिर की “महामंत्री ! मैं समझ नहीं पा रहा कि पीपल के पेड़ वाली ध्वनि सितार से कैसे उठी?”
“ध्वनि सितार से नहीं बल्कि सीताफल से बने सितार के उस तुम्बे से उठी थी सुंग “.
सुंग चकराया ” किन्तु सीताफल में वह कैसे प्रवेश कर गई प्रभु “.
महामंत्री के केश केवल धूप में सफ़ेद नहीं हुए थे. उनके राजकीय अनुभव के आगे इस राज्य या कहें समस्त नगर के सभी कर्मचारी बालक थे, यहाँ तक कि प्रजाप्रिय भी . महामंत्री ने अपनी कल्पना शक्ति से विस्तारपूर्वक सुंग को उन सारी संभावनाओं के बारे में बता डाला जो तर्क की कसौटी पर भी खरी उतर रही थी .सीताफल के बीज संभवतः पीपल की जड़ों या कोटर में किसी पक्षी या चूहे ने संरक्षित किये होंगे . जो ध्वनियाँ पीपल से निकल रही होंगी उनका उन बीजों पर भी असर हुआ होगा . बहुत संभव है कि किसी पक्षी या चूहे ने उन बीजों को इधर -उधर ले जाकर खाया होगा . उनमें से ही कुछ दाने खेतों में बिखर गए होंगे . सुंग सुनता रहा . उसने फिर अपनी अगली शंका जाहिर कि “परन्तु उन ध्वनियों में ऐसा क्या है महामंत्री?” यह प्रश्न सुंग के ओहदे से ऊपर का था लेकिन ऐसे विश्वस्त भेदिये को यह बात बताई जा सकती थी .प्रजाप्रिय ने अपनी गर्दन सुंग के विपरीत खड़े अमात्य की ओर घुमा दी तो अमात्य ने शंका का निवारण किया ” यह विरोधी राष्ट्रों की भयानक कूटनीतिक प्रयासों का फल है सुंग . वो ध्वनियाँ एक शाप को ढ़ो रही हैं , ध्वनियाँ जैसे जैसे नगर में फैलेंगी शाप-छाया इस नगर के समस्त ऐश्वर्य का नाश करती जाएगी . हमें इस बात के साक्ष्य मिले हैं कि वह संत एक तांत्रिक था जिसने शत्रु राष्ट्रों के कहने पर यह सारा काम किया “.
राष्ट्र-भक्त सुंग की भुजाएँ फड़कने लगीं “उनकी इतनी धृष्टता प्रभु?”
पर महामंत्री की चिंता केवल यहीं तक नहीं थी . वे जानते थे कि सीताफल के हज़ारों पौधे अब तक पूरे नगर में उग गए होंगे . उनसे निकलने वाले सीताफलों को ना जाने कितने पशुओं और बचे हुए पक्षियों ने कहाँ-कहाँ फैलाया होगा . जिन जिन जानवरों और पक्षियों ने उसे खाया होगा उनसे वही ध्वनियाँ निकलनी शुरू हो चुकी होंगी ,उनके मलों के माध्यम से ना जाने कितने बीज इधर उधर पुनः फैल गए होंगे . बहुत संभव है कि नगर के किसी नागरिक ने भी कोई सीताफल चखा हो . महामंत्री इसकी कल्पना कर सिहर उठे . पूरे नगर पर पिशाच छाया मंडराने लगी . उन फलों को अगले आठ पहरों में यदि नियंत्रित नहीं किया गया तो इस स्वर्ण-नगरी का विनाश निश्चित था .

४-सीताफल का अंतिम आखेट
एक बार फिर नगर और उसके नागरिकों की अग्नि-परीक्षा की घड़ी आ गई थी .राजसभा में मंत्रिपरिषद् ने एक स्वर में सीताफल को शत्रु राष्ट्रों के सामूहिक षडयंत्र का घृणित हथियार घोषित गया . मंत्री-परिषद् के दबाव में और राजवैद्य सहित समस्त वैज्ञानियो के आग्रह पर प्रजाप्रिय ने भी इस घोषणा पर अपनी अंतिम मुहर लगा दी. नगर के समस्त प्रनिनिधि नागरिकों की सहमति लेते हुए फिर चार बड़ी घोषणाएँ की गईं .
पहली घोषणा के अनुरूप देखते ही देखते समूचे राजमहल और उसके तीन कोष लम्बी सीढ़ियों को हल्दी के लेप से पाट दिया गया .नगर के प्रत्येक घर ,दरवाजे , सड़क , पगडण्डी और सीढ़ियों को भी नगर के डरे हुए नागरिकों ने हल्दी से रंग दिया .यह सब पूर्णतः राजकोषीय सहयोग से ही संभव हुआ . राजवैद्य ने नागरिकों के लिए एक पत्र ज़ारी किया था कि हल्दी के लेप से इस शाप-छाया का कोई असर ना होगा . नागरिक सदैव हल्दी की गाँठ कमर में कस कर चलें .
दूसरी घोषणा के मुताबिक सीताफल अब एक राष्ट्र-द्रोही फल था . प्रजा इस खतरे को जान गई , उसे ज्ञात था कि किस तरह पिछले पहर ही गन्धर्व कुमार ,राजवैद्य और समस्त विज्ञानियों से सीताफल देखते ही देखते तत्काल ज़ब्त कर लिया गया था. ओर उनके घरों, आँगनों और घर के पिछवाड़े तक को खोद कर सेनापति सारे बीज और पौधे ले गए थे. यहाँ तक कि उनके घरों के समस्त पेड़ और पशु अब राजकीय नियंत्रण में जा चुके थे . दूसरी ही घोषणा के अनुसार उस शापग्रस्त फल या उसके बीज या उसके पौधे को यदि किसी नागरिक के पास पाया गया तो वह महादंड का भागी होगा . हाँ ,उस फल या उसके पौधों या बीजों को जो भी नागरिक नगर प्रशासन को तत्काल भेंट करेगा उसको स्वर्ण-मुद्राएँ और प्रशस्ति-पत्र दिए जायेंगे . बस इसकी अवधि केवल अगले आठ पहर तक निश्चित की गई थी . देखते ही देखते नागरिक सीताफल की खोज में दौड़ पड़े . अगले तीन पहर तक नगर कोलाहल से भरा रहा . जिसे जहाँ भी सीताफल दिखा वह उसे वहाँ से उखाड़कर सीधे नगर-प्रशासक तक पहुँचाने लगा . आठवें पहर की समाप्ति से बहुत पहले शासन, प्रशासन और प्रजा के सामूहिक प्रयासों से सीताफल के लगभग पौधे , फल और दाने अपनी धरती से उखड़कर राजकीय भंडार-गृह में ठूँस दिए गए और जल्दी ही उसमें आग लगा दी गई . आग की लपटें जब ऊँची उठीं तो नगर के नागरिकों ने एक स्वर में प्रजाप्रिय का जयघोष किया. प्रजाप्रिय ने भी तत्काल अपनी शोभा-यात्रा निकली और नगर-भ्रमण किया . इस तरह सूर्योदय की घोषणा के साथ-साथ नगर का पहला पहर शुरू हुआ .
प्रजा जानती थी कि प्रजाप्रिय ना थकते हैं -ना सोते हैं . यह राजा ना होता तो पता नहीं प्रजा को क्या क्या दुःख झेलने पड़ते . नगर के वृद्ध नागरिक अभी तक नहीं भूले कि इस राज्य ने दरिद्रता के दौर में क्या क्या दुःख नहीं झेले , दाने दाने को लोग तरस गए थे . हालफिलहाल में प्रजाप्रिय ने बड़ी मुश्किल से शनि को नगर-बदर किया गया था . भावुक प्रजा ने प्रजाप्रिय को उनकी इस बार की शोभा-यात्रा में जयजयकार के साथ घेर लिया . नागरिक उनके रथ के आगे-पीछे हाथ जोड़े खड़े हो गए . प्रजाप्रिय रथ से नीचे उतारे और उपस्थित नागरिकों में एक सबसे वृद्ध नागरिक का हाथ बड़े प्यार से अपने हाथ में थाम लिया . ख़ुशी के मारे उस वृद्ध की रुलाई छूट गई . नागरिकों ने एक बार फिर प्रजाप्रिय का जयघोष किया . प्रजाप्रिय ने प्रजा को शांत रहने का इशारा किया और उस वृद्ध नागरिक का हाथ थामे संबोधित किया “बाबा ! मुझे आपके आँसुओं की नहीं आशीर्वाद की ज़रूरत है . मुझे आशीर्वाद दो कि मैं सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलूँ .” इतना कहकर राजा रथ पर सवार हुए और आगे बढ़ गए .
शाकाहार अब राष्ट्रीय भोजन बन गया था . सब्जियों में सीताफल और उसकी प्रजाति की तमाम सब्जियों को अखाद्य और स्वास्थ्य-विरोधी माना गया . तीसरी राजकीय घोषणा के अनुसार पशु-वध को अपराध घोषित किया गया . किसी भी पशु को मारना ,खाना और उसके चमड़े का व्यापार करना निषिद्ध हो गया.चमड़े से बनने वाली तमाम चीजें भी निषिद्ध कर दी गईं यहाँ तक कि ढ़ोलक भी .अहिंसा के मार्ग में चलने में मासाहार सबसे बड़ी बाधा थी यह अब जाकर समझ में आया . ऐसा माना गया कि पशु-वध करते ही उसमें शाप-छाया बैठ सकती है और उस मृत-चर्म से बनने वाली हर चीज में घुस कर हमारे जीवन-राग़ को ख़राब कर सकती है.
इसी मान्यता पर चलते हुए सीताफल से बननेवाले तमाम यंत्रों पर पाबन्दी लग चुकी थी . यहाँ तक कि लकड़ी से बनने वाले तमाम वाद्य-यंत्रों पर फ़िलहाल रोक लगा दी गई , बाँसुरी तक पर भी . वर्तुल के नागरिकों से प्रजाप्रिय ने विशेष आग्रह किया था कि जहाँ कहीं से और जिस किसी से भी अर्थात पशु-पक्षी-छोटे बड़े जीव-जंतु ,पेड़ -फल-फूल-लकड़ी -मानव-दानव-देवता-वानर ,धरती-आकाश से कोई भी अजीब ध्वनि उठे तो वह ज़रूर ही शापित-ध्वनि होगी ; जिसकी सूचना अविलम्ब राजमहल को दी जाए . प्रजाप्रिय का यह भी मानना था कि इस शाप से निदान लम्बे समय के संगठित संघर्ष से ही संभव है . राष्ट्र को हमेशा से ही एक ईमानदार संघर्ष की जरूरत रहती है . जिस राज्य के नागरिक और प्रशासक चौकन्ने हों वहाँ का राजा समस्त भूमंडल की आसुरी शक्तियों से लोहा ले सकता है .
चौथी राजकीय घोषणा ने तो समस्त प्रजा का हृदय ही जीत लिया . यह घोषणा थी निःशुल्क और अनिवार्य स्वास्थ्य -निरीक्षण की . नगर के सभी नागरिकों यथा बूढ़े ,बीमार, युवा, नर, नारी, बच्चे और पशुओं तक का नि:शुल्क और अनिवार्य परीक्षण शुरू हुआ और ‘आरोग्य-पत्र’ भी दिए गए .जानवरों की लीद तक इकट्ठी की गई जहाँ तत्काल प्रहरियों की तैनाती हो गई .नगर के दस ख़ाली मैदानों को लीद-संग्रह का केंद्र बनाया गया और अगले कई पहरों तक उनका सघन निरीक्षण किया गया . लीद में सीताफल के दानों के होने की प्रबल संभावना थी. एक विशेष औषधि के छिड़काव के बाद समस्त लीद जला दी गई . नगर के जितने भी चिड़िया-चुरुंग बच गए थे उन्हें बहेलियों के कौशल पर छोड़ दिया गया.हालांकि संगठित रूप से उनका कभी भी आखेट नहीं हुआ लेकिन वे धीरे-धीरे लुप्त हो गए. इधर राजवैद्य को यह डर सता रहा था कि सीताफल वाली बीमारी से कहीं कोई नागरिक संक्रमित ना हो . पर ईश्वर इस बार वर्तुल के साथ था . शनि के आशीर्वाद से पूरे राज्य में केवल इक्कीस ऐसे नागरिक पाए गए जिनमें वह संक्रमण था. महामंत्री के विशेष देखरेख में उन्हें नगर से बहुत दूर दक्षिणी द्वार से थोड़ा हटकर बिलकुल एकांत में औषधि वैज्ञानियों के निरीक्षण में रखवाया गया था . भारी राजकोषीय सहयोग से वहां उन रोगियों के लम्बे समय तक स्वास्थ्य-लाभ लेने की व्यवस्था की गई . कुल मिलकर पुनः प्रजाप्रिय ने नगर को शापित होने से बचा लिया था .
लोग कहते हैं कि उस घटना के बाद वर्तुल नगर में धीरे धीरे सब सामान्य हो गया . व्यापार अब भी बड़ी तेजी से फलफूल रहा था .किन्तु प्रजा का संगीत से कुछ मोहभंग हो गया था . हाँ , स्थापत्य कला ने कारीगरी की नयी मीनारें छू ली थीं . इधर भांडों,नटों ,नर्तकियों और मसखरों की संख्या नगर में और बढ़ गई थी , वे हर नए पहर कुछ नया लेकर आते . वैसे भी उनको अब करमुक्त नागरिकों की श्रेणी में रखा गया था . मसखरों को तो लोग लहालोट होकर सुनते और देखते . कहते हैं कि इस नगर के भाड़ों , मसखरों और नर्तकियों की चर्चा दूर दूर के देश में होने लगी थी .कुछ भांड और नर्तकियाँ अक्सर देश-विदेश का भ्रमण करते रहते .
यह ठीक है कि प्रजा कुछ निश्चिन्त हो गई थी लेकिन प्रजाप्रिय नहीं. वे ना थकते थे ना सोते थे . उनके आदेश से अब भी परकोटों और सिंह -द्वारों पर बहेलिये तैनात थे, नगरों में कई भेदिये अब भी उस ध्वनि की टोह लेते रहते. अब यह नगर एक ईमानदार और चौकस प्रशासनिक गतिविधि की मिसाल बन गया था.इधर नगर के भी कुछ कम कमाने वाले नागरिक ख़ाली समय में सीताफल के बीज ढूँढते रहते .राजकाज से थोड़ी फुर्सत पाते ही प्रजाप्रिय फिर अपने राजमहल के परकोटों पर टहलते हुए देखे जाने लगे. एक बार तीसरे पहर जब वे टहल रहे थे तो दक्षिणी परकोट के कोने की दिवार में लगे आइने के सामने ठहर गए. प्रजाप्रिय ने अपने प्रिय ख़बरी की मृत्यु के बाद केश संवारना छोड़ दिया था .उनकी दाढ़ी भी बहुत बढ़ गई थी . प्रजाप्रिय ने आहिस्ते-से अपना मुकुट उतारा तो उनके लम्बे केश उनके कंधे पर झूल गए . पता नहीं क्यों उनके सिर का पीछले हिस्सा अब ज्यादा टीस रहा था . उन्होंने उँगलियों से उस हिस्से को सहलाया. वहां दो छोटे छोटे नुकीले उभार थे . वे उभार ही टीस मार रहे थे . प्रजाप्रिय ने आईने के सामने अपना सर झुकाकर ग़ौर से देखा तो वे दोनों उभार अब और बड़े हो चले थे . उन्हें याद आया कि ख़बरी शुरू शुरू में उनका केश सँवारते समय इन्हीं नुकीले उभारों को देखकर डर गया था . तब प्रजाप्रिय को उसकी मूर्खता पर हँसी आ गई थी. प्रजाप्रिय ने हंसते हुए ही उसे कहा था ” डर मत ख़बरी, यह जन्मना है. बस याद रख कि राजा और नाई का रिश्ता बहुत भरोसे का होता है , गोपनीयता ही इसकी कुंजी है”.तब ख़बरी ने हामी भरी थी. बहुत प्रिय था वह ख़बरी उन्हें.
हालांकि सुंग के कुछ प्रतिद्वंदी गुताचरों ने यह हवा फैला रखी थी कि ख़बरी की हत्या सुंग ने ही की थी, जब ख़बरी उस पहर संत का मान-मुनौव्वल और याचना करके लौट रहा था . पर प्रजाप्रिय को इन झूठी हवाओं पर भरोसा ना हुआ . प्रजाप्रिय को इन अफ़वाहों से चिढ़ थी . ख़बरी की शरारती मुस्कान वाला चेहरा प्रजाप्रिय के आँखों के सामने नाच गया . प्रजाप्रिय की आँखें डबडबा गईं और उन्होंने अपने हाथ के नाख़ून अपने जबड़ों के मध्य कस लिए . प्रजाप्रिय ने महसूस किया कि इतने दिनों में उनके नाखून भी बहुत बढ़ गए हैं . जल्दी ही किसी नए नाई की व्यवस्था ना हुई तो प्रजाप्रिय के नखशिख सौंदर्य की चर्चाएँ मंद पड़ जाएँगी. बूढ़े महामंत्री को उन्होंने इसी काम के लिए बुलाया था कि किसी नये हज्जाम की नियुक्ति हो पाए .बशर्ते वह विश्वसनीय और हँसमुख हो .प्रजाप्रिय महामंत्री के इंतजार में फिर टहलने लगें .वे टहलते हुए बीच बीच में परकोटे से नीचे वर्तुल को झाँक भी लेते .परकोटों के नीचे पूरा का पूरा वर्तुल जगमग कर रहा था. वही वर्तुल जिसकी सुन्दरता के आगे इन्द्र और कुबेर के साम्राज्य फीके थे .
लोग कहते हैं कि तब भी राजा संतुष्ट नहीं था .वह ना थकता था और ना सोता था . बड़ा प्रतापी राजा था वह .

५ .सहस्त्र-सूर्य पर अंतिम ग्रहण
प्रजाप्रिय को प्रजा देवतुल्य तो मानती ही थी किन्तु प्रजाप्रिय अपनी असाधारण क्षमताओं के बावजूद थे तो एक मनुष्य ही ; मनुष्य योनि का एक असाधारण मनुष्य जिसने अपने नगर और नागरिकों के उत्थान के लिए प्रकृति से लड़कर रात-दिन का भेद ख़त्म किया . जिसने नागरिकों के ऐश्वर्य के लिए सोना और थकना छोड़ दिया . जिसने अपनी कमनाओं का जर्रा-जर्रा प्रजा-कल्याण के लिए होम कर दिया . किन्तु प्रजाप्रिय त्रिकाल को वश में करने की क्षमता प्राप्त नहीं कर सके .उनकी साधना में अभी कई रोड़े थे और यह प्रकृति भी तो मूलतः उनकी विरोधी ही थी ; न जाने क्यों वह राग़ के साथ द्वेष को , महानता के साथ क्षुद्रता को , उजाले के साथ अँधेरे को और सत्य के साथ असत्य को जनमती है ? राग को धारण करने वाले और महानता की प्रतिमूर्ति प्रजाप्रिय के बारे में सभी जानते थे कि उनके सारे कर्म सत्य से संचालित होते हैं. किन्तु द्वेष, क्षुद्रता और असत्य जैसी अमानवीय प्राकृतिक संरचना का क्या ही उपाय है जिसका सामना आये दिन प्रजाप्रिय को करना पड़ता था . अभी उजाले और क्रूर अँधेरे के बीच की निर्णायक लड़ाई बाक़ी थी. कहते हैं कि प्रजाप्रिय धवलता के साक्षात् प्रतिरूप थे .परन्तु उसी प्रकृति ने राजा के साथ-साथ प्रजा को भी जनमा था .
वैसे ऊपर से देखने पर वर्तुल का जीवन सहज रूप से वैसे ही था -दिव्य और प्रभावशाली . तिल बराबर भी उसके ऐश्वर्य और आनंद में कमी न आई थी बल्कि अब तो कुछ नागरिक कहने लगे थे कि “ये स्वर्ग क्या होता है ? जो है बस वर्तुल है “. यह सब सुनकर प्रजाप्रिय का सीना चौड़ा हो जाता है . किन्तु कुछ ऐसा घट रहा था वर्तुल में जो साफ़ दिख नहीं रहा था पर वह था ज़रूर .
इधर प्रजाप्रिय अब पहले से ज्यादा कांतिमान दिखने लगे थे , उनके यौवन के तो क्या कहने . नए ख़बरी की नियुक्ति हो चुकी थी और वह प्रजाप्रिय की देह को माणिक जैसा चमका रहा था . बस पहले वाले ख़बरी से उसकी स्थिति थोड़ी भिन्न थी . उसका नाम कंधक था और उसे कोई ख़बरी नाम से नहीं पुकारता था . अब केवल राजमहल मे ही रहता था . उसे तमाम सुविधाएँ थी लेकिन प्रजाप्रिय ने प्रेमवश उसे महल के बाहर जाने की मनाही कर रखी थी . उन्हें डर था कि कहीं इसके साथ भी कुछ बुरा ना हो जाए . प्रजाप्रिय ने प्रण कर लिया था कि राजमहल हो या नगर , उसके किसी भी नागरिक को ख़रोंच भी लगने नहीं देंगे . इसीलिए प्रजाप्रिय ने उस बुढ़िया और उसके किशोर वय के पुत्र को नगर में विशेष संरक्षण दे रखा था. सुरक्षा-कारणों से एकाध सेवकों के अलावा केवल सुंग ही उनसे मिल सकता था . नहीं तो कोई नहीं . शेष प्रजा उस बुढ़िया और उसके बच्चे के अहोभाग्य पर जलती-भुनती रहती .
सुंग इस बार भी बुढ़िया से मिलने आया तो देखा कि बुढ़िया और उसका बालक बहुत उल्लास में नहीं थे . सुंग को हैरानी होती कि तमाम ऐश्वर्य और सुख-सुविधा भोगने के बाद भी कोई ऐसे कैसे रह सकता है ? उसने बहुत दुलार से फिर जानना चाहा कि उन्हें कोई परेशानी तो नहीं . पर ऐसी कोई बात निकल नहीं रही थी . शायद बुढ़िया कुछ कहना चाह रही थी पर कुछ सोच कर कहते कहते रह जा रही थी . सुंग निराश भाव से लौट गया . भेदिये की ज़िंदगी चौआई हवा की तरह होती है – कभी पूरब तो कभी पश्चिम तो कभी चारों दिशाओं में . विगत सौ पहरों में नगर के तमाम गुप्तचरों की सक्रियता बहुत बढ़ गई थी , सुंग को फ़ुर्सत कहाँ थी.
इस सक्रियता का परिणाम भी जल्दी सामने आ गया . आखिरकार सुंग ने एक नागरिक को रंगे हाथों पकड़ा . उसने औचक ही अंदाजा लगाया था कि यह नागरिक कुछ ज्यादा ही प्रसन्न दीखता था और पहले चार पहर के बाद दूसरे चार पहर गायब रहता था . कहीं खोजो पर नामोनिशान नहीं मिलता ,फिर अचानक से अगले चार पहर तक चहकते हुए मिलता . एक दिन सुंग चुपचाप उसके घर के पिछवाड़े से उसके स्नान-गृह में जा छुपा जो कमर तक अपारदर्शी था . वहां एक बहुत बड़ी और गोल ताँबे की थाली दिखी तो उसे संदेह हुआ , उसने जैसे ही थाली हटाई एक सुरंग दिखी . वह उसमें प्रवेश कर गया . भीतर बहुत ठंड थी और घुप्प अँधेरा . सुंग ने अपनी चोर-बत्ती से रोशनी की तो पाया कि वह एक छोटा सा कमरा था जिसमे एक चारपाई और चादर- तकिया पड़ा हुआ था . बाहर का कोई शोर कोई कोलाहल यहाँ नहीं आ रहा था , एक अजीब सी शांति थी. वह देर तक निरीक्षण करता रहा पर एक पानी भरी सुराही के अलावा कुछ भी नहीं था वहां .धीरे-धीरे उस अजीब सी शांति और शीतलता का प्रभाव सुंग पर बहुत साफ़ पड़ने लगा और उसकी आँखें भारी होने लगीं . किसी शाप-छाया ने मानो अचानक ही उसकी मति मार , उसे नींद के हवाले कर दिया . सहस्त्र पहरों का थका हुआ सुंग न चाहते हुए भी उसके आग़ोश में चला गया .
अभी एक पहर गुजरा ही था कि थाली हटाने की आवाज़ से सुंग की नींद खुली और वह झट से कोने में जा छिपा . उसने देखा कि वह नागरिक जो चार चार पहरों तक गायब रहता था ,आया और चुपके से खाट को अंदाजे में टटोलने लगा , फिर उसने ज़ोर की उबासियाँ लीं और खाट पर चादर तानकर सो गया . सुंग ने तुरत चोर-बत्ती जला दी .नागरिक उचककर बैठ गया , नागरिक की धडकनें उसका सीना फोड़कर बाहर आने लगीं . सुंग ने अपनी छोटी आँखों से घूरते हुए कहा ” इस राज्य में सोने की मनाही नहीं नागरिक , लेकिन गुप्त-गृह बनाना अवश्य दंडनीय है “. नागरिक जानता था कि इस राज्य में बस एक ही दंड है . वह सुंग के पैरों में गिरकर बिलखने लगा ‘क्षमा प्रभु क्षमा ! आगे से कभी नहीं होगा प्रभु क्षमा करें “. गुप्तचर राज्यादेश के मारे होते हैं भावनाओं के नहीं , सुंग पर कोई असर नहीं पड़ा , उसने नागरिक को ठोकर मारते हुए कहा ” यह प्रलाप प्रजाप्रिय के सामने करना मूर्ख , तूने वर्तुल के उत्थान में व्यावधान डाला है .तेरी इस शैतानी युक्ति का अंत ज़रूरी है “. नागरिक ने उखड़ती हुई साँसों से फिर गुहार लगाई ” अब कभी नहीं सोऊँगा यहाँ इस अँधेरे में , बस इस बार माफ़ कर दें… मेरे प्रभु … बस एक बार . रोशनियों और शोर के बीच मुझे नींद नहीं आने की बीमारी है प्रभु , बस अच्छी नींद के लिए ये सब किया था प्रभु , मुझे माफ़ करें . बस एक अवसर दें . मुझे माफ़ करें “. उसने सुंग के पैर जकड़ लिए पर सुंग सुंग था ,वह सबकुछ बर्दाश्त कर सकता था पर राजद्रोह नहीं. उसने अपराधी को बालों से खींचकर खड़ा किया तो बेबस अपराधी ने अंतिम गुहार लगाई “प्रभु मैं अंतिम नहीं प्रभु , मैं अंतिम नहीं … मैं अकेला तो नहीं जो ऐसा करता हो”. नागरिक के इस अंतिम वाक्य से सुंग ठिठक गया ” क्या ? क्या कहा तूने ? क्या औरों ने भी ऐसे गर्भ-गृह बना रखें हैं ?”
नागरिक थोड़ा चेता ” यह बात सभी जानते हैं प्रभु , केवल मैं ही नहीं “.
“कौन कौन हैं , नाम बता अपराधी, नाम बता उनके “.
नागरिक फफककर रो गया ” कितनों के नाम बताऊँ प्रभु , कितनों के नाम बताऊँ ? ”
सुंग सन्न रह गया . इतनी चौकसी के बाद भी इतने बड़े पैमाने पर यह अनहोनी हो रही है और उसे पता ही नहीं . अचानक से उसे नगर के सारे भेदियों से नफ़रत हो आई . सारा नगर जानता है कि सुंग ही इस नगर का अब प्रधान गुप्तचर था और सारे भेदिये उसके मातहत . वह प्रजाप्रिय को क्या जवाब देगा ? भय और क्रोध से उसकी देह कांपने लगी . उसने एक मजबूत ठोकर उस नागरिक के चेहरे पर मार दी और उस गर्भ-गृह से बाहर निकल आया . वह जाते जाते उस विकास-विरोधी नागरिक को आदेश देकर निकला कि चुपके से बिना किसी को पता चले अगले दस पहर में यह गर्भ-गृह भूंसे से भर जाना चाहिए .
सुंग जान गया था कि नगर में गर्भ-गृहों के निर्माण बड़े पैमाने पर हो चुके थे . उसने अंदाजा लगया कि ज़रूर इस निर्माण प्रक्रिया की सूचना ‘कुछ’ गुप्तचरों और कोतवालों को होगी . बस उन्हीं ‘कुछों’ का पता करना था . प्रजाप्रिय इधर चारों सिंह-द्वारों का निरीक्षण करने निकले थे . उन्हें यह खबर जल्दी से जल्दी ना दी गई तो अनहोनी हो कर रहेगी .सुंग प्रजाप्रिय का पीछा अगले दो पहरों तक करता रहा . उसे पता चला कि प्रजाप्रिय अभी दक्षिणी-द्वार पर हैं और तीसरे पहर उसने प्रजाप्रिय को पा लिया . उसने उनके कान में क्षणभर कुछ कहा और प्रजाप्रिय ने तुरत महल चलने का आदेश दिया . उनकी भृकुटियाँ सुंग पर तन गईं थीं . पता नहीं क्या होगा आज सुंग का .
महल के पश्चिमी परकोटे पर प्रजाप्रिय समेत केवल चार लोग थे . प्रजाप्रिय लगातार टहल रहे थे और अमात्य श्री , सेनापति और सुंग हाथ बाँधे खड़े थे . करुणानिधान ने अमात्य श्री के कहने पर सुंग को अभयदान दे दिया था लेकिन उनकी बेचैनी बता रही थी कि नगर अद्वितीय संकट से घिर आया था . उन्हें भरोसा ही नहीं हो रहा था कि ऐसा हो गया . टहलते हुए प्रजाप्रिय अचानक रुके और सुंग की ओर मुड़े , कहा ” यह तो ध्यान ही रहे सुंग कि इस नगर में किसी भी नागरिक को सोने की मनाही नहीं किन्तु प्रजा यह कैसे भूल सकती है कि जहाँ जहाँ अँधेरा होगा वहाँ वहाँ शाप-छाया के प्रवेश की आशंका है “. शाप-छाया का नाम सुनते ही सुंग के रोंगटे खड़े हो गए .उसे वह अँधेरा गर्भ-गृह याद आ गया जिसकी शापित शीतलता और शांति ने किस तरह सुंग की देह को सहला सहला कर सुला दिया था . किन्तु सुंग ने प्रजाप्रिय को यह बात नहीं बतलाई . इधर सेनापति का मत था कि सामूहिक महादंड ही इसका एक मात्र उपाय है किन्तु अमात्य श्री और प्रजाप्रिय इसके पक्ष में ना थे -” हम उन मुट्ठी भर दुष्ट नागरिकों पर भी महादंड लगाने के पक्ष में नहीं हैं .. पर समाधान तो निकालना ही होगा सेनापति “.
पहरों मंत्रणा के बाद तय हुआ कि सूर्य के आकार की एक एक आहत स्वर्ण मुद्रा नगर के प्रत्येक नागरिक को राजकीय खर्च पर भेंट-स्वरुप दी जाए और नए राजकीय घोषणा के द्वारा हर चौथे पहर उसकी आरती को अनिवार्य बनाया जाए . तय यह भी हुआ कि उन ‘कुछ’ भ्रष्ट नागरिकों और अधिकारियों की पहचान के लिए नए नए प्रतिबद्ध गुप्तचर लगाये जाएँ जो गुप्तचरी की पाठशाला से अभी अभी निष्णात होकर निकले हैं .साथ ही साथ नगर के तमाम राज-अधिकारियों के वेतन में दोगुनी वृद्धि करने की सहमति भी बनी . नगर के सभी पुरोहितों की आमदनी को करमुक्त कर दिया गया और यज्ञ की सभी सामग्रियों की ख़रीद को आधा अवमूल्यित कर दिया गया . चीजें जब सस्ती होती हैं तो प्रजा की असहमतियाँ ज्यादा देर टिकती नहीं . मन्त्रणा की समाप्ति पर अमात्य ने सुंग को बुला कर कहा ” सुंग , यह हमेशा याद रखना कि ‘कुछ’ ही लोग दुष्ट हैं सारी प्रजा नहीं .अतः बहुत सोच-विचार कर काम करना है , हर दूसरे पहर मुझ से मिला करो .” सुंग सीढ़ियाँ नापते उतर गया . उसे इस बात पर बेहद कष्ट था कि अमात्य श्री को अब जन-विद्रोह का डर सता रहा था . सुंग के होते हुए भला यह संभव है ?
सारी घोषणाएं अगले पहर लागू कर दी गईं और प्रजाप्रिय का नगर-भ्रमण भी लगातार होने लगा . वही ढोल-मंजीरे वही चमक-धमक वही जयघोष . कहीं से नहीं लग रहा था कि इन दिनों कुछ अवांछित हुआ है . प्रजाप्रिय को भी थोड़ा संतोष हुआ . वे अब नगर के प्रत्येक चौराहे पर उतरकर नागरिकों का अभिवादन लेते और हालचाल पूछते . प्रजा तो उनकी इस प्रजाप्रियता से बावली होती जा रही थी .ओ प्रजाप्रिय आप दीर्घायु हों .
पर यह निष्ठुर प्रकृति ? इसकी कुंडली में ही हादसा लिखा हुआ है . हुआ कुछ विशेष ना था . वर्तुल का ही एक बच्चा खुले मैदान में पतंग उड़ा रहा था . उसकी डोर अप्रत्याशित ढ़ंग से लम्बी थी . उसकी पतंग आसमान में बहुत ऊपर खिंची चली गई और सूरज के एक गोले में जा अटकी . बच्चे ने धागे को जरा ज़ोर से खिंचा तो वह सूरज धरती की ओर थोड़ा सरक आया . बालक को हैरानी हुई . वैसे नागरिकों ने ध्यान नहीं दिया था कि सूरज का यह गोला पिछले कुछ पहरों से बाकि सूरज के गोलों से थोड़ा नीचे सरक आया था . पतंग तो पहले भी उड़ाई जाती थीं , बहुत ऊँची ऊँची . लेकिन यह गोला इधर कुछ ज्यादा ही सरक आया था और अब वह बच्चे की पतंग से जा अटका . बच्चे ने नासमझी में अपने धागे को कुछ और ज़ोर से खिंचा तो वह गोला बिलकुल लुढ़कता हुआ जमीन पर आ गिरा और एक भीषण ध्वनि के साथ विस्फोट हुआ . एक सूरज धरती पर चकनाचूर पड़ा था . मैदान में अँधेरा छा गया . कहते हैं कि यहीं से वर्तुल में शाप-छाया का प्रवेश हो गया . लोग यह भी कहते हैं कि उस मैदान में अँधेरा छाते ही झींगुरों का शोर इस कदर बढ़ गया जैसा पहले कभी नहीं सुना गया था . झींगुर अजीब किस्म की ध्वनियाँ निकाल रहे थे .
इधर सुंग अब हर पहर राजमहल जाने लगा किन्तु समाधान लेकर नहीं , समस्याएँ लेकर . नगर को शाप-छाया ने धीरे धीरे निगलना शुरू कर दिया था . नगर के पूर्वी हिस्से में कुछ गर्भ-गृहों की पहचान के बाद उनमें ताले जड़ दिए गए थे और उनके मालिकों को नए राजकीय आवास भी उपलब्ध करवाए गए थे. लेकिन कहते हैं कि इसके तीसरे पहर ही उसी इलाक़े में कौवों का एक जोड़ा विचित्र प्रकार की ध्वनि निकालते हुए सुना गया . क्या यह किसी क्रिया की प्रतिक्रिया थी ? कुछ जानवरों में फिर से सीताफल खाने के बाद के लक्षण दिखने की सूचना बार बार राजमहल को दी जाने लगी .किन्तु सीताफल कहीं मिला ना था .हो सकता है किसी दुष्ट नागरिक ने यह अफ़वाह फैलाई हो किन्तु इसी बीच उस पतंगवाले बालक की घटना घट गई . कुलगुरु वान्दीक की जगह आये नए कुलगुरु ने तुरत ही उस मैदान का भ्रमण किया और सूर्य-उपासना की . शाप-छाया से मुक्ति के लिए वहाँ हजारों मशालें जलाईं गईं . कुलगुरु को इस बात की ज्यादा हैरानी थी कि प्रजा को इस अँधेरे का कोई डर शायद सता नहीं रहा था बल्कि उनकी ऑंखें अन्यमनस्क भाव से कुलगुरु के सारे कर्मकांड को देख रही थी . क्या पूर्वी छोर को सचमुच शाप-छाया ने ग्रस लिया है , पूरी तरह ? फिर भी नगर के हालात इतने बिगड़े न थे , प्रशासन पहले से और ज्यादा मुस्तैद था और घोषणा की गई कि किसी भी तरह के झूठे अफ़वाह को फ़ैलाने पर महादंड का सामना करना पड़ेगा .
नगर की इस उठापटक से परे वह बुढ़िया और उसका बालक गुमसुम अपने छोटे से राजकीय आवास में बैठे थे . बुढ़िया की उम्र बहुत ज्यादा ढल गई थी और बच्चा कुछ और बड़ा हो रहा था . वह अक्सर गिलहरियों के झुँड से घिरा रहता ,उसने सैकड़ों गिलहरियों को अपना मित्र बना रखा था . उनमें वह गिलहरी और उसके तीनों बच्चे भी शामिल थे जो पीपल के पेड़ के समय से बालक को जानते थे . वे अक्सर बालक के कपड़े के भीतर घुसकर ऊँघते रहते . सेवकों को आश्चर्य होता ? तभी बालक ने एक सेवक से कहा कि इन गिलहरियों को खाने के लिए कुछ दाने दे दे , लेकिन सेवक ने बेरुखी दिखाई .वह सेवक नहीं भेदिया था यह बात बस बुढ़िया जानती थी . बालक को पता नहीं क्या याद आया और वह अपने शयन-कक्ष से एक पुरानी पोटली ले आया . पोटली खोलते ही सारी गिलहरियाँ उस पोटली पर टूट पड़ीं और देखते ही देखते सैकड़ों सीताफल के दाने वहां उपस्थित दर्जनों गिलहरियाँ चट कर गईं . यह वही दाने थे जो कभी पीपल के कोटर में से बालक ने निकाले थे .
अगले ही कुछ पहरों में समूचे नगर में हाहाकार मच गया . सीताफल के सैकड़ों पौधे पूरे वर्तुल में पुनः उग आये थे . वही सुनहला रंग और वही उत्थान और तेजी . प्रशासन जब तक चेतता तब तक कई पशु-पक्षी उस फल को अपना चारा बना चुके थे . नगर ‘सिंग्ग सिंग्ग सिंग्ग’ के अजीब शोर को चुपचाप सुनता रहा . कुछ पढ़े-लिखे विद्रोही किस्म के नागरिक तो उन ध्वनियों का अर्थ-संधान करने में लग गए थे . सुंग ने जब यह सारी सूचना दी तो प्रजाप्रिय उसी पर भड़क उठे ” तो नागरिकों में ऐलान करवाओ कि एक एक सीताफल के बदले उसके वजन के बराबर स्वर्ण-मुद्राएँ दी जायेंगी “.
सुंग अब कैसे समझाता कि इस ऐलान के बावजूद भी ‘कुछ’ को छोड़ बाकि नागरिक कोई पहल नहीं कर रहे हैं. वह प्रजाप्रिय को यह भी नहीं बतला पाया कि शाप-छाया को लेकर वर्तुल के नागरिक तरह तरह के अफ़वाहों के शिकार हो चुके हैं .वे एक भयानक भ्रम में हैं और सीताफल को उखाड़ने से डरने लगे हैं . सुंग ने यह भी अफ़वाह सुन रखी थी कि कुछ नागरिक यह भरोसा करने लगे हैं कि वह संत जी उठा है और उसकी सफ़ेद छाया कई जगह देखी गई है .इधर पूर्वी छोर के कुछ नागरिकों ने उस जादुई सीताफल को चख लिया था और उनके मूंह से ‘सिंग्ग सिंग्ग’ की ध्वनियाँ फूट रही थीं . इससे पहले स्थिति कुछ और बिगड़ती , अमात्य श्री ने आपातकाल की घोषणा कर दी और समस्त सेना और कर्मचारियों को शस्त्र धारण करवा दिए . किन्तु नगर के अनुपात में समस्त राज-कर्मचारी बहुत थोड़े से थे . जनता के सहयोग के बिना यह लड़ाई जीतनी मुश्किल हो रही थी . बड़े व्यापारियों , श्रेष्ठियों और सम्मानित नागरिक समूहों से प्रजाप्रिय व्यक्तिगत रूप से मिले . कुछ विश्वासी नागरिकों की भी फ़ौजें बनाई गईं .
प्रजाप्रिय एक निर्णायक लड़ाई लड़ने ही जा रहे थे कि पता चला कि सुंग ने आत्महत्या कर ली . समूचा राजमहल स्तब्ध हो गया . ऐसी अनहोनी कैसे हो गई ? वह भी ऐसे मौके पर ? प्रजाप्रिय की आँखें छलछला कर रह गईं . सबसे पहले उन्होंने इस घटनाक्रम को साफ़ साफ़ समझने के लिए अमात्य को भेजा . एक पहर बाद ही अमात्य ने जो सूचना दी उसने प्रजाप्रिय का सारा मनोबल तोड़ दिया . अमात्य ने बताया कि सुंग को गुप्तचरों के हवाले यह पता चला था कि सीताफल के दाने उस बुढ़िया के बच्चे ने ही गिलहरियों को खिलाए थे . राष्ट्र-भक्त सुंग की भुजाएँ फड़क उठीं . उसने सैकड़ों सिपाहियों के साथ सीधे बुढ़िया के घर पर धावा मारा . वह बच्चा उस समय भी गिलहरियों के साथ खेल रहा था . सुंग के क्रोध की कोई सीमा ना रही . उसने तुरत उस बच्चे पर भाला चला दिया . भाला बच्चे की छाती चीर कर पार हो गया . बुढ़िया चीखते हुए बच्चे की ओर दौड़ी ” अरे सुंग.. अरे सुंग … ये क्या कर दिया सुंग ..अरे सुंग ये क्या कर दिया ..”. बुढ़िया जार-जार रोने . उसके आँसुओं से दर्द से छटपटाते बच्चे का चेहरा भीग गया . बच्चा बेहद हल्की-हल्की साँसे ले रहा था .ये उसकी अंतिम साँसे थीं . बच्चे के गुलाबी होंठ सुखकर कत्थई हो चले थे और पुतलियाँ तिरछी हो कर पलट गई थीं . बूढ़ी माँ का रुदन सुनकर उस बच्चे ने धीरे से आँख खोलने का जतन किया और अपनी रोती हुई बूढी माँ को पुकारा” माँ माँ “. बुढ़िया बच्चे को चूमने लगी तो बच्चे ने बहुत गीली आवाज में कहा ” माँ .. ख़बरी ने पीपल के कोटर में जो बात कही थी वो मैंने सुनी थी माँ ‘. बूढी माँ और फफककर रोने लगी ‘मत बोल मेरे बच्चे मत बोल ..तेरी शक्ति क्षीण हो रही है ..कोई मेरे बच्चे को बचाओ ..कोई ..”. बुढ़िया होश खोने लगी पर सुंग होश में था . वह अपनी पत्थर हो चुकी छोटी आँखों से बच्चे को अपलक निहारे जा रहा था . किसी ने बच्चे को पानी पिलाया तो बालक के कंठ फिर फूटे . उसके होंठ के कोर से रक्त की एक पतली धरा निकल रही थी , वह उससे बेपरवाह सुंग की ओर पलटा “सुंग .. सुंग … ख़बरी ने कोटर में कहा था कि ..” उसकी साँस अब उखड़ रही थी . अब वह धीरे धीरे फुसफुसा रह था ” कि ..कि ..कि प्रजाप्रिय के सर पर सींग है सींग .. सुंग …सींग है.. सुंग , सींग है .. वे मानव नहीं..” और बच्चे ने एक कारुणिक हिचकी के साथ अपनी देह छोड़ दी . बात आधी रह गई पर समझा सबने .
सैकड़ो सिपाहियों ने देखा कि इस घटना के बाद बुढ़िया दहाड़ मार कर रोई “अरे सुंग पहले मुझे मारते ..अरे, अरे सुंग पहले मुझे मारते ..हे सुंग “. उसकी चीख़ और ऊँची होती चली गई . चीखते-चीखते उसने अपने बच्चे को एक अंतिम पुकार दी .बहुत ऊँची पुकार और बूढ़ी बेबस माँ ने अपने प्राण त्याग दिए . सिपाहियों और प्रजा ने देखा कि सुंग कुछ क्षण पत्थर बन गया . एकदम प्रस्तर मूर्ति . फिर अचानक ही बिलखबिलख कर रोने लगा ” ये मैंने क्या किया …ये मैंने क्या किया …ओह वर्तुल ..ओह वर्तुल.. ये मुझ से क्या हो गया “.उसकी सारी देह में कंपकंपी उठ गई . मृत बुढ़िया और उसके किशोर होते बच्चे के चेहरे के बीच ख़बरी का चेहरा सुंग की आँखों में बिजली की तरह कौंध गया . प्रजा और प्रजाप्रिय के बारे में क्या नहीं जानता था सुंग . हर बात .हर हरकत . पर इस सच्चाई को छोड़कर .’सिंग्ग सिंग्ग’ की उस रहस्यमयी ध्वनि का रहस्य खुल चुका था . एक भीतरी पीड़ा से सुंग की देह ऐंठने लगी – “ओह! ओह वर्तुल ! मैं किसके लिए लड़ रहा था ? ” और देखते ही देखते सुंग ने अपने कमर से चमकती हुई कटार निकाल कर एक ज़ोर की चीख़ मारी ” प्रजाप्रिय मनुष्य नहीं है ..हमारा राजा मानव नहीं ,दान ..” बस इतना कहकर उसने अपने सीने में वह कटार उतार ली . वहाँ उपस्थित सैकड़ों सिपाही स्तब्ध हो गए और कुछ मूर्छित . अमात्य का कहा सुनकर प्रजाप्रिय की आँखों में खून उतर आया . अब किससे लड़ेंगे प्रजाप्रिय ? एक कमज़ोर और मंदबुद्धि गुप्तचर ने नगर को संकट में डाल दिया था . ओह शाप-छाया ,तुम वर्तुल का नाश करके ही मानोगी !!
अब शापित वर्तुल से लोमहर्षक ध्वनियाँ उठ उठ कर राजमहल में आने लगीं थी. प्रजाप्रिय की आँखों में वही लाल रंग उतर आया और वे शोर सुनकर राजमहल के परकोटे पर आ धमके . अमात्य श्री और सेनापति भी साथ में थे . उन्होंने देखा कि समूचे वर्तुल में कोलाहल हो रहा है . नगर के कुछ हिस्सों में अँधेरा अपना पैर फैला रहा है . लगता है कि प्रजा रोशनियों की तमाम झालरें नोच नोच कर फेंक रही है . उधर वर्तुल के सैकड़ों-हज़ारों सूर्यों पर तीर-भाले और पत्थर फेंके जा रहे हैं तो इधर राजमहल से तीन कोस नीचे चाँदी की अंतिम की सीढ़ियों पर कुछ शाप-ग्रस्त नागरिक सिक्के जैसी कोई चीज उछाल कर फेंक रहे हैं , कहीं ये नई आहत स्वर्ण-मुद्राएँ तो नहीं ? क्या ये सचमुच झूठी अफ़वाहों पर भरोसा करने लगे ?
प्रजाप्रिय का मन घृणा से भर गया . देखते ही देखते उनकी आँखों के सामने प्रजा अँधेरे की उपासक हो रही थी . क्या नहीं किया था उन्होंने इस प्रजा के लिए . समस्त भूमंडल जानता है कि वो ना थकते हैं ना सोते हैं , उन्होंने अपनी नींद और थकान तक की बलि चढ़ा दी लेकिन उन्हें मिला क्या ; ये अँधेरे के उपासक ? उन्होंने महसूस किया कि परकोटे से नीचे दिखने वाला वह लावा अब दागदार काले धब्बे में बदल रहा है . वर्तुल में चलने वाली आँधी से धूल का गुब्बार उठ कर वर्तुल के सारे सूर्यों पर ग्रहण लगा रहा है . उन सूर्यों की रोशनियाँ मंद पड़ रहीं थीं . वे शायद जल्दी ही बुझा दी जाएँ. उजाले और अँधेरे की निर्णायक लड़ाई में वर्तुल की प्रजा अँधेरे के साथ थी ? ‘ओह ! ये क्या देख रहा हूँ मैं ?’ प्रजाप्रिय ने अपने निचले होंठ पर अपने ऊपर के दांत गड़ा दिए और लाल आँखों से सेनापति को घूरा. सबने देखा कि प्रजाप्रिय ने बेहद मज़बूती से अपना दाहिना पैर परकोटे की गज भर दीवार रख दिया और वर्तुल को अंतिम बार झाँकते हुए अपना राजमुकुट हवा में उछाल दिया .
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रुझान से इतिहास , अवधारणा और साहित्य के शोधार्थी डॉ. प्रवीण कुमार की शिक्षा हिन्दू कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय से संपन्न हुई है | हिंदी की पत्रिकाओं और अखबारों में इनके विचारोत्तेजक लेख, विवाद और प्रशंसा के विषय रहे हैं | साथ ही साथ कहानीकार भी हैं ‘नया ज़फ़रनामा’ , ‘लादेन ओझा की हसरतें’ और ‘तद्भव’ में आई लम्बी कहानी ‘छबीला रंगबाज का शहर’ से कहानी विधा में भी मज़बूत उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं | ‘हंस’ में छपी लंबी कहानी “चिल्लैक्स लीलाधारी” लंबे समय तक भाषायी प्रयोग के नमूने के रूप में चर्चित । अगली लंबी कहानी “ एक राजा था जो सीताफल से डरता था” तद्भव के 29 वें अंक में प्रकाशित हो चुुुकी है।
जन्म – 1982 आरा – बिहार। सम्प्रति – सहायक प्रोफ़ेसर, सत्यवती कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय ,

फ़ोन – 8800904606

मेल id: pravinkumar94@yahoo.com

परिवेश सम्मान, कथा सम्मान, विजय वर्मा सम्मान, स्पंदन पुरस्कार से सम्मानित टिप्पणीकार योगेन्द्र आहूजा, जन्मतिथि 1/12/59 बदायूँ (उ प्र), शिक्षा : स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र), एक राष्ट्रीयकृत बैंक से एक वरिष्ठ अधिकारी के रूप में सेवानिवृत्त। दो कथा संग्रह : अंधेरे में हँसी और पाँच मिनट और अन्य कहानियाँ, तीसरा संग्रह प्रकाशनाधीन। अनुवाद – इंग्लिश मराठी उर्दू बांग्ला जर्मन पंजाबी। राँची दूरदर्शन के लिए एक टेलीफ़िल्म।

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