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‘ शिवमंगल सिद्धांतकर क्रांतिकारी आशावाद के कवि हैं ’

वरिष्ठ वामपंथी कवि-विचारक शिवमंगल सिद्धांतकर के कविता संग्रह ‘अंधेरे की आंख’ और संस्मरण-संग्रह ‘संस्मरण संभव’ पर विचार-गोष्ठी व परिचर्चा का आयोजन 

पटना। गांधी संग्रहालय, पटना के सभागार में 23 मई 2023 को नवसर्वहारा सांस्कृतिक मंच और कथांतर की ओर से वरिष्ठ वामपंथी कवि-विचारक शिवमंगल सिद्धांतकर के कविता संग्रह ‘अंधेरे की आंख’ और संस्मरण-संग्रह ‘संस्मरण संभव’ पर विचार-गोष्ठी व परिचर्चा आयोजित हुई।

कार्यक्रम का संचालन कथांतर के संपादक, कथाकार और जनसंस्कृतिकर्मी राणा प्रताप ने किया। उन्होंने दोनों पुस्तकों का परिचय देते हुए कहा कि जब उन्होंने इन संस्मरणों की दो-तीन कड़ियों को ही पढ़ा था, तभी यह सुझाव दिया था कि अन्य साथियों पर भी संस्मरण लिखिए।

राणा प्रताप ने बताया कि ‘संस्मरण संभव’ में नलिन विलोचन शर्मा, नागार्जुन, राजकमल चौधरी, दिनकर, हंसराज रहबर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह, गोरख पांडेय, नागभूषण पटनायक, मंगलेश डबराल, विष्णु खरे, शीला सिद्धांतकर, नीलाभ अश्क और पंकज सिंह से संबंधित सिद्धांतकर जी के कुल 15 संस्मरण संकलित हैं। ये सभी राजनीतिक-सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े लोग हैं। जैसे कभी महादेवी जी ने रेखाचित्र और बेनीपुरी जी ने शब्द चित्र लिखे, उसी तरह सिद्धांतकर जी ने शब्दों के जरिये मानो पोर्ट्रेट बनाया है।

राणा प्रताप ने कविता की पुस्तक की चर्चा के क्रम में सिद्धांतकर के पूर्व प्रकाशित कविता-संग्रहों का नाम लिया और सवाल उठाया कि इनकी कविताओं की चर्चा क्यों नही हुई ? सिद्धांतकर जी कविता के उत्पादन की बात करते हैं, जैसा शायद ही किसी दूसरे रचनाकार ने कहा होगा।

‘संस्मरण संभव’ पर बोलते हुए वरिष्ठ कवि श्रीराम तिवारी ने ‘शिवमंगल सिद्धांतकर का होना’ शीर्षक से अपना आलेख पढ़ा। सिद्धांतकर जी के संस्मरणों को उन्होंने हिन्दी कविता की क्रांतिकारी धारा को समझने की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया। कथाकार संतोष दीक्षित ने कहा कि इन संस्मरणों को लिखना संभव हुआ, यह एक सफलता है। ये यथास्थितिवाद विरोधी 15 क्रांतिकारियों से संबंधित संस्मरण हैं। विधाओं के तमाम अनुशासनों को तोड़ते हुए ये संस्मरण लिखे गये हैं।

प्रो. शरदेंदु कुमार ने कहा कि आजकल ‘सनातनता’ की बात बहुत हो रही है, जबकि सनातनता जैसी कोई चीज नहीं होती, यह अवधारणा बहुत ही खतरनाक और प्रगति विरोधी है। ऐसे में सिद्धांतकर जी द्वारा परिवर्तनकारी कवियों और साहित्यकारों का संस्मरण आज के दौर में संघर्ष करने वालों के लिए मददगार होगा। नरेंद्र कुमार ने शिवमंगल सिद्धांतकर के साथ राजनैतिक और श्रमिक संघर्ष के मोर्चे पर हुए अनुभवों को साझा किया। उनके साथ अपनी सहमतियों-असहमतियों का जिक्र किया। उन्हें अपने समय का महत्त्वपूर्ण राजनैतिक बुद्धिजीवी बताया।

संजीव कुमार श्रीवास्तव ने सिद्धांतकर जी की कविताओं की उपेक्षा पर सवाल उठाया और उनके भाव और शिल्प पक्ष की विशिष्टताओं की चर्चा की। उन्होंने कहा कि सिद्धांतकर जी की कविताएं कहीं से कमजोर नहीं हैं।
सिद्धांतकर जी की प्रपौत्री नयन सी सिन्हा ने कहा कि उनके बाबा सिर्फ क्रांतिकारी कविता ही नहीं लिखते हैं, बल्कि जीवन के छोटे-छोटे संदर्भों पर भी उन्होंने यादगार कविताएं लिखी हैं। उन्होंने अपने पसंद की उनकी कविताओं का पाठ भी किया।

‘अंधेरे की आंख ’ पर बोलते हुए आलोचक सुधीर सुमन ने कहा कि इस संग्रह की कविताएं दुष्ट बहाव के विरुद्ध चलती एक सकर्मक कवि की नाम के समान हैं। इस संग्रह का शीर्षक ‘अंधेरे में रोशनी की आंख’ होना चाहिए था। कर्ण सिंह चौहान द्वारा लिखी गयी इस पुस्तक की भूमिका के कई बिंदुओं और उसके लहजे के प्रति असहमति जताते हुए उन्होंने कहा कि सिद्धांतकर जी की कविताएं अन्य क्रांतिकारी कवियों की सपाटबयानी से आगे की एक रहस्यात्मकता और अबोधगम्यमता से युक्त कविताएं नहीं हैं। उनमें क्रांतिकारी बिंब-प्रतीकों की भरमार है, जंगल, नदी, बारिश, पत्तियां आदि ऐसे ही प्रतीक हैं, पर वे रहस्यात्मक या अबोधगम्य नहीं हैं, बल्कि क्रांतिकारी कविता की परंपरा से ही आयी हैं। चौहान ने सिद्धांतकर जी की राजनीतिक अवधारणाओं पर जगह-जगह सूक्ष्म व्यंग्य भी किया है, जो शायद भूमिका की दृष्टि से उचित नहीं था।

सुधीर सुमन का यह भी कहना था कि सिद्धांतकर जी कवि मिजाज के राजनीतिक विचारक हैं, जहां गालिब के शब्दों में कहें तो यह नजरिया हमेशा मौजूद रहता है कि यूं होता तो क्या होता ? इसीलिए वे कविता में भी प्रयोगधर्मी हैं। उनकी कई कविताएं जनकविता का बेहतरीन उदाहरण हैं। वे क्रांतिकारी आशावाद के कवि हैं। राजनीति, विचारधारा और साहित्य में जो मध्यवर्गीय प्रवृत्ति और अवसरवाद है, उसकी वे आलोचना करते हैं और इस लिहाज से अपने वैचारिक और काव्य कर्म के अंतर्विरोधों की भी शिनाख्त करते हैं। ऐसा हिन्दी के विरले कवियों और राजनीतिक विचारकों में दिखायी देता है। उनकी मुख्य चिंता यह है कि क्रांतिकारी कविता लिखने के साथ-साथ कवि अपने जीवन में भी क्रांतिकारी कर्म कैसे करे। कवि बिना कुछ किये लिखने की राजनीति करने का विरोधी है। जनता में उसकी अंधआस्था भी नहीं है, बल्कि उसे जनता को भी विवेक के रंदे पर चढ़ाना जरूरी लगता है।

संस्मरणों के संबंध में सुधीर सुमन ने कहा कि एक सचेत साहित्यकार अपनी उपेक्षा का जवाब दूसरे उपेक्षित कवियों के महत्त्व को रेखांकित करके भी देता है। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने वैचारिक कविताओं को प्रचार का साहित्य कहकर उपेक्षित किया, नाथ-सिद्ध-जैन साहित्य को शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल से बाहर रखा। ठीक उसी तर्ज पर आजादी के बाद जनांदोलनों या क्रांतिकारी संघर्षों से जुड़ी एक्टिविस्ट कवियों की आलोचकों ने उपेक्षा की। गोरख पांडेय भी ऐसे कवि हैं, जो आलोचना के बजाए आंदोलनों में अपनी कविता जबर्दस्त प्रासंगिकता के कारण अपनी उपस्थिति बनाये हुए हैं। सिद्धांतकर जी हिरावल के जरिये पहली बार गोरख के नौ गीतों को छापा था। उनके संस्मरण प्रायः उन्हीं लोगों पर केंद्रित है, जिनकी रचनाएं जनता के क्रांतिकारी संघर्षों के काम आयी हैं और जो उसमें प्रत्यक्ष भागीदार रहे हैं। उनके ये दोनों पुस्तकें आज के कठिन वक्त में जनता के संघर्षों में शामिल रचनाकारों और राजनीतिकर्मियों के लिए सहयोगी सिद्ध होंगी।

कार्यक्रम के अंत में अनिल अंशुमन ने विजेंद्र अनिल के गीत ‘लिखने वालों को मेरा सलाम, पढने वालों को मेरा सलाम’ सुनाया। इस मौके पर जसम के बिहार राज्य अघ्यक्ष कवि-आलोचक जितेंद्र कुमार, पत्रकार पुष्पराज, इरफान अहमद, सिद्धेश्वर, गीतकार आदित्य कमल, कवि सुमंत शरण, शक्तिमान राही, कवि राजेश कमल, चितरंजन भारती, प्रोफेसर रघुनाथ और रामेश्वर प्रसाद चौधरी भी मौजूद थे।

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