सईद शेख नहीं रहे। मन-मस्तिष्क को झटका लगा। पुरानी यादें ताजा हो गईं। मेरा उनसे सजीव संबंध नहीं था। पर उनके जीवन और उनके साथ की कहानी ने जरूर उनमें रूचि पैदा कर दी थी। उन्होंने 1970 के दशक में भारत छोड़ा और फिनलैंड में बस गए। पर उनका मन अपने देश, गांव-समाज और दोस्तों में रमता था। वे 2010 में लखनऊ आए थे। मकसद अपने प्यारे दोस्त अनिल सिन्हा और अजय सिंह से मिलने का था। हम भी साथ थे। एक शाम हमने उनसे कविताएं सुनीं, बातचीत की। उसके बाद वे फरवरी 2012 में लखनऊ आए थे। यह अनिल सिन्हा स्मृति दिवस पर आयोजित कार्यक्रम था। उसमें भाग लिया। अनिल सिन्हा के जाने का उन्हें बहुत दुख था। उनके दोस्तों में मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आनन्द स्वरूप वर्मा, पंकज सिंह, नीलाभ, आलोक धन्वा, त्रिनेत्र जोशी आदि थे। वे स्वयं दोस्तों के दोस्त थे। उनके बहुत से दोस्त इस दुनिया से जा चुके हैं। सईद चुपचाप चले गए। उनकी खोज-खबर लेने वाले भी कम ही रह गए थे। अब उनकी यादे हैं। वे हमारे साथ हैं और रहेंगी। 2010 मे मैंने उन पर एक लेख लिखा था। इसका शीर्षक था ‘दूर से आती एक प्रवासी की आवाज’। वह आवाज गुम हो गई।
कहा जाता है कि समय के साथ मनुष्य के बड़े से बड़े जख्म भर जाते हैं। वह उन्हें भूल भी जाता है लेकिन जिन्दगी के कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो समय के साथ भर जाने का आभास जरूर देते हैं पर वे भरते नहीं। कोई चोट पड़ती है तो वे फिर हरे हो जाते हैं, रिसने लगते हैं। कवि, चित्रकार व अनुवादक सईद के दिलो दिमाग पर पड़े जख्म कुछ ऐसे ही थे। बाहर से वे दिखते नहीं लेकिन अपने अन्दर कितना दर्द समेटे हुए हैं, यह सईद को लेकर आयोजित लखनऊ की गोष्ठी में देखने को मिला था। उन्होंने 1972 में देश छोड़ा। फिनलैण्ड गये। वहीं बस गये और वहाँ की नागरिकता भी ले ली। पर भारत आते रहे। 2010 में आए और मित्रों से मिलने लखनऊ पहुँचे। लखनऊ के राज्य सूचना केन्द्र में उनके कविता पाठ और उनसे संवाद का कार्यक्रम रखा गया था। गोष्ठी में लेखकों और बुद्धिजीवियों की अच्छी खासी भागीदारी थी।
फिनलैण्ड हमारे लिए बहुत कुछ अपरिचित सा देश है। इसलिए वहाँ का समाज और राजनीतिक व्यवस्था कैसी है, लोगों के सोचने.समझने का नजरिया कैसा है, वह समाज कितना हमारे जैसा और कितना हमसे भिन्न है, साहित्य और संस्कृति का माहौल कैसा है ? आदि सवाल थे और हमारे अन्दर इस देश को जानने की स्वाभाविक उत्सुकता थी। लेकिन उस वक्त माहौल अत्यंत गंभीर हो गया, जब हममें से किसी ने सईद से पूछा कि आपने देश क्यों छोड़ा ? आखिर ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह से आपको यहाँ से जाना पड़ा और फिनलैण्ड की नागरिकता लेनी पड़ी ?
हमने महसूस किया कि इन सवालों पर सईद के चेहरे का रंग स्याह पड़ गया है और वे अपने को असहज पा रहे हैं। वे मौन थे। हवा में सवाल तैर रहा था और इसका जवाब भी सिर्फ सईद के पास था इसलिए पूरे माहौल में चुप्पी थी। यह मौन सबको खल रहा था। उन्होंने अपनी आँखें मूँद ली थी। लगा वे अपने अतीत के किसी गहरे कुएँ की अतल गहराई में हैं। जब खुलीं तो वे आँसूओं से भरी थीं। वे कुछ कह रहे थे। आवाज भर्राई हुई थी और शब्द अस्पष्ट थे…….‘क्या करता, मुझे जेल में डाल दिया गया। गुप्तचर विभाग वालों ने तरह-तरह के ऊल-जलूल सवालों से मुझे मानसिक रूप से परेशान कर दिया था। वे क्या उगलवाना चाहते थे, किस जुर्म की सजा दी जा रही थी, मुझे पता नहीं था। ऐसी हालत थी कि…..मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था। मुझे इस व्यवस्था से नफरत हो गई थी।…….’ और सईद भरी गोष्ठी में रो पड़े। उनकी इस प्रतिक्रिया से हम सभी स्तब्ध थे।
सईद को कविता लिखने और पेंटिग करने का शुरू से शौक रहा। भवाली (उत्तराखंड) के रहने वाले सईद विज्ञान के स्नातक थे। मन में वैज्ञानिक बनने की उत्कट चाह थी। जीवन ही नहीं, विज्ञान की बारीकियों को भी जानने-सीखने की जबरदस्त धुन थी। वे जड़ों तक पहुँचना चाहते थे। इसी धुन में कभी वे प्रयोगशालाओं तक पहुँच जाते तो कभी अनुसंधान केन्द्रों तक। लेकिन माहौल उनके अनुकूल नहीं था क्योंकि वे ‘सईद शेख’ थे। ‘सईद शेख’ होना उनके लिए ‘जुर्म’ हो गया। उन दिनों बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम और पाकिस्तान के साथ युद्ध चल रहा था। सईद की खोजी प्रवृत्ति ने उन्हें संकट में डाल दिया था। गुप्तचर विभाग की नजर में दुश्मन के ‘जासूस’ लगे। फिर क्या था ? उनसे पूछताछ का ऐसा दौर चला कि वे विक्षिप्त से हो गये। जब कुछ नहीं मिला तो यातनाएँ दी जाने लगीं। जेल में डाल दिया गया। और जब जेल से बाहर आये तो दिल दिमाग बुरी तरह घायल था। व्यवस्था ने इस कदर तंग कर दिया था कि अब उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे देश से दूर चले जाएं। फिर लौट कर न आयें । और वे सुदूर उत्तरी ध्रुव के देश फिनलैण्ड पहुँच गये।
पर सईद दिल दिमाग से दूर नहीं जा पाये। देश से इस कदर लगाव बना रहा कि एक से दो साल भी नहीं बीत पाता कि वे हिन्दुस्तान आ जाते। दोस्तों से मिलते। उस शहर, कस्बे, गाँव तक जरूर जाते जहाँ से जुड़ाव गहरा था। उम्र बढ़ती जा रही थी।। मधुमेह ने ग्रसित कर रखा था। शरीर भी भारी-भरकम हो गया था। साँस फूलने की बीमारी थी। चलना, सीढ़ियाँ चढ़ना दूभर सा हो गया था। पर यहाँ आने-जाने का सिलसिला कम नहीं हुआ। फिनलैण्ड में रहते हुए सईद ने ढ़ेर सारी कविताएँ लिखीं, चित्र बनाये, अनुवाद किये। सईद ने प्रसिद्ध फिनिश उपन्यासकार मिका वाल्तरी के उपन्यास ‘सिनुहे मिश्रवासी’ का हिन्दी में अनुवाद किया। सईद से ही हमें पता चला कि वहाँ की सरकार साहित्य के प्रचार-प्रसार पर बड़ी धनराशि खर्च करती है। समाज भी वहाँ का काफी खुला है और लोकतांत्रिक व्यवस्था है। हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी है। उन्हें हमारे यहाँ की तरह किसी आरक्षण और उसके लिए संघर्ष करने की जरूरत नहीं है। उन्हें बराबरी का दर्जा हासिल है। यहाँ तक कि फिनिश समाज में अविवाहित मातृत्व को भी मान्यता है।
उक्त गोष्ठी में सईद ने अपनी कई कविताएँ सुनाईं। इनसे गुजरते हुए एक अलग अनुभूति का अहसास हुआ। यहाँ अदभुत दृश्य हैं। लगता है कि कोई चित्रकार अपनी कूची से कैनवास पर चित्र उकेर रहा है। कविता के साथ चित्रकारिता का भी यहाँ आस्वादन कर सकते हैं। लेकिन सईद की कविताओं को पढ़ते-सुनते हुए उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी कवि सेमुअल टेलर कॉलरिज की कविता ‘फ्रास्ट एट मिडनाइट’ की बरबस याद हो आई। प्रकृति और बाहर के दृश्यों में हमारी मनःस्थिति का ही प्रतिबिंब होता है। हमारे अंतर्मन में जो घटित हो रहा होता है या जो चल रहा है, वैसा ही हमें बाहर घटित होते हुए दिखता है।
सईद की कविताओं में ‘भटकती हुई घायल आत्मा’, ‘जलती हुई झाड़ियाँ’, ‘अंधेरे की चादर’, ‘झुलसता हुआ रेगिस्तान’, ‘मृणासन्न ऋतुएँ’, ‘हृदय विदारक चीत्कार’, ‘क्षितिज रक्ताभ’, ‘थके मांदे या मृत मौसम’ जैसे चित्र उभरते हैं। लगता है कि यहाँ गहरी उदासी है, रंग फीके और अवसाद से भरे हैं। बातचीत के क्रम में सईद ने बताया भी कि ये कविताएँ जब पुस्तक के रूप में छपेंगी तो इसका शीर्षक होगा: ‘दूर से आती एक प्रवासी की आवाज’। तब हमें समझते देर नहीं लगी कि यहाँ फैली उदासी और अवसाद क्यों है ? कहीं न कहीं यह सईद के अर्न्तमन की पीड़ा, अपनी जड़ों से कट जाने की व्यथा और उनसे संवाद की छटपटाहट है जो कविताओं में प्रतिबिम्बित/अभिव्यक्त हो रही हैं।
सईद अकेले नहीं हैं। इनके जैसों की पीड़ा, देश छोड़कर जाना और विदेशी नागरिकता लेना, इस व्यवस्था पर सवाल है। मकबूल फिदा हुसैन की कला को लेकर भी काफी विवाद पैदा किया गया। खासतौर से हिन्दू देवी-देवताओं पर बनाये गये उनके चित्रों का हिन्दुत्ववादियों व सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा हिंसक विरोध हुआ। उन पर शारीरिक हमले किये गये। चित्रों को तोड़ा-फोड़ा गया, उनकी होली जलाई गई। सैकड़ों की संख्या में उनके ऊपर मुकदमें कायम किये गये। मजबूरन हुसैन जैसे कलाकार को अपने जीवन की अन्तिम बेला में देश छोड़ना पड़ा और कतर की नागरिकता लेनी पड़ी। तसलीमा नसरीन ‘अपने सुन्दर सलोने संसार में लौटना चाहती हैं, बांगला देश न सही वह ‘कोलकाता के घर’ में रहना चाहती है और उन्हें मिलता है ‘नजरबंदी’ या ‘बंदी’ का जीवन।
कलाकार स्वतंत्रता चाहता है। वह प्रतिबन्धों, असुरक्षा में नहीं जीना चाहता है। कहने के लिए यहाँ संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता है। नागरिकों को अपना पसंदीदा धर्म व पंथ अपनाने की स्वतंत्रता है। कानून के समक्ष सभी बराबर हैं। ‘वसुधैव ही कुटुम्बकम’ को भारतीय संस्कृति बताते हुए थकते नहीं। इस पर गर्व किया जाता है। लेकिन इन बड़ी-बड़ी बातों के बीच अक्सरहाँ छोटी बातों को नजरअन्दाज कर दिया जाता है कि यहाँ सईद, हुसैन, तसलीमा……जैसे कलाकारों या ऐसे अनगिनत लोगों के लिए इतनी भी जगह क्यों नहीं जहाँ वे स्वतंत्रता से जी सकें रह सकें और सृजन कर सके। आखिरकार यह कैसी व्यवस्था है जो न्यूनतम सुरक्षा की गारण्टी नहीं दे सकती ? सईद इस दुनिया से जा चुके हैं, कूच कर चुके हैं। दूर से आती एक प्रवासी की आवाज गुम हो चुकी है। लेकिन वह सोचने के लिए बहुत सारे सवाल छोड़ गयी है।