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महामारी, युद्ध और वैश्विक शक्ति संतुलन- एक

जयप्रकाश नारायण 

पिछले 2 वर्षों से मानव सभ्यता कोविड-19 वायरस की महामारी से जूझ रही है। करोड़ों लोग अब तक मारे जा चुके हैं। उद्योग, व्यापार, आवागमन और पर्यटन को भारी धक्का लगा है। अरबों रोजगार  खत्म हो चुके हैं । छोटे, मझोले उद्योग व्यापार ठप पड़े हैं। दुनिया इस संकट से उबरने के लिए संघर्षरत है।

महामारी के पहले से ही गहरे आर्थिक संकट में घिरा विश्व टकराव में जाने के लिए बाध्य है। क्योंकि मौजूदा आर्थिक संकट सामान्य परिस्थितियों और उपायों  से हल नहीं किया जा सकता।

2008 से वैश्विक अर्थव्यवस्था महामंदी के जाल में फंसी है । विश्व साम्राज्यवादी ताकत अमेरिका इसका केंद्र स्थल है। पूंजीवादी सभ्यता में चक्रीय तौर पर आने वाली मंदी से निकलने के लिए उसके पास सीमित विकल्प हुआ करते हैं।
साम्राज्यवाद अपने संकट को पिछड़े और गरीब मुल्कों पर थोप कर या सीधे उनको अपने नियंत्रण में लेकर हल करना चाहता है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वित्तीय पूंजीवाद ने अमेरिका के नेतृत्व में अनेक संस्थाओं का निर्माण किया, जो विकसित राष्ट्रों को संकट काल में मदद करते रहे हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों ने बीडनवुड प्रस्ताव के द्वारा यूएनओ, आईएमएफ, विश्व बैंक, डब्ल्यूएचओ आदि संस्थाओं का जाल बिछाया।
चूंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन के हाथ से विश्व का नेतृत्व फिसल जाने के बाद यूएसए दुनिया की अगुवाई करने के लिए आर्थिक सामरिक तकनीकी रूप से तैयार हो चुका था।

इसलिए जो भी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं बनी वह सभी अमेरिकी वर्चस्व का कारगर हथियार समय के साथ बनती गयी।

साम्राज्यवाद मूलत एक हथियारबंद युद्ध प्रणाली है, जो कमजोर और पिछड़े राज्यों पर युद्ध थोपने के अलावा दूसरे रास्ते से जिंदा नहीं रह सकता।
इसलिए आर्थिक मंदी से निकलने के लिए बाजार की छीना झपटी के लिए  अंततोगत्वा युद्ध ही एकमात्र विकल्प बचता है।

अमेरिका के नेतृत्व में नाटो ने नये आजाद हुए मुल्कों और विकासशील देशों पर नियंत्रण के लिए कूटनीतिक चालों के द्वारा उन्हें सैनिक गठजोड़ में ले आने की भरपूर कोशिश की।

नाटो लाल सागर के अगल-बगल के मुल्कों को अपने साथ जोड़ कर रूस के मुहाने तक पहुंचना चाहता है। पूर्व सोवियत संघ से अलग हुए कई देश और कई पूर्व समाजवादी देश   नाटो के दायरे में आ चुके हैं।
यूक्रेन, क्रीमिया  नाटो में जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि 2014 में ही रूस ने क्रीमिया को अपने कब्जे में ले लिया।

रुस ने नाटो की संभावित मिलिट्री घेरेबंदी से बचने के लिए अमेरिका के सामने शर्त रखी कि यूक्रेन को नाटो का सदस्य न बनाया जाए और इस क्षेत्र को बफर जोन के रूप में सुरक्षित रखा जाए ।

औपनिवेशिक दुनिया के अवसान के बाद नये आजाद हुए मुल्कों के शासक वर्ग और उनके राजनीतिक प्रतिनिधि मूलतः अपने चिंतन और व्यवहार में पूंजीवादी सामंती मूल्यों के पक्षधर  हैं। वे आजादी और  सार्वभौमिक राष्ट्र की परिकल्पना अमेरिकी वित्तीय पूंजी के संरक्षण और सैन्य संबंधों के दायरे में ही देख पाते हैं। इसलिए अमेरिका द्वारा बनाये गये नाटो, सीटो, सेंटो जैसे सैन्य गठबंधन में तीसरी दुनिया के अधिकतर देश संभावित साम्यवादी क्रांतियों के डर से शामिल होते गये। जो उनके वर्गीय चरित्र के अनुकूल था।

नव स्वतंत्र देशों के बुर्जुवा शासक वर्ग अपने ही मुल्कों की जनता के लोकतांत्रिक आकांक्षा से डरते हैं। इसलिए अधिकांश देशों के शासकों ने महाबली अमेरिका के शरण में जाने को अपना सौभाग्य समझा।

संभवतः कॉमेडियन से राष्ट्रपति  बने जेलेंस्की  ने नाटो शरणम गच्छामि का मार्ग चुना।
पूर्व सोवियत संघ में जासूस रह चुके व्लादिमीर पुतिन रूस के राष्ट्रपति बनने के बाद लोकतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियों के सफाई के अभियान में जुटे। जिसमें उन्हें नाटों का समर्थन हासिल था।

पुतिन रूस में  नये तरह की फासीवादी तानाशाही  निर्मित करने में कामयाब हुए हैं। उनकी महत्वाकांक्षा वैश्विक महाशक्ति बनने की साफ-साफ दिख रही है।
दूसरा, उनका यह नजरिया रहा है कि रूस के अगल-बगल के देशों में नाटो के सैन्य अड्डे नहीं होने चाहिए। नाटो को गारंटी देनी चाहिए कि वह अपना विस्तार पूर्व सोवियत संघ के देशों में नहीं करेगा। लेकिन नाटो ने ऐसा करने से इंकार कर दिया ।

इसलिए क्रीमिया के बाद पुतिन ने यूक्रेन की तरफ रुख किया।  इस समय रूसी सेना यूक्रेन में कहर ढा रही है । आम नागरिक इस युद्ध से बुरी तरह बेहाल और परेशान हैं।

लाखों प्रतिष्ठान, घर, बाजार, हवाई अड्डे बर्बाद हो चुके हैं और हजारों नागरिक मारे जा चुके हैं।
यूक्रेन की राजधानी कीव सहित चारों तरफ तबाही के मंजर दिखाई पड़ रहे हैं। मकानों, प्रतिष्ठानों में लाशें पड़ी हैं। सामान्य जिंदगी की जरूरतों की भारी किल्लत है।  नागरिक शहर और देश छोड़कर बाहर भाग  रहे हैं ।

यूक्रेन राष्ट्र संघ सहित अमेरिका और नाटो के सामने ही तबाह किया जा रहा है। युद्ध से यूरोप अमेरिका के शासकों को अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपने राष्ट्रीय हितों को पूरा करने के लिए एक नया मैदान लाल सागर के इर्द-गिर्द उपलब्ध हो गया है।

युद्ध का क्षेत्र अफगानिस्तान, इरान, इराक,  लीबिया, सीरिया, भूमध्य सागर की खाड़ी  और यौरूशलम से खिसक कर लाल सागर के किनारे पहुंच गया है।

ऐसी स्थिति में आने वाली दुनिया कैसी होगी। उसका नेतृत्व कौन करेगा और विश्व शक्ति संतुलन किस तरफ जायेगा। वैश्विक शांति के लिए इस पर विचार करना अति आवश्यक है।

इस समय अमेरिका के नेतृत्व में 1990 के बाद एक ध्रुवीय दुनिया बनी है। क्या वह पहले जैसा रहेगा या उसमें बदलाव होंगे। ऐसी कौन सी परिस्थितियां और कारक काम कर रहे हैं जिससे आने वाले समय में अमेरिकी बादशाहत और डालर के एकाधिकार  को चुनौती मिलने वाली है।

महामारी की शुरुआत के दौरान लेखक, विचारक  अरुंधती राॅय ने लिखा था, कि कोविड-19 महामारी गुजर जाने के बाद विश्व का अंतर्राष्ट्रीय संतुलन वह नहीं रहेगा, जो आज के दौर में है।

दूसरा, उन्होंने कहा था, कि पूंजीवाद का इंजन अब और आगे जाने की क्षमता खो चुका है । इसलिए जितना जल्दी हो इसे बदल दिया जाना चाहिए ।
महामारी और यूक्रेन पर रुसी हमले ने इस बात को स्पष्टत: प्रमाणित कर दिया है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में दुनिया को जिस तरह से चलाया जा रहा है अब वह और आगे जाने के लिए तैयार नहीं है।

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)

फीचर्ड इमेज गूगल से साभार

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