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भारतीय देशज प्रेमाख्यान पर  संगोष्ठी

दिल्ली विश्वविद्यालय के एआरएसडी कॉलेज में 29 और 30 जनवरी को भारतीय देशज प्रेमाख्यान साहित्य पर सघन और जीवंत संवाद का आयोजन किया गया। साहित्य और समाज अध्ययन की अकादमिक डिस्कोर्स में भक्ति साहित्य के प्रति व्याप्त उदासीनता के बीच सूफ़ी साहित्य पर बातचीत सभी प्रतिभागियों को सुकूनदायक और उत्साहजनक लगी। इसी वजह से कार्यक्रम के दोनों दिन युवा छात्र-छात्राओं और शोधार्थियों की सिर्फ अच्छी उपस्थिति ही नहीं थी, बल्कि विमर्श में उनकी हस्तक्षेपकारी भूमिका भी थी।
कार्यक्रम के पहले दिन मध्यकाल के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो इरफ़ान हबीब ने अपने बीज वक्तव्य में समकालीन राजनीति पर चिंता व्यक्त करते हुए सूफ़ी साहित्य की सर्जनात्मक भूमिका को रेखांकित किया और बताया कि सूफ़ी काव्य हमें अधिक से अधिक मनुष्य बनाने की कोशिश करता  है और धर्म की संकीर्णताओं के पार जाकर प्रेम और मुहब्बत का पैग़ाम देता है। उन्होंने कहा कि आज की सत्तासीन राजनीति स्थानों का नाम बदलकर मुगलकालीन इतिहास को समाप्त करना चाहती है, तो इसके लिए उसे सबसे पहले हिन्दू और हिंदुत्व को बदलना पड़ेगा क्योंकि यह शब्द भी उन्हीं का दिया हुआ है। इस तरह से नाम बदलकर दुनिया की किसी भी संस्कृति को खत्म नहीं किया जा सकता।
प्रथम तकनीकि सत्र ‘ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रेमाख्यान’ की अध्यक्षता इतिहासकार प्रो शिरीन मूसवी ने की। मास्को से आयीं प्रो यूजनिया वेनिना ने आलम रचित माधव कामकंदला पर विचार करते हुए कहा कि यह कई अर्थों में अन्य देशज प्रेमाख्यान से अलहदा है। जिस तरह पद्दमावती आदि में राजा और राजकुमारी का प्रेम संबंध है, वहीं इसमें एक ब्राह्मण संगीतज्ञ और नर्तकी का प्रेम संबंध दिखलाया गया है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि पद्दमावती आदि का प्रेम सुना सुनाया है, जो विश्वसनीय नहीं लगता। क्योंकि शुक्ल जी ने ठीक ही कहा है कि बिना परिचय का प्रेम क्या? किन्तु माधव कामकंदला का प्रेम विश्वसनीय है। संगीतज्ञ और नर्तक का प्रेम सहज संभव है। दूसरी बात एक ब्राह्मण का नर्तकी से प्रेम सामाजिक रूढ़ियों को भी तोड़ता है।  इस प्रेमाख्यान के कई आयाम विलक्षण हैं। कलाकार को  नायक नायिका का दर्जा देकर आलम ने कला -संस्कृति को विमर्श के केंद्र में रखा।
आलम ने अपनी रचना के केंद्र में राजा महराजा को न रखकर कलाकार को रखा, जिसे समाज में निम्न हैसियत प्राप्त होती है। ‘माधवकामकंदला’ की प्रेम दृष्टि  सौंदर्य और पौरुष- पूर्ण पराक्रम को एक सिरे से ख़ारिज करती है। क्योंकि कथा नायक ब्राह्मण न तो सुंदर है न ही पराक्रमी। वह अपनी देहयष्टि या पराक्रम से प्रेम प्राप्त नहीं करता है। अपने गुण से प्रेम प्राप्त करता है। यह प्रेमाख्यान की अद्भुत प्रेमदृष्टि है। दूसरी महत्वपूर्ण बात इसमें यह है कि ये दोनों एक दूसरे से एकबारगी प्रेम में नहीं पड़ते। ‘औंचक ही देखी तह राधा, नयन नयन मिली पड़ी ठिगौरी’ वाला प्रेम यहाँ नहीं है।
आगे प्रो. वेनिना ने कहा कि दोनों एक दूसरे के गुण पर रीझते हैं। बहुत बाद में जाकर दिनों का प्रेम विकसित होता है। इसलिए अन्य अधिकांश प्रेमाख्यान की तरह यहाँ मांसल प्रेम नहीं, मानसिक प्रेम है। यही विशेषता  माधव कामकंदला को विशिष्ट रचना बनाती है ।
इसी सत्र में इतिहासकार एसजेड एच जाफ़री ने सूफ़ी काव्य की भाषाई अस्मिता पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि सूफी कवियों और प्रेमाख्यान कवियों ने लोक भाषा में अभिव्यक्ति कर राजसत्ता और भाषासत्ता दोनों को एक साथ चुनौती दी। कई कवियों ने फारसी लिपि में मुल्तानी और अवधी जैसी लोक भाषा में रचना की। प्रख्यात सूफ़ी बाबा फ़रीद ने जहाँ मुल्तानी बोली का चुनाव किया वहीं अमीर खुसरो ने अवधी बोली को काव्याभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
दूसरे सत्र ‘साहित्य के संदर्भ में प्रेमाख्यान’ में दलजीत कौर ने विस्तार से पंजाबी भाषा के सूफ़ी साहित्य पर विचार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि पंजाबी में सूफी साहित्य की लंबी परंपरा रही है। एक ओर मनुष्यता की पुकार और दूसरी ओर प्रतिरोध की संस्कृति रचने में पंजाबी सूफ़ी कवियों का भारी योगदान रहा है।
कमलानंद झा ने ‘सूफ़ी साहित्य : सत्ता, संघर्ष और मिथ’ पर अपने विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि हिंदी जगत में सूफ़ी साहित्य को लेकर सिर्फ़ ‘देसी-विदेशी’ का भ्रम नहीं है, बल्कि कई भ्रम हैं। सामान्यतया हम लोग जानते हैं कि सूफ़ी लोग फ़क़ीर होते थे। धर्मसत्ता और राजसत्ता से निरपेक्ष प्रेम का संदेश बांटते थे।  यह अधूरा सच है। कई बड़े सूफ़ी कवि राजसत्ता में बड़े बड़े पदों पर आसीन थे और अपना ‘लोक’ सुधारने में लगे थे और दूसरी तरफ प्रेम गीत लिखकर ‘परलोक’  भी। इन्हें  एक साथ लोक और परलोक दोनों को साधने में महारत हासिल था। स्वंय अमीर खुसरो सात राजदरबारों की शोभा थे। मिफ्ताहुल फूतूह और खजाइनल  फूतूह  आदि अपनी रचनाओं में  उन्होंने अपने स्वर्ण मुद्रा प्रेम को छिपाया नहीं है।  कई बड़े सूफ़ी संत क़िताब यानी कुरान और सुन्नत यानी मोहम्मद साहब के वचन से थोड़ा भी हिलने को भारी कुफ़्र मानते। इसके विपरीत अमीर खुसरो लिखते हैं  ‘प्रेम में क़ाफ़िर हो गया हूँ, मुझे मुसलमानी की जरूरत नहीं, मेरा रंग तार तार हो गया है मुझे जुन्नार की भी जरूरत नहीं।’
इतना ही नहीं 10वीं शताब्दी  मो. अब्दुल्ल आरा और उमर खैयाम से लेकर 17 वीं शताब्दी के बुल्लेशाह तक सूफियों की लंबी परंपरा रही है जिन्होंने संस्थानिक धर्म की धज्जियां उड़ा दी।
सूफ़ियों में राजसत्ता का विरोध भी चरम पर रहा है। मंसूर हलाज़ के सर क़लम को सभी जानते हैं। अभी 2016 में प्रसिद्ध सूफी  कव्वाल अमजद शाबरी को ईशनिंदा के कारण हत्या कर दी गई। कमलानंद झा ने  सूफ़ी साहित्य में स्त्री स्वर के रूप में राबिया को स्त्री मुक्ति की पहली कवयित्री कहा। उन्होंने यह भी कहा कि  सूफ़ियों ने परमात्मा की कल्पना स्त्री रूप में न कर किशोर युवा के रूप में की है, जिसे  अमरदपरस्ती कहा गया। देशज प्रेमाख्यान इस ‘विकृति’ से अपने की बचाये रखा।
प्रो गोपेश्वर सिंह ने शीर्षक के औचित्य पर लंबी बात की। उन्होंने कहा कि ‘देशज’ शब्द को सचेत होकर देखने की आवश्यक्ता है। क्योंकि इससे यह बोध होता है कि इससे इतर सब ‘विदेशज’ है। आज की तारीख में कौन और क्या देशज है और क्या विदेशज है, तय करना कठिन ही नहीं बल्कि खरनाक भी है। जो भी विचार, वस्तु हमारे चित्त में अवस्थित हो गया, हमारे कॉमन सेंस का हिस्सा हो गया, वह सब देशज है। आज हम फ़्राँस की क्रांति से उपजे मूल्य स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को विदेशी कांसेप्ट नहीं कह सकते।
आगे उन्होंने सूरसागर के बहाने प्रेमाख्यान साहित्य की व्याख्या की और लोक में प्रचलित गीतों में प्रेमतत्व की विलक्षणता को चिह्नित किया।
सत्र की  अध्यक्षता करते हुए प्रेमाख्यान साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान प्रो नित्यानंद तिवारी ने प्रेमाख्यान साहित्य की विगत सार्थकता और वर्तमान अर्थवत्ता पर विचारोत्तेजक प्रकाश डाला। उन्होंने मध्यकाल की राजनीति और समाजनीति की चर्चा करते हुए आज के भयावह राजनीति का पर्दाफ़ाश किया। उन्होंने कहा कि पदामावती प्रेम – पीड़ा की दुर्गम यात्रा है। आज प्रत्येक चौक चौराहे पर सत्ता ने प्रेम के चौकीदार बैठा दिए हैं। प्रेम पर यह पहरेदारी किसी भी समाज के लिए चिंता का विषय है। आज हम प्रेम विद्वेषी समाज में रहने के लिए अभिशप्त हैं। इस घृणित और दूषित राजनीति का विरोध करने वाले युवाओं की राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है।
संगोष्ठी के दूसरे दिन का उद्घाटन करते हुए अपने बीज वक्तव्य में भक्ति साहित्य के जानेमाने विद्वान प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल ने भक्ति साहित्य विशेषकर पद्दमावती के पढ़ने के गुर बताए। उन्होंने कहा कि पद्दमावती को भंसाली की फ़िल्म से नहीं  समझा जा सकता है। इसे सिर्फ़ काव्य-विवेक से ही समझा जा सकता है। जायसी का अलाउद्दीन राक्षस या हैवान नहीं है। भंसाली जाने या न जानें  किंतु जायसी यह जानते थे कि मनुष्य अच्छे-बुरे का समन्वित रूप होता है। आगे उन्होंने कहा कि एक तो जायसी अलाउद्दीन को पद्दमावती में आधे हिस्से के बाद लाते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि जब अलाउद्दीन पद्दमावती में प्रवेश करता है तो दिल्ली की चिंता में होता है। अपने राज्य के स्थायित्व की चिंता में ग्रस्त अलाउद्दीन को जब द्वारपाल यह सूचना देता है कि एक ब्राह्मण आया है और अपने को अजनबी बता रहा है तो अलाउद्दीन बड़े मार्के की बात कहता है। वह कहता है कि यहाँ तो सभी अजनबी ही हैं। हम सभी यहाँ अजनबी की तरह आये हैं और अजनबी की तरह चले जाएंगे। वह ब्राह्मण स्वंय को ही केवल अजनबी क्यों कहा रहा है। उन्होंने रत्नसेन और अलाउद्दीन के प्रेम के फ़र्क को स्पष्ट करते हुए कहा कि रत्नसेन अपने को मारकर पद्दमावती को प्राप्त करना चाहता है और अलाउद्दीन सबको मारकर पद्दमावती की पाना चाहता है। डॉ अग्रवाल ने कहा कि प्रेम में कंसेंट , स्वीकृति या सहमति ही सब कुछ है। रत्नसेन पद्दमावती को उसकी सहमति के बगैर स्पर्श तक नहीं करना चाहता है। यह प्रेम की ही नही एक स्त्री की डिग्निटी का सवाल है और जायसी स्त्री की इस गरिमा के बड़े गायकों में एक हैं।
दूसर दिन के पहले सत्र ‘अन्तरनुशासनिक संदर्भ में प्रेमाख्यान’ में मनोवैज्ञानिक प्रो आनंद प्रकाश ने प्रेमाख्यान के प्रेम का मनोवैज्ञानिक पाठ प्रस्तुत किया। उन्होंने पद्दमावती को प्रेम और घृणा के द्वंद्वात्मक रिश्ते  का महाकाव्य कहा। प्रेम एक संवेग और एक अनुभूति भी है। संवेग की धारणा  और अभिव्यक्ति का देश देह है तथा प्रेम का देश मानव मन की सांस्कृतिक बनावट है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों में इसको मानव सभ्यता में घटित होने वाले भावनाओं में सबसे बाद में घटित होने वाली भावना मानी गई है। प्रेम और घृणा की द्विध्रुवीय अंतराल में घटित अनुभवों के सामाजिक संदर्भ का विश्लेषण मनोविज्ञान के केंद्र में रहा है। इसलिए पद्दमावती के प्रेम दृष्टि को सिर्फ़ इतिहास और साहित्य से समझना संभव नहीं। प्रेम तर्कातीत होता है। रीज़न की अदालत में प्रेम सदा से हारता रहा है। इसलिए इस प्रेम दर्शन को तर्क से समझना कठिन है। प्रो रविभूषण ने मध्यकालीन आधुनिकता और आधुनिक मध्यकालीता पर बोलते हुए कहा कि ये भक्त कवि मध्यकाल के थे किंतु चित्त और विवेक से आधुनिक थे। किंतु आज जिस तरह धर्म को लेकर, प्रेम को लेकर , असहमतियों को लेकर हम पोंगापंथी और दकियानूसी होते जा रहे, यह हमरी आधुनिक मध्यकालीनता है। हम कहने भर को आधुनिक हैं, किन्तु मानसिक बुनावट मध्यकालीन है।
डॉ. राजकुमार ने प्रेमाख्यान काव्य को युद्ध, प्रेम और सेक्स का मिश्रण काव्य कहा। इन्होंने अत्यंत विस्तार में प्रेमाख्यान काव्य के स्त्री विरोधी चरित्र को उद्घाटित किया। उन्होंने कहा कि इन सभी काव्यों का मक़सद पति परायण स्त्री निर्मित करना है।
युवा कवि/आलोचक रामाज्ञा शशिधर ने सूफी संगीत पर गंभीरता से बात की। उन्होंने सूफ़ी खानकाहों में आयोजित होने वाले संगीत का भारतीय समाज पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभावों की गहरी पड़ताल की। कव्वाली, ध्रुपद और ख्याल गायकी के आपसी संबंध तथा सूफ़ी गायकों द्वारा इसमें किये गए योगदान को रेखांकित किया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो चंदन कुमार ने प्रेमाख्यान काव्य के मूल्य और महत्व को रेखांकित किया। एक सत्र में चुने हुए शोधार्थियों द्वारा पत्र-वाचन किया  गया।
इस सत्र में कई शोधार्थियों ने प्रेमाख्यान काव्य पर  कुछ नई बातों की ओर संकेत किया। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ रामाज्ञा शशिधर ने की। समापन सत्र में सुधीश पचौरी ने प्रेमाख्यान काव्य की नई व्यख्या की। कुल मिलाकर दो दिनों तक महाविविद्यालय में अकादमिक सरगर्मी रही। विगत कुछ वर्षों से  दिल्ली विश्वविद्यालय में यह कॉलेज अकादमिक गुणवत्ता के लिए  चर्चा का विषय भी रहा है।
प्रोफेसर सुधीश पचौरी ने दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के अंतिम अथवा समापन सत्र में अपना वक्तव्य देते हुए प्रेमाख्यान को समसामयिक संदर्भ में देखने और समझने पर बल दिया। उन्होंने  वास्तविक जीवन मे  प्रेम का अभाव और उसकी मांग को मध्यकालीन परिवेश से जोड़कर उसकी व्यख्या की। और इस संदर्भ में उन्होंने दो महत्वपूर्ण बातों की तरफ इसारा किया। पहला तो यह कि मध्यकाल में प्रेमाख्यान की बहुल उपस्थिति वास्तविक जीवन मे प्रेम के अभाव का पूरक है। उनके अनुसार यही कारण है कि जिन कवियों ने प्रेमाख्यान नही लिखा उनकी रचनाओं में भी प्रेम की महिमा का बखान हुआ है। उन्होंने दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कही कि आखिर क्या कारण था कि प्रेम का यह काव्य और अधिकांश प्रेममूलक कविताएं अवध और ब्रज के क्षेत्र में ही क्यों लिखी गयीं। वैसे साहित्यिक परिप्रेक्ष्य वाले सत्र में इस प्रश्न को प्रसिद्ध आलोचक रविभूषण पहले ही उठा चुके थे। सुधीश जी ने इस प्रश्न पर विचार करते हुए उसकी आर्थिकी की तरफ संकेत किया। उन्होंने बताया कि मध्यकाल में विभिन्न कारणों यह क्षेत्र आर्थिक रूप से समृद्ध हुआ था। शायद यही वजह हो कि इस क्षेत्र में सुखद और सौन्दर्यमूलक जीवन के भीतर से प्रेमाख्यान अनेक रूपों में लिखा गया।
एक महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह भी कही कि प्रेमाख्यान मध्यकालीन समाज मे मौजूद अतिवादों, रुढियों और जड़ता के खिलाफ एक प्रतिवाद है। एक प्रतिरोधी शक्ति के रूप में उभरता है जिसे देशज कवि और उनके काव्य ने मिलकर संभव किया। ठीक उसी तरह जैसे आज भी हमारे समाज मे प्रेम एक प्रतिरोधी शक्ति की तरह देखा जाता है। समाज की अन्य सारी शक्तियां उसे कुचलने में लगी रहती हैं। आज लोकतांत्रिक और उत्तर आधुनिक समाज मे भी अगर प्रेम करना इतना चुनौती भारा कार्य है
फिर मध्यकाल में यह कितना जोखिम भरा काम होगा। इससे यह भी पता चलता है देशज कवियों ने अपनी प्रेमाख्यानक रचनाओं के माध्यम से सत्तावादी वर्ग के समानांतर , उन्हें चुनौती देते हुए प्रेम की, प्रेममूलक समाज की एक समानांतर सत्ता स्थापित करने का प्रयास किया।

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