मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक, पटकथा और संवाद लेखक, नाटककार और उर्दू कहानीकार सागर सरहदी के निधन को जन संस्कृति मंच ने भारतीय साहित्य-कला जगत के लिए अपूरणीय क्षति बताया है। रविवार 21 मार्च को आधी रात से ठीक पूर्व उनका मुंबई में निधन हो गया।
उनकी उम्र 88 साल थी। सागर सरहदी का वास्तविक नाम गंगासागर तलवार था। उनका जन्म 11 मई 1933 को पाकिस्तान के एटबाबाद के पास बफा गांव में हुआ था। विभाजन की त्रासदी को झेलते हुए उनका परिवार भारत पहुंचा था। उनके मन में ताउम्र उन ताकतों के प्रति गुस्सा रहा, जिनके कारण किसी को अपने जन्मस्थान को छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ता है। एक इंटरव्यू में उन्होंने सवाल उठाया था- ‘सियासतदानों ने हमें दरबदर कर दिया। उन्हें इंसानों को बांटने का हक किसने दिया ?’
वे अपने गांव से पहले दिल्ली और फिर मुंबई पहुंचे। उन्होंने उर्दू कथा लेखन से शुरुआत की। बाद में थियेटर के क्षेत्र में आए और नाटककार के रूप में मशहूर हुए। उनके कथाकार को फिल्म की दुनिया में नया विस्तार मिला।
वे खुद को तरक्कीपसंद माक्र्सवादी विचारधारा से जोड़ते थे। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा के सुनहरे दौर में वे उनके सदस्य बने थे। जीवन के आखिरी वर्षों में क्रांतिकारी वामपंथी आंदोलन के हमदर्दों में उनका शुमार होता था। वे 18-19 मार्च 2000 को बनारस में आयोजित जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन किया था। इस सम्मेलन में वे जन संस्कृति मंच की कार्यकारिणी के विशेष आमंत्रित सदस्य बने थे। वर्ष 2010 में बेगूसराय में आयोजित जसम के दसवें राष्ट्रीय सम्मेलन में भी वे शामिल हुए थे। भिलाई में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में उन्होंने बतौर मुख्य अतिथि हिस्सा लिया था।
अपनी व्यस्तता के बावजूद मंच की बैठकों व गतिविधियों में शामिल होना सांस्कृतिक आंदोलन में उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। वर्तमान दौर में सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ सांस्कृतिक अभियान में भी उनकी भागीदारी थी ।
उनकी फिल्म ‘बाजार’ हिन्दी की एक क्लासिक फिल्म मानी जाती है। उनका नाटक ‘ भगतसिंह की वापसी ’ उनके वैचारिक मकसद की बानगी है।
सागर सरहदी को रोजी-रोटी के लिए कई तरह के काम करने पड़े। लेकिन संघर्ष के उन दिनों में ही उनका तरक्कीपसंद साहित्य से जुड़ाव हुआ, जो जीवन भर कायम रहा। वे उर्दू के मशहूर कहानीकार और नाटककार थे। उनकी उर्दू कहानियों का संग्रह हिंदी में ‘ जीव जानवर ’ शीर्षक से प्रकाशित है। एक दर्शक के बतौर फिल्मों के प्रति सागर सरहदी में जबर्दस्त दीवानगी थी। महूबब खान, जिया सरहदी, विमल राय और राजकपूर उनके प्रिय फिल्मकार थे। स्वयं फिल्मों से उनका जुड़ाव एक संवाद लेखक के रूप में हुआ, जब उन्होंने बासु चटर्जी की फिल्म ‘ अनुभव ’ के संवाद लिखे। सागर सरहदी को जब ‘ कभी-कभी ’ फिल्म में काम मिला, तब उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी। लेकिन उन्होंने अपने जीवन में पुस्तकों के अध्ययन, सामान्य लोगों की तरह जीने और उनके जीवन के करीब होने को हमेशा अहमियत दी। फिल्में बनाई पर व्यवसाय को महत्व नहीं दिया।
सागर सरहदी ने यश चोपड़ा और राकेश रोशन के लिए ‘ कभी-कभी ‘, ‘ सिलसिला ‘, ‘ दीवाना ‘, ‘ फासले ‘, ‘ चांदनी ‘, ‘ कहो न प्यार है ‘ जैसी कई फिल्मों की कहानी और संवाद लिखे, जो बहुत लोकप्रिय हुए। लेकिन उनका लेखक और फिल्मकार उससे संतुष्ट न था। वे स्टार सिस्टम के विरोधी थे और मानते थे कि वह फिल्म के विषय के लिए घातक होता है। वे बड़ी बजट और बड़े स्टार वाली फिल्मों में काम करते थे और उस कमाई को अपने मन की सार्थक फिल्म बनाने में लगा देते थे। उन्होंने दूरदर्शन के अधिकारी और लेखक शरद दत्त से एक मुलाकात में कहा भी था कि ‘‘..फिल्म से मैं पैसा कमाता हूं, गंवाता हूं, फिर कमाता हूं, फिर गंवा देता हूं। मुझे पैसे में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है।’’ जिस समय उन्होंने व्यावसायिक फिल्मों में नहीं लिखने का फैसला किया, उस समय उनके पास दो दर्जन फिल्मों के ऑफर थे। उनका मानना था कि उन्हें फिल्म जगत ने नहीं छोड़ा, बल्कि उन्होंने व्यावसायिक सिनेमा को छोड़ दिया। यथार्थवादी परंपरा को समृद्ध करने वाली उनकी फिल्म ‘ बाजार ’ व्यावसायिक दृष्टि से भी काफी सफल रही। हालांकि बाद की फिल्मों को उस तरह दर्शक नहीं मिले, परंतु अपनी समझ के अनुरूप सार्थक फिल्में लिखना और बनाना उन्होंने नही छोड़ा। ‘ दूसरा आदमी ‘, ‘ लोरी ‘, ‘ कोहबर ‘, ‘ चौसर ‘ उनकी ऐसी ही फिल्में हैं। ‘ चौसर ‘ तो रिलीज ही नहीं हो पाई। इतने बड़े फिल्मकार की इस फिल्म का खरीदार ही नहीं मिला।
सागर सरहदी अपने को जन्मजात नाटककार मानते थे। ‘भगत सिंह की वापसी’, ‘तन्हाई’ और ‘राजदरबार’ उनके चर्चित नाटक हैं। विभाजन की पीड़ा से संबद्ध उनकी कहानी ‘राखा’ पर ‘नूरी’ जैसी लोकप्रिय फिल्म बनी थी।
सागर सरहदी सिर्फ फिल्मकार ही नहीं थे बल्कि वर्तमान समय में संस्कृतिकर्मियों की क्या भूमिका हो, इसे लेकर सजग और सचेत थे।
सागर सरहदी का निधन ऐसे समय में हुआ जब सांप्रदायिक फासीवाद विरोधी सांस्कृतिक अभियान में उनकी जरूरत थी। उनके निधन से हमने यथार्थवादी फिल्मकार तथा सेकुलर, प्रगतिशील व जनवादी संस्कृतिकर्मी ही नहीं जन सांस्कृतिक आंदोलन का साथी खोया है। जन संस्कृति मंच उनकी भूमिका को जन सांस्कृतिक आंदोलन की धरोहर समझता है और उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।