मनोज कुमार
आदर्श विद्यार्थी के जो पाँच लक्षण हमें बताए गए थे उन लक्षणों में सिनेमा देखना नहीं शामिल था| बगुले की तरह ध्यानरत, काक की तरह चेष्टारत, कुत्ते जैसी नींदों वाला अल्पहारी, गृहत्यागी आदर्श विद्यार्थियों के लिए चटपटी चीजें खाने की मनाही थी| सिनेमा देखने की बात तो खैर श्लोक लिखने वाले ने सोची भी नहीं होगी, लेकिन इस श्लोक के भावार्थ और गूढ़ार्थ को समझने वाले शिक्षक और अभिभावक इस बात को लेकर लगभग एकमत थे कि विद्यार्थियों को सिनेमा देखने जैसी बुरी आदतों से बचना चाहिए| इसलिए एक दिन जब पता चला कि स्कूल की ओर सभी विद्यार्थियों को एक सिनेमा दिखाया जाएगा तो हमलोग चौंक पड़े| साथ में जब यह पता चला कि सिनेमा का प्रदर्शन स्कूल में नहीं होगा, बल्कि सभी विद्यार्थियों को सिनेमा हॉल ले जाया जाएगा तो स्कूल में खुशी की लहर फैल गई|
सिनेमा हॉल में कौन किसके साथ बैठेगा? शिक्षक कहाँ बैठेंगे? सिनेमा में कितने गाने हैं| हीरोइन कौन है? तमाम प्रश्न थे| इसी क्रम में यह बात भी फैल गई कि जो फ़िल्म हमें दिखाई जाने है वह एक ‘शिक्षाप्रद फ़िल्म’ है| फ़िल्म में गाने तो कई हैं, लेकिन यह हीरो-हीरोइन वाली फ़िल्म नहीं है|
यह राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्म थी -दोस्ती| फ़िल्म 1964 में बनी थी और जब यह फ़िल्म हमें दिखाई जा रही थी वह 1980 के दशक का कोई शुरुआती वर्ष रहा होगा|
स्कूल के कुछ विद्यार्थियों यह फ़िल्म पहले ही देख की थीं| उन विद्यार्थियों में एक मैं भी था| इसके पहले कि स्कूल द्वारा सिनेमा दिखाए जाने की घोषणा होती मैंने एक बार नहीं, दो-बार नहीं, बल्कि चार बार यह फ़िल्म देख ली थी| स्कूल में आदर्श विद्यार्थियों को तो शिक्षकों, अभिभावकों और विद्यार्थियों के बीच खुलेआम सम्मान मिलता ही था, लेकिन दोस्तों के बीच नियमित सिनेमा देखने वालों विद्यार्थियों की भी इज्जत कम नहीं थी| घर से बच-बचाकर सिनेमा देखने वाले खुद को औरों की तुलना में कुछ अधिक वयस्क मानते थे और फिल्मों के मामले में अपनी विशेषज्ञता को लेकर वे कुछ ठसक में भी रहते थे|
सिनेमा के बारे में मेरी राय का भी कुछ सम्मान था, इसलिए मैंने अपने दोस्तों को भरोसा दिलाया कि फिल्म में हीरोइन नहीं है, लेकिन फ़िल्म अच्छी है| फ़िल्म में गाने बहुत अच्छे हैं, एक्टिंग बहुत अच्छा है और कुछ ‘अलग ही प्रकार की’ फ़िल्म है| दोस्त तो खैर इस बात से ही खुश थे कि एक साथ पूरे स्कूल के विद्यार्थी सिनेमा हॉल में सिनेमा देखेंगे| चूँकि विद्यार्थियों की सँख्या अधिक थी इसलिए स्कूल के लिए दो विशेष शो सिनेमा हॉल के मालिक की ओर से आयोजित किए गए थे| पहले शो में सातवीं और आठवीं के विद्यार्थियों को फिल्म दिखाई जाने वाली थी और दूसरे शो में नौंवी और दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों को फ़िल्म देखने का मौक़ा मिलने वाला था|
स्कूल के श्यामपट से ‘मिथिला मंदिर’ के रुपहले पटचित्र तक की पदयात्रा
जिस क़स्बे में मेरा हाई स्कूल था उस कस्बे में एक ही सिनेमा हॉल था| सिनेमा हॉल के मालिक कुछ समाजसेवी किस्म के व्यक्ति थे और इसलिए उनकी कोशिश रहती थी कि शहर और गाँवों के सम्मानित गृहस्थ सिनेमा हॉल को अपनी जगह मानें और सिनेमा हॉल सिर्फ आवारा, लफंगे और बग़ावती किस्म लोगों का अड्डा नहीं माना जाए| सिनेमा हॉल में बीच-बीच में ‘पारिवारिक’ ‘धार्मिक’ और शिक्षाप्रद फिल्में भी लगती थीं|
सिनेमा हॉल के नाम में भी एक प्रकार की पवित्रता थी| सिनेमा हॉल का नाम था मिथिला मंदिर|
इस बार जब इनके सिनेमा हॉल- ‘मिथिला मंदिर में पुराने दौर की ‘शिक्षाप्रद’ फिल्म ‘दोस्ती’ लगी तो सिनेमा हॉल के मालिक ने स्कूल के प्रधानाध्यापक से कहा कि यह फिल्म सभी विद्यार्थियों को देखनी चाहिए| उन्होंने प्रस्ताव रखा कि वे स्कूल के विद्यार्थियों के लिए विशेष शो रखेंगे और स्कूल से कोई पैसे नहीं लेंगे| प्रधानाध्यापक और तमाम अध्यापक सहर्ष तैयार हो गए और नियत तिथि को नियत समय पर स्कूल से ‘मिथिला मन्दिर की ओर लॉन्ग मार्च शुरू हुआ|
फ़िल्म शुरू हुई, सिनेमा हॉल में घुप्प अँधेरा हो गया| जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती गई वैसे-वैसे दोस्त एक-दूसरे से नजर बचाकर आँख पोंछते देखे गए| दिल को बेधने वाले एक के बाद एक गाने, शहर की चौड़ी सडकों पर नए सिरे से अपनी जिंदगी को बसाते, एक-दूसरे को सहारा देते दो दोस्त सबके दिलों में उतरते चले गए| हालाँकि मैं पाँचवीं बार यह फिल्म देख रहा था, लेकिन निर्विकार और तटस्थ मैं भी नहीं रह सका| मेरी आँखों की कोर में अगर किसी दोस्त को आँसू की बूँदें दिख जाती तो वयस्कता और विशेषज्ञता की मेरी दावेदारी कमजोर पड़ जाती, लेकिन फिर भी इस फ़िल्म के दोनों दोस्त दर्शक को अपने साथ ले ही लेते हैं भले ही आप यह फिल्म पहले अनेक बात देख चुके हों|
‘दोस्ती’ फिल्म दो किशोरों की कहानी है| एक सरल सी कहानी जिसमें पहले किशोर रामनाथ (रामू) के पिता की मृत्यु फैक्ट्री में हुई एक दुर्घटना में हो जाती है| कंपनी परिवार को मुआवजा देने से मना कर देती है| परिवार के पास आजीविका के साधन नहीं बचते हैं| रामू के माँ की सदमे में मृत्यु हो जाती है और रामू उसी घटनाक्रम में एक सड़क दुर्घटना में अपना एक पैर खो बैठता है| दूसरी तरफ मोहन अपने गाँव से उजड़कर शहर आता है| वह अपनी बड़ी बहन के साथ गाँव में रहता है जहाँ उसके आँखों की रोशनी चली जाती है| उसकी बहन गाँव से नौकरी की तलाश में शहर आ जाती है| शहर आकर वह नर्स बनना चाहती है ताकि वह अपने भाई की आँखों का इलाज करवा सके| उधर गाँव में एक दिन बाढ़ आ जाता है| उस बाढ़ में मोहन का घर बह जाता है और वह भटक कर शहर आ जाता है| इस प्रकार दो लुटे-पिटे उजड़े हुए किशोर शहर की सडकों पर संयोगवश टकरा जाते हैं| एक-दूसरे को सहारा देते हुए ये किशोर नई जिंदगी जा ताना-बाना बुनते हैं| मोहन की मेहनत और त्याग से रामू दोबारा स्कूल में दाखिला लेता है और तमाम संघर्षों के बाद परीक्षा में अव्वल आता है| एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद मोहन की मुलाक़ात भी उसकी बहन से हो जाती है|
यह फिल्म ऊपरी तौर पर दुःख और संघर्ष की कहानी है, लेकिन फ़िल्म में गुस्सा नहीं है|अन्याय के प्रति प्रतिकार का भाव नहीं है| अन्याय के प्रति गुस्से का बस एक बहुत छोटा सा दृश्य है जिसमें रामू की माँ कंपनी से मुआवजा नहीं मिलने पर कंपनी के खिलाफ न्याय के लिए लड़ने का संकल्प लेती है, लेकिन ठीक उसी दृश्य में उसकी मृत्यु हो जाती है| आम तौर पर यह फ़िल्म भरोसे की फ़िल्म है| आपसी विश्वास की फ़िल्म है| भविष्य के प्रति विश्वास की फ़िल्म है| फ़िल्म में एक जगह दोस्तों के बीच यह संवाद होता है:
“रामू ! सुना है दुनिया में कई देश ऐसे भी हैं जहाँ पढ़ने-लिखने के लिए पैसे नहीं लगते, सारा खर्चा सरकार करती है|”
“हमारे देश में ऐसा कब होगा रामू?”
“होगा रे, एक दिन जरूर होगा, लेकिन तब तक अपनी पढ़ाई-लिखाई की उमर बीत चुकी होगी| हमलोग बूढ़े हो जाएँगे|”
1964 में बनी इस फ़िल्म रामू की माँ चाहती है कि उसका बेटा बड़ा होकर जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस की तरह उसका और देश का मान बढ़ाए| इतिहास में नेहरू और बोस अंग्रेजी शासन के अन्यायों के खिलाफ संघर्ष के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस फ़िल्म में संघर्ष लगभग नहीं के बराबर है| यह नाटकीय नहीं लयात्मक फ़िल्म है| अगर हम तीन आधुनिक संवैधानिक मूल्यों- समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृभाव की बात करें तो यह भ्रातृभाव की फ़िल्म है| इसमें नेहरू युगीन राष्ट्र निर्माण का भाव अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद है| एक-दूसरे की मदद करते हुए स्वयं के जीवन और राष्ट्र के जीवन के गढ़ने की बात है|
सबसे बड़ी बात है कि इस जीवन को गढ़ने में दो किशोर खुद ही नायक की भूमिका में हैं| फ़िल्म में वे सहनायक नहीं हैं, बल्कि मुख्य नायक हैं| हाई स्कूल में इस फिल्म को देखते हुए मिथिला मंदिर के उस घुप्प अँधेरे में हम तमाम दोस्त रामू और मोहन के किरदार में अपना नायकत्व ढूँढ़ रहे थे| महानगर की चौड़ी सड़कों पर एक-दूसरे के सहारे निर्द्वन्द्व घूमते, जीवन का मायने तलाशते और जीवन को मायने देते दो दोस्त- ‘ जाने वालों जरा मुड़ के देखो मुझे एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह… ‘
उन दो किशोरों के पास अब खोने को कुछ भी नहीं था| जो कुछ उन्हें खोना था वे खो चुके थे, जाति-बिरादरी के तमाम पहचानों को वे पीछे छोड़ आए थे, सामाजिक सुरक्षा का कोई कवच उनके पास नहीं था| वे निष्कवच, निपट मनुष्य के रूप में खुद को पहचान रहे थे और दूसरों से आग्रह कर रहे थे कि उन्हें इसी रूप में पहचाना जाए – ‘जिसने सब को रचा अपने ही रूप में उसकी पहचान हूँ मैं तुम्हारी तरह|’
किशोर वय में नातेदारी और स्थानीय सामाजिक पहचानों के जाल में आप घुटन महसूस करते हैं| बेशक यह सामाजिकता सुरक्षा भी प्रदान करती है, लेकिन किशोर वय में सुरक्षा से ज्यादा शायद स्वतंत्रता की चाहत होती है| फ़िल्म में रामू और मोहन बेशक मुश्किलों का सामना करते हुए दिखते हैं, लेकिन एक स्तर पर वे तमाम बंधनों से मुक्त भी हैं|
उस दिन हम तमाम दोस्त मिथिला मंदिर के घुप्प अँधेरे में रामू और मोहन के साथ अपने-अपने बंधनों से मुक्त हो रहे थे, अपने-अपने कवच उतार रहे थे| हम निष्कवच, निपट मनुष्य के रूप में स्वयं अपने प्रयासों से भविष्य के खाली स्लेट पर अपनी इबारत लिखने का हौसला बाँध रहे थे|
राजश्री प्रोडक्शन
निर्देशन -सत्येन बोस
गीतकार – मजरुह सुल्तानपुरी
संगीतकार – लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
कहानी- बाण भट्ट
स्क्रीनप्ले और संवाद – गोविन्द मूनिस
( लेखक मनोज कुमार से manoj_maee@yahoo.in और फोन नंबर: 9632850981 पर संपर्क किया जा सकता है )