100 वर्ष पहले के असहयोग आंदोलन को याद करने की आज अधिक जरूरत है। असहयोग आंदोलन की शतवार्षिकी के अवसर पर इतिहास के उन पुराने पन्नों को एक बार फिर से पलटा जाना चाहिए। 9 जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से बम्बई आने के बाद गांधी ने गोखले की सलाह मानकर भारत को देखने और समझने का निर्णय लिया। प्रथम विश्वयुद्ध 28 जुलाई 1914 को आरंभ हो चुका था जो 11 नवंबर 1918 तक जारी रहा था। इसी अवधि में 1916 में तिलक ने एक राजनीतिक संगठन ‘अखिल भारतीय होमरूल लीग’ की स्थापना की थी। यह संगठन ब्रिटिश राज में एक ‘अधिराज्य’, डोमेनियन का दर्जा प्राप्त करने के लिए बना था। ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा आदि कई देशों को अधिराज्य स्थिति ‘डोमिनियन स्टेटस’ प्राप्त थी।
प्रथम विश्व युद्ध में भारत ने ब्रिटेन की सहायता की थी। नरमपंथी कांग्रेसी ब्रिटिश से यह सोचकर सहयोग कर रहे थे कि युद्ध उपरांत इन्हें स्वतंत्रता प्राप्त हो जाएगी। पुनर्विचार के बाद होम रूल लीग की स्थापना हुई। तिलक और एनी बेसेंट ने दो होम रूल लीग – पुणे होम रूल लीग और मद्रास होम रूल लीग की स्थापना की। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने रौलट एक्ट, जलियांवाला बागकांड और पंजाब में मार्शल लाॅ लगाकर अपनी नीयत स्पष्ट कर दी थी। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार, 1919 से जनता को कोई राहत नहीं मिली थी। मुसलमान भी अपने को ठगा महसूस कर रहे थे। युद्ध में मुसलमानों का सहयोग लेने के लिए तुर्की के प्रति अंग्रेजों ने अपना उदार रुख दिखाया था, वह बाद में कायम नहीं रहा। भारतीय मुसलमान तुर्की के खलीफा को अपना धर्मगुरु मानते थे। प्रथम विश्वयुद्ध के समय तुर्की के सुल्तान का अपना एक बड़ा साम्राज्य था। वह दुनिया भर के सुन्नी मुसलमानों का धार्मिक गुरु खलीफा था। विश्वयुद्ध में तुर्की की पराजय हुई थी। ब्रिटेन और फ्रांस ने उसके राज्य को आपस में बांट लिया था। उसका राज छोटा हो गया था। दुनिया के मुसलमानों में इस कारण भारी असंतोष था।
खिलाफत आंदोलन, 1919-1922, मुसलमानों द्वारा चलाया गया राजनीतिक-धार्मिक आंदोलन था जिसका उद्देश्य अंग्रेजों पर दबाव बनाना था कि वह तुर्की के खलीफा पद की पुनः स्थापना करे। गांधी ने खिलाफत आंदोलन में भाग लिया था। हिंदू मुस्लिम एकता पर बल दिया था। उन्होंने खिलाफत आंदोलन को ‘भारतीय समुद्र का एक बड़ा मंथन/विलोड़न, चर्निंग कहा था। 1919 में घटनाएं बड़ी तेजी से घट रही थी। फरवरी 1919 में रौलट एक्ट पारित हुआ था और 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ। इस घटना की जांच के लिए जो हंटर कमेटी बहाल की गई थी, उसने मार्च 1920 में प्रकाशित रिपोर्ट में डायर के कार्य को केवल ‘गंभीर अनुमानिक त्रुटि का परिणाम’ माना। कांग्रेस ने अपनी जांच कमेटी गठित की थी। उसकी रिपोर्ट भी 1920 में प्रकाशित हुई थी और यह रिपोर्ट बिल्कुल सही थी। गांधी ने फरवरी 1919 में रौलट एक्ट के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन आरंभ करने के लिए सत्याग्रह लीग की स्थापना की। हसरत मोहानी ने नवंबर 1919 की खिलाफत कांग्रेस में अंग्रेजी माल के बहिष्कार का प्रस्ताव पेश किया था जो पारित नहीं हो सका था। गांधी ने तुर्की के साथ ब्रिटिशों का व्यवहार देखकर उन्हें असहयोग के जरिए उत्तर देने की बात कही थी। भारतवासी ब्रिटिशांे से सहयोग को इनकार कर सकते हैं, ब्रिटिश राज द्वारा दी गई उपाधियों और सम्मान को वापस कर सकते हैं। टैगोर ने 30 मई 1919 को ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी। गांधी इस समय तक कांग्रेस के सर्वप्रमुख नेता नहीं बने थे। दिसंबर 1919 में अमृतसर में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक सत्र में उन्हें दूसरी पंक्ति का नेतृत्व करने का अवसर मिला। उनके साथ पटेल, नेहरू, राजगोपालाचारी और राजेंद्र प्रसाद थे।
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन 1919 में अधिक तीव्र गति से विकसित हुआ। ब्रिटिश शासन ने रौलट एक्ट के द्वारा प्रशासन को व्यापक अधिकार और बिना मुकदमा चलाए लोगों को गिरफ्तार करने का अधिकार प्रदान किया। इस कानून का पूरे देश में विरोध हुआ। पिछले वर्ष सीएए का जितना विरोध हुआ है, उससे कहीं अधिक वह विरोध था। ब्रिटिश सरकार के विरोध में हिंदू और मुसलमान पहले की तुलना में कहीं अधिक एकजुट हुए। हिंदू मुसलमान एकता प्रगाढ हुई। एक मस्जिद के मंच से हिंदू नेता ने भी भाषण दिया। देशभर में हड़ताल और प्रदर्शन थम नहीं रहे थे। इस कानून ने आपसी भेदभाव मिटाकर सबको एक साथ ला खड़ा किया। गांधी ने 5 मई 2020 के ‘यंग इंडिया’ में असहयोग के चार चरणों वाली स्ट्रेटजी की बात कही। भारतीयों को उपाधियां और सम्मान लौटाने चाहिए, सरकारी सेवाएं नहीं देनी चाहिए और तीसरे चौथे चरण में पुलिस और सेना का अलग होने के साथ टैक्स भुगतान नहीं करना था। हकीम अजमल खान ने मार्च 1920 में ब्रिटिश मेडल वापस कर दिया था। गांधी के आवाहन पर कइयों ने उपाधियां लौटाई, मेडल वापस किए और सम्मान-पद छोड़े। 16 मई 1920 के ‘नवजीवन’ में गांधी ने लिखा – असहयोग तभी संभव है जब हम हिंसा का विचार छोड़ दें। उसका परित्याग करें। उन्होंने यह भी कहा कि अगर कहीं एक भी हत्या होती है तो वे इसे छोड़ देंगे। असहयोग को उन्होंने हिंसा से अधिक सक्षम हथियार माना। अबुल कलाम आजाद ने गांधी के असहयोग का समर्थन किया। यह उपनिवेशवाद की समाप्ति के मार्ग में बड़ा तेज कदम था। कांग्रेस ने सितंबर 1920 में कोलकाता के विशेष सत्र में असहयोग पर निर्णय लेने की बात कही। गांधी ने इसकी प्रतीक्षा ना कर जून के अंत में यह घोषणा की कि पहली अगस्त से असहयोग आरंभ होगा।
पहली अगस्त 1920 को तिलक का निधन हुआ और इसी तिथि से असहयोग आरंभ हुआ। दूसरे दिन 2 अगस्त को गांधी ने दक्षिण अफ्रीका की सेवा में प्राप्त मेडल वायसराय को लौटा दिए। ब्रिटिशों के खिलाफ खिलाफत और पंजाब के प्रति रवैए को देखकर उन्होंने यह कहा कि अब ब्रिटिश राज के प्रति उनमें कोई आदर भाव नहीं है और ना कोई स्नेह भाव। देशभर से अनेक लोगों ने मेडल और उपाधियां लौटाए। कोलकाता अधिवेशन के पहले पटेल ने गुजरात में एक कांफ्रेंस आयोजित कर सहयोग को समर्थन किया। मुसलमानों को, जो तुर्की के प्रति हुए व्यवहार से अधिक आहत थे, हिंदुओं को समर्थन देने की बात कही। कोलकाता अधिवेशन में मदन मोहन मालवीय, चितरंजन दास, बिपिन चंद्र पाल, जिन्ना और एनी बेसेंट असहयोग के विरुद्ध थे, पर गांधी का प्रस्ताव एक बड़े बहुमत से पारित हो गया। विरोध में 873 और पक्ष में 1855 वोट पड़े थे। कोलकाता में मुस्लिम लीग ने बिना किसी विरोध के इसी प्रकार का प्रस्ताव पारित किया। अध्यक्षता करते हुए जिन्ना ने रौलट एक्ट, पंजाब में हुई नृशंसता और खिलाफत को जीवन-मरण का प्रश्न मानकर किसी किस्म के असहयोग को अपरिहार्य माना।
गांधी ने ‘होमरूल लीग’ को अपने संविधान और नाम बदलने को कहा। उन्होंने यह निर्णय लिया कि अब ‘साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासन’ की बात ना कहकर ‘स्वराज’ की बात कही जाएगी और इसे ‘स्वराज सभा’ कहा जाएगा। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन, 1920 में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित होने के बाद उपनिवेशवाद को समाप्त करने वालों से स्कूलों , कॉलेजों और न्यायालयों के बहिष्कार के साथ जनता को टैक्स न देने को कहा गया।
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन असहयोग आंदोलन के साथ एक नए चरण में प्रवेश करता है। सबको ब्रिटिश सरकार के साथ किसी प्रकार का सहयोग न करने को कहा गया था। पारित प्रस्ताव में इस आंदोलन को उस समय तक जारी रखने की बात कही गई थी जब तक सरकार खिलाफत और पंजाब संबंधी अपनी गलतियां नहीं सुधारती और स्वराज स्थापित नहीं हो जाता। गांधी और कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन के साथ हाथ मिलाकर यह आशा की थी कि हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर औपनिवेशिक शासन समाप्त कर देंगे। गांधी खिलाफत के पक्ष में थे। उन्होंने अली बंधुओं – मोहम्मद अली और शौकत अली के साथ पूरे देश में खिलाफत आंदोलन चलाया था। इस आंदोलन के कारण मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन से और अधिक जुड़े। असहयोग आंदोलन हठात नहीं हुआ था। खिलाफत, पंजाब में दमन और मामूली सुधारों को ‘त्रिवेणी’ कहा गया है जिसने असहयोग के लिए परिपक्व स्थिति तैयार की।
तिलक अहिंसक आंदोलन के प्रति अधिक उत्साही नहीं थे, पर उन्होंने न तो असहयोग का विरोध किया और न किसी प्रकार का व्यवधान पैदा किया। इस आंदोलन के साथ गांधी देश के राजनीतिक परिदृश्य पर छा गए और कांग्रेस की कमान उनके हाथ में आ गई। उन्होंने राष्ट्रीय अधिवेशन को ‘जनता का बहुवर्गीय आधार’ प्रदान किया। औपनिवेशिक भारत में असहयोग आंदोलन एक बड़ा आंदोलन था। विद्यार्थी स्कूल और कॉलेज नहीं गए। वकीलों ने अदालत जाना छोड़ दिया। गांधी ने छात्रों से शिक्षण संस्थानों का त्याग करने को कहा था क्योंकि वहीं से सरकारी कर्मचारी आते थे, निकलते थे। सरकार की कानून व्यवस्था को ठप करने के लिए वकीलों द्वारा अदालतों का बहिष्कार जरूरी था। गांधी ने महिलाओं का आह्वान किया कि वे शराब की दुकानों को बंद करें और विदेशी वस्तुओं की दुकानों की पिकेटिंग करें। उन्होंने जनता को सरकार के अनुचित कानूनों का उल्लंघन करने को कहा।
असहयोग आंदोलन ने स्वाधीनता आंदोलन का दृश्य बदल डाला। जनता को गांधी ने एक साथ कई हथियार दिए – सत्याग्रह, असहयोग, व्यक्तिगत एवं सामूहिक अवज्ञा, कानूनों का उल्लंघन, जेल जाना, सार्वजनिक जुलूस, प्रदर्शन, हड़ताल आदि। एकदम नए तरीके थे जिनमें से आज भी कुछ कहीं-कहीं आंदोलनों में अपनाए जाते हैं। श्रमिक वर्ग भी हड़ताल पर गया। ग्रामीण क्षेत्र में भी आंदोलन शुरू हुए। पहाड़ी जनजातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना की। एक आंकड़े के अनुसार 1921 में 6 लाख श्रमिकों ने कुल 396 हड़तालें की। लुई फिशर ने लिखा है कि ‘असहयोग भारत और गांधीजी के जीवन के एक युग का नाम हो गया था। यह शांति की दृष्टि से नकारात्मक और प्रभाव की दृष्टि से सकारात्मक था।’ इस समय अनेक स्वाधीन राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाएं स्थापित हुईं – नेशनल मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़, गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ आदि। प्रेमचंद ने गांधी के आवाहन पर अपनी नौकरी छोड़ दी। असहयोग आंदोलन ने अल्पावधि में ही अपनी एक ऐतिहासिक छाप छोड़ी।
इस आंदोलन के दौर में अप्रैल 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आगमन पर सर्वत्र काला झंडा दिखाकर उनका स्वागत किया गया। दिसंबर 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में आंदोलन को तेज करने का निर्णय लिया गया। 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिला के चौरी चौरा में पुलिस द्वारा एक जुलूस को रोके जाने पर जनता ने उग्र होकर थाने में आग लगा दी जिसमें एक थानेदार और 22 सिपाहियों की मृत्यु हुई। गांधी इस घटना से स्तब्ध और विचलित हुए। 12 फरवरी 1922 को बारादोली में हुई कांग्रेस की बैठक में उन्होंने असहयोग आंदोलन समाप्त करने का निर्णय लिया जिसकी काफी प्रतिक्रिया हुई। कार्यकारिणी समिति की इस बैठक में पारित प्रस्ताव में नागरिक अवज्ञा का कार्यक्रम रोकने की बात कही गई। असंतोष भड़काने के अपराध में गांधी को 6 वर्ष की सजा दी गई। 31 मार्च 1922 को राजद्रोह के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया पर स्वास्थ्य संबंधी कारणों से उन्हें 5 फरवरी 1924 को रिहा कर दिया गया।
यह वर्ष असहयोग आंदोलन की शताब्दी का है। उसकी याद आज जरूरी है। इतिहास के पुराने पन्ने हमारे वर्तमान के लिए कम उपयोगी नहीं होते हैं।
5 comments
Comments are closed.