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रोमिला थापर की सीवी बनाम मोदी सरकार की डिग्री

धर्मराज कुमार 

आजकल सोशल मीडिया पर दिलचस्प ख़बर पढ़ने को मिलती है। ऐसी ही ख़बरों के हवालों से पता चला कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रशासन ने रोमिला थापर की सीवी माँगी है ताकि उन्हें प्रोफ़ेसर एमेरिटस का पद दुबारा दिया जा सके। हालाँकि, रोमिला थापर ने इससे इनकार कर दिया है, लेकिन इसपर बहस राष्ट्रहित के लिए जरूरी है।
ध्यान रहे कि किसी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर एमेरिटस होना किसी विशेष सुविधा के बरक्श सम्मान का विषय अधिक है। विदित हो कि मोदी सरकार आने के बाद से जेएनयू प्रशासन ने पिछले चार-पाँच वर्षों से वैसे प्रोफेसरों की शैक्षणिक गतिविधियों पर सवाल उठाएँ हैं जिनके नाम से उनसे संबंधित विषय की पहचान बनी है। प्राचीन भारत के इतिहास के क्षेत्र में रोमिला थापर और भारतीय अर्थशास्त्र के क्षेत्र में प्रभात पटनायक ऐसे ही दो बड़े नाम हैं। इन दोनों बड़े नामों ने लगभग पाँच दशकों से अधिक अपने-अपने विषयों को खून-पसीने से सींचा हैं। रोमिला थापर का नाम तो भारतीय शिक्षा प्रणाली के सबसे निचले पायदान के लोगों द्वारा भी सम्मानपूर्वक लिया जाता है।
अतिशयोक्ति न होगा यदि भारत में किसी भी प्रकार की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों से भारत के प्राचीन इतिहासकार का नाम पूछा जाए तो पहला ही नाम रोमिला थापर होगा. रोमिला थापर ने भारत के प्राचीन इतिहास को एक मुकम्मल दिशा प्रदान किया है. कोई भी आज़ाद देश अपनी आज़ादी की लड़ाई के लिए ऊर्जा अपने प्राचीन इतिहास से प्राप्त करता है, आज़ादी के बाद कुछ इसी प्रकार की भूमिका रोमिला थापर की मानी जा सकती है.
विदित हो कि बुद्धिजीवी सर्किल में रोमिला थापर शुरू से ही सरकार की आलोचक के रूप में जानी जाती हैं. इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि रोमिला थापर ने मोदी सरकार को इंदिरा सरकार से भी अधिक तानाशाही बताया है. स्पष्ट है कि इंदिरा गाँधी की सरकार को भी रोमिला थापर ने तानाशाही रवैये वाली सरकार माना है.
हालाँकि, मोदी सरकार के ऊपर दिए गए अपने इस बयान के बाद से ही रोमिला थापर मोदी सरकार के समर्थकों के मुख्य निशाने पर हैं. जेएनयू प्रशासन द्वारा रोमिला थापर से सीवी की माँग करना इसी कड़ी का हिस्सा है. इसकी प्रतिक्रिया में सोशल मीडिया पर पूरे देश से जेएनयू प्रशासन ही नहीं बल्कि मोदी सरकार की खिंचाई सही में ‘अच्छे दिनों’ की संभावना को मजबूत करती है.
मोदी सरकार की डिग्री बनाम रोमिला थापर की सीवी
मोदी सरकार में शैक्षणिक डिग्रियों पर विवाद आम है। सुखद है कि मोदीजी खुद इस विवाद के सबसे बड़े नेतृत्वकर्ता हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पहले भारत के किसी भी तत्कालीन प्रधानमंत्रियों के डिग्री के मुद्दे पर विवाद नहीं हुआ है।
भारतीय संविधान के तहत, किसी भी चुनाव में खड़े होने के लिए विशेष स्तर की शैक्षणिक बाध्यता नहीं है। अर्थात भारतीय लोकतंत्र में जनसेवा के लिए डिग्री नहीं बल्कि जनभावना को अधिक तरजीह दिया गया है। यही कारण है कि बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री श्रीमती राबड़ी देवी सिर्फ पाँचवी पास होने के बावजूद भी मुख्यमंत्री पद तक पहुँच सकीं। यह सच है कि पूरे भारत में बड़े पैमाने पर उनका मज़ाक उड़ाया गया। लेकिन इस मज़ाक से बचने के लिए उन्होंने कोई गलत रास्ता अख्तियार नहीं किया। ऐसी ही स्थिति राजद के दो प्रमुख नेताओं तेजप्रताप यादव और तेजस्वी यादव की भी है। लेकिन इन दोनों ने भी झूठ का सहारा नहीं लिया। भारत में ऐसे कई उदाहरण हो सकते हैं।
भारत जैसे आर्थिक असमानता वाले विशाल देश में अल्पशिक्षित होना उतना बड़ा गुनाह नहीं हो सकता, जितना बड़ा निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु झूठ बोलना होना चाहिए. संभव है, गाँधी ने भारतीय जनमानस के इसी भावना का प्रतिनिधित्व करते हुए पहले सत्य को स्थान दिया, उसके बाद अहिंसा को. वर्तमान समय में भी किसी भारतीय का अशिक्षित या अल्पशिक्षित रह जाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
आज भी भारत में आर्थिक असमानता का आलम यह है कि यदि सरकारी स्कूलों में मध्याह्न भोजन (मिड-डे मील) की व्यवस्था न हो, तो भारतीय गाँवों के अधिकतर बच्चे शिक्षा तो दूर, भीषण कुपोषण का शिकार हो जायेंगे. हमारे समाज के वीभत्स रूप का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि हाल में ही अगस्त के महीने में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में गरीब बच्चों को मध्याह्न भोजन में नमक और रोटी परोसा गया. यह घटना तो कम-से-कम प्रकाश में आ गई, जो घटनाएँ प्रकाशित नहीं हो पाती उसमें निहित अमानवीयता का अनुमान भी लगाना असंभव होगा.
अतः, मोदीजी के डिग्री वाले विवाद में मोदीजी भी उतनी ही सहानुभूति के हकदार हैं, जितना कोई भी एक आम निष्ठावान भारतीय। सिर्फ एक शर्त है कि मोदीजी खुल कर दुनिया को सच-सच बता दें कि:
‘ज्यादा नहीं पढ़ा तो डरना तो क्या,
बस कम पढ़ा कोई चोरी नहीं की,
उसपर से इतना डरना क्या, ज्यादा नहीं …!’
शैक्षणिक डिग्री विवाद, मोदी जी एवं मोदी सरकार
2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान, विपक्ष के नेताओं ने भारत के दो प्रमुख नेताओं पर एफिडेविट पर संदेहास्पद जानकारी देने का आरोप लगाया था। हालाँकि, इस आरोप को आज भी गलत साबित नहीं किया जा सका है। आरोप का सार है कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं श्री राजीव शुक्ला के साथ अपने दिए साक्षात्कार में सिर्फ हाई स्कूल तक पढ़ने की बात स्वीकारी थी। आश्चर्य है कि जब श्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा उम्मीदवार का पर्चा दाखिल किया तो खुद को दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एम ए होने की जानकारी दी। इस पर विपक्ष के नेताओं ने सिर्फ सवाल उठाया, बल्कि यह मामला आज भी भारतीय न्यायालय में लंबित है। गौरतलब है कि इस मामले में बीच-बीच में रोचक प्रसंग उभर आते हैं।
उसी दौरान, स्मृति ईरानी ने भी खुद को अमेरिका के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय (येल विश्वविद्यालय) से डिग्री लेने की जानकारी दी थी। इस पर विवाद होते ही येल के दावों का तेल हो गया।
ऐसे देश में, जहाँ के प्रधानमंत्री से लेकर शिक्षामंत्री इत्यादि जैसे बड़े नेताओं की डिग्रियाँ संदेह के घेरे में है, जेएनयू प्रशासन द्वारा इस देश की लिविंग लीजेंड एवं महान इतिहासकार रोमिला थापर की विद्वता के मूल्यांकन के लिए सीवी मांगने का साहस करनेवाले को परमवीर चक्र से नवाज़ा जाना चाहिए।
रोमिला थापर का ऐतिहासिक युग एवं मोदी सरकार का इतिहास निर्माण
24 नवम्बर, 2014 को परमानेंट ब्लैक ने अपने ब्लॉग पर रोमिला थापर की पुस्तक “द पास्ट बिफोर अस” के पेपरबैक संस्करण का जिक्र करते हुए एक तस्वीर छापी थी। इस तस्वीर में रोमिला थापर लन्दन के उस कार्यक्रम की अध्यक्षता करती नज़र आ रही हैं, जिसके मुख्य वक्ता दुनिया के महान दार्शनिक एवं नोबेल पुरस्कार विजेता, बरट्रेंड रसेल, थे। यह तस्वीर 1955 की है।
अनुमान करना रोचक होगा कि इस समय श्री नरेन्द्र मोदी जी क्या कर रहे होंगे। संभव है, तब वे कौड़ियाँ खेलते होंगे। वैसे तो उन्होंने खुद के लिए चाय बेचने की बात कही है। यह भी संभव है, वे पत्तों पर गिरे ओस से पानी जमा करने की जुगत में लगे हों। हालाँकि, उनके व्हाटसप भक्तों का दावा सबसे दिलचस्प है। उनके भक्तों के विश्वास एवं आस्था के अनुरूप, वे उस वक़्त घड़ियाल के बच्चों संग भी खेलते रहे हों। संभव है, उसी समय घड़ियाली आँसू भी बहाना सीख रहे हों। संभव है, मोदीजी यह सब उस वक़्त कर रहे हों, जब रोमिला थापर दुनिया के सामने भारतीय विद्वता का लोहा मनवाने जैसा देशद्रोही षड्यंत्र में लिप्त रही हों।
अतः, रोमिला थापर को किसी सूरत में मोदी सरकार में जेएनयू प्रशासन एवं भक्तों को अपना सीवी  दिखाना ही होगा। क्योंकि मोदीजी के कुशल पारदर्शी नेतृत्व की प्राथमिकता का हिस्सा है कि संसद में बैठे लोगों को छोड़कर बाक़ी सभी बुद्धिजीवियों की योग्यता की जाँच सख्ती से हो। सुखद है कि मोदी सरकार ने सूचना का अधिकार कमजोर कर दिया, वर्ना रोमिला थापर की कम-से-कम पुरानी सीवी को ही भक्तों द्वारा हिन्दू राष्ट्रहित में उजागर कर दिया जाता।
समझना अपरिहार्य है कि रोमिला थापर इतिहास की अध्येता मात्र हैं। लेकिन मोदीजी इतिहास निर्माता हैं। मोदी जी का काम ना तो इतिहास का अध्ययन है, ना ही इतिहास का संरक्षण। उनका काम सिर्फ इतिहास का निर्माण करना है। भारतीय संस्थानों में विराजमान मोदी सरकार के समर्थकों की भी यही प्रतिज्ञा है। इसी प्रतिज्ञा के पालन में, जेएनयू प्रशासन ने रोमिला थापर को प्रोफेसर एमेरिटस बनाये रखने के लिए उनकी सीवी की माँग की है।
मामला स्पष्ट है कि मोदीजी एक महान नेता हैं। नेता झूठ बोलने के लिए जाने ही जाते हैं। अगर मोदीजी ने अपनी डिग्री के संबंध में कुछ उल्टा-पुल्टा कह भी दिया तो आवश्यक नहीं कि उसके सच्चाई की जाँच की जाए। वैसे भी, पंद्रह लाख वाला जुमला और स्विस बैंक से काला धन लाने के बजाय रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया से लाखों करोड़ों रूपये निकाल लेना जनता भूली नहीं है।
खैर, रोमिला थापर एक प्रतिबद्ध शिक्षिका, इतिहास की सर्वप्रतिष्ठित लेखिका एवं भारतीय इतिहास परंपरा की मूर्धन्य चिन्तक रही है। अतः रोमिला थापर की सीवी न सिर्फ जेएनयू के प्रशासन के पास होनी चाहिए बल्कि उसका सत्यापन भी ईमानदारी से किया जाना चाहिए।
रोमिला थापर के सीवी न होने से हिन्दू राष्ट्र पर मंडराते ख़तरे
रोमिला थापर के सीवी न होने से हिन्दू राष्ट्र पर भयानक ख़तरे मंडरा रहे हैं। हाल में ही, केरल से आनेवाले एक आईएएस अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने मोदी सरकार द्वारा बलपूर्वक अनुच्छेद 370 के निरस्त करने के मनमानी रवैये से न केवल कश्मीरियों को परेशान करने की बात कही, बल्कि नौकरी से ही इस्तीफ़ा दे दिया। हो सकता है, गोपीनाथन पर जाने-अनजाने रोमिला थापर की ऐतिहासिक समझ हावी हो। हो सकता है, ऐसे अनेक अधिकारी मोदी सरकार में कार्यरत है। यह तो पक्का है कि जितने भी उच्च पदों पर अधिकारी बैठे हैं उन्होंने रोमिला थापर की पुस्तक कम-से-कम एक बार जरूर पढ़ी होगी। ये सभी हिन्दू राष्ट्र निर्माण के बाधक तत्त्व हैं। अतः, भारत के उन तमाम आला अधिकारियों को जो केन्द्रीय लोकसेवा आयोग से लेकर राज्य के लोक सेवा आयोगों में रोमिला थापर की इतिहास की पुस्तकों को पढ़कर चयनित हुए हैं, मोदी सरकार द्वारा तत्काल प्रभाव से नौकरी से बर्खास्त कर देना चाहिए।
संक्षेप में, रोमिला थापर जैसे अर्बन नक्सलियों की इतिहास की पुस्तकों को न केवल प्रतिबंधित कर देना चाहिए, बल्कि भारत की तमाम विश्वविद्यालयों, आयोगों एवं सभी शैक्षणिक संस्थानों को तुरंत बर्बाद कर देना चाहिए। वैसे मोदी सरकार ने इस सकारात्मक बर्बादी की दिशा में अपने कदम बढ़ाये तो हैं, लेकिन सफ़र अभी काफी लंबा मालूम पड़ता है। बस दुःख इस बात का है कि मोदीजी या उनके समर्थक चाहकर भी रोमिला थापर का एक कतरा भी नुकसान नहीं पहुँचा पाएँगे। हाँ इतना ज़रूर है कि मोदी सरकार में रोमिला थापर लगभग 88 वर्ष की उम्र में भी चिंता की गर्त में जा गिरी है। मोदी सरकार एवं उनके समर्थकों को इसे बड़ी उपलब्धियों में से एक मानना चाहिए और जश्न मनाना चाहिए। अंत में, जेएनयू प्रशासन को बधाई एवं मोदी सरकार को भक्तवाद !

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